लालटेन की लक्जरी - कहानी रोशनी आने तक की
ऐसे लोग जो अपने छुटपन से ही बड़े शहरों में रहते आए हैं, उन्हें इस बात का बिल्कुल अन्दाज़ नहीं है कि बिजली पहुँचने से पहले सूरज ढलने के बाद गाँवों में रोशनी कैसे होती थी।भारत में विद्युतीकरण की कहानी अभी बिल्कुल ताज़ी ही है। सत्येंद्र प्रकाश बहुत संवेदनशील ढंग से इस आलेख में लालटेन के माध्यम से यह बात रहे हैं कि गाँव में रोशनी आने का क्या अर्थ है - बिजली की रोशनी तो दूर, उनके गाँव में लालटेन आना भी किसी क्रांति से कम ना था। छोटे टिमटिमाते दिए (जिसे उनके गाँव में ढिबरी कहा जाता था) से 1961 में पहली बार लालटेन और फिर बिजली पहुँचने तक की रोमांचकारी यात्रा को उन्हीं के शब्दों में पढिए।
लालटेन की लक्जरी - कहानी रोशनी आने तक की
सत्येन्द्र प्रकाश
आज भी मेरी उपस्थिति है। बदले काल खंड में मेरी कोई प्रासंगिकता है भी, मुझे स्वयं संदेह है। फिर भी मैं हूँ। मेरी प्रासंगिकता या आवश्यकता भले ना हो, बुरे वक्त में साथ बने रहने का कुछ लिहाज ही सही। या फिर बीते दिनों के अँधेरे की दस्तक कभी कभी ही सही अब भी दिल दहला देती है जिसकी पुनर्वापसी के भय से मेरी मौजूदगी सलामत है। जो भी हो मैं आज भी बनी हुई हूँ।
पर अब वो पहले वाली बात नहीं रही। जिस शिद्दत से हर शाम मुझे याद किया जाता रहा वो गुजरे जमाने की बात लगने लगी है। घर के अंदर अपनी गरिमापूर्ण उपस्थिति को याद कर दिल व्याकुल हो उठता है। एक सम्मान के साथ सबके नजर के सामने बने रहने की आदत सी बन गई थी। अब किसी कोने में पड़ी रहती हूँ। हर रोज किसी की नज़र में आ ही जाऊँ, यह भी ज़रूरी नहीं। मेरा ध्यान किसी को हो आया, यह मेरा सौभाग्य। नहीं तो बीते दिनों को याद कर मन ही मन कुढ़ने को अपनी नियति मानने की मजबूरी। तो आज मेरा वजूद है, और नहीं भी।
यूँ दस-एक बरस पहले तक तो अपने ठाठ रहे हैं। बच्चे-बड़े सभी की पलकों में बसती थी। क्या शान होती थी मेरी। वैसी शान विरलों को ही नसीब होती है। पर मैँ नसीबों वाली थी। मैं ही क्या, पीढ़ी दर पीढ़ी हम उसी शान से बने रहे। हमारी परदादी की कहानी दादी अक्सर सुनाती थी। जिस दिन उनका आविर्भाव हुआ था, पूरे गाँव में उल्लास था। 1961 की बात है। पंडित नारद पाण्डेय और उनके भतीजों का नया मकान बना था। ईंट,सीमेन्ट और गारे-चूने से बना पक्का मकान। छपरैल नहीं, छतदार। छतदार पक्का मकान चूने की पुताई और गेरू, किरिमिची और नील की नक्काशी से भव्य बन पड़ा था। उस इलाके में अपनी तरह का पहला मकान था। गाँव के मुहाने पर अवस्थित यह सुन्दर घर गाँव में प्रवेश पर अतिथियों का स्वागत करता प्रतीत होता। पीने के पानी के लिए पहला चापाकल भी इसी घर के दरवाजे पर लगा था जो आने जाने वालों को पानी पीने के बहाने अपनी ओर आकर्षित कर लेता। एक पंथ कई काज। जाली युक्त चापाकल का ठंडा शीतल पानी, घर को करीब से निहारने का अवसर और इसके सहन में घड़ी दो घड़ी विश्राम, सब एक साथ।
अपनी कर्मठता और पुरुषार्थ से पंडित नारद पाण्डेय और उनके भतीजों ने यह मुकाम हासिल किया था। महाभारत, श्रीमद भगवद्गीता, गीत गोविंद और सुर सागर जैसे ग्रंथों के उद्धरण को सरल, सहज और सुग्राह्य बना लोगों को सुनाने की कला में पंडीजी (पंडित नारद पाण्डेय) का कोई सानी नहीं था। यद्यपि उनकी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी, स्वाध्याय से उन्होंने इन ग्रंथों को साधा था और पूरी प्रमाणिकता के साथ पंडितों की सभा में इन पर चर्चा करने की दक्षता हासिल की थी। परिवार के बच्चे उनकी गोद में खेलते-कूदते तमाम श्लोक और स्तोत्र कंठस्थ कर लेते थे।
