भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा - दर्शनशास्त्र के रास्ते से अध्यात्म तक पहुंचना
डॉ मधु कपूर ने अभी तक दर्शनशास्त्र के जितने भी विषयों की यहाँ चर्चा की है, उनकी सहायता से दर्शनशास्त्र की बहुत सी गुत्थियाँ हमारे लिए सुलझी हैं। इस बार का उनका विषय है ज्ञान और भक्ति। इतना तो हम डॉ कपूर के लेखों के कारण भी और यूँ भी जानते हैं कि ज्ञान और भक्ति चाहे बहुत ही छोटे और निरापद से लगने वाले शब्द हैं किन्तु वास्तविकता में ये दोनों बहुत गहन विषय हैं और दर्शनशास्त्र में इन पर व्यापक चर्चा हुई है। हालाँकि डॉ मधु कपूर जैसी समन्वयवादी दृष्टि रखने वाले विद्वान् यह मानते हैं कि ज्ञान और भक्ति परस्पर विरोधी नहीं हैं (जैसी कि इस लेख में भी चर्चा है) किन्तु स्वाभाविक रूप से दोनों मतावलम्बियों में गंभीर मतभेद हैं। जहाँ वैष्णव वेदांती यह मानते हैं कि परमेश्वर की प्राप्ति केवल भक्ति से ही संभव है और उसके प्रति पूर्ण समर्पित होना ही जीवन का लक्ष्य है, वहीँ दूसरी ओर शंकर की ज्ञानपरक व्याख्या यह प्रतिपादित करती है कि मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान से ही हो सकती है। आप इस लेख से आरम्भ कीजिये, हमें लगता है कि डॉ कपूर समय-समय पर हमें इसी कड़ी में और भी लेख देती रहेंगी जिनसे इन गूढ़ विषयों में हमारी समझदारी बढ़ेगी।
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा
डॉ मधु कपूर
हम अपने पूर्व लेखों में देख चुके है कि ज्ञान सत्य का पीछा करता है पर उसे पाने की उसकी ललक अधूरी ही रह जाती है, उसका कारण है कि ज्ञान प्राप्ति के जितने भी स्रोत हैं यथा प्रत्यक्ष, अनुमान इत्यादि वह कहीं न कहीं हमें भ्रम में डाल देते है। एक ओर ज्ञान के सदृश कुछ भी पवित्र नहीं कहा गया हैं, वहीँ दूसरी ओर ‘थोथा चना बाजे घना’ वाली कहावत सिद्ध करती है कि ज्ञान की पवित्र अग्नि ‘थोथे ज्ञान’ को भस्मसातकर देती है। इस प्रसंग में भारतीय दर्शनशास्त्र की परंपरा में ज्ञान को हमेशा अनुभव, अभ्यास और भक्ति से जोड़ा जाता है, जिसमें करुणा का रस-स्रोत बहता है। आचार्य अभिनवगुप्त कहते है कि भक्ति ज्ञान का ही मधुर रूप है जिससे उसे पवित्रता प्राप्त होती है—
ज्ञानं च भक्तिरेव च न भिन्ने, अपि तु एक एव साधनभेदः।
यथा क्षीरे शर्करा मिश्रिता न भिद्यते, तथा ज्ञानभक्त्योः ऐक्यम्।
ज्ञान और भक्ति परस्पर विरोधी नहीं हैं और न ही उनकी साधना अलग अलग होती है। ज्ञान आत्मा को सत्य का बोध कराता है, जबकि भक्ति उस बोध में मधु-मिश्री घोल देती है। वे कहते हैं कि भक्ति ज्ञान में ऐसे घुली है जैसे दूध में शक्कर। यह दृष्टिकोण भारतीय ज्ञान परंपरा की गहराई को उजागर करती है।
अपने प्रिय श्रीकृष्ण के लिए तड़पती गोपियों को जब उद्धव ब्रह्म के अद्वैत तत्त्व का उपदेश देकर उन्हें सांत्वना देना चाहते है, तो गोपियाँ तिलमिला कर कहती है उन्हें तो सर्वत्र कृष्ण ही दिखाई देते है – जित देखूं तैत श्याममयी ...। उद्धव का ज्ञान-तत्त्व मक्खन की तरह पिघल जाता है, और शेष रह जाती है मधुर भक्ति। विदेहराज जनक जिनकी वैराग्य की महिमा प्रसिद्ध थी, वे भी सीता की विदाई के समय विह्वल हो उठते है। महर्षि वेदव्यास ने भक्ति-रस से पूर्ण श्रीमद্भागवत की रचना ही नारद की प्रेरणा से की, क्योंकि उन्हें महाभारत लिखने के पश्चात भी कोई संतुष्टि नहीं मिल रही थी।
