शून्य शिखर पर अनहद बाजे
डॉ मधु कपूर की 'ज्ञान' के विभिन्न आयामों पर चल रही श्रृंखला में हाल ही में आपने "सत्य' अब एक बहस का विषय है" और उससे पहले "संदेह की टटोलन, ज्ञान की सीमा और विश्वास का धरातल" जैसे लेख पढ़े होंगे. इसके पहले भी विभिन्न लेखों में वह ज्ञान और सत्य पर दर्शनशास्त्र के विभिन्न सिद्धांतों के अनुसार चर्चा कर चुकी हैं. यदि पुराने लेखों का का स्मरण करें तो इस सन्दर्भ में उनका करीब पौने दो वर्ष पहले इसी वेबपत्रिका में प्रकाशित "मैं कहता आँखिन देखी" भी बहुत महत्वपूर्ण है. डॉ मधु कपूर ने हमें बताया है कि ज्ञान और सत्य की इस श्रृंखला का उनका यह अंतिम लेख है किन्तु साथ ही आश्वस्त भी किया है कि दर्शनशास्त्र के अन्य विषयों पर उनके लेख जारी रहेंगे. हमारी वेबपत्रिका के लिए यह सचमुच गौरव का विषय है कि उन्होंने अपने इन महत्वपूर्ण लेखों के लिए हमारे मंच को निरंतर स्वीकार किया हुआ है.
शून्य शिखर पर अनहद बाजे
डॉ मधु कपूर
ज्ञान को विषय-सापेक्ष कहा जाता है, अर्थात ज्ञान का कोई न कोई विषय अवश्य होता है— स्थान और काल जिसका आधार होता है। जैसे ‘भूतल पर घट है’ — इस ज्ञान का विषय है ‘भूतल’, ‘घट’ तथा ‘उनका सम्बन्ध’। इसको जानने वाला ज्ञाता ‘मैं हूँ’ जो विषयी कहा जाता है। स्थूल रूप से संसार के सभी विषय एक तरफ ज्ञेय यानी ज्ञान के विषय होते हैं, दूसरी तरफ रह जाता है अकेला ज्ञाता (चेतना) जो समस्त जगत को ज्ञान का विषय बनाता है, पर स्वयं से अनजान ही बना रहता है।
प्रश्न है, क्या चेतना को ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है? इस प्रसंग में डेविड ह्यूम का विख्यात वक्तव्य है कि जब भी मैं स्वयं को ज्ञान का विषय बनाने की चेष्टा करता हूँ तो कुछ संवेदनाएं या अनुभूतियाँ—जैसे क्रोध, प्रेम, प्रत्यक्षादि —पकड़ में आते हैं, पर "मैं" यानी चेतना की कोई स्थायी सत्ता मुझे उपलब्ध नहीं होती है। ह्यूम का वक्तव्य यहीं आकर थम जाता है, वे मानते हैं कि ऐसी कोई सत्ता होती ही नहीं है।
पर भारतीय दार्शनिक उनसे आगे जाकर उसे आत्मा की संज्ञा देते हैं। वास्तव में अनुभवों का जो क्षणिक धाराप्रवाह है, उसे एकीकृत करने वाली कोई सत्ता अवश्य होनी चाहिए, अन्यथा सालों के अनुभवों को स्मरण करना भी दुष्कर हो जायेगा। अनुभवों को ज्ञान का विषय तो बनाया जा सकता है, पर ज्ञाता यानी अनुभवों को जानने वाला, अनुभव का विषय नहीं बन सकता। जब भी ‘मैं’ स्वयं को दो टुकड़ों में बाँट कर विषय और विषयी बनना चाहता हूँ, तो वह ज्ञाता की सत्ता अनुभव के परे रह जाती है।
एक सहज उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जैसे आँख वह साधन है जिससे इस विशाल ब्रह्माण्ड के कुछ सौंदर्य दृश्यों का उपभोग कर सकते हैं, पर आँख स्वयं को नहीं देख सकती, क्योंकि वह द्रष्टा है, दृश्य नहीं। यदि आँख स्वयं को देखना भी चाहे, तो उसे दर्पण की आवश्यकता होगी, और दर्पण में भी वह अपना प्रतिबिम्ब ही देखती है, स्वयं को नहीं। कहने का तात्पर्य है द्रष्टा को द्रष्टा रूप में देखना असंभव है। इसी तरह ज्ञाता अनुभवों का प्रकाशक तो है, पर स्वयं ज्ञान का विषय (ज्ञेय) नहीं बन पाता है । इसी चेतना को भारतीय दर्शन में साक्षी चैतन्य कहा गया है—जो सभी अनुभवों के पीछे अदृश्य रूप से उपस्थित रहती है, जिसे ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता है।
