‘सत्य' अब एक बहस का विषय है
दर्शनशास्त्र में 'सत्य' के विभिन्न आयामों के बारे में आप डॉ मधु कपूर के पिछले अनेक लेखों में पढ़ चुके हैं। नए पाठक या फिर कुछ ऐसे पुराने पाठक जो इन लेखों में 'सत्य' को लेकर हुई चर्चा को फिर एक बार देखना चाहते हों तो वह इन लिंक्स पर जाकर देख सकते हैं - कैसे ढूंढें अंतिम सत्य, दस्तावेज़ों की चुप्पी और सत्य की बौखलाहट, कुछ सत्य नंगे पाँव चलते है, सत्य और असत्य का आतंक - यदि कोई जिज्ञासाएं हों तो लेखों के नीचे कमेंट्स सेक्शन खुला ही है, आप वहां लिख सकते हैं - अपनी राय और टिप्पणियां भी तथा जिज्ञासाएं भी।
‘सत्य' अब एक बहस का विषय है
डॉ मधु कपूर
तुलसीदास के जीवन से सम्बंधित इस किंवदंती से सभी परिचित है कि वे अपनी पत्नी रत्नावली से मिलने रात के अंधेरे में, मूसलधार बारिश के बीच निकल पड़े थे। फिर रत्नावली के घर की दीवार पर एक साँप को रस्सी समझकर ऊपर चढ़ गए। रत्नावली ने तुलसीदास को उलाहना देते हुए कहा: "अस्थि चर्ममय देह मम. तामें ऐसी प्रीति। होति जो श्रीराम में, होति न तौ भवभीति।..": यही वह मोड़ था जहाँ से तुलसीदास एक सांसारिक प्रेमी से रामचरितमानस जैसे अमर ग्रंथ के रचयिता बन गए।
भारतीय दर्शन जिस 'मिथ्या ज्ञान' या 'भ्रम ज्ञान’ पर गहराई से विचार करता है , वह ‘होने’ और’’न होने’ का संधिकाल कहा जा सकता है । सांप मिथ्या था पर उसने सत्य की राह दिखा दी। कबीर कहते हैं: "जो देखा सो झूठा, जो कहा सो झूठ"—यह मिथ्या ज्ञान की आलोचना है। परंतु उसी में सत्य की खोज भी निहित है —"सुनो भाई साधो, झूठे जग में साँचो राम"। मिथ्या ज्ञान ही सत्य के मार्ग का पथप्रदर्शक हो जाता है।
लोकजीवन में मिथ्या को भी ज्ञान का अंग माना जाता है। जैसे दीवार पर किसी के पैरों की छाप देखकर चोर के आने की आशंका प्रबल हो उठती है। बादल दिखे तो बारिश का अनुमान कर छाता लेकर निकलना पड़ता है। धुआँ देख कर आग का अनुमान करते है। फिर भी मिथ्या की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है,क्योंकि चोर नहीं भी हो सकता है, पानी नहीं भी बरस सकता है, आग नहीं भी लग सकती हैं। "सूरज पूरब से निकलता है", “पृथिवी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है"— ज्ञान मिथ्या होने पर भी व्यवहारिकरूप से प्रामाणिक और उपयोगी कहा जाता है, क्योंकि इससे हमारी दिनचर्या निर्धारित होती है।
मिथ्या तकनीकी अर्थ में ‘झूठा-ज्ञान’ नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि हम बोलचाल की भाषा में अक्सर ‘झूठ’ और ‘मिथ्या’ को समानार्थक रूप से व्यवहार करते है ।एक झूठा व्यक्ति इरादतन सच का इस्तेमाल कर धोखा देता है। परन्तु कई बार बड़े झूठ से बचने के लिए छोटा झूठ बोलना उचित कहा जाता है। जैसे एक चिकित्सक किसी अंग को काट देता है, ताकि पूरा शरीर नष्ट न हो जाए। भारतीय दर्शन में, विशेष रूप से महाभारत जैसे ग्रंथों में ऐसा सिद्धांत अक्सर पाते हैं कि सत्य बोलना परम धर्म है, लेकिन कुछ दुर्लभ और गंभीर परिस्थितियों में, व्यापक कर्तव्य की रक्षा के लिए ‘झूठा-कथन’ उचित ठहराया जाता है।
