एकान्त से अनेकान्त: सत्य और असत्य का आतंक
प्रस्तुत लेख दार्शनिक विषयों पर प्रकशित निबंधों की श्रृंखला में डॉ मधु कपूर के इसके पूर्व प्रकाशित हुए लेख का दूसरा पृष्ठ कहा जा सकता है। आज की दुनिया जब जोड़ों (binary) में सोचने की अभ्यस्त हो चुकी है (जैसे सच-झूठ, अच्छा-बुरा, आदमी-औरत इत्यादि) तब शायद बौद्ध और जैनों की बहुमुखी सोच एक बार उलझन में डालकर भी बाहर निकलने का रास्ता भी दिखा सकती है।
एकान्त से अनेकान्त: सत्य और असत्य का आतंक
डॉ मधु कपूर
मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ में कर्ज़ चुकाने का सामाजिक दायित्व बनाम परिवार की प्रतिष्ठा, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में राज्य रक्षा बनाम निजी विलासिता, और ‘कफ़न’ में कर्तव्य बनाम आत्म-इच्छा की टकराहट जैसी नैतिक दुविधाएँ बार-बार व्यक्ति के जीवन में उपस्थित होती हैं। इनका समाधान अक्सर दो प्रकार से करने का प्रयास किया जाता है । पहला, जिसमें कर्ज चुकाना, मृत आत्मा के प्रति कर्त्तव्य निभाना, राज्य की सुरक्षा करना आवश्यक माना जाता है । दूसरा जिसमें परिवार की प्रतिष्ठा, निजी विलासिता, आत्म-इच्छा की पूर्ति आवश्यक हो उठती है । पारंपरिक तर्कशास्त्र में व्यक्ति ज्यादातर द्वैधी सोच का आदी होता है ㅡ‘करना चाहिये’ अथवा ‘नहीं करना चाहिए’–सत्य होगा अथवा असत्य ㅡकाला या सफ़ेद । पर दोनों ही फैसले एकतरफ़ा होते है, जिसमें तीसरे के लिए कोई स्थान नहीं होता । पर हम यह भी जानते है कि काले और सफ़ेद के बीच अनेकों रंग होते है । कानून और नैतिकता में अक्सर ऐसी संभावनाएं उत्पन्न होती है, जब घटनाओं में उभरता द्वंद्व व्यक्ति को चुनौती देता है । ये द्वंद्व केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि तर्कशास्त्रीय भी होते हैं। उदाहरण के लिए एक समयㅡ ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ ㅡयह सिद्धांत मूल्यों का चरम उत्कर्ष माना जाता था । दशरथ ने कैकेयी को वचन दिया और राम आज्ञाकारी पुत्र की तरह बिना कोई बवाल मचाये वन चले गये । यदि राम की जगह आज का पुत्र होता तो शायद कहता— ‘आपने वचन दिया था, मैं क्यों जाऊं’? भीष्म ने एक समय प्रतिज्ञा की ‘विवाह न करने की’, प्रश्न उठता है कि क्या हर वचन निभाना ज़रूरी है? भीष्म यदि इस प्रतिज्ञा को तोड़ देते तो शायद कुरुक्षेत्र का युद्ध ही न होता ।
जैन और बौद्ध दोनों ही इस एकतरफा ‘सत्य वचन’ को अस्वीकार करते हैं और उनकी यह ‘अस्वीकृति’ किसी भी घटना के परिप्रेक्ष्य में ‘सोच’ का एक नया दरवाजा खोल देती है । बौद्धों का ‘चतुष्कोटि विनिर्मुक्त’ और जैनों का ‘सप्तभंगी नय’ वास्तव में सत्य की जटिलता को तर्क के माध्यम से प्रतिबिंबित करते हैं । यह एक ऐसा तर्क-तंत्र है, जो विरोध को समझने के लिए व्यक्ति के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता पर जोर देता है, जिन्हें अपनाने से कई बार समस्या को नई दिशा भी मिल जाती है । यदि सत्य और असत्य के अलावा दूसरे विकल्पों की तलाश व्यक्ति करे तो तथाकथित विरोध का समाधान सहज भाव से किया जा सकता है । समाधान की खोज विशुद्ध तर्क और भावनाओं के बीच संतुलन स्थापित करना हो सकता है । उदाहरण के लिए किसी विशेष अतिथि का ‘घर में आना’ और ‘नहीं आना’ㅡयह द्वंद्व चार संभावनाओं की ओर इशारा करता है:
