रामो गति देऊ सुमति - शिक्षारंभ का मंत्र
सत्येन्द्र प्रकाश ने अब तक यहाँ दर्जन भर से भी ज़्यादा ऐसे लेख लिखे हैं जिनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि का ऐसा जीवंत चित्रण होता है कि हमें ढेर सारे पाठकों से सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिलती है। इस बार उन्होंने विषय चुना है अपने शिक्षारंभ के बारे में बताने का - हमने मोटा-मोटा हिसाब लगाया तो समझ आया कि यह करीब-करीब छ: दशक (दो-तीन वर्ष कम होंगे) पूर्व मकर संक्रांति के दिन हुआ होगा। इतनी पुरानी घटना को भी उन्होंने ऐसे ब्यान किया है जैसे अभी उनकी आँखों के सामने सब हो रहा हो।
रामो गति देऊ सुमति - शिक्षारंभ का मंत्र
सत्येन्द्र प्रकाश
खिचड़ी (मकर संक्रांति) की प्रतीक्षा सभी को बड़ी बेसब्री से रहती है। सूर्य जो उत्तरायण हो जाते हैं उस दिन से। यानि सूर्योदय का स्थान पूर्व में ही उत्तर दिशा की तरफ खिसकने लगता है। सूर्यास्त का स्थान भी पश्चिम दिशा में थोड़ा उत्तर को खिसकता जाता है। दिन का दायरा अपेक्षाकृत बड़ा होने लगता है। स्वाभाविक है ठंड भी इस दिन से धीरे धीरे कम होने लगती है। लोगों में एक उत्साह सा होता है इस पर्व को लेकर।
कुछ इलाकों में, जिनमें हमारा गाँव भी शामिल है, यह उत्साह पतंग पर सवार हो आसमान की ऊँचाई छूने को मचल उठता है। आखिर क्यों ना हो। नई फसल जो कटी होती है। अन्न खलिहान से घर आ चुका होता है। नए अन्न का नेवान तो मकर संक्रांति को ही होना होता है। नए धान का चूड़ा नए गुड़ और दही के साथ और नए धान के चावल से बने मुरमुरे और तिल तथा गुड़ की लाई (लड्डू) खास भोजन होता है इस त्योहार के दिन। रात में नए धान के चावल की खिचड़ी खाने का रिवाज है। यह पर्व तभी तो खिचड़ी भी कहलाता है। चावल, चूड़ा तथा तिल और गुड़ की लाई बच्चों को बड़ा भाता है। इस कारण बच्चों में ज्यादा ही उत्साह होता।
परिवार के तीन बच्चे इस साल खिचड़ी को लेकर अधिक प्रसन्न थे। खिचड़ी (मकर संक्रांति) के दिन उन्हें भाठा (खड़िया/चॉक) छूना था। शिक्षा शुभारंभ संस्कार के निरूपण को गँवई बोली में इस नाम से ही जाना जाता था। इसकी चर्चा महीनों पहले से चलने लगी थी। कई बच्चों की उम्र स्कूल जाने की हो चली थी। उन बच्चों को मालूम था भाठा छूने के लिए उनके नए कपड़े बनेंगे, और स्कूल जाने की शुरुआत के साथ उन्हें घर से बाहर निकलने की आजादी भी। बच्चे क्यों ना हों खुश। अब पढ़ने के साथ खेलने को भी अधिक मिलेगा।
बिहार के स्कूल में उन दिनों नामांकन जनवरी में ही होता था। स्कूल का सेशन अंग्रेजी कैलेंडर जनवरी से दिसम्बर के साथ चलता था। वार्षिक परीक्षा दिसम्बर में होती थी और नई कक्षा जनवरी से लगती। नए नामांकन जनवरी के बीस तारीख तक होते।