Immanuel Kant का तर्क है कि झूठ बोलना हमारी स्वतंत्र क्षमता पर आघात करता है, क्योंकि यह दूसरों को सच्चाई जानने से वंचित करता है, और दूसरों को वैसा ही करने के लिए बाध्य भी करता है। जॉन स्टुअर्ट मिल तर्क देते हैं कि अगर किसी परिस्थिति में सच बोलने की तुलना में झूठ बोलना अधिक भला करता है तो झूठ बोलना नैतिक रूप से आवश्यक हो जाता है। जैसे यदि किसी व्यक्ति के झूठ बोलने से किसी निर्दोष व्यक्ति या कई लोगों के प्राणों की रक्षा होती है, और सच बोलने से उनकी मृत्यु निश्चित है, तो झूठ बोलना उचित है। यदि पति-पत्नी या प्रेमियों के बीच स्नेह और संबंध को बनाए रखने के लिए कोई छोटा-सा झूठ बोलना आवश्यक हो, तो इस संबंध की मधुरता को बनाए रखना और अनावश्यक झगड़ों को टालना उचित है। मजाक या हास्य में यदि झूठ किसी को हानि पहुंचाने के इरादे से न किया जाए तो ऐसा झूठ सर्वथा मान्य है। अतएव ‘झूठ बोलना’ नैतिकता का प्रश्न है।
भारतीय दर्शन में, विशेष रूप से अद्वैत वेदान्त में, झूठ और मिथ्या के बीच एक बहुत ही गहरा अंतर देखा जाता है। यह अंतर मुख्य रूप से वास्तविकता के तीन स्तरों पर आधारित है: 'असत्य' या 'अनृत' - वह जो कभी था ही नहीं अर्थात वस्तु जिसकी तीनों कालों में कोई सत्ता नहीं है। उदाहरण के लिए :"खरगोश के सींग" या "गधे के सींग"। ये ऐसी अभिव्यक्तियां हैं जिनका वास्तव से कोई नाता नहीं है। किन्तु मिथ्या वह है जो आपेक्षिक रूप से असत्य होता है, पर व्यवहारिक रूप से सत्य माना जाता है । उदाहरण के लिए रस्सी में साँप का भ्रम काल सापेक्ष सत्य है, क्योंकि उसे देख कर डरना, भागना, चिल्लाना स्वाभाविक क्रियाएं मानी जाती है। लेकिन जैसे ही रस्सी का ज्ञान होता है, सांप का ज्ञान मिथ्या हो जाता है। साँप का भ्रम तब तक वास्तविक है जब तक रस्सी का ज्ञान नहीं होता है। मिट्टी का घड़ा वास्तविक है, जब तक वह पानी रखने के काम आता है, लेकिन जब टूट जाता है तो मिट्टी ही शेष रह जाती है। इसलिए घड़ा मिथ्या है और मिट्टी सत्य है।
अद्वैत वेदान्त में ‘जगत मिथ्या ‘ कहा ही गया सिर्फ इस मतलब से कि यह परम सत्य नहीं है। पर इसे अनैतिक नहीं कहा जा सकता है। रस्सी में सांप का प्रतीत होना बाधित हो जाता है, पर ‘सूर्य पूरब में उदित होता है’ यह ज्ञान बाधित नहीं होता है क्योंकि यह व्यवहारिक दृष्टि से सत्य है तात्विक दृष्टि से भले ही न हो। यहाँ जान-बूझकर धोखा देने की बात नहीं की जा रही है। वस्तु का सटीक ज्ञान न होना ही मिथ्या कहा जाता है। भारतीय ज्ञानमीमांसा में इसे अनिर्वचनीय ख्यातिवाद के नाम से जाना जाता है, क्योंकि मिथ्या का निर्वचन ‘हैं’ और ‘नहीं हैं’ का संधिस्थल है ।
अर्थशास्त्र के प्रणेता चाणक्य कहते है, एक सफल और न्यायपूर्ण जीवन तथा राज्य चलाने के लिए व्यावहारिक नैतिकता ही काम आती है। उन्होंने सत्य को कर्तव्यों से जोड़ कर देखा हैं। वे सत्य को एक चरम मूल्य मानने के बजाय, राज्य और समाज के हित में एक आवश्यक उपकरण के रूप में देखते हैं। इसलिए सामाजिक अव्यवस्था या अराजकता को रोकने के लिए वे साम, दाम, दंड और भेद सभी उपायों का प्रयोग आवश्यक मानते है।
सत्य तब तक मूल्यवान है जब तक वह व्यापक व्यवस्था और न्याय के लिए उपयोगी होता है। यह दृष्टिकोण दर्शाता है कि भारतीय दर्शन में भी नैतिकता को कितनी गहराई से समझा गया था। राज्य की सुरक्षा के लिए सत्य बोलना एक मूर्खतापूर्ण और खतरनाक कदम माना जाता है। यहाँ तात्विक सत्य की बात निरर्थक मानी जाती है । तात्विक रूप से मिथ्या का अर्थ होता है हमारे ज्ञान की सीमाओं की लक्ष्मण रेखा खींच देना, क्योंकि इन्द्रियां हमें एक अधूरा या विकृत चित्र दिखाती हैं। तात्विक सत्य का संबंध इस बेचैनी भरे प्रश्न से है कि "क्या हम वास्तव में वही देख रहे हैं जो है, या हम किसी मूलभूत और गहरे भ्रम में जी रहे हैं?" व्यवहारिक जीवन में तात्विक सत्य का कोई मूल्य नहीं होता है।