"शून्य शिखर पर अनहद बाजे" एक प्रतीकात्मक वाक्य है, जिसमे विचारों, इच्छाओं और 'मैं' के अहम का पूर्ण विलय है। यह एक ऐसी आध्यात्मिक ऊँचाई है, जहाँ साधक अपने विकारों, वासनाओं और पूर्वग्रहों को त्यागकर निरपेक्ष स्थिति में पहुँच जाता है। शून्यता अभाव नहीं, बल्कि असीम स्वतंत्रता है, जो इन्द्रिय, मन और बुद्धि के परे की स्थिति है। यदि ‘इन्द्रियों’ से जान सकता तो रूप, रस, गंध ,स्पर्श और शब्द होता । यदि ‘मन’ में जानने की सामर्थ्य होती तो सुख-दुःख स्वरूप होता, यदि ‘बुद्धि’ में जानने की क्षमता होती तो चिन्ता, विचार इत्यादि जैसा कुछ होता। पर वह जानने वाला इन सबसे पृथक है। यह केवल अनुभव किया जा सकता है। दर्शन इस जानने वाले का पीछा करता है पर असमर्थ होकर उसे ‘शून्य’ पर ही छोड़ने को विवश हो जाता है। Kant इसे transcendental unity of apperception कहते है। पर Kant के कथन में आध्यात्मिकता का कोई पुट नहीं है। भारतीय दर्शन इसे जीवन की उस परम स्थिति को मानता है जब मन का कोलाहल 'शून्य' हो जाता है, तभी भीतर का वह अनहद संगीत सुनाई देता है।
शंकराचार्य कहते हैं: "नाहं कर्ता, साक्षी केवलं" (मैं कर्ता नहीं हूँ, केवल साक्षी हूँ)। ‘साक्षी’—अर्थात् जिसकी आँखों के सामने सब घटित होता है, पर जो स्वयं अप्रभावित और अदृश्य रहता है, जिस तरह दर्पण के सामने जो भी वस्तु रखी जाती है, दर्पण उसे ग्रहण तो करता है, पर कभी उसे सहेजता नहीं है। साक्षी भी दर्पण की तरह शून्य ही होता है।
लौकिक जीवन में "देखना" अधिकतर इंद्रियजन्य और प्रयोजनमूलक होता है। हम वस्तुओं को देखते हैं ताकि उनका उपयोग कर सकें। वह दृश्य को पकड़ता है, पर दृश्यता की गहराई में नहीं उतरता। लौकिक दृष्टि में "देखना" अक्सर पूर्वगृहीत संस्कारों या विचारों से रंगा होता है (जैसे किसी नौकरी के साक्षात्कार में पक्षपातपूर्ण रवैये का इस्तेमाल करना, अथवा किसी राजनैतिक पक्ष का समर्थन करना, अपनी पसंद के मित्र चुनना इत्यादि )। यद्यपि व्यवहारिक जीवन में इनकी आवश्यकता को ठुकराया नहीं जा सकता है, फिर भी इसे निरपेक्ष नहीं कहा जा सकता है ।
बौद्ध दर्शन में, "दृष्टि" का शुद्ध होना यानी फ़िल्टररहित होना आवश्यक माना गया है। बौद्ध परंपरा उसे देखने को कहती है, जो कुछ भी घटित हो रहा है, पर उससे तादात्म्य स्थापित करने का निषेध करती है। बौद्ध ध्यान की पद्धति विपश्यना यानी विशेष रूप से देखना साक्षी-भाव का ही एक रूप है—जहाँ हम अनुभवों को क्षणिक एवं निर्विकल्प रूप में देखते हैं।
आचार्य नागार्जुन की 'शून्यता' इसी साक्षी भाव की चरम सीमा है: ’नैव स्वं न परं न उभयं न अस्ति न नास्ति’। यह वह अवस्था है जहाँ विषयों की स्वतंत्र सत्ता का भ्रम टूट जाता है, और ज्ञाता एवं ज्ञेय का द्वैत विलीन हो जाता है। उस्ताद अमज़द अली खाँ का वक्तव्य इसी शून्यता को दर्शाता है, जब वे कहते हैं: ‘सरोद बजाते हुए एक ऐसी स्थिति आती है जब मैं नहीं, सरोद खुद ही बजने लगता है।’ यहाँ कलाकार (ज्ञाता) और कला (ज्ञेय) के बीच की दूरी मिट जाती है।
