जनवरी की एक सर्द सुबह
सत्येन्द्र प्रकाश कुछ माह के अंतराल के बाद फिर एक भाव-प्रवण कथा के साथ लौटे हैं। इस वेब-पत्रिका के लिए उन्होंने पहले जो उत्कृष्ट कथाएँ लिखीं थीं, उनसे आज की कथा भिन्न तो है लेकिन बुनावट और शिल्प वही है जो पाठकों ने पहले खूब पसंद किया था। नए पाठक चाहें तो उनकी पिछली कुछ कहानियों में से कुछ इन लिंक्स पर देख सकते हैं - और कल्लू राम को प्यारा हो गया , उपहार और मनभरन का अनाध्यात्मिक अध्यात्म । आज की कहानी का विषय हम यहाँ नहीं बता रहे। आप स्वयं नीचे पढ़िये।
जनवरी की एक सर्द सुबह
सत्येन्द्र प्रकाश
उस दिन काफी ठंड थी। मैं नींद से जग तो गया था लेकिन बिस्तरे में ही था। मोटी रज़ाई में दुबका हुआ। बचपन में ऐसी आज़ादी स्वतः मिल जाती है। ठंड में रज़ाई में छुपे रहना ही बच्चे के हित में होता। रज़ाई से बाहर उछल-कूद में सर्दी लगने का अतिरिक्त खतरा रहता। मेरी उम्र लगभग तीन साल होगी। तो पढ़ाई लिखाई या स्कूल का कोई दबाव था नहीं। रज़ाई में छुपा हुआ दरवाजे को ताक रहा था। बाबूजी जो आने वाले थे!
रोज़ की तरह आज भी लिहाफ ओढ़े बाबूजी आए। मैं बिस्तरे से उछल उनसे लिपटने को हुआ। अक्सर मैं ऐसा करता था। पर अचानक उनके चेहरे पर नज़र पड़ी। ये क्या! आज उनकी आँखों में आँसू थे और उनके चेहरे पर एक अजीब सी उदासी थी। माई (माँ) को देख बोले, “शास्त्री जी नहीं रहे” और इसके साथ ही रो पड़े। अश्रु कण जो अब तक आँखों से उलझे थे बह चले। मैं एकदम सहम गया, बाबूजी को रोते तो पहली बार देखा था।
मुझे लगा हमारे पड़ोसी शास्त्री जी जिनके घर बाबूजी समाचार सुनने जाते थे, को कुछ हो गया। माई को भी शायद आरंभ में ऐसा ही लगा। माई को तो किसी के ‘नहीं रहने’ का मतलब पता था। उनकी आँखे भी नम हो गईं। लेकिन मैं बस इतना ही समझ पाया कि कुछ बहुत ज़्यादा ही गलत हुआ है जो बाबूजी भी रोने लगे। बाबूजी के आँसू और इस खबर से यह ठंडी सुबह जैसे जम सी गई। माई स्तब्ध दिख रही थी। क्यों ना दिखें, बात एक अच्छे पड़ोसी की थी। मेरा मन भी कुछ समझने की कोशिश करने लगा।
जनवरी की सुबह सर्द ही होती है। अक्सर कोहरे की चादर में लिपटी आती है। सूर्य के प्रकाश और ताप दोनों को चुनौती देती। मालूम होता ठंड से भय खा कर सूर्य ने स्वयं कोहरे की चादर ओढ़ ली हो। शायद भूल गया हो कि ताप और प्रकाश का स्रोत वही है। ओस कण हवा के साथ झूमते-मटकते शीत लहर को लय देने लगते, और सर्दी का तांडव चरम पर पहुँच जाता। उस दिन शास्त्री जी वाली खबर ने उस सर्द सुबह के दंश और चुभन को सौ गुना बढ़ा दिया।
जनवरी का आमद बिल्कुल उस साल भी अपने स्वभाव के अनुरूप ही था। कोहरे में दुबकी सहमी सुबह का दायरा विस्तार पा रहा था, और सूर्यदेव पूरे दिन छुपे फिर रहे थे। नित्य अर्घ्य देने वालों को भी समयानुसार आभासित दिशा में जलार्पण कर संतोष करना पड़ रहा था। जिन कार्यों के समय में परिवर्तन की गुंजाइश थी उसे स्थगित करना ही मुनासिब था। किन्तु अनिवार्य कार्यों का निष्पादन तो समयानुसार ही होता।
आकाशवाणी समाचार का प्रसारण भी निर्धारित समय पर ही होना था। समाचार जानने सुनने की उत्कंठा मौसम की सीमाओं से कहाँ बाधित था। पर आज़ादी के बाद के पहले-दूसरे दशक में समाचार की उपलब्धता आमजन के लिए कहाँ सहज थी। सुदूर गाँवों और कस्बों में यह और भी दुरूह था। अखबारों की पहुँच से दूर कस्बों में खबरों से रूबरू होने का एक मात्र ज़रिया थे, आकाशवाणी के समाचार। पर आम तौर पर रेडियो नाम से जाने वाले यंत्र भी तो उन दिनों हर घर में उपलब्ध नहीं थे। उन दिनों रेडियो-ट्रांज़िस्टर का निर्माण लंबे अरसे तक गुलाम रहे हमारे देश में तो होता ही नहीं था। और बाहर के देशों में निर्मित रेडियो की कीमत आयात शुल्क के बाद हर किसी के वश की बात नहीं थी। ऊपर से स्वतंत्र भारत में आज़ादी के बरसों बाद भी रेडियो रखने के लिए लाइसेन्स की जरूरत थी। लाइसेन्स नवीकरण पर लगने वाले वार्षिक शुल्क के कारण ये विलासिता की वस्तु बन गया था। पता नहीं देश के राजस्व में ऐसे शुल्कों से कुछ इज़ाफ़ा होता भी था! या फिर औपनिवेशिक मानसिकता कि आम जन को खबरों से दूर रखना ही सत्ता में बने रहने के लिए ज़रूरी है, आज़ादी के बाद की भी राजनीतिक प्राथमिकता थी!
