गौमाला - गाँव देहात की विदा होती परंपरा
सत्येन्द्र प्रकाश का आलेख 'गौमाला' एक विलुप्त होती परंपरा का सजीव चित्रण करती है. अपनी कहानियों की शैली क यहाँ भी कुशलतापूर्वक अपनाते हुए वह लेखक को ऊबने नहीं देते.
गौमाला - गाँव देहात की विदा होती परंपरा
सत्येन्द्र प्रकाश
गौमाला की तैयारी जोरों पर थी। वर्षों की परंपरा रही है गौमाला पूजा की। सावन के अंतिम सोमवार या शुक्रवार को यह पूजा होती है। गौमाला कहीं गवमाला या गँवमाला हो जाता है। उच्चारण का फ़र्क भले हो, उत्साह समान होता है। सामुदायिक सरोकार से सरोबार सोल्लास मनाए जाने का अवसर है गौमाला। फाग का उमंग और होली का रंग भी साथ उड़ता है पर सामूहिक पूजा और सह-भोज गाँव सिर्फ गौमाला में ही होता है।
खिचड़ी-सतुआनी की तरह यह आयोजन फसलों की कटाई पर नहीं होता! खेती-किसानी से जुड़े उत्सवों में गौमाला अनूठा है। धान की रोपनी समाप्त हुई होती है, जेठ-बईसाख का ताप थमने लगा होता है। लू के थपेड़ों से राहत मिल गई होती है। हाड़-तोड़ मेहनत के बाद गौवंशी बैलों को आराम मिल गया होता है। किसानों और खेतिहर मजदूरों को लेवाही (पानी भरे गीले खेतों की जुताई) और बिचड़ों की रोपनी से फुरसत मिल गई होती।
आम धारणा तो यही है कि अच्छी बारिश के लिए गाँव वाले ग्राम-देवी एवं ग्राम-देवता से साथ मिल कर प्रार्थना करते हैं। या यूँ कहें कि ग्राम देवी-देवता के माध्यम से भगवान इन्द्र की आराधना करते हैं। बिहार के गाँवों में ग्राम-देवता के रूप में अमूमन बरम बाबा (ब्रह्म देव) और ग्राम-देवी के रूप में दुर्गा स्थान मौजूद होते हैं। चिह्नित बरगद-पीपल और नीम बरम बाबा और दुर्गाजी के प्रतीक स्थल हैं। यहीं चबूतरे पर बने पिंड और पिंडियाँ इन देव-देवियों के प्रतीक हैं, जिनकी पूजा पूरा गाँव करता है। गौमाला की सामूहिक पूजा के केंद्र बिन्दु यही स्थल हैं।
इन्द्र देव की बड़ी कृपा रही थी उस वर्ष। ज़रूरत के मुताबिक समय से बारिश होती रही थी। धान के बिरवे (बिचड़े) उगाने के लिए खेतों में नमी चाहिए होती। बारिश ना हो तो बोरिंग के पानी से खेत को नम किया जाता। ज़रूरत भर नमी होने पर ही बीज बोया जाता ताकि स्वस्थ बिरवे तैयार हों। तीन-चार हफ़्ते लग जाते हैं बिचड़ों को रोपाई के लिए तैयार होने में। इस दरम्यान भी उन्हें नमी की ज़रूरत होती है। ज़मीन में नमी हो पर आसमान तप रहा हो, वो भी बिचड़ों को नहीं भाता। आसमानी गर्मी उन्हें जला देती है। बीच-बीच में हल्की बारिश इन बिचड़ों को मिल जाए फिर तो खुशी से खिलखिला उठते।
