बापू की जयंती पर विशेष : गांधी को समझने की कुंजी
गांधी जयंती पर विशेष लेख - 2
गांधी की पहली जीवनी जोसेफ जे. डोक ने लिखी थी, जो जोहानसबर्ग में बैप्टिस्ट चर्च के पादरी थे। “गांधी : दक्षिण अफ्रीका में एक भारतीय देशभक्त” (Gandhi: An Indian Patriot in South Africa) शीर्षक से यह जीवनी द लंडन इंडियन क्रॉनिकल में वर्ष १९०९ में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर आज तक पिछले करीब 115 सालों में गांधी पर इतना लिखा जा चुका है, जितना इतिहास के किसी भी दूसरे व्यक्ति पर नहीं लिखा गया। लेकिन किसी व्यक्ति पर खूब लिखा जाना और उसे समझा जाना – ये दो बिलकुल मुख़्तलिफ़ बातें हैं। यूं गांधी को चाहने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं, मगर किसी को चाहना और किसी को ठीक तरह से जानना – ये भी दो बिलकुल मुख़्तलिफ़ बातें हैं। और यह द्वंद्व कोई आज का नहीं है। जब गांधी जीवित थे, तब भी उनके निकट सहयोगियों के लिए भी अक्सर उनके विचार, उनकी बातें और उनके कार्य किसी अनबूझ पहेली की तरह हुआ करते थे। मगर फिर भी इस अटूट भरोसे के सहारे कि गांधी एक महान और करिश्माई नेता हैं, पूरी तरह से सहमत या आश्वस्त न होने के बावजूद वे लोग उनकी बातों को और उनके आदेशों को मान लिया करते थे।
यूँ देखा जाए तो गांधी को समझना इतना मुश्किल है नहीं, जितना वह ऊपरी तौर पर दिखता है। यहाँ जब गांधी को समझने की बात की जा रही है तो गांधी-विचारों को समझना उससे अभिन्न माना जा रहा है। हालाँकि संसार में बहुधा किसी व्यक्ति को समझना और उसके विचारों को समझना दो बिलकुल भिन्न बातें हुआ करती हैं मगर गांधी के मामले में यह बहुत बड़ी सहुलियत है कि गांधी का व्यक्तित्व और जीवन तथा उनके विचार अधिकांशतः एक-दूसरे के पर्यायी बनकर चलते हुए दिखते हैं। यही वजह है कि गांधी पूरे भरोसे से यह कह सके कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।
गांधी को समझना या उनके विचारों के मर्म को समझना ज़रा भी मुश्किल नहीं है। इसलिए मुश्किल नहीं है कि वे अपने विचार बहुत सामान्य भाषा में सीधे ढंग से कह देते थे, जिसमें ज़रा भी क्लिष्टता नहीं होती थी। गांधी की अंग्रेजी भाषा पर पकड़ और उसमें अभिव्यक्ति का कौशल चाहे उच्च कोटि का रहा हो, मगर उन्होंने भारत की सामान्य जनता से जुड़ने के लिए हमेशा हिंदी और उर्दू के मिश्रण से बनी हिंदुस्तानी का प्रयोग किया। एक ऐसी भाषा में, जिसमें वह बिलकुल भी निष्णात नहीं थे। इसलिए बहुत साधारण शब्दों में वह अपनी बात कहा करते थे और इस देश की अनपढ़-गरीब जनता उनकी बातों को बहुत आसानी से समझ भी लिया करती थी।