भक्ति एक भाव है जो किसी व्यक्ति को अपने इच्छित कार्य में तन्मय कर देती है। वह उसके प्रति प्रेम और समर्पण का भाव महसूस करता है। वहां पर संशय और संदेह की कोई गुंजाईश नहीं होती है । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि भक्ति और ज्ञान में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों संसारजन्य दुखों को दूर करने के लिए हैं—‘ उभय हरहिं भव संभव खेदा’। ज्ञान से भक्ति की ओर जाने की सूक्ष्म यात्रा बुद्धि से हृदय का संवाद है । श्री मधुसूदन सरस्वती द्बारा लिखित ‘अद्वैतसिद्धि’, जो मूलतः तर्कशास्त्र से ओतप्रोत ग्रन्थ है, में भी कृष्ण भक्ति की झलक मिलती है —जहाँ तर्क चूकता है, वहाँ भक्ति बोलने लगी और वे कृष्ण भक्त हो गये।
ज्ञान में वस्तु का विश्लेषण होता है, परंतु उसमें हृदय रस का संचार नही होता। बिना तालाब में उतरे जैसे तैरना नहीं सीखा जा सकता है, वैसे ही बिना भक्ति के ज्ञानार्जन नहीं हो सकता है। ज्ञान सही और गलत, सत्य और असत्य का द्वार तो खोल देता है, पर उसमें प्रवेश करने की इजाजत भक्ति ही दे सकती है। जिन वाल्मिकीजी को ‘राम’ कहना नहीं आता था, उन्होंने रामायण जैसे महान ग्रंथ की रचना कर डाली। तुलसीदास जी को रस्सी और सर्प का भेद नहीं समझ में आया लेकिन उन्होंने श्री रामचरितमानस जैसे महान कृति की रचना कर डाली। भक्ति और ज्ञान भले ही अलग-अलग मार्ग प्रतीत होते हों, लेकिन वे एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना भक्ति के ज्ञान केवल अहंकार का रूप ले सकता है और ज्ञान के बिना भक्ति महज अंधविश्वास में बदल जाती है।
यूँ तो तत्त्वज्ञान की शुरुआत ही विवाद से होती है, जहाँ ज्ञानीजन हेय भाव से अपने विरोधी पक्ष को नतमस्तक करने की कोशिश करते हैं, किन्तु भक्ति तो नतमस्तक होकर ही आरंभ होती है। किसी भी विषय के गहन चिंतन के लिए उस विषय के गुरु के द्बारा दिखाए गये सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। गुरु के प्रति प्रेम और श्रद्धा दोनों ही अनिवार्य है। इसी श्रद्धा के आश्रय से किसी कवि का काव्य ह्रदयग्राही लगता है, किसी चित्रकार का चित्र अत्यन्त मर्मस्पर्शी लगने लगता है। राधाकृष्ण जिस कदम्ब के नीचे खड़े हैं, उसकी एक-एक पत्ती अलग-अलग इतनी बारीकी के साथ बनी दिखाई पड़ती है कि कलाकार की प्रतिभा मन को मोहित कर लेती है। अथवा किसी परिवेश प्रेमी की वृक्षों से लिपट कर उसे बचाने का प्रयास हमें उनके प्रति श्रद्धा से नत कर देता है। किसी शास्त्रीय गायक की लम्बी और कठिन घुमावदार ताने सुनकर श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। कला का आनंद लेते हुए मानव मन अंतःकरण की उच्चता की उपलিब्ध करता है, जो अन्ततः कृतज्ञता में रूपांतरित हो जाती हैं।
एक व्यक्तिगत किस्सा इस प्रसंग में मैं उल्लेख करना चाहूंगी। मुझे एम्.फिल की कक्षाओं में ‘मॉडल लॉजिक’ बिल्कुल समझ में नहीं आती थी और मैं कक्षा ख़त्म होने का इंतजार करती रहती थी। परीक्षा नजदीक आ रही थी। एक दिन मैंने साहस जुटा कर मैम से ‘समझ न आने’ की बात बताई। उन्होंने बड़े ही धैर्य से मुझे उसकी बारीकियां समझाई। मैं किसी तरह घर आकर बार-बार उसे समझने की कोशिश करती रही और अंत में मुझे सफलता मिली। दूसरे दिन दौड़ते भागते मैंने मैम के पैर छू कर प्रणाम किया और बस खड़ी खड़ी ‘टप टप’ आंसू बहाती रही। मैम ने सकपका कर पूछा ‘क्या हुआ?’ मैंने सिर्फ इतना कहा ‘मुझे मॉडल लॉजिक अब समझ में आने लगी है और फूट फूट कर रोने लगी। मैम की वह मीठी मुस्कान मैं आज भी नहीं भूल पाऊँगी। शायद यह कृतज्ञता और श्रद्धा का अद्भुत मेलजोल था । इसलिए श्रीकृष्ण गीता में कहते है – श्रद्धावानं लभते ज्ञानं।
मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन एक क्रांतिकारी मोड़ लेता ही इसलिए है कि उसने तर्क को किनारे रख केवल अनुभव और श्रद्धा के बीज बोए। ‘भक्ति रसामृत सिंधु’ ग्रंथ में भक्तिमार्ग पर चलने वाले साधकों ने तर्क के गोरखधंधों से धीरे धीरे हटकर लोगों में श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयास किया । चैतन्य महाप्रभु, जो स्वयं बड़े तार्किक थे, के द्वारा शुरू किया गया कीर्तन आंदोलन आज भी गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। वे कहते हैं कि—‘भक्ति ही वह रसायन है जो जीव को ब्रह्म से एकात्म कर देती है,‘ जहाँ श्रद्धा तर्क से टकराती नहीं है, बल्कि तर्क का अतिक्रमण कर जाती है। कबीर, तुलसी, मीरा और सूर जैसे कवियों ने ज्ञान की सीमाओं को लाँघकर अपने दर्शन को भक्ति के मार्ग से जोड़ा और ईश्वर तक पहुँचने का एक नया रास्ता दिखलाया। यक्ष-युधिष्ठिर हो या जनक-अष्टावक्र संवाद ज्ञान और भक्ति से परिपूरित है।
रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ हमारा परिचय न केवल जीवन की यथार्थता से कराते है बल्कि लोक जीवन में भक्ति का महत्त्व भी सिखलाते हैं, क्योंकि वहां हमें कठिन और नीरस शास्त्रों के संवाद का सहज और सरल रूप उपलब्ध होता है। इसलिए ज्ञान केवल बौद्धिक अभ्यास नहीं है; उसमें भावनात्मक श्रद्धा भी कूट कूट कर भरी होती है। श्रद्धा मन को एकाग्र करती है, जिससे ज्ञान का बीज अंकुरित होता है। जैसे विज्ञान में प्रयोग करने से पहले वैज्ञानिक को अपने सिद्धांत पर विश्वास करना पड़ता है, वैसे ही विद्या में पारंगत होने के लिए श्रद्धा साधक को एकाग्रता देती है।
संदेहशील मन बार-बार विचलित होकर केवल प्रश्न पूछता है, पर उसके उत्तर को आत्मसात करने के लिए श्रद्धा की जरुरत होती है। श्रद्धा वह उपजाऊ भूमि हैं जहाँ ज्ञान के बीज पुष्पित और पल्लवित होते हैं। ज्ञान यदि दीपक है, तो श्रद्धा उसका तेल है, जिसके बिना दीपक नहीं जलता। श्रद्धा केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि ज्ञान की ओर ले जाने वाली मानसिक शक्ति है। शास्त्रों में नवधा भक्ति के उदाहरण स्वरूप श्रवणम्, कीर्तनम्, स्मरणम्, पादसेवनम्, अर्चनम्, वन्दनम्, दास्यम्, सख्यम् और आत्मनिवेदनम् कहा जाता है।
अक्सर ऐसा भी देखा जाता है नवधा भक्ति के स्वरूप को विकृत अर्थ में भी लोग व्यवहार करने लगते है। भक्ति का नाटक करते हुए वह चापलूसी और विलासिता में डूब जाते हैं। देश-सेवा के नाम पर स्वयं का ही उद्धार करने लगते है। किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिये ऐसी परिस्थिति में ज्ञान हमारा सहायक होता है जो इन अवगुणों से हमारी पहचान करवाता है।
तुलसीदास राम चरित मानस में नवधा भक्ति का उदाहरण देते है ।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथी भगति मम गुण गान करइ कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
(अर्थात विद्वानों की संगति, अभीष्ट के प्रति आसक्ति, सर्वदा उसका ध्यान, गुरु सेवा, कपटहीनता, निरंतर अभ्यास, निंदा से दूर रहना, विचारों में सरलता भक्त के लक्षण कहे जाते है।)
लोगों को अक्सर यह गलतफहमी भी होती है कि भक्ति सिर्फ ईश्वर की ही हो सकती है तो इसे दूर करने के लिए कुमारस्वामी का ‘डांस ऑफ़ शिव’ से एक दृष्टान्त उल्लेखनीय है। उनके अनुसार सबसे बड़ा भक्त तो एक साधारण बाण बनाने वाला कारीगर होता है, जो बाण की फल को धार देने की प्रक्रिया में पूर्ण दक्षता, एकाग्रता और समर्पण दिखलाता है।’
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।