धान की खेती के अनुकूल बारिश होते रही थी। रोपनी भी समय से हो गई थी। शायद ही बोरिंग के पानी की कहीं जरूरत पड़ी हो। चारो ओर बिचड़ों की हरियाली आँखों को तर करने वाली थी। बादलों की आँखमिचौली से मौसम खुशगवार हो रहा था। पावस की फुहार से सभी का मन पुलकित था और गौमाला की तैयारी पूरे जोशो-खरोश से चल रही थी। अब तक मौसम का साथ मिला था। घाघ बाबा के बताए अनुसार आगे भी बारिश होगी, पूरी उम्मीद थी। अब बस किसी कारण देवी-देवता रुष्ट ना हों, इसका ध्यान हर हाल में रखना था।
कहीं कोई त्रुटि ना रह जाए, गाँव के बड़े बुजुर्ग आए दिन राय मशविरा करते रहते थे। इस सिलसिले में नारद बाबा (पंडीजी), मूरत काका (डाक बाबू), सतन बाबू, मंगला बाबू(नेताजी), राधा बाबू, मंशी बाबू, शारदा पाँड़े, महंथ प्रसाद, शिऊ चौधरी, सुराजी चौधरी, सुरवंसी अहीर समेत गाँव के कई लोग जमा थे। लबेदन साह, सहदेव गोंड़, चोकट खटीक, राजबंसी खटीक, जाटा महरा, सहलाद राम, राम निरेखन लोहार आदि भी उपस्थित थे। निर्णय बड़े-बुजुर्गों का होता और व्यवस्था नौजवानों की। नई पीढ़ी के रामाधार सिंह, राम असीस, अनंदी, शिव मंगल, रामाजी, नोखा, जनार्दन, सुदेनी, डोमा राम, सेवख राम समेत गाँव के कई युवा थे।
बरम बाबा के छाँव में राय-बात हो रही थी। नारद बाबा ने घाघ भंडारी का दोहा याद किया, ‘वर्षा रोहिणी बरसे मृग तपे, कुछ कुछ आद्रा जाए, कहे घाघ सुने घाघनी स्वान भात नहीं खाए।‘ बताने लगे कि रोहिणी नक्षत्र में बारिश हो, मृगशिरा में धूप हो और आद्रा में हल्की बारिश हो तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि उस वर्ष कुत्तों का मन भी भात से ऊब जाएगा। अब तक के सभी संकेत बिल्कुल इसके अनुरूप थे। आगे के लिए हर दृष्टि से शुभ संकेत ही था। फिर भी उनकी राय थी कि गौमाला के आयोजन में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए। उस जमावड़े में सबसे अधिक अनुभवी वही थे। कौन से देवी देवता कब रुष्ट हो जाएँ, पता नहीं चलता। इसलिए सब कुछ रीति के अनुसार ही सम्पन्न होना चाहिए।
किसी कोने से धीमी आवाज आई, ‘गौमाला पूजा के मार्फत बरखा के लिए ही तो प्रार्थना की जाती है। और इस बरस इतनी अच्छी वर्षा वैसे ही हो रही है तो फिर गौमाला किसी तरह निपटा लें, क्या फरक पड़ता है’। यह अनंदी की आवाज थी। पहचानने में तनिक देर नहीं हुई, इस तरह की बेतुकी राय भी तो वही देता था। सतन बाबू डपट कर बोले, “ये नहीं कि नारद बाबा से गौमाला के विषय में पूरी बात समझ लें। उसकी बजाय ये किसी तरह पूजा निपटा लेने की सलाह देने लगे।“ सतन बाबू की बात सुनते ही कई लोग एक साथ बोल पड़े, हाँ पंडीजी, सबको बताइए इसे गौमाला पूजा क्यों कहते हैं, यह पूजा क्या सिर्फ बरखा के लिए ही की जाती है या और कोई कारण भी है”?