गांधी जानते थे कि उन्हें ऐसे लोगों के साथ संवाद साधना है, जो वर्षों की गुलामी, बदहाली, गरीबी और बेकारी की बेड़ियों से जकड़े होने के कारण निष्प्राण और एकदम अशक्त हो चुके हैं। ऐसे लोगों में, जिनके भीतर अपनी परिस्थितियों से लड़ने का साहस और शक्ति नहीं बचे थे, संसार के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के खिलाफ खड़े होने का हौसला भरना कोई आसान बात नहीं थी। लेकिन गांधी बहुत कम समय में यह करिश्मा कर सके तो ज़ाहिर है कि उनकी भाषा और उनके उपाय ऐसे थे जिसे इस देश का सबसे दबा-कुचला और कमज़ोर व्यक्ति भी समझ सके और उन्हें अंगीकार कर सके। गांधी ने अपनी गर्भनाल इस देश की मिट्टी के साथ जोड़ ली थी, इसलिए उसकी धड़कनों को, उसकी जरूरतों को और उसके सामर्थ्य को वो भली-भाँति समझ पाते थे। जो लोग अपनी मिट्टी और अपनी जड़ों से उतने जुड़े हुए नहीं थे या उससे घनिष्ठ नहीं थे, ऐसे पढ़े-लिखे और बौद्धिकता से भरे हुए लोगों के लिए गांधी की भाषा और गांधी के उपायों को समझ पाना बहुत मुश्किल होता था।
गांधी के जीवन या उनके विचारों को आसानी से समझने के लिए हमें किसी बच्चे-सा सरल होना पड़ेगा। रामचरित मानस में तुलसी ने राम के मुँह से कहलवाया है - निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा। राम गांधी के प्रिय थे और गांधी के लिए भी ठीक इन्हीं शब्दों का उपयोग किया जा सकता है। ज़ाहिर है, यह निर्मलता पाना इस युग में हर किसी व्यक्ति के बस की बात नहीं है। ऐसे में फिर गांधी को या उनके विचारों को समझने का क्या उपाय है? यहाँ हम कुछ ऐसी बातों की चर्चा करेंगे जिन्हें गांधी को समझने के सूत्र या उनकी बातों के मर्म तक पहुँचने की कुंजी माना जा सकता है। आप यों भी कह सकते हैं कि ये कुछ ऐसे ‘की-वर्डस’ (key-words) हैं जो गांधी के विचारों और उनके कार्यों के आशयों को हमारे तक पहुँचाने में मददगार बन सकते हैं।
सत्यनिष्ठा
यह एक शब्द गांधी के पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व को परिभाषित करने के लिए पर्याप्त है। गांधी का पूरा जीवन सत्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों और सत्य को जानने के लिए किए गए प्रयोगों का साक्षी है। सत्य की खोज गांधी के सारे कार्यों का केंद्रबिंदु रहा है। यहाँ तक कि जिस अहिंसा का उन्होंने नये संदर्भों और नये अर्थों में प्रतिपादन किया, वह भी उनके लिए सत्य रूपी साध्य को हासिल करने का एक साधन ही रही। सत्य की खोज की उनकी पूरी यात्रा दरअसल एक धार्मिक व्यक्ति के आध्यात्मिक व्यक्ति के रूपांतरण की भी गवाह रही है। एक धर्मपरायण और ईश्वरपरायण व्यक्ति जिसने सत्य की अपनी खोज की शुरुआत ‘ईश्वर ही सत्य है’ के उद्घोष से की थी, अपने प्रयत्नों और प्रयोगों के बाद वह जिस तरह ‘सत्य ही ईश्वर है’ की निष्पत्ति तक पहुँचा, उसके मूल में दरअसल गांधी की यह असंदिग्ध सत्यनिष्ठा ही रही है। सत्य उनके लिए हर तरह से और हर हाल में सर्वोपरि रहा, जिसके साथ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। गांधी ने बड़े से बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए कभी अपनी सत्यनिष्ठा की बलि चढ़ाना मंजूर नहीं किया। उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले विनोबा भावे ने एक बार कहा था : “गांधीजी ने मेरी परीक्षा, मेरी कसौटी की होगी या नहीं, मैं नहीं जानता। लेकिन अपनी बुद्धि से मैंने उनकी बहुत परीक्षा कर ली थी ... अगर मुझे उनकी सत्यनिष्ठा में कुछ भी कमी, न्यूनता या खामी दिखती, तो मैं उनके पास टिक नहीं पाता।”
सत्य के प्रति अपनी इस अखंड निष्ठा के कारण ही गांधी के जीवन में किसी से छुपाने के लिए कुछ नहीं रहा। उनकी आत्मकथा – ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ भी उनकी इस सत्यनिष्ठा का एक बड़ा उदाहरण है, जिसमें गांधी ने अपने प्रारंभिक जीवन की अनेक कमियों, कमजोरियों और भूलों को भी खुले दिल से स्वीकार किया। हालाँकि उन्हीं की कही बातों का उपयोग कुछ लोग उनके बारे में भ्रम फैलाने के लिए करते हैं, यह बड़ी विडंबना है। इसलिए जब कभी आपके भीतर गांधी के किसी निर्णय या किसी कार्य को लेकर दुविधा हो तो आप उसे बस गांधी की सत्यनिष्ठा की कसौटी पर कस के देख लें।
साधन-शुचिता
गांधी ने हमेशा साधन को साध्य के समान ही महत्व दिया। साध्य चाहे जितना श्रेष्ठ हो, लेकिन उसे प्राप्त करने वाले साधनों की शुद्धता और पवित्रता पर गांधी उतना ही ज़ोर दिया करते थे। वह मानते थे कि साध्य अपने आप में चाहे जितना पवित्र हो, वह साधन को पवित्र नहीं बना सकता। इसलिए उन्होंने साध्य और साधन की एकता को अनिवार्य माना। वह मानते थे कि अनैतिक साधनों से हासिल साध्य भी अंततः भ्रष्ट और अनैतिक ही सिद्ध होता है। यदि साधन हिंसात्मक है तो उससे जरिए कभी भी शांति का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। साध्य और साधन की पवित्रता और एकरूपता पर ही सिद्धि का भवन खड़ा किया जा सकता है। गांधी इसीलिए स्वतंत्रता जैसे उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसात्मक साधनों के उपयोग के विरोधी रहे। उनका मानना था कि हिंसा के ज़रिए कभी भी एक शांतिप्रिय समाज की स्थापना नहीं की जा सकती। यही वजह थी कि उन्होंने वर्ष 1922 में उस समय जबकि असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था और भारत की आज़ादी अब बहुत दूर नहीं है, ऐसा लोगों को भरोसा हो गया था, तब चौरीचौरा कांड के चलते उसमें हिंसा का दाग लगने के कारण उसे स्थगित करने में एक क्षण भी नहीं लगाया और इसके लिए तमाम नेताओं और देशवासियों के विरोध को भी सहा। साधन-शुचिता उनके लिए एक अनिवार्य जीवन मूल्य था।
गांधी के निर्णयों या कार्यों का विश्लेषण करते समय आपको इस बात को बहुत सावधानीपूर्वक जाँचना होगा कि जिन बातों को आप आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं, उन सभी मामलों में क्या गांधी के साधन-शुचिता के इस आदर्श की पूर्ति होती थी?