चौदह जनवरी तक बिहार के एक बड़े तबके में कोई नया काम नहीं होता। इसके पहले का समय खर माह या खरमास का हिस्सा होता। खर यानि अशुभ माह। दिसंबर का आखरी पक्ष और जनवरी का पहला पक्ष खरमास माना जाता है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य के मकर राशि में प्रवेश और सूर्य के उत्तरायण होने के साथ खरमास का अंत होता है। नए और शुभ कार्य उसके बाद ही किया सकता।
जीवन में शिक्षारंभ से बड़ा शुभ कार्य और क्या हो सकता। तभी तो संस्कारों में इसका बड़ा महत्व रहा है। होश संभालने के बाद मनुष्य के जीवन का यह पहला संस्कार होता है। फिर तो विधिवत रीति के साथ इसका आयोजन हुआ करता। पुरोहित, आचार्य और नाऊ की उपस्थिति तो छोटे बड़े सभी अनुष्ठानों में अनिवार्य है। अवसर के अनुकूल अन्य पौनी (जजमानी व्यवस्था के हिस्सेदार) को आमंत्रित कर लिया जाता। भाठा (खड़िया या चॉक) छूने की रस्म में बढ़ई की बड़ी विशिष्ट भूमिका हुआ करती थी जो अब विलुप्त हो गई है। दरअसल काल चक्र के साथ वो अब अप्रासंगिक हो गया है।
जब स्लेट उपलब्ध नहीं थी, बढ़ई लकड़ी की पटरी (छोटी तख्ती) बनाता था। आज जो सब्जी काटने का बोर्ड आ रहा है, कुछ उसी तरह का। बच्चों के लिखने की पटरी बढ़ई बड़ी मुस्तैदी से बनाता था कि उसे एक सुस्पष्ट आकार मिले। सतही चिकनाहट की कोशिश भी उतनी ही शिद्दत से करता। पर हर बार पटरी को समान शक्ल नहीं मिलती। शायद बढ़ई की कलाकारी हर बार उसे कुछ नए प्रयोग को प्रोत्साहित करती और हर बार पटरी का रूप थोड़ा ही सही, बदल जाता। आकार भी आयताकार होते हुए भी कभी-कभी बेडौल दिखता। राँदा की लागातार घिसाई सतह को काफी हद तक चिकनी कर देता, फिर भी कहीं कहीं खुरदुरापन रह ही जाता। बच्चों को हाथ से पकड़ने के लिए पटरी के एक सिरे को तराश कर बढ़ई एक मुठिया बना देता और उसमें एक छोटा छेद ताकि जरूरत हो तो पटरी में रस्सी का टँगना बाँधा जा सके।
इसी पटरी पर बच्चों का हाथ पकड़ पुरोहित और आचार्य पहली बार भाठा से लिखवाते। भाठा एक प्रकार का प्राकृतिक रूप से पाए जानेवाला सफेद चिकनी मिट्टी का ढेला होता जिससे काले सतह पर लिखा जा सकता। बिल्कुल उसी तरह जैसे स्लेट या ब्लैक बोर्ड पर खड़िया से लिखा जाता है। यही रस्म भाठा छूना होता।
पटरी आम की लकड़ी की बनती थी। आम की लकड़ी शुभ जो होती। फिर भृंगराज के पत्ते का रस निचोड़ उसे पटरी पर रगड़ा जाता और पटरी को सुखाया जाता ताकि वो काला हो जाए। इस प्रक्रिया को बार बार दुहराया जाता ताकि पटरी की सतह पूरी काली हो जाए। बच्चों को भृंगराज के रस का लेप बीच बीच में लगाते रहना होता ताकि पटरी का रंग माफ़िक बना रहे।
पलक बढ़ई को पटरियाँ बनाने का काम समय रहते ही सौंप दिया गया था। पलक ने भी पटरियों को आकार देने में कोई कोताही नहीं की थी। ठंड के बावजूद उस खिचड़ी पलक पटरियाँ ले तड़के ही पहुँच गए। अपना राँदा और भृंगराज का थोड़ा अतिरिक्त घोल लेकर। पटरियों में अगर कोई नुक्स रह गया हो उसे दुरुस्त करने का सामान और समय हाथ में होना चाहिए। पर पटरियों का क्या रूप निखर कर आया था। साफ सुथरी चिकनी सतह वाली। भृंगराज लेपकर अच्छे से काला कर लिया था उन्हें पलक ने। किसी के नुक्स निकालने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी पलक ने।