बेटे चन्द्रशेखर के भारतीय राजस्व सेवा में चयन के बाद पंडित जी की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गए थे। चंद्रशेखर को बौद्धिक प्रखरता और प्रभावशाली व्यक्तित्व विरासत में मिली थी। संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक या अन्य क्लास वन सेवा में चयन आज भी परिवार और आस-पड़ोस को गौरवान्वित करती है। तो पचास के दशक में राजस्व सेवा में चयन से परिवार और गाँव समाज का मान बढ़ाने का गौरव को गाँव कभी भूल सकता है क्या। चंद्रशेखर के चयन की सूचना गाँव को ढोल-नगाड़ों की थाप के साथ मिली। पूरे गाँव के लिए वो क्षण अद्भुत उमंग का था। गोपालगंज (जो कालांतर में अलग जिला बना) को पहला सिविल सर्वेन्ट देने का सौभाग्य जो मिला था इस गाँव को। यह अज्ञान के अंधकार को खुली चुनौती थी, शिक्षा का दमदार आगाज! पढ़ाई में असाधारण प्रतिभा के धनी चंद्रशेखर, इस उपलब्धि से परिवार और समाज के लिए ज्ञान मूर्ति और प्रेरणा पुंज बन गए। संस्कृत, अर्थशास्त्र और इतिहास की विशद जानकारी थी उन्हें। सिविल सेवा परीक्षा में इन्हीं विषयों को चुना था। ज्योतिष और अध्यात्म को स्वाध्याय से समझा बूझा और गुना था। आने वाले समय में जिन्हें उनसे सीख लेनी थी और वो मुकाम हासिल करना था, कर लिया।
तो अब वापिस आती हूँ अपनी कहानी पर! उन दिनों अनुपलब्धता और अभाव के कारण पढ़ाई के लिए केवल ढिबरी का प्रकाश ही उपलब्ध था। ढिबरी की हिलती डुलती टिमटिमाती लौ का अंधकार से जूझने का प्रयत्न नाकाफ़ी होता। पर कुछ कर गुजरने के जज़्बे वाले बच्चे इस नाकाफ़ी प्रकाश को पर्याप्त समझ पढ़ाई में डटे रहते थे। चंद्रशेखर उन्हीं बच्चों में एक थे। जिन आँखों को यह कष्ट झेलने की मजबूरी रही हो, वही इसका सही मर्म और दर्द समझ सकती हैं। धुआँ से आँखों में जलन और नाक में कालिख की मोटी परत ढिबरी में पढ़ाई की सौगात होती।
नए मकान के साथ इस ना खत्म होने वाली अंधकार और आने वाली पीढ़ियों के आँख और नाक को इस तकलीफ से निजात दिलाना चन्द्रशेखर की प्राथमिकता थी। इसी क्रम में मेरी परदादी लालटेन का गाँव में आगमन हुआ था। घरभोज की पूजा और भोज दोनों दिन में सम्पन्न हो चुके थे। फिर भी ग्रामवासी शाम ढलने तक पंडीजी के नए घर के इर्द गिर्द ही डटे हुए थे। गाँव वालों ने ऐसी चर्चा सुनी थी कि पंडीजी के नए घर में ढिबरी नहीं जलेगी। ढिबरी के धुएं से चुने की सफेदी से चमकती दीवार काली ना हो जाए। लालटेन नाम की कोई नई चीज़ आ रही है। रोशनी के लिए उसे ही जलाया जाएगा।
ढिबरी वाले गाँव को लालटेन का नाम तक नहीं मालूम था। पंडीजी का गाँव ऐसा अकेला गाँव नहीं था, लगभग सभी गाँवों की यही स्थिति थी। लालटेन क्या होती है, कैसी होती है ना किसी ने देखा था ना किसी को पता था। प्रकाश के इस यंत्र को जानने देखने के लिए पूरा गाँव उत्सुक था। फिर बहुतायत ग्रामवासियों का उनके घर के आस पास शाम तक मंडराना कोई अचंभा नहीं था। दिन ढले, लालटेन जले और एक झलक मिले। सब की यही लालसा थी।