अंतर्बाह्य एकता
संत तुकाराम का एक प्रसिद्ध अभंग है – बोले तैसा चाले, त्याची वंदीन पाउले। इसमें तुकाराम कहते हैं कि जो जैसा बोलता है, वैसा ही व्यवहार करता है, मैं उसके चरणों की वंदना करूंगा। उसका आँगन झाड़ूंगा और उसका दास बनकर रहूंगा। भारतीय संस्कृति में मन-वचन और कर्म की एकता को अत्यधिक महत्व दिया गया है। गांधी को भी महात्मा या संत की उपाधि इसी वजह से मिली कि उनमें अंतर्बाह्य अभेदता थी। वो जो सोचते थे, उसे कहने में संकोच नहीं करते थे और जो दूसरों को कहते थे, पहले स्वयं उसे अपने आचरण में लाते थे। विनोबा ने यह माना था कि वे बापू से मिले और उन पर मुग्ध हो गए तो इसका सबसे बड़ा कारण उनकी अंतर्बाह्य एकता की अवस्था थी। उन्होंने कहा था : “लोगों में ऐसी मान्यता थी कि राजनीति में तो नेता हमेशा द्वयर्थक ही बोलते हैं। लेकिन गांधीजी के आते ही नयी पद्धति शुरू हो गयी। जो मन में हो, वही बोलना उन्होंने शुरू किया। इसलिए गांधीजी के प्रति धीरे-धीरे लोगों का ऐसा विश्वास जमता गया कि यह आदमी जो ह्रदय में होगा, वही होंठों पर लायेगा। इस कारण गांधीजी का शब्द बलवान साबित हुआ और शब्द के पराक्रम से ही उनका सारा पराक्रम हुआ।”
अपनी इसी अंतर्बाह्य एकता के कारण गांधी जिस बात को, जिस विचार को या जिस धारणा को अपने अनुभव की कसौटी पर परखने के बाद सत्य मानते थे, उससे डिग जाना या उसके विपरीत आचरण करना उनके लिए संभव नहीं था। यह उनकी सत्यनिष्ठा के भी विपरीत होता। ऐसे में उम्र भर अहिंसा को सत्य तक पहुँचने का साधन मानने वाले, अपने हर कर्म का परिणाम भोगने के लिए हमेशा तैयार रहने वाले और अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहते हुए मृत्यु का भी वरण करने के लिए तैयार रहने वाले गांधी के लिए देश के नाम पर भी किसी की हत्या को या किसी भी तरह की हिंसा को जायज़ ठहराना कभी संभव नहीं था। ऐसे में गांधी के बारे में विचार करते हुए हमारे लिए इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि हम उनसे ऐसी किसी कार्य की या बात की अपेक्षा न करें जो उनके सिद्धांतों के खिलाफ जाती हो।
मन, वचन और कर्म की इसी एकता के बल पर गांधी यह कह पाए कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। उन्होंने यंग इंडिया (१९.०३.१९३१) के अंक में लिखा था : “मेरा जीवन एक खुली किताब रहा है। मेरे न कोई रहस्य हैं और न मैं रहस्यों को प्रश्रय देता हूँ।”
निर्भयता
जिस साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता था, उसके सामने एक गुलाम देश के कृशकाय शरीर वाले अधनंगा फकीर में सीना तानकर मुकाबिल होने के लिए जिस गुण की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, वह थी निर्भयता। गांधी में यह कूट-कूटकर भरी हुई थी।
गांधी कहते हैं कि निर्भयता का अर्थ है सभी बाह्य भयों से मुक्ति, जैसे कि बीमारी, शारीरिक क्षति या मृत्यु का भय, स्वामित्व-हरण का भय, प्रियजनों से बिछुड़ने का भय, प्रतिष्ठा-हानि अथवा अपमान का भय इत्यादि। गांधी मानते थे कि सत्याग्रह के लिए निर्भयता परम आवश्यक है और सत्याग्रही को तो मृत्यु का भय भी नहीं रहना चाहिए। मृत्यु के भय से समक्ष उपस्थित चुनौतियों के समक्ष पीठ दिखाकर पलायन करने की जगह वे उनका सामना करते हुए मृत्यु के वरण को श्रेयस्कर मानते थे। और ज़ाहिर है, जिसने मृत्यु के भय को जीत लिया, अन्य भय उसके लिए अत्यंत क्षुद्र हो जाते हैं।