“गौमाला के विषय में जानने की सबकी इच्छा है तो मैं ज़रूर बताऊँगा। पर शांति से सुनने का धीरज है तभी।“ उन्होंने कहा। सबने हामी भरी तो उन्होंने बताना शुरू किया। “पहले यह समझो कि इसे गौमाला क्यों कहते हैं? यह पूजा खेती-कार्यों की सफलता की कामना से होती है। बरखा की अनिश्चितता के कारण यह पूजा सिर्फ बरखा से जुड़कर रह गई है। पर गौमाला तो वास्तव में गौवंशियों यानि बैलों और अन्य माल मवेशियों की पूजा है। उनके कठिन श्रम के सम्मान का अवसर है। रोपनी के बाद का समय बैलों के पूर्ण आराम का समय होता है। कीचड़ वाले खेतों की जुताई और ढेलों को समतल करने में उनका शरीर थक कर चूर हुआ रहता। वो बोल नहीं पाते, नहीं तो बताते कैसे उनका पोर-पोर दुख रहा है”।
“बैलों को महुआ और गुड़ हम इसीलिए खिलाते हैं कि उनके शरीर का बाथा (पीड़ा) कम हो। मादक महुआ गुड़ के साथ मिलकर पीड़ा-हारी प्रकृति अपना लेता है। थ'के-हारे बैलों को खिलाकर हम सब उनके दुख दर्द के प्रति अपनी चिंता जताते हैं। हमारी बोली भले ना समझें, अपने प्रति हमारे लगाव या दुराव को वे आसानी से समझ लेते हैं। चूँकि खेती में वे हम सभी के सबसे करीबी सहयोगी हैं, यह पूजा सबसे पहले उन्हें समर्पित होती है”। फिर नारद बाबा ने कहा, “मेरी समझ से इस पूजा को गौमाला इसीलिए कहते हैं क्योंकि यह पूजा कृषि के कामों में लगे माल मवेशियों की भी पूजा है। इनमें बैलों की प्रमुखता है और गौ यानि गायें बैलों की जननी हैं। उनके साथ अन्य माल-मवेशियों के प्रति भी किसानों की कृतज्ञता समाहित है ‘गौमाला’ नाम में।“
खेती-किसानी और गँवई जीवन में माल-मवेशियों के साथ प्रकृति का अहम स्थान है। बरखा, धूप, हवा-पानी के लिए प्रकृति पर निर्भरता ही उनकी पूजा-आराधना को गौमाला से जोड़ती है। और पूरा गाँव मिलकर आपसी सहयोग और सहकार से यह सामूहिक पूजा करता है, जो ग्राम-वासियों का एक दूसरे के प्रति आभार है एवं भविष्य में सहजीविता और सहभागिता के लिए अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करने का अवसर भी।
नारद बाबा से गौमाला की इतनी विशद व्याख्या सुनकर सभी चकित थे। सतन बाबू सहसा बोल उठे, “भला हो अनंदी का, ना वह जैसे तैसे पूजा निपटाने की बात छेड़ता ना हम अपनी पूजा, गाँव की गौमाला पूजा के विषय में सारी बातें जान पाते। हम सब तो यही सोचते थे कि धान की फसल के लायक बरखा हो बस, ना सूखा ना बाढ़, इसी के लिए गौमाला पूजा होती है।” चर्चा आगे बढ़ी, तो नारद बाबा कहने लगे “इतना ही नहीं, और सुनो। सबको पता है न भगवान कृष्ण ने गोवर्धन क्यों उठाया था? कान्हा की मुरली और अपनी गऊओं की धुन में मदमस्त ब्रजवासियों से नाराज इन्द्र ने उन्हें सजा देनी चाही थी। फिर उनके कोप से इतनी तेज़ बरखा होने लगी कि लगा, नंदगाँव, वृंदावन, गोकुल सब बह जाएगा। साथ में उनकी गायें और घर द्वार भी बह जाएंगें। फिर कान्हा ने अपनी छोटी उँगली पर गोवर्धन उठाकर उसके नीचे ब्रजवासियों और उनकी गऊओं को छुपाया था, पूरे सात दिन। इन्द्र के कोप से ऐसे बचाया था कृष्ण ने उन्हें।”
“सोचो, क्या किसान इन्द्र देव और गोपाल (गऊओं का रक्षक) में किसी की भी नाराजगी झेल सकते हैं क्या? अगर गायें और उनके बच्चे (बैल) नाराज हों तो हमारी किसानी हो सकती है क्या? और इनका साथ मिल जाए पर समय से बरखा न हो, तब भी तो किसानी नहीं हो सकती है।” इतना बता कर नारद बाबा ने पूछा, “कुछ समझ में आया”?