गोधूलि होते ही परदादी लालटेन सज-धज कर घर की देहरी से बाहर निकलीं। बिल्कुल एक नई नवेली दुल्हन की तरह। माथे पर क्या तेज था, एक छोटे प्रकाश पुंज सा। तरुण युवती की लचकती कमर सी, काँच के बेलनाकार आवरण से घिरी एक छोटी सी लौ, छोटी पर ढिबरी की लौ से फिर भी ठीक-ठाक बड़ी! ये लौ टिन की साँचे से जकड़ी एक गोलाकार छोटे आधार (base) पर अटकी सी खड़ी थी। प्रथम द्रष्टया मेरे परदादी लालटेन को देख गाँव वालों के मन में जो भाव पैदा हुआ वही बता रही हूँ। लोगों ने यंत्र का करीबी मुआयना किया, उनकी समझ थोड़ी बढ़ी, तो पता चला गोलाकार बेस मिट्टी का तेल भरने की छोटी सी टंकी थी। बर्नर की मदद से बत्ती टंकी के अंदर तेल में डूबी हुई थी जिसका एक छोटा सिरा बर्नर के ऊपरी हिस्से से बाहर दिख रहा था। एक पिन बर्नर से जुड़ी हुई टंकी और शीशे के बीच से बाहर की ओर निकल आई थी। इसे चुटकी से घूमाकर बत्ती को ऊपर नीचे खिसकाई जा सकती थी ताकि लौ छोटी बड़ी हो सके।
इस शान-औ-शौकत से गाँव के रूबरू हुईं थीं मेरी परदादी। पूरे गाँव में अकेली, वन पीस! बिल्कुल लक्जरी आइटम की तरह। वर्षों गाँव में वर्चस्व रहा। हर शाम गोधूलि के समय बरामदे की छज्जे से लटक कर पूरी रात अपने अस्तित्व का आभास जताना बदस्तूर चलता रहा। बच्चों के पढ़ाई के समय रात्रि के प्रथम पहर और सुबह ब्रह्म मुहूर्त में छज्जे से उत्तर बड़ी सी चौकी (तख्त) के बीचों बीच शान से विराजमान हो जाना भी नियम का हिस्सा बन गया था। उन्हें साफ कर जलाने की जिम्मेवारी दिन के अनुसार बच्चों में बाँट दी गई थी। खेल कूद कर लौटने के बाद तय ड्यूटी के मुताबिक बच्चा परदादी लालटेन के शीशे की सफाई करता, टंकी में तेल भरता, काट छाँट बत्ती को आकार देता और फिर बत्ती जला शीशा बंद कर देता।
अपनी किताबें और कॉपियों के साथ बच्चे उनके चारों तरफ गोलाकार घेरे में बैठ कर पढ़ाई करते तो उनकी छाती गर्व से चौड़ी हो जाती। अपने प्रकाश से बच्चों को आलोकित पाकर एक आत्मतोष होता। ढिबरी की तुलना में अपने आलोक में बच्चों की नन्ही आँखों को आराम दे सुकून महसूस होता। मन में एक दबी ख्वाहिश भी होती। ढिबरी के प्रकाश में अगर यह तेज था कि वो जिले को उसका पहला सिविल सर्वेन्ट दे सके, तो जिन बच्चों को लालटेन की लक्जरी हासिल थी उनसे अच्छी उपलब्धि की उम्मीद बँधना स्वाभाविक था।
समय निकलता गया। लालटेन की पीढ़ियाँ बदलती रही और पंडीजी के परिवार की भी। पंडीजी की आने वाली पीढ़ियों को परदादी के बाद दादी और माँ लालटेनों की लक्जरी मिलती रही। इस लक्जरी के बीच कई पल ऐसे भी आए जब रातें काली होती, बगैर लालटेन की किसी गलती के। यद्यपि समय के साथ बच्चों की सजगता बढ़ी और लालटेन से धुआँ ना निकले इसके लिए उनकी रख रखाव साफ सफाई का विशेष ध्यान रखा जाने लगा। लालटेन की टंकी में तेल महीन धोती के टुकड़े से छान कर भरा जाता ताकि गंदगी की वजह से धुआँ ना निकले और लालटेन का शीशा काला ना हो। पर 80-90 की दशकों की कौन कहे उसके बाद भी वर्षों तक स्वच्छ मिट्टी के तेल की उपलब्धता आसान नहीं थी। और अगर तेल गंदगी भरा हो तो तेल छानने के बाद भी धुआँ निकलेगा और शीशों में कालिख पुतेगी।
जब शीशे पर कालिख की परत जम जाती, जलती बत्ती की रोशनी उसके अंदर ही कैद हो कर रह जाती। बच्चों की आँखों के सामने घुप्प अंधेरा छा जाता। बच्चे फिर शीशा निकाल उसे साफ करते, बत्ती काट-छाँट के बाद जलाकर पुनः पढ़ाई आरंभ करते। पलक झपकते ही शीशा फिर कालिख का चादर ओढ़ लेता। यह बच्चों के समझ से परे होता। फिर एक बार सफाई की प्रक्रिया पूरी होती और फिर कालिख का कमाल! बार बार प्रक्रिया दुहराने की हड़बड़ी में बच्चों के हाथ जलते और काले होते रहते। हम लालटेनों को बच्चों पर तरस तो आता लेकिन हम बेबस थीं।