पुरोहित पंडित विद्या प्रसाद मिश्र और नाऊ गजाधर ठाकुर भी सुबह ही आ गए थे।
अनिल, आनंद और मोहन, तीनों बच्चे जिन्हें भाठा छूना था, को भी नहला धुलाकर नए कपड़े पहना दिए गये थे। बस आचार्य पंडित रामवृक्ष ओझा की प्रतीक्षा थी। वो भी बस आते ही होंगे। समय के बड़े पाबंद थे। हर कार्य जो सही मुहूर्त पर कराना होता! विलंब करने से मुहूर्त निकाल जाने का अंदेशा बना रहता है। और जजमान के घर पहुँचने पर पता चले की तैयारी में कोई कमी रह गई है तो उसे पूरा करने का समय भी तो होना चाहिए। वैसे तो पुरोहित जी पहले आकर विधि व्यवस्था देख चुके होते हैं और अपनी ओर से, अगर कोई कमी बेसी है बता भी देते हैं। फिर भी आचार्य जी स्वयं देखने के बाद ही आश्वस्त होते। मुहूर्त से पहले पहुँचना तभी तो आचार्य जी की आदत बन चुकी थी।
इतने में आचार्य जी भी पहुँच गए। बच्चे बड़े सभी ने चरण स्पर्श कर आचार्य जी का आशीर्वाद लिया। पानी मिठाई उनके स्वागत में आया। आचार्य जी ने पानी तो पी लिया पर मिठाई नहीं खाई। किसी भी अनुष्ठान को पूरा करने से पहले वे केवल फलाहार ही करते। अन्न तो अनुष्ठान की समाप्ति के बाद ही लेते। कुशल क्षेम के बाद उन्होंने पुरोहित जी से आग्रह किया की उन्हें पूजन सामग्री और वेदी का अवलोकन कराया जाए। इस उदेश्य से वे पुरोहित के पीछे पीछे घर के आँगन में आ गए। आँगन में बनी तीन वेदियाँ देख उन्होंने अपना मन्तव्य व्यक्त किया की दो या चार बच्चों का संस्कार शुभ होगा। तीन की संख्या ऐसे कार्यों में कुछ शुभ नहीं है।
उनकी बात सुन परिवार के बड़े बुजुर्ग थोड़े संशय में पड़ गए। इस तीन बच्चों की तो उम्र निकली जा रही है। इनकी पढ़ाई और स्थगित नहीं हो सकती। संक्रांति के बाद बीस तारीख तक और मुहूर्त है नहीं कि एक बच्चे का संस्कार एक दो रोज के लिए टाल दिया जाए। विचार आया इन बच्चों के साथ चौथे बच्चे अरुण को भी आज ही भाठा छूला दिया जाए। उसकी उम्र वैसे थोड़ी कम थी पर पढ़ने लिखने की उसकी चाह अन्य तीन बच्चों से अधिक थी। उसकी माई शिक्षिका जो थी।
पर चौथे बच्चे की तैयारी कहाँ थी। ना नए कपड़े बने थे। ना चौथी पटरी का इंतजाम था। वेदी तो बन जाती, उसमें कितना वक्त लगना था। घर वालों की ऊहापोह पलक बढ़ई से भी छुपा नहीं रहा। गजाधार ठाकुर आँगन से बाहर आते जाते बुदबुदा रहे थे। जजमान तो स्वयं पंडित हैं। इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि आँगन में तीन वेदियाँ शुभ नहीं होगी। अब चौथे बच्चे के लिए इतनी जल्दी पटरी और नए कपड़े की व्यवस्था कैसे की जाए। पलक को जैसे भनक लगी, बोल पड़ा, पटरी की चिंता तो बिल्कुल मत कीजिए। मैंने पहले ही चार पटरियाँ बना ली थी। यह सोच कर कि बड़े आदमी के घर की बात है, पता नहीं कौन किस पटरी में नुक्स निकाल दे। एक अधिक रहेगा तो ऐसे में काम आ जाएगा।
अभी पलक ने चौथी पटरी की गुत्थी सुलझाई ही थी कि अरुण नहा धोकर नए कपड़े में उछलता कूदता आ टपका। उसकी माई ने पहले ही उसके लिए नए कपड़े बनवा रखे थे। इस दिन के लिए। उन्हें पता था कि तीन बच्चे नया कपड़ा पहनेंगे तो अरुण का दिल भी मचलेगा। उस उम्र के बच्चों का मन तो ऐसे में ललचाता ही है। फिर तो कोई समस्या ही नहीं रही। गजधार ठाकुर ने शीघ्रता से चौथी वेदी भी तैयार कर दी।
आचार्य, पुरोहित और नाऊ आँगन में आ गए। पूजा सामग्री को चार अलग थालों में सजा कर रखा गया। मौली, रोली-कुमकुम, हल्दी, चंदन, धूप, अक्षत, दही इत्यादि। चार कुश के आसन बिछा उस पर पटरी और भाठा भी रख दिया गया। बच्चे भी अपने लिए रखे गए आसनों पर विराजमान हो गये। आचार्य और पुरोहित ने पूजा प्रारंभ किया। बच्चों की अनामिका (चौथी उँगली) में कुश की बनी पवित्री (छल्ला) पहनकर आचमनी कराई गई। ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः , ॐ माधवाय नमः के साथ तीन बार जल मुँह को लगाया। फिर ॐ ऋषिकेशाय नमः कह हस्त प्रक्षालन की क्रिया पूरी हुई।
बच्चों के हाथों में मौली(रक्षा सूत) बाँधा गया। दही चंदन कुमकुम अक्षत इत्यादि का तिलक लगा। फिर पटरी और भाठा की भी पूजा कराई गई। पढ़ने लिखने की वस्तुएं सदैव पूज्य हैं। आचार्य और पुरोहित ने मंत्रोंचार और स्वस्ति वाचन कर इस संस्कार को आगे बढ़ाया। आचार्य जी के मंत्रोंचार और स्वस्ति वाचन के मध्य पुरोहित जी ने बारी बारी बच्चों का हाथ पकड़ भाठा से पहली बार लिखवाया, ‘रामो गति देऊ सुमति’।
इस तरह पहला वाक्य, ‘रामो गति देऊ सुमति’ लिख हम बच्चों ने अपनी शिक्षारंभ की। शिक्षारंभ के इस संस्कार में वर्तनी का कोई अक्षर या “alphabet का कोई letter’ आचार्य ने नहीं लिखवाया। इसे छोटे वाक्य को लिखवाकर आचार्य ने समझाया, "बच्चों,‘जीवन में शिक्षा का उदेश्य इसी छोटे मंत्र में छुपा है’। तुम सब बड़ी से बड़ी डिग्रियाँ हासिल करो, पर यह मत भूलना की उससे चाहे अन्य जो उदेश्य पूरे हों, पर जीवन रामोन्मुख रहे, उनकी कृपा हो और तुम सुमति के मार्ग पर चलो, यही तुम्हारी शिक्षा का सही उदेश्य है । इसके अभाव में शिक्षा छलावा है, भटकाव और निरुद्देश्य है।"
‘विद्या ददाति विनयम’ शिक्षोपार्जन का अभीष्ट है। मनोरथ है। इसकी पूर्ति के बिना शिक्षा ‘अशिक्षा’ है विद्या ‘अविद्या’ है। मानव प्रजाति की बड़ी से बड़ी उपलब्धियाँ अहितकर होंगी इस सूत्र के अभाव में। स्वयं के लिए भी और मानव मात्र के लिए भी। या यूं कहें पूरी सृष्टि के लिए।
आधुनिक शिक्षा के बिना मानव बेहतर हवा में साँस ले रहा था। नदियों में असंक्रमित स्वच्छ जल पा रहा था। एक दूसरे के प्रति अच्छा बर्ताव रखता था। मानवीय संवेदनाओं का ह्रास अगर आधुनिक शिक्षा का प्रतिफल है तो यह अवश्य चिंतनीय है।
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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।