1. मुझे अतिथि का घर में आना अच्छा लगता है।
2. मुझे अतिथि का घर में आना अच्छा नहीं लगता है।
3. मुझे अतिथि का घर में आना कभी अच्छा लगता है और कभी नहीं ।
4. मुझे अतिथि का घर में आना न तो अच्छा लगता है और न ही न-आना बुरा लगता है।
तीसरी अवस्था में व्यक्ति सामयिक विरोध को स्वीकार करता है, जबकि चौथी अवस्था में बौद्ध, लगाव और विराग का सहावस्थान घोषित करते हैं, जिसमें कोई विरोध नहीं, बौद्ध इसे शून्य की अवस्था कहते हैं, अर्थात इस अवस्था में ‘अतिथि के आने या न आने’ से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है । या तो वह घर का सदस्य बन जाता है अथवा उसके प्रति हमारा रुझान उपेक्षित सा हो जाता है । यह एक ऐसी यथार्थ अनुभूति है, जो हम सभी को समय समय पर होती है, जो काल और परिस्थिति विशेष पर निर्भर करती है । विशुद्ध तर्क हमें ‘सत्य और असत्य’ की श्रेणी में बाँध देता है, जो बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं छोड़ता है । जबकि जीवनमुखी चिंता हमें उबड़-खाबड़ रास्ते में पनाह देती चलती है । इसे
एक अन्य उदाहरण से भी समझा जा सकता है ㅡकिसी रोगी की आनुवंशिक जीन निम्नलिखित संभावनाएँ प्रस्तुत करती है:
१) कुछ जीन कहती है खतरा है ।
२) दूसरी जीन कहती है खतरा नहीं है ।
३) कुछ कहती है कि खतरा हो भी सकता है और नहीं भी ।
४) कुछ कहती है कि दोनों ही नहीं हो सकते हैं ।
चिकित्सक पेशोपेश में पड़ जाता है कि इस जटिलता का समाधान कैसे करे? संभव है कि चिकित्सक रोगी की इच्छा के अनुसार इलाज न करने का निर्णय ले । अथवा रोगी यह निर्णय चिकित्सक पर ही छोड़ दे । यह निर्णय किसी एक दृष्टिकोण को चुनने की बाध्यता को दर्शाता है ।
जैन दार्शनिक भी मानते है कि कोई व्यक्ति यदि हीरे को केवल एक ही कोण से देखे, तो उसकी चमक तो दिखाई देती है, लेकिन उसके जटिल पहलुओं को वह नहीं समझ पाता—जो उसे वास्तव में बहुमूल्य बनाता हैं। प्राचीन भारतीय दार्शनिक परंपराएँ इस बहुआयामी समझ के लिए एक सुसंगठित ढाँचा प्रदान करती हैं। वे इस बात पर ज़ोर देती हैं कि पूर्ण समझ तभी विकसित होती है जब वास्तविकता को अनेक दृष्टिकोणों से परखा जाए। बिना व्यापक रूप से जाने, व्यक्ति केवल सतही ज्ञान अर्जित करता है। उदाहरण के लिए, पानी में रखी पड़ी हुई लकड़ी, पृथिवी को स्थिर समझना, सूर्य का पूर्व से पश्चिम की ओर जाना इत्यादि यह दर्शाते हैं कि जैन दर्शन इन्द्रियों के योगदान को नकारता नहीं है, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि इन्द्रियाँ अकेले पर्याप्त ज्ञान नहीं दे सकतीं हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार कोई भी कथन या समझ बहुआयामी वास्तविकता पर केवल एक दृष्टिकोण प्रदान करता है। जिस प्रकार एक इमारत विभिन्न कोणों से अलग-अलग दिखाई देती है, कोई भी एक दृष्टिकोण पूर्णतः सही नहीं हो सकता है । हाँ, यह अवश्य है कि परिस्थितियों के अनुसार हम एकांगी चुनाव करने के लिए बाध्य होते हैं। जैसे पहाड़ पर रहने वाले और शहर में रहने वालों की समस्याएं एक नहीं होती है और हमें चुनाव करना पड़ता है, हमें कहाँ रहना पसन्द है ?