कभी ऊँची आवाज में उन्हीं बच्चों को पढ़ते सुना था, कोई महापुरुष आर्थिक तंगी के कारण अपने बाल्यकाल और छात्र जीवन में सड़क के लैम्प पोस्ट की रोशनी में पढ़ाई करते थे। हम सोचते उनकी दीनता फिर भी समृद्ध थी। कम से कम बिजली की रोशनी, चाहे सड़क के लैम्प पोस्ट ही की क्यों न हो, मयस्सर तो थी। उन्हें अपनी शिक्षा साधना में लालटेन की लक्जरी वाले इन बच्चों की तरह अपने हाथ जलाने और काले तो नहीं करने पड़ते थे।
यह दशा लालटेन की लक्जरी वाले पंडीजी के घर के बच्चों की ही नहीं थी। लाखों घरों के बच्चों को तो लालटेन भी नसीब नहीं था, दशक भर पहले तक। यह सोचकर हम लालटेनों का दिल भर आता है।
लक्जरी-स्टेटस की छोड़ें, यदा कदा अस्तित्व पर खतरे की खबरें भी आती रहती। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में गाँव में बिजली आने की खबर आने लगी। खंभे भी गड़ गए। खंभों से तारें खींच गई। ट्रांसफार्मर नाम का कोई यंत्र भी चार खंभों पर टिक के खड़ा गया। सम्पन्न घर उससे तार से जुड़ गए। शीशे की कोई छोटी गोल वस्तु जिसका दूसरा छोर पतला होता, दीवारों में या छत से लटकते तार के खाँचें में फिट हो गई। फिर कोई बटन ऊपर नीचे किया गया और वो शीशे की वस्तु जिसे बल्ब कहा जा रहा था, जल उठी। हमारे पाँवों तले जमीन खिसक गई। लगा हम लालटेनों की प्रजाति ही विलुप्त हो जाएगी। पर हमारी आशंका ज्यादे देर तक नहीं टिकी। फट की आवाज के साथ बल्ब से रोशनी चली गई। यह सिलसिला कुछ दिन चला और फिर उन तारों और बल्बों की शक्ति क्षीण हो गई। वर्षों तक बिजली गाँव वालों से आँख मिचौली करती रही। पर जैसे उसे भी गाँव की जिंदगी और गँवार लोग रास नहीं आए और उसने लगभग सदा के लिए गाँव से मुँह मोड़ लिया।
1990 के दशक के उतरार्द्ध में हमारी शान को बिहार के सपनों में पिरोया गया। राजनीति और शासन पर हमारी गहरी छाप चढ़ी। लोगों की पलकों से हम उनके दिल में उतर गए। सालों उनके दिलों पर राज करने का गौरव भी पा लिया।
किन्तु काल चक्र कब थमा है। कुछ ही साल पहले, अचानक मृत तारों में जान फुँक गई। उनमें बिजली का करेंट दौड़ने लगा। बल्ब जल उठे। इस बार न तार गले, न बल्ब फटे और बुझे। हर रात घर को ये बल्ब रोशन करते रहे। जो संशय था सच बन सामने खड़ा था। अब हमारी जरूरत नहीं रह गई थी। लोगों के दिलों से उतर घर के कोनों में पहुँच गए, घर वालों की नजरों से परे। जिस भय की बात शुरू में हुई है, शायद उसी कारण हम अब तक घरों के बाहर नहीं हुए।
ऐसे में अपने लक्जरी स्टैटस का क्या रोना! हमारा वजूद भले खतरे में हो, हमें एक खुशी जरूर है। अब मासूम आँखों में धुएं के आँसू नहीं आते। हमारे शीशे की तपिश उनके नन्हें नाजुक हाथों को नहीं जलाती। न ही हम अपनी कालिख उन नाजुक हथेलियों से पोंछते। हम शिक्षा साधना में योगदान के पुण्य काज से भले ही वंचित हो गई हों, अलबत्ता, अब हम ‘विंटेज आइटम’ के रूप में नव-धनाढ्यों के फार्म हाउस और हेरिटिज प्रॉपर्टी में सजने का गौरव पा रही हैं।
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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ अध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।