जमा लोगों के बीच फुसफुसाहट शुरू हो गई। बाबा ने तो बात और उलझा दी। दो-दो देव, किसकी पूजा हो, एक की करो तो दूसरा नाराज़। फिर उपाय क्या था? बाबा ने ठहाका लगाते हुए कहा, “अरे भाई उपाय है हम सब की गौमाला पूजा। प्रकृति और पशु धन की पूजा एक साथ, यानि इन्द्र और कृष्ण दोनों की समान पूजा, एक साथ, ताकि दोनों खुश रहें”।
और उनकी बातों से सभी को सहजीविता और सहभागिता का मतलब भी अब समझ में आने लगा। प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर जीना ही सहजीविता है। प्राकृतिक आपदा यानि प्रकृति के कोप से रक्षा सामूहिक प्रयास से होता है। प्रकृति के प्रति आदर और सम्मान के भाव से होता है। प्रकृति से सामंजस्य और तालमेल बिठाकर कर ही ज़िन्दगी की गाड़ी आगे बढ़ती है।
सहजीविता के इसी भाव से भोग-प्रसाद में पूरा गाँव सहयोग करता। घर-घर घूम कर खाने का सामान - आटा, चावल, दूध और अन्य जो भी वस्तु गाँव में उपलब्ध हो - इकट्ठा किया जाता है। गोईंठा (कंडे-उपले) और जलावन की सुखी लकड़ियाँ भी गाँव वालों के ही योगदान से उपलब्ध हो जाता। बाज़ार से जो चीज़ें खरीदनी होतीं, उनके लिए सामर्थ्य के मुताबिक हर घर से चन्दा लिया जाता। जो पैसे या चावल आटा दूध से अपनी सहभागिता नहीं कर पाते, वे श्रमदान देते। कोई सब्जी काटने में सहयोग देता तो कोई आटा गूँथने में। भोग-प्रसाद के लिए लिट्टी, जाऊर (कम दूध में पकी गुड़ वाली खीर), पूरी, सब्जी बनाने का काम भी श्रमदान से ही होता।
बैठक में यही सारी बातें तय होनी थी। किन्तु अनंदी की एक बचकानी बात पर नारद बाबा को इतनी बातें बतानी पड़ी। खैर वह भी जरूरी ही था, नहीं तो इस पूजा की पूरी महत्ता किसी को पता ही नहीं होती। और समय की चिंता तो थी ही नहीं। खेती-किसानी से फुरसत पाकर ही गौमाला की तैयारी शुरू होती। सावन के आखिरी सोमवार या शुक्रवार को गौमाला पूजा होती है। इस सीजन की खेती का काम और शादी विवाह आदि से सभी आषाढ़ में ही फारिग हो चुके होतें हैं। उसके बाद तो “बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई” वाले माहौल में चौपाल और बैठकी में ही समय व्यतीत होता है। खुशगवार मौसम, फुरसत का आलम और मन मस्ती के लिए ना मचले, खेल कूद ना हो, कैसे संभव हो सकता है। कुश्ती, कबड्डी, गुल्ली डंडा और पतंग उड़ाना युवकों को अधिक लुभाते। बेफिक्री के दिनों में इनका आयोजन भी शुरू हो जाता। नम मिट्टी कुश्ती के अखाड़े और कबड्डी के मैदान के लिए अधिक माकूल होता। और सावन की मिट्टी तो नम होती है।
फिर गौमाला की जिन बातों की जानकारी पंडीजी ने दी थी वह तो सभी को जानने वाली थी। वरना अन्य कई रीति-रिवाजों की तरह साल दर साल गौमाला चलता रहता और शायद ही किसी को इसके विषय में पता होता।