जैन तर्कशास्त्र अपनी सूक्ष्मता के बल पर सप्तभंगी-नय की अवधारणा तक पहुँचता है। विरोधाभासों को नकारने के बजाय, उन्हें शर्त-सापेक्ष दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। यह प्रणाली तर्क के कट्टर नियमों को चुनौती देती है और सत्य को स्यादवाद अर्थात ‘सभी दृष्टिकोण आंशिक रूप से सत्य होते हैं’ के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। इस सीमितता के कारण व्यक्ति केवल अर्द्धसत्य ही जान पाता है, और उसे ही सम्पूर्ण सत्य मान लेता है । जिस तरह कुछ अंधे व्यक्ति एक ही हाथी के विभिन्न अंगों को स्पर्श कर अलग-अलग धारणाएँ बनाते हैं—कोई उसे दीवार कहता है, कोई खंभा, कोई रस्सी। व्यक्ति अपनी सीमित दृष्टि के कारण अपने मतों के प्रति कठोर रवैया अपनाता है और उसी से चिपक कर भ्रम में पड़ जाता है और हठधर्मिता का शिकार हो जाता है । यदि तथाकथित विरोध को भी सत्य का एक पक्ष मान लिया जाए, तो तनाव और टकराव की संभावना कम हो जाती है। वस्तु के अनंत पहलू होने पर भी, व्यवहार में व्यक्ति केवल प्रासंगिक पहलुओं की ही चर्चा करता हैं और अप्रासंगिक पहलुओं को अनदेखा कर देता हैं। जैसे मिट्टी के असंख्य बर्तन बाज़ार में मिलते है पर मुझे इस समय सुराही की ही जरुरत है, तो मैं बाकी बर्तनों को अनदेखा कर सुराही ही खरीदती हूँ ।
जैन तर्कशास्त्र सात संभावित दृष्टिकोणों या भंगों को स्वीकार करता है। इसलिए प्रत्येक कथन के साथ ‘स्यात्’ शब्द जोड़ दिया जाता है, जिसका अर्थ होता है—‘शायद’। उदाहरण के लिए, एक घड़े के संबंध में सात संभावित कथन इस प्रकार हैं: ‘शायद है’, ‘शायद नहीं है’, ‘शायद है भी, नहीं भी’, ‘शायद है और अवर्णनीय है’, ‘शायद नहीं हैं और अवर्णनीय है’, ‘शायद है और नहीं भी तथा अवर्णनीय है’ ㅡइन सातों विकल्पों के माध्यम से जैन दार्शनिक यह बतलाना चाहते हैं कि किसी भी वस्तु या घटना को व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करता है, क्योंकि हमारे पास पूरा सच नहीं होता है । जैसे घड़ा अभी यहाँ वर्तमान है पर अन्य किसी स्थान पर उसका अभाव है । अथवा यहाँ भी नहीं हो सकता है, वहां भी नहीं हो सकता है अर्थात उसकी अवस्था अवर्णनीय है । कहना मुश्किल है कि वह कहाँ मिलेगा । घड़ा एक समय यदि पूर्णतः लाल है तो वह उस समय पूर्णतः काला नहीं हो सकता है । घड़ा इस समय थाली, चम्मच इत्यादि भी नहीं है । इस तरह व्यक्ति घड़े को जानने के साथ साथ यह भी जानता है कि वह क्या नहीं है। वस्तु बहुआयामी और जटिल होने के कारण हमें विरोधों को समझने, स्वीकारने और उनके भीतर समन्वय खोजने की दृष्