अध्यात्म-एवं-दर्शन

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा - दर्शनशास्त्र के रास्ते से अध्यात्म तक पहुंचना

डॉ मधु कपूर ने अभी तक दर्शनशास्त्र के जितने भी विषयों की यहाँ चर्चा की है, उनकी सहायता से दर्शनशास्त्र की बहुत सी गुत्थियाँ हमारे लिए सुलझी हैं। इस बार का उनका विषय है ज्ञान और भक्ति। इतना तो हम डॉ कपूर के लेखों के कारण भी और यूँ भी जानते हैं कि ज्ञान और भक्ति चाहे बहुत ही छोटे और निरापद से लगने वाले शब्द हैं किन्तु वास्तविकता में ये दोनों बहुत गहन विषय हैं और दर्शनशास्त्र में इन पर व्यापक चर्चा हुई है। 

Evolving Consciousness: The Measure of a Human Being

What does it mean to be an “evolved” human being? In everyday life, we often measure progress by material success, social status, or adherence to tradition. Yet thinkers across centuries—from Buddha and Socrates to Gandhi and Einstein—have reminded us that true growth lies elsewhere: in clarity of thought, courage of conviction, and compassion in action.

शून्य शिखर पर अनहद बाजे

डॉ मधु कपूर की 'ज्ञान' के विभिन्न आयामों पर चल रही श्रृंखला में हाल ही में आपने "‘सत्य' अब एक बहस का विषय है" और उससे पहले "संदेह की टटोलन, ज्ञान की सीमा और विश्वास का धरातल" जैसे लेख पढ़े होंगे. इसके पहले भी विभिन्न लेखों में वह ज्ञान और सत्य पर दर्शनशास्त्र के विभिन्न सिद्धांतों के अनुसार चर्चा कर चुकी हैं. यदि पुराने लेखों का का  स्मरण करें तो इस सन्दर्भ में उनका करीब पौने दो वर्ष पहले इसी वेबपत्रिका में प्रकाशित "मैं कहता आँखिन देखी" भी बहुत महत्वपूर्ण है. 

 

‘सत्य' अब एक बहस का विषय है

दर्शनशास्त्र में 'सत्य' के विभिन्न आयामों के बारे में आप डॉ मधु कपूर के पिछले अनेक लेखों में पढ़ चुके हैं। नए पाठक या फिर कुछ ऐसे पुराने पाठक जो इन लेखों में 'सत्य' को लेकर हुई चर्चा को फिर एक बार देखना चाहते हों तो वह इन लिंक्स पर जाकर देख सकते हैं।

प्रमा, प्रमाण और प्रज्ञा: आत्मीय अनुभूति का ताप

अक्सर जब हम ज्ञान के बारे में बात करते हैं तो मन में यही आता है ना कि यहाँ किसी 'अंतिम सत्य' की बात हो रही है। लेकिन भारतीय दर्शन में यह बात नहीं है। दर्शन में ज्ञान 'सत्य' भी हो सकता है और 'मिथ्या' भी। हो सकता है हम भारतीय शायद instinctively इस बात को जानते हैं, तभी हम बहुत बार 'ज्ञान' के प्रति dismissive रहते हैं। 

दर्शनशास्त्र में संदेह की टटोलन, ज्ञान की सीमा और विश्वास का धरातल

पिछले लेख में विलियम जेम्स के एक नवस्नातक के कथन से हमें इस बात का आभास मिल चुका है कि हम ऐसे दो जगतों के बीच निवास करते हैं, जिनका आपस में कोई तालमेल नहीं होता है। इनमें से एक को हम जानते है, जो विज्ञान का जगत है,  दूसरे को मानते है, जो ईश्वर, आत्मा की अमरता और जगत सृष्टि पर विश्वास का आधार है। Immanuel Kant, इस सदी के विख्यात जर्मन दार्शनिक, के ज्ञानमीमांसा की केंद्रीय धुरी इस ‘आभासिक जगत’ (Phenomenal World) और ‘वास्तव जगत’ (Noumenal World) के बीच चक्कर काटती है। 

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