हरिजन के 02.06.1946 के अंक में गांधी लिखते हैं : “हमारे चतुर्दिक इतना अंधविश्वास और पाखंड व्याप्त है कि हम सही काम करने से भी डरते हैं। लेकिन आदमी भय के वश में हो जाए तो सत्य का भी दमन करना पड़ेगा। स्वर्णिम नियम यह है कि जो काम तुम्हें ठीक लगे, निर्भय होकर करो।” लेकिन गांधी यह भी स्पष्ट करते हैं कि निर्भयता का अर्थ दंभ या आक्रामक व्यवहार नहीं है। गांधी मानते थे कि अभय का अर्थ सिर्फ यही नहीं है कि आप किसी से न डरो बल्कि उसका अर्थ यह भी है कि अनावश्यक रूप से आपसे भी किसी को डर न लगे।
यह निर्भयता उन्होंने अपनी आध्यात्मिकता से पायी थी। गांधी उस भारतीय चिंतन परम्परा के निष्ठावान अनुयायी थे जो यह मानती है कि मनुष्य का जीवन उसकी सतत् यात्रा का एक पड़ाव भर है। मृत्यु केवल उसके शरीर का नाश करती है मगर उसकी आत्मा अविनाशी है। अपने इसी विश्वास के बल पर गांधी ने अपने जीवन में अनेक बार अपने प्राणों को दाँव पर लगाया। उनके मन में हमेशा यह बात स्पष्ट रही कि ईश्वर जब तक उन्हें जीवित रखना चाहता है, तब तक उनकी मृत्यु नहीं होगी और जब ईश्वर को उन्हें जीवित नहीं रखना होगा, तब संसार की कोई भी शक्ति उन्हें बचा नहीं सकती।
गांधी के निर्भयता के इस मंत्र में भारत की दीन-हीन और निर्बल जनता में इस तरह से शक्ति का संचार किया था कि अंग्रेजों की संगीनों के सामने झुंड के झुंड निहत्थे सीना तानकर खड़े हो गए थे। कुछ लोग को पंक्तिबद्ध होकर लाठी खाते सत्याग्रहियों में कायरता के दर्शन कर सकते हैं मगर हथियारों पर अत्यधिक भरोसा करने वालों के लिए इस बात को समझ पाना बहुत मुश्किल है कि प्रतिकार का सामर्थ्य होते हुए भी सिर उठाकर और सीना तानकर अत्याचारी की लाठी सहन करना मगर उसके सामने झुकने से इंकार करने के लिए कितने बड़े साहस और सामर्थ्य की आवश्यकता होती है। यदि आप इस निर्भयता के रहस्य को नहीं समझेंगे तो आपके लिए गांधी के कई कार्यक्रमों और वक्तव्यों के मर्म को समझना मुश्किल हो जाएगा।
निरंतर विकासशीलता
गांधी को और उनके विचारों को ठीक तरह से समझने के लिए यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि गांधी कोई जड़ व्यक्तित्व नहीं, निरंतर परिवर्तनशील और विकसित होते जाने वाले व्यक्ति थे। इसलिए आप अलग-अलग समयों में किसी-किसी विषय पर गांधी के सर्वथा दो विपरीत विचार भी देख सकते हैं। लेकिन यहाँ इस बात को ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि यह विकास या बदलाव सदैव उर्ध्वगामी रहा। गांधी अपनी आलोचना के लिए हमेशा खुले रहे, बल्कि अपने आसपास के लोगों को अपने कामों की आलोचना के लिए प्रेरित भी करते रहे। गांधी ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि वे हर समय सही ही दिखे। जहाँ उन्हें अपनी भूल समझ में आई, उन्होंने तुरंत इसे स्वीकार किया और अपनी धारणा में तत्काल सुधार भी किया।
हरिजनबन्धु में दिनांक 30.04.1933 को गांधी ने लिखा : “सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें मैं सीखा भी हूँ। उमर में भले मैं बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बन्द हो जाएगा। ....इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने”।
गांधी को समझने के लिए, उनके सतत जागरूक रहकर विकसित होने को समझने के लिए खुद गांधी की ही उपरोक्त सलाह बहुत काम की है। न सिर्फ एक ही विषय पर दो अलग-अलग समयों में कही गईं अलग-अलग बातों में से आपको बाद में कही गई बात को प्रमाणरूप मानना होगा बल्कि कुछ मामलों में आपको गांधी की जगह खुद को रखकर यह सोचना होगा कि आज यदि गांधी होते तो क्या उनके विचार वही होते जो उन्होंने आज से अस्सी, नब्बे या सौ साल पहले व्यक्त किए थे।
समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता
गांधी उन चुनिंदा धर्म-परायण व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने अपना ईश्वर देश के कमजोर, दलित और गरीब लोगों में खोजा था। उनका दिया हुआ यह जंतर तो विश्व प्रसिद्ध है : “मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं। जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमज़ोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने हृदय से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिये कितना उपयोगी होगा, क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त.. तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है…।”
देश में विकास के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की चिंता समस्त गांधी-दर्शन के केंद्र में रही है। देश की आम जनता के साथ एकरूप होने का प्रयास सतत गांधी करते रहे। गरीबों की तरह सादा भोजन, आधे वस्त्र और झोपड़ी में निवास को गांधी ने किसी पूजा की तरह से अपनाया था।
हरिजन के 11.03.1939 के अंक में वह लिखते हैं : “मैं अपने इन लाखों-करोड़ों दरिद्र भारतवासियों को जानने का दावा करता हूँ। मैं दिन के चौबीसों घंटे उनके साथ हूँ। उनकी देखभाल मेरा प्रथम और अंतिम कर्तव्य है, क्योंकि मैं उन मूक लाखों-करोड़ों के हृदय में वास करने वाले भगवान के अलावा और किसी भगवान को नहीं पहचानता। वे उस ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव नहीं करते, मैं करता हूँ। और मैं इन्हीं लाखों-करोड़ों दरिद्र लोगों की सेवा के जरिए ईश्वर जो सत्य है अथवा सत्य जो ईश्वर है, उसकी पूजा करता हूँ।”
ऊपर जिन बिंदुओँ या ‘की-वर्ड’ की चर्चा की गई है, मौटे तौर पर गांधी को समझने के लिए वे आपकी मदद कर सकते हैं। मगर किसी के मन में यह सवाल भी उठ सकता है कि इक्कीसवीं सदी में, जबकि गांधी के समय से दुनिया बहुत बदल गई है, विकसित हो गई है, हमें एक सदी पुराने गांधी विचारों की ज़रूरत ही क्या है। इसका सीधा-सा उत्तर तो यही है कि आज देश और दुनिया में विभिन्न वर्गों, समुदायों और धर्मों के बीच निरंतर बढ़ते वैमनस्य, विनाशकारी हथियारों की भयावह होड़, अविवेकी उपभोग को प्रोत्साहन के कारण प्राकृतिक संसाधनों के असीमित दोहन, इसकी अनिवार्य निष्पत्ति के तौर पर उभरे पर्यावरणीय असंतुलन, मुनाफावादी संस्कृति को बढ़ावे के कारण लोगों के अंतहीन शोषण, साधन और सम्पत्तियो के केंद्रीयकरण और अमीर तथा गरीब के बीच में बढ़ती खाई जैसे तमाम आधुनिक संकटों के समाधान की कुंजी गांधी द्वारा एक सदी पहले व्यक्त किए गए विचारों में हमें मिलती है। यही कारण है कि दुनिया भर के बुद्धिजीवी, चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता निरंतर गांधी-विचारों के अध्ययन की ओर प्रेरित हो रहे हैं।
सौभाग्य से गांधी का कहा और लिखा प्रचुर मात्रा में न सिर्फ उपलब्ध है, बल्कि इंटरनेट की वजह से सहज सुलभ भी है। संभव है गांधी के विचारों का अध्ययन हमें निरंतर गहराते निराशा के अंधकार के बीच कोई उम्मीद की किरण दिखा दे।
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पराग मांदले
(पराग मांदले के लेख, कहानियां, कविताएं और स्थायी स्तंभ देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। उनके दो कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं। विगत अनेक वर्षों से वे पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ शाश्वत व वैज्ञानिक जीवनशैली के प्रचार-प्रसार से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा गांधी उनके अध्ययन का प्रमुख केंद्र रहे हैं। )