उस दिन की बैठक में युवकों की टोलियाँ बन गई। एक टोली आटा चावल गुड़ इकट्ठे करेगी। आलू और बंडा (कचालू) और अन्य सब्जियों की जवाबदेही दूसरी टोली को दे दी गई। गोईंठा और लकड़ियों की व्यवस्था तीसरी टोली करेगी। लिट्टी, पूरी, जाऊर, सब्जी बनाने का काम गाँव के कुछ अधेड़ उम्र के लोगों ने स्वतः अपने ऊपर ले लिया। कुछ युवकों ने अपने आप उनके काम में हाथ बटाने की इच्छा जता दी। बैलगाड़ी से गन्ना लेकर जाने वालों को लिट्टी-चोखा, सब्जी और थोड़ी बहुत और चीजें बनाने भी आती थी। जब मिल पर अपनी बारी के इंतजार में रुकना पड़ता, तो अपना खाना खुद ही बनाना होता था। पाँच-सात गाड़ीवान इकट्ठा हो लिट्टी बना लेते। लिट्टी के साथ कभी चोखा, कभी दाल तो कभी आलू-चने की तरी वाली सब्जी बना लेते। गाड़ीवानों की मदद के लिए साथ गए बच्चों को भी यह गुर आ जाता, उस्तादों का हाथ बँटाते हुए। गाँव के सह भोज में इन्हीं गैर-पेशेवर रसोईयों से काम चल जाता। यदा-कदा महाराज की सेवा भी हाजिर रहती। गाँव के एक दो गरीब बाभन (ब्राह्मण) सम्पन्न ब्राह्मणों या जमींदारों के घर महाराज (रसोईये) का काम करते थे। पूजा-पाठ के आयोजन में इनका योगदान इसी रूप में मिल जाता।
लगभग सब कुछ तय हो गया था। इस बार सब की राय थी कि पूजा वाले दिन कुश्ती-कबड्डी वगैरह का खेल भी हो जाए। प्रसाद और भोग तैयार करने में समय लगता है। जब तक इनकी तैयारी हो, सब कुछ बन कर तैयार हो, कुछ सामूहिक मनोरंजन भी होते रहना चाहिए। सामूहिक आयोजन तो हर दृष्टि से सामूहिक होना चाहिए। इस साल तो रबी की पैदावार भी अच्छी हुई थी। अब तक बरखा देवी भी मेहरबान थीं। आगे के आसार भी अनुकूल थे। घाघ का प्रमाण यही बताता था, “सावन केरे प्रथम दिन, उवत ना दिखे भान। चार महीना बरसे पानी, याको है परमान”। ऐसा ही तो था, सावन के पहले दिन सूर्यदेव ने दर्शन नहीं दिया था। अगले चार माह बरखा होती रहेगी। कोई संदेह नहीं है। फिर खेल कूद का प्रस्ताव हर्षोल्लास को बढ़ाने वाला था। इसे गाँव के बुजुर्गों की सहमति बिना हिल-हुज्जत मिल गई। बस अब सबको जुट जाना था। अपनी अपनी तय जिम्मेदारियों के अनुसार।
सुरवंसी अहीर पहलवानी कर चुका था। कुश्ती का दांव-पेंच जानता था। अपने घर के पास अखाड़ा बना कुश्ती सिखाता था। गाँवों में कुश्ती या कोई अन्य खेल सीखने के लिए उस्ताद कोई शुल्क तो देता नहीं था। यह तो सुरवंसी का शौक था, पहलवानी छोड़ चुका था पर दाँव आजमाते रहने की लत सी थी उसे। फिर कुश्ती सिखाने से अच्छा विकल्प और क्या होता। गौमाला के दिन कुश्ती होगी, कबड्डी का खेल होगा, पतंग-बाजी होगी, इसकी सूचना आग की तरह गाँव में फैल गई। बच्चों और युवाओं में किसी भी आयोजन को लेकर उत्साह औरों से अधिक होता है। पर उसमें खेल कूद शामिल हो तो फिर उत्साह का क्या कहना!