तो उन दिनों बगैर मशक्कत समाचार तक पहुँच टेढ़ी खीर से कम नहीं था। किन्तु नव शिक्षितों की जो एक तादाद मध्य और निम्न मध्य वर्गीय ग्रामीणों के बीच खड़ी हो रही थी उन्हें तो खबरों की भूख महसूस होने लगी थी। खास कर तब जब कुछ अच्छा या बुरा घट रहा हो। संभवतः उन दिनों कुछ ऐसा ही घट रहा था। तभी तो बाबूजी पिछले कई महीनों से पड़ोस के शास्त्री जी के वहाँ सुबह सुबह समाचार सुनने जाने लगे थे। वैसे तो बाबूजी लगभग नियमित ही समाचार सुनने उनके घर जाते थे। लेकिन कुछ माह से तो बिना नागा ये क्रम चल रहा था। शाम में भी बाबूजी उनके घर हो लेते इस उदेश्य से। पर यदा-कदा ही। पर उन दिनों तो तकरीबन हर रोज़ ही सुबह-शाम शास्त्री जी के घर जाना तय सा था।
शायद कुछ बहुत महत्वपूर्ण घट रहा था देश के साथ। तभी तो इतनी ठंड के बावजूद बाबूजी का सुबह-शाम का सिलसिला बिन नागा बदस्तूर चल रहा था। पहले भी समाचार के लिए बाबूजी उनके घर हो लिया करते थे। पर किसी कारण वश कभी यह क्रम टूट भी जाता। किन्तु इन दिनों क्रम टूटने का सवाल ही नहीं था। अन्य वर्षों की तुलना में इस वर्ष ठंड बहुत ही ज़्यादा थी। हिमालय की तराई में स्थित बिहार के तत्कालीन सहरसा ज़िले के सुखासन मनहरा, जहां शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालय में बाबूजी की पोस्टिंग थी, ठंड का प्रकोप बहुत ही ज़्यादा था। इतनी अधिक कि सुबह शाम घर के बाहर साधारण चादर से ठंड से बचाव संभव नहीं था। तभी तो बाबूजी ने कम रुई की हल्की लिहाफ बनवाई थी ताकि ठंड के कारण उनका समाचार सुनने जाने के क्रम में कोई व्यवधान ना हो। हाँ कभी माई मना करती कि शीतलहर है, आज तो रहने दें! उन्हें फौरन उत्तर मिलता, कैसे रहने दूँ! हमें अभी अभी तो आज़ादी मिली है और देश पर इतना बड़ा संकट! जानना तो ज़रूरी है कि हो क्या रहा है!