नैतिक झूठ वह है जिसे हम रोजमर्रा के जीवन में, व्यक्ति की नैतिकता और आचरण के दृष्टिकोण से देखते हैं। सत्य क्या है—यह जानना आवश्यक नहीं है। अस्तित्ववादी कुछ आधुनिक दार्शनिक तो यह मानते हैं कि जीवन का कोई सहज, पूर्व-निर्धारित सत्य नहीं होता है। हम स्वयं ही अपने सत्य का निर्माण करते हैं।
उत्तर-आधुनिक दर्शन की बात करें तो यहाँ भी सत्य का निर्माण भाषा, शक्ति और संस्कृति के ऊपर निर्भर करता है। इसलिए जिसे हम आँख बंद करके 'सत्य' मानते हैं—जैसे सामाजिक मूल्य, कानूनी विचार— वे सभी उस मिथ्या का हिस्सा होती हैं, जिनका हम पालन करने के लिए बाध्य होते है। उत्तर-आधुनिक काल सत्य की उपस्थिति को स्वीकार तो करता है, पर इसे धुंधलेरूप में पेश करता है, और किसी भी चीज पर विश्वास करने से रोकता है । किसी महान नेता के सम्बन्ध में कुछ ऐसे आँकड़ों को प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें भावनाएं कूटकूट कर भरी होती है। भावनाओं को कुरेदना भी सत्य के निर्माण में सहायक होता है । यद्यपि उसे नैतिक रूप से झूठा साबित किया जा सकता है। इसलिए उत्तर-आधुनिक काल में, सत्य उतना प्रासंगिक नहीं रह जाता है, उसे आसानी से उखाड़ फेंका जा सकता है, उसकी जगह नया सत्य उदित हो जाता है । तथ्य कोई मायने नहीं रखता; मायने यह रखता है कि लोग इसके बारे में क्या सोचते है और क्या विश्वास करना चाहते हैं?
नैतिक झूठ एक व्यक्तिगत विश्वासघात है, जबकि उत्तर-सत्य सार्वजनिक रूप से सच्चाई पर किया गया एक आक्रमण है, जहाँ वस्तुनिष्ठ सत्य को ढूँढ़ना, स्वीकार करना और बचाव करना बहुत मुश्किल हो जाता है। सच तो यह है कि सत्य अब खोजने लायक तथ्य नहीं रहा, बल्कि यह एक लड़ने लायक विचार बन गया है, क्योंकि ‘अपनी अपनी राय’ प्रधान हो गई है । टीवी की बहसों में अक्सर देखा जाता है सभी अपने अपने पक्ष के बचाव में खड़े रहते है लेकिन उसमे सत्य को ढूँढना नामुमकिन हो जाता है। सत्य या झूठ एक रणनीति हैं, जो तथ्यों को विकल्प रूप में प्रस्तुत करती है और उसे तथाकथित-सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है । लगता है सत्य थककर उदासीन हो चुका है, क्योंकि जवावदेही करने की उसकी ताकत अब नहीं रही । यह भी सत्य का एक वैध दृष्टिकोण है
अंतर यह है कि नैतिक झूठ बोलने वाला व्यक्ति भीतर ही भीतर पकड़े जाने की आशंका से ग्रस्त रहता है—उसके विश्वास की नींव डगमगाने लगती है। इसके विपरीत, उत्तर-सत्य की प्रकृति ही निरंतर नयेपन में निहित है: एक झूठ उजागर होता है, तो उसकी जगह तुरंत दूसरा, तीसरा, चौथा झूठ प्रस्तुत कर दिया जाता है—जिसे सत्य की खोज नहीं, बल्कि सत्य का विस्तार कहा जा सकता है। इनके बीच भेद समझने का एक सूक्ष्म तरीका यह है कि झूठ बोलने वाला व्यक्ति कहीं न कहीं अपने अंतरतम में सत्य का सम्मान करता है—वह जानता है कि वह सत्य से विचलित हो रहा है। जबकि उत्तर-सत्य किसी अंतिम सत्य को स्वीकार नहीं करता; वह किसी एक आश्रय को अंतिम मान्यता नहीं देता है । वह सत्य को एक स्थिर वस्तु न मानकर एक अनंत प्रक्रिया, एक सतत खोज समझता है।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।