अपनी रुचि के अनुसार बच्चों ने अपना गेम चुन लिया। कुश्ती सीखने के लिए कई बच्चों की पहली लँगोट सिल गई। बच्चे सुरवंसी के अखाड़े में हाथ-पाँव मारने लगे। सुरवंसी के लिए कुश्ती सिखाने का यह पहला औपचारिक दायित्व था, जिसे गाँव ने सौंपा था। वह पूरे मनोयोग से जुट गया इस दायित्व के निर्वहन में। कबड्डी खेलने वाले बच्चों की संख्या भी एक दम से बढ़ गई। कई दल बन गए कबड्डी खेलने वाले बच्चों के। स्कूल जाने वाले बच्चे सुबह शाम कुश्ती-कबड्डी में अपनी जोर-आजमाइश करते। आकाश में पतंग भी लहराने लगे थे। रंग-विरंग की पतंगों से आकाश सतरंगी जो उठा था। खबर यह भी कि उस दिन नेटुआ (नट) भी अपना करतब दिखाने को आतुर हुए पड़े थे।
इस बार की गौमाला सबरंग होने वाली थी। अब कोई संदेह नहीं रहा। पूजा-पाठ, खेल कूद, भोज-भात, सब साथ-साथ। साठ के दशक की दुर्भिक्ष के बाद हरित-क्रांति से किसानों की जिंदगी बेहतर हुई थी। इस साल तो रबी के उम्दा फसल के बाद धान की पैदावार अच्छी होगी, इसकी भी आस बँधी थी। उसी आस और विश्वास के अनुरूप गौमाला की तैयारी थी उस वर्ष।
गौमाला पूजा का दिन भी आ ही गया। गाँव में भिनसारे ही हलचल तेज हो गई थी। बरम बाबा के पास ही पूरे गाँव का खलिहान था जो उस समय खाली था। पूजा, खेल कूद और भोज भात की व्यवस्था वहीं पर थी। कुश्ती का अखाड़ा और कबड्डी का मैदान वहीं पर बना लिया गया था। पतंग उड़ाने के लिए समतल मैदान और खुले आसमान की आवश्यकता थी जिसकी अलग से कोई तैयारी नहीं करनी थी। नट-करतब की जगह भर इंगित करनी थी। बाकी की तैयारी वे करतब के दिन ही करने वाले थे। रस्सी पर चलना, रस्सी-कूद, बदानी मारना (हवा में गुलाटियाँ मारना/जिम्नैस्टिक) की तैयारी नटों ने कर ली।
भोग-प्रसाद बनाने के लिए जमीन लीप-पोत कर अस्थाई चूल्हे बना लिए गए। पंडीजी (नारद बाबा) सुबह ही हिदायत दे गए थे। ईंटों को धो कर सूखा लिया जाए तभी उनका प्रयोग चूल्हा बनाने के लिए हो। जमीन की लिपाई गाय के गोबर से ही किया जाए ताकि वह शुद्ध हो सके। गाय-बछड़ों और बैलों को दिन ही में नहला धुला कर तैयार कर लेने का सुझाव भी उन्होंने दे रखा था।
सतन बाबू भी बीच में एक-आध चक्कर लगा जाते। सब कुछ ठीक तो चल रहा है ना। जाऊर के लिए जरूरत भर दूध की व्यवस्था सबसे बड़ी चिंता थी। सामूहिक भोज में प्रसाद सभी को मिलना चाहिए। गौमाला का असली प्रसाद तो लिट्टी और जाऊर ही है। पूरी सब्जी तो आगे व्यवहार में आया है। नई पीढ़ी को लिट्टी में गँवारू-पन का बोध होने लगा था। पूरी को समृद्धि का प्रतीक मान कर गौमाला के उत्सव में शामिल कर लिया गया था। इस पीढ़ी को जाऊर में भी थोड़ी शर्म महसूस होती है। पर पूरे गाँव के लिए खीर बन सके इतना दूध मिल पाना मुश्किल होता है। आस-पास वाले गाँव अपनी गौमाला भी उसी दिन मनाते हैं। अतः दूसरे गाँवों से भी दूध नहीं मिल सकता है। शुभ कार्यों और पूजा वगैरह में गुड़ को शुद्ध मानते हैं। जाऊर तभी तो गुड़ में पकता है। लिट्टी के लिए गोईंठें की आग भी बड़े पैमाने पर तैयार करनी थी। कम से कम एक-एक लिट्टी और थोड़ा जाऊर सबको मिल जाए, इतनी लिट्टी तो बननी ही चाहिए। पूरी और सब्जी तो है ही कमी पूरी करने के लिए।
तैयारी पूरी थी। सब अपने-अपने काम में लग गए। बड़े पतीलों में जाऊर और सब्जियाँ पकने के लिए चूल्हे पर रख दी गई। लिट्टी गढ़ कर रख दिया गया था। अलाव का धुआँ समाप्त होने पर ही लिट्टी सेंकने का काम होगा। पूरी तो आखिर में ही तली जाएगी।