माई को यह तो पता था कि पड़ोसी देश पाकिस्तान ने हमारे देश पर आक्रमण किया था। बाबूजी, जिन्हें भूख बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होती, उन्होंने भी तो सप्ताह में एक शाम उपवास रखना शुरू कर दिया था। आखिर देश के जनप्रिय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने जो आह्वान किया था! जब पड़ोसी देश ने आक्रमण किया था, देश अन्न संकट से भी जूझ रहा था। पूर्व में दो युद्धों की त्रासदी पहले ही देश झेल चुका था। पहला युद्ध तो इसी पड़ोसी देश ने लड़ा था। और दूसरा, दूसरे पड़ोसी देश ने जिसे पड़ोस में नव-उदीयमान लोकतान्त्रिक देश शायद पसंद नहीं था, या फिर उसकी विस्तारवादी नीति ने उसे भारत पर आक्रमण करने को उकसाया था।
इन दो युद्धों के बाद देश अभी कमर सीधी भी नहीं कर पाया था कि ये तीसरा युद्ध हकीकत बन देश के सामने आ खड़ा हुआ। देशवासियों का मन काफ़ी आशंकित हो उठा। पूर्व में दबंग प्रधान मंत्री होने के बावजूद पूर्ववर्ती युद्धों में देश का अनुभव सुखद नहीं था। अभी एक अति साधारण से दिखने वाले सीधे-साधे प्रधान मंत्री आखिर कैसे मुकाबला कर पाएंगे। जिस देश की आबादी की एक बड़ी तादाद को अभी भी दो वक्त की रोटी के लिए मशक्कत करना पड़ रही थी, वैसा देश युद्ध के लिए आधुनिक हथियार कहाँ से जुटाता। सैनिकों और जवानों की संख्या में अपेक्षित बढ़ोतरी कहाँ संभव थी! पर जब आपदा आन पड़ी हो तो मुकाबले से भागा नहीं जा सकता। चाहे हथियार पुराने हों या सैनिकों की संख्या माकूल ना हो।
ऐसे में मुंहतोड़ जवाब असाधारण मनोबल और अतिरिक्त सूझ-बूझ से ही दिया जा सकता था। जवानों का हौसला पस्त ना हो, इसके लिए पूरे देश के जोश को जवानों के जोश के साथ जोड़ना आवश्यक था। उनके राशन पानी में कहीं कोई खलल ना पड़े, थोड़ा बहुत ही सही, ज़रूरत पड़ने पर हथियारों का आयात हो सके, सुनिश्चित करना था। तो फिर संसाधनों का समुचित संचय और समायोजन जरूरी था।
पूरे देश के सामूहिक आत्मबल को जंग में झोंकने की जुगत कोई माटी से जुड़ा नेतृत्व ही कर सकता था। देश जवानों की जय बोले तो फिर किसानों की भी जय हो! नेतृत्व से देश को एक मंत्र मिला, “जय जवान जय किसान”। जवानों को समुचित राशन समय से मिलता रहे, इस दिशा में पूरे देश को सप्ताह में एक शाम उपवास का आह्वान हुआ।
भूख ना बर्दाश्त कर पाने वाले बाबूजी भी तभी तो एक शाम का उपवास रखने लगे थे। बाबूजी अकेले नहीं थे ऐसा करने वाले। देश के बड़े बुज़ुर्ग जो उपवास रख सकते थे, बड़ी संख्या में ऐसा करने लगे। जवानों में पूरे देश का जोश समा गया। किसानों ने हरित क्रांति की दिशा में कदम बढ़ा दिया। भूख से लड़ाई भी तो जंग है। पूरा देश बोल उठा, “जय जवान जय किसान”। देश ने वो कर दिखाया जो नामुमकिन था। दुश्मन दबे पाँव भागा। संयुक्त राष्ट्र की गुहार लगाई। युद्ध विराम का प्रस्ताव आया। शांति प्रिय भारत ने स्वीकार किया पर स्थाई शांति की शर्तों का निश्चित होना शेष रह गया था।
बाबूजी का पड़ोसी शास्त्री जी के घर जा कर समाचार सुनने का क्रम युद्ध की शुरुआत से निर्बाध चल रहा था। युद्ध विराम के पश्चात भी यह क्रम अनवरत जारी था। शांति प्रक्रिया जो अभी चल रही थी। उस सुबह भी बाबूजी शांति शर्तों को जानने के क्रम में ही समाचार सुनने गए थे। जंग जीतने के बाद हर देशवासी के मन में उत्साह था। बाबूजी भी खुश थे। फिर उस दिन अचानक यह घटना हो गई थी। “शास्त्री जी नहीं रहे” सुनते ही माई ने कहा कल शाम तक तो वे बिल्कुल ठीक थे! आप दोनों स्कूल से साथ ही तो लौटे थे! मैंने खुद देखा था! बाबूजी को समझते देर ना लगी, माई समझ रही थी, बाबूजी उन शास्त्री जी की बात कर रहे हैं जिनके घर वे समाचार सुनने जाते थे। बाबूजी ने बताया पूरा देश एक बार फिर अनाथ हो गया। मैं अपने प्रधान मंत्री ‘शास्त्री जी’ की बात कर रहा हूँ। शांति समझौते पर दस्तखत कर तो दिए थे पर उस रात जो सोए तो उठे ही नहीं। माई की आँखे पड़ोसी शास्त्री जी को समझ कर भी नम हुई थीं। पर वास्तविकता जानकार तो वह भी फ़ूट पड़ीं। अपने माता-पिता को रोता देख मैं भी सिसक उठा।
इतने अल्प समय में हर देशवासी के दिल में जगह बनाने वाले वो कोई जादूगर थे या कोई देवदूत, जिनके लिए माई बाबूजी ही नहीं पूरा देश बिलख पड़ा। बरसों तक यह मुझे समझ नहीं आया। काफी बड़ा होने पर ही मैं यह रहस्य समझ पाया। पर क्या सचमुच समझ पाया?
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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।