लौकिक जीवन में साक्षी भाव का प्रयोग जीवन जीने की एक शैली है। जब हम क्रोध, मोह, या भय को देखते हैं—बिना उनसे जुड़ते हुए—तब हम साक्षी रूप से देखते है उस पर प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। यह भाव हमें मुक्ति देता है तादात्म्य-बंधन के भाव से । व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक संदर्भ में जब कोई व्यक्ति गहरे क्रोध या दुःख की लहर में होता है, तो साक्षी भाव उसे डूबने से बचाता है। वह यह नहीं कहता कि "मैं क्रोध हूँ" बल्कि वह यह देख पाता है कि "मेरे भीतर क्रोध की लहर उठ रही है"। यह भाव को क्रिया से अलग करने की कला है, जो प्रतिक्रिया को अंतर्दृष्टि में बदल देती है। कानूनी और सामाजिक संदर्भ में यहाँ साक्षी वह व्यक्ति होता है जो किसी घटना का प्रत्यक्षदर्शी होता है। उसका कार्य है सत्य का बयान देना, न कि निर्णय लेना या पक्ष लेना (जैसे महाभारत में संजय का तटस्थ वर्णन)। सिमोन दि बुवा ने ध्यान को निर्लिप्त अवलोकन कहा—जहाँ हम किसी वस्तु, व्यक्ति, या पीड़ा को पूरी उपस्थिति से देखते हैं, पर हस्तक्षेप नहीं करते। यह वह मौन है जो उदासीनता नहीं, बल्कि करुणा की पराकाष्ठा है। पीड़ित व्यक्ति के दुःख से हम भी पीड़ित होते है, पर उसका ख्याल रखना उदारता का सबसे दुर्लभ और शुद्ध रूप है। यह दूसरे की पीड़ा को भीतर तक अनुभव करता है, पर उसे स्वतंत्रता देता है कि वह स्वयं अपने अनुभवों से जीवन का अर्थ खोजे।
तभी 'अनहद बाजे' - भीतर का वह मौलिक संगीत सुनाई देता है, जो किसी बाहरी वाद्य पर निर्भर नहीं करता है; यह शुद्ध उपस्थिति का अनुभव है। कई बार देखा जाता है सांत्वना देने के लिए कोई शब्द नहीं मिलते है, लेकिन ‘किसी की करुणामय उपस्थिति मात्र’ ही दिलासा देती है । साक्षी भाव का यह उच्चतम रूप है। किसी आत्मीय का सहज रूप से मृत्यु-वरण का अनुभव भी साक्षी भाव का सर्वोच्च उदाहरण है—जहाँ जीवन को देखने की कला, दखलंदाज़ी की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान हो जाती है।
वास्तव में, साक्षी भाव 'जीवन को जीने की कला' के साथ साथ, 'जीवन को देखने की कला' भी है। यह वह दृष्टि है जो न केवल देखती है, बल्कि भीतर तक महसूस करती है, बिना बंधन के, बिना अपेक्षा के। यह वह मौन स्थान है जहाँ चेतना का कर्ता-भाव गल जाता है। इस 'शून्य शिखर' की स्थिरता में, प्रत्येक क्षण 'अनहद बाजे' का संगीत सुनाई देता है।।इस स्थिति में पहुंचकर व्यक्ति के भीतर बिना तारों के ही वीणा बजने लगती है। कबीर दास जी के शब्दों में ’अनहद बाजा बाजई, बिन ही तार, बिन तंती’। यह वह परम ज्ञान है जो विषय और विषयी के परे है, केवल शुद्ध 'द्रष्टा स्वरूप' में स्थित होना है।
इस प्रसंग की समाप्ति में साहित्यकार अज्ञेय की रचना ‘असाध्य बीणा’ का उल्लेख करना चाहूँगी, जहाँ राजा के सामने किरीटी-तरु से बनी वीणा को साधने के लिए प्रियंवद आता है। यह वीणा तभी बजती है जब साधक उसमें पूरी तरह से तल्लीन हो जाए और अपने अहं को शून्य कर दे —
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
‘मेरे हार गये सब जाने माने कलावंत,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका ।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गई ।
...वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया ।
धीरे धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया
....अवतरित हुआ संगीत स्वयंभू
...मै तो डूब गया था स्वयं शून्य में –
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने सौंप दिया था –
सुना आपने जो वह मेरा नहीं, न वीणा का था:
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य, वह महा मौन ...
जो सब में गाता है ।
**********

डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।