जब तक भोग प्रसाद तैयार हो रहा था, पतंग उड़ाने वाले बच्चे हरकत में आ गए। पतंग आसमान में लहरा उठे। थोड़ी देर में पूरा गाँव वहीं ब्रह्म स्थान के पास खलिहान में जमा हो गया। मानो हवा में उड़ती पतंगों से उन्हें सूचना मिल गई कि अब कार्यक्रम शुरू होने वाला है। फिर बारी-बारी कुश्ती और कबड्डी का आयोजन हुआ। गाँव के अनजान पहलवानों और कबड्डी के खिलाड़ियों को पहचानने का अवसर था यह गाँव के लिए। नटों के करतब से पूरा गाँव विस्मित था। इतने हुनरबाज़ गाँव में छुपे थे और गाँव को पता ही नहीं था। गाँव वालों का भरपूर मनोरंजन हुआ। गौमाला में पूजा और भोज के साथ मनोरंजन का यह पहला अवसर था।
लिट्टी-जाऊर, पूरी-सब्जी भी इस बीच तैयार था। दो थालों में भोग के लिए इन्हें परोसा गया। पंडीजी ने एक थाली को बरम बाबा को भोग के लिए चढ़ाया और जल अर्पित किया। दूसरी थाली गाँव के दूसरे छोरे पर अवस्थित दुर्गा जी को चढ़ाया गया। बाकी के खाने में यानि पतीलों में ही तुलसी-पत्ता डाल कर उसे अन्य सभी देवी देवताओं को समर्पित किया गया। गौमाला पूजा गो-धन की पूजा के बिना तो अधूरी रह जाती। सभी ने अपने मवेशियों को धो कर साफ कर लिया था। कई लोगों ने उन्हें आलता-महावर से रंग कर सजा रखा था। उनका तिलक हुआ और उन्हें लिट्टी जाऊर का प्रसाद खिला कर गाँव ने उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।
अब गाँव के सह-भोज का वक्त था। शाम ढाल चुकी थी। रोशनी के लिए पैट्रोमेक्स जल गए। ग्रामवासियों की पंगत बैठ गई और उनके सामने पत्तल बिछ गये। लिट्टी-जाऊर, पूरी सब्जी आदि का प्रसाद पूरे गाँव ने साथ ग्रहण किया। उसी क्रम में चर्चा छिड़ गई, तंगी के दिनों के गौमाला की। गाँव को तब भी गौमाला का इंतजार पूरे साल रहता। लेकिन तब गाँव के गिने चुने संभ्रांत परिवारों को पाँत में बैठा कर खिलाया जाता। बाकी गाँव वालों को थोड़ी बहुत प्रसाद मिल जाए इसी में वे अपनी खुशकिस्मती मानते। उन दिनों बच्चों बीच पतलों में बचे जूठे खाने के लिए होड़ लगती। अच्छे स्वादिष्ट खाने का कुछ अंश ही सही, बच्चों के जुबान को सुकून दे जाते।
पर इस् वर्ष बात ही अलग थी। हरित क्रांति से उपलब्धता के साथ उदारता में भी वृद्धि हुई थी। तभी तो सह-भागिता और सह-जीविता के संकल्प को दृढ़ करने वाली गौमाला का आयोजन सम्पन्न हुआ था। पर उत्साह और उमंग के माहौल में भी कृषि के मशीनीकरण का गाँवों के पशु-धन पर असर दिखने लगा था। मशीनीकरण अपने आरंभिक दौर में भी कई प्रश्न खड़ा कर रहा था। पशु धन कम होने के साथ ही उनके लिए चारा उपलब्ध कराने की बाध्यता शेष नहीं रहेगी! इसके अभाव में गेहूँ-धान के डाँठ के सदुपयोग का विकल्प क्या होगा?
देश के जिन हिस्सों में खेती का आधुनिकीकरण तेजी से हो रहा था, वहाँ डाँठ (पराली) को जलाकर उनसे छुट्टी पाई जाने लगी थी। खेतों के उपजाऊपन पर डाँठों के जलाने का दुष्प्रभाव क्या होगा? उर्वरा बढ़ाने वाले सहजीवी प्राणियों पर खेतों की छाती पर धधकती लपटें क्या प्रभाव डालने वाली थी? कहीं कोई इस पर विचार कर रहा था क्या? बहु-आयामी परिवर्तन के दौर में गौमाला का स्वरूप और प्रासंगिकता क्या होगी? क्या ‘गौमाला’ कालांतर में ‘टेकमाला’ बन जाएगी?
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सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ अध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।