प्रमा, प्रमाण और प्रज्ञा: आत्मीय अनुभूति का ताप
अक्सर जब हम ज्ञान के बारे में बात करते हैं तो मन में यही आता है ना कि यहाँ किसी 'अंतिम सत्य' की बात हो रही है। लेकिन भारतीय दर्शन में यह बात नहीं है। दर्शन में ज्ञान 'सत्य' भी हो सकता है और 'मिथ्या' भी। हो सकता है हम भारतीय शायद instinctively इस बात को जानते हैं, तभी हम बहुत बार 'ज्ञान' के प्रति dismissive रहते हैं। डॉ मधु कपूर के सभी लेख दर्शनशास्त्र की कुछ कठिन प्रस्थापनाओं को हमारे लिए सरल बनाते हैं। यह लेख भी यही काम करता है और बहुत रुचिपूर्ण भी बन पड़ा है।
प्रमा, प्रमाण और प्रज्ञा: आत्मीय अनुभूति का ताप
डॉ मधु कपूर
वस्तुतः भारतीय परंपरा में ‘ज्ञान’ वह है जो विषय को प्रकाशित करता है। जैसे अँधेरे कमरे में दीपक जलाने से वस्तुएं प्रकाशित हो उठती है। ज्ञान चेतना की वह स्थिति है जो हमारे सभी प्रकार के व्यवहार का हेतु होती है। यह एक प्रकार से साक्षात्कार, अनुभूति, और बोध का समुच्चय है। लेकिन ज्ञान का अर्थ केवल सत्य नहीं होता है, जैसा कि पाश्चात्य दर्शन में माना जाता है। हम अक्सर ऐसा प्रयोग करते हैं –‘आप इस बारे ठीक ठीक नहीं जानते है’, ‘आपका ज्ञान सही नहीं था’ इत्यादि। उदाहरण के लिए रस्सी को साँप समझकर किसी व्यक्ति को प्रत्यक्ष ज्ञान तो हो सकता है, पर अंत में वह ‘भ्रम ज्ञान’ ही साबित होता है’। अतः भारतीय दर्शन में ‘ज्ञान’ शब्द सामान्यतः सत्य और मिथ्या के उभय अर्थ में प्रयुक्त होता है।
लेकिन प्रश्न यह है कि मनुष्य प्रामाणिक और विश्वसनीय ज्ञान कैसे प्राप्त करे। इसे पाने करने के लिए, उसे विभिन्न प्रकार के प्रमाणों और तर्कों की आवश्यकता होती है। यह प्रमाण और तर्क ऐसे होने चाहियें जो ज्ञान को 'प्रमा' अर्थात यथार्थ सिद्ध कर सकें। ‘पानी बरस रहा है’ - यह वाक्य तभी 'प्रमा' कहा जायेगा जब प्रत्यक्ष के द्वारा यह प्रमाणित हो जाए कि बारिश हो रही है।
भारतीय दर्शन में प्रमाण वे साधन हैं जिनसे ज्ञान को सत्य या मिथ्या प्रमाणित ठहराया जा सके। दृष्टान्तस्वरूप यदि कोई व्यक्ति कहता है —‘आकाश में पुष्प हैं’ तो यह प्रामाणिक नहीं कहा जाएगा, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा यह ज्ञान पुष्ट नहीं होता है। अतः कहा जा सकता है कि ज्ञान होना एक घटना मात्र है, जिसका मूल्यांकन उसके प्रामाण्य पर निर्भर करता है —जो किसी अन्य प्रमाण के द्वारा साधित होता है। जैसे यदि कोई कहे—‘धूप में कपड़े सूखते हैं,’ तो उसके इस कथन की प्रामाणिकता हमें प्रत्यक्ष से प्राप्त हो जाती है। दूर किसी मकान से धुआँ निकलता देख कर अनुमान करते है, वहां आग लगी है। ‘पृथ्वी सूर्य के चारो ओर चक्कर लगाती है’ —यह ज्ञान वैज्ञानिकों के द्वारा दिए गये शब्द प्रमाण पर आधारित है। अर्थात जिस ज्ञान से किसी अज्ञात वस्तु का अनुभव हो, या जो अन्य किसी ज्ञान के द्वारा बाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही 'प्रमा' कहा जाता है।
बिना ज्ञान के पृथ्वी हमारे लिए अंधकारमय हो जाएगी, जैसे बिना आँख के रंगीन दुनिया हमारे लिए बेरंग हो जाती है। तृष्णार्त व्यक्ति की आँखे रेगिस्तान में जल ही जल देखती है, लेकिन वह हकीकत में जल नहीं होता है, वैसे ही लोभ, दोष, मोह के आवरण से युक्त ज्ञान भी विशुद्धता अथवा निरपेक्षता खो बैठता है। चूंकि बौद्ध दार्शनिक जागतिक वस्तुओं को क्षणिक मानते है, अतएव ज्ञान भी उनके लिए क्षणिक होता है। वे प्रथम क्षण के ज्ञान को विशेष महत्व देते है, क्योंकि वह निष्कलुष होता है—उसमें नाम, गुण, स्मृति और कल्पना आदि की मिलावट नहीं होती है। द्वितीयादि क्षणों में जो ज्ञान आता है, वह पहले क्षण के ज्ञान की छाया से प्रभावित हो चुका होता है, जो पूर्णतः वस्तुनिष्ठ या यथार्थ नहीं होता है। व्यवहारिक जीवन में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि वक्ता के द्वारा कोई बात जब श्रोता तक पहुँचती है तो उसका रूप बिलकुल विकृत हो चुका होता है। इसलिए प्रथम क्षण का ज्ञान ही सत्य के सबसे निकट होता है, जो अपनी अन्तर्निहित प्रकृति से या स्वलक्षण में विराजमान होता है। उदाहरण के लिए अपनी दृष्टि से जिस जल को हम यथार्थ मानते हैं, अगर उसी जल को १०० डिग्री सेल्सियस से ऊपर उबाला जाए, तो वह वाष्प हो जाता है। जब उसी जल का तापमान 0 डिग्री सेल्सियस से नीचे कर दिया जाता हैं, तो वह जम कर बर्फ बन जाता है। इस तरह विभिन्न परिस्थितियों में जल का बदलता स्वरूप अपने असली स्वरूप में अज्ञात ही रह जाता है।
इस तरह बौद्ध मत में लौकिक ज्ञान, जिसे संवृति सत्य कहा जाता है, उसके दो ही मुख्य स्रोत माने जाते हैं: प्रत्यक्ष और अनुमान। हमारा व्यवहारिक जीवन इन्हीं दो साधनों पर निर्भर रहता है, किन्तु वह चरम सत्य का दर्शन कराने में सक्षम नही होता है। उनके अनुसार ज्ञान चूँकि क्षणिक चेतना, संस्कारों का एक धारावाहिक प्रवाह है, अतएव क्षणिकता और प्रामाण्यता के बीच के तनाव को दूर करने के लिए 'अर्थक्रियाकारित्व' की धारणा का उल्लेख करना आवश्यक है। अर्थात ज्ञान की प्रामाणिकता का आधार ‘कार्य उत्पादन की सामर्थ्य’ है। जैसे मिट्टी में बोया हुआ बीज अंकुर उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखता है, जबकि भुने हुए बीज में अंकुर उत्पादन की सामर्थ्य ही नहीं होती है। चूंकि मरीचिका में प्राप्त जल का ज्ञान प्यास बुझाने में असमर्थ होता है, तो उसे यथार्थ या सत स्वरूप नहीं कहा जा सकता है। वस्तुओं के अस्तित्व की पहचान उनके "कार्य करने की क्षमता" के द्वारा निर्धारित होती है। बौद्धों का यह प्रयोगवादी दृष्टिकोण ज्ञान को उसके फल से जोड़ता है। कथनी और करनी के सन्दर्भ में हम कुछ ऐसी ही आलोचना कर चुके है। (आप चाहें तो इस लिंक पर जाकर यह लेख देख सकते हैं।)
यद्यपि बौद्ध दार्शनिक इस सांसारिक ज्ञान को पूरी तरह से नकारते नहीं है, लेकिन यह ज्ञान शांति और मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसा ज्ञान व्यावहारिक जीवन के लिए आवश्यक होने पर भी व्यक्ति को दुखों के चक्र से मुक्त नहीं कर सकता। निर्वाण प्रार्थी के लिए ऐसा ज्ञान निष्प्रयोजन है। इस प्रसंग में बौद्ध मत में चार बुनियादी आर्य सत्यों को जानना आवश्यक है —- दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निवारण (निर्वाण) और दुःख निवारण का मार्ग। बुद्ध ने दुखों से मुक्ति के लिए जिन अष्टांगिक मार्गों का उपदेश दिया है —-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि--उनमें से सम्यक् दृष्टि ही सही ज्ञान का आधार कहा जाता है।
बौद्ध दर्शन में इसलिए ज्ञान को प्रज्ञा या सर्वोच्च आत्मज्ञान की अवस्था कहा गया है, जो वस्तु के सही स्वरूप को समझने की क्षमता देता है और मनुष्य में आंतरिक परिवर्तन भी लाता है । ज्ञान का उद्देश्य सिर्फ सूचनाएँ बटोरना नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से जीवन के अंतिम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति में सहायक होना है। यह वह समझ है जो हमें सामान्य बौद्धिक ज्ञान से परे ले जाती है और हमें शून्यता जैसे गहरे सत्यों को समझने में मदद करती है, जो लौकिक समझ से पृथक है।
इसके अतिरिक्त बौद्ध दर्शन में ज्ञान को करुणा से भी अलग नहीं किया जाता है। तात्पर्य है कि आत्मज्ञान का उद्बोध व्यक्ति को संवेदनशील बना देता है, जो करुणा से संपृक्त होकर पूर्णता अर्जन करता है। यथार्थ ज्ञान हमें न केवल अपने दुखों से बल्कि दूसरों के दुखों को भी दूर करने के लिए प्रेरित करता है। प्रज्ञा त्रिविध रूप से प्राप्त हो सकती है —- श्रवणमयी प्रज्ञा अर्थात बुद्ध के उपदेशों को पढ़ना और सुनना। चिन्तनमयी प्रज्ञा में बौद्धिक विश्लेषण शामिल होता है, जिसमें हम सुने हुए ज्ञान को अपने तर्क और विचार के माध्यम से तौलते है और पुनः उसे आत्मसात करते हैं। भावनामयी प्रज्ञा श्रेष्ठ रूप है, जो चित्त को मलिनताओं से शुद्ध करता है और अज्ञान व मोह से उत्पन्न दुःख के कारणों से मुक्त करता है।
इस तरह ज्ञान के श्रवण और चिंतन की अवस्था संवृतिसत्य या व्यवहारिक ज्ञान कहलाता है, तथा भावनामयी प्रज्ञा पारमार्थिक सत्य है, जो यथार्थ को बिना किसी काल्पनिक अवधारणा के उसकी मूल प्रकृति में देखता है। धर्मचक्रप्रवर्तन सूत्र में बुद्ध जिसे तथता (बुद्ध को तथागत कहा जाता है) कहते है उसका अर्थ है वस्तु की यथार्थता या सत्यस्वरूप को पहचानना। वस्तुएँ अपने असली स्वरूप को तभी प्रकट करती हैं, जब हम अपनी पूर्वधारणाएँ त्यागकर, पक्षपातित्व रहित होकर उन्हें तटस्थ भाव से देखते है, जिसे शून्यता की साधना भी कहा जाता है। अतः सच्चा ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि शील (सात्विक कर्म), समाधि (ध्यान) और प्रज्ञा (ज्ञान) स्वरूप होता है। इस तरह ज्ञान —प्रज्ञा, करुणा और नैतिक आचरण के त्रिरत्न का संगम है। प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय का निम्न कथन तीन प्रकार की प्रज्ञाओं का सफल निरूपण करता है :
“मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ, ...अणु क्या होता है ... रेडियम –धर्मी तत्त्वों का अध्ययन करते हुए विज्ञान की उस सीढ़ी तक पहुँचे जहाँ अणु का भेदन संभव हुआ, रेडियम-धर्मिता के प्रभाव—इन सबका पुस्तकीय या सैद्धांतिक ज्ञान तो मुझे था। फिर जब हिरोशिमा में अणु-बम गिरा...(तो) उसके घातक प्रभावों का ऐतिहासिक प्रमाण भी सामने आ गया ....(फिर एक समय) हिरोशिमा गया और वह अस्पताल भी देखा जहाँ रेडियम –पदार्थ से आहत लोग वर्षों से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। पर अनुभव से अनुभूति गहरी चीज है...अनुभव तो घटित का होता है , पर अनुभूति संवेदना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात कर लेती है... फिर एक दिन वहीँ सड़क पर घूमते हुए देखा कि एक जले हुए पत्थर पर लम्बी उजली छाया है—विस्फोट के समय कोई वहां खड़ा रहा होगा और विस्फोट से बिखरे हुए रेडियम-धर्मी पदार्थ की किरणें उससे रुद्ध हो गई होंगी...जो उस व्यक्ति पर अटकी, उन्होंने उसे भाप बनाकर उड़ा दिया होगा। इस प्रकार समूची ट्रैजडी पत्थर पर लिखी गई... उस छाया को देखकर एक थप्पड़ सा लगा.....उस क्षण अनुभूति-प्रत्यक्ष में आ गया—एक अर्थ में मैं स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया। भीतर की आकुलता बुद्धि के क्षेत्र से बढ़ कर संवेदना के क्षेत्र में आ गई ....अचानक एक दिन मैंने हिरोशिमा पर कविता लिखी — ...स्वाती की बूंद सीपी का मर्म बेध जाती है, फिर वर्षों में (के बाद) मोती पकता है ...” (आत्मनेपद पुस्तक से)।
यह ताप ही है जो ज्ञान को प्रामाणिक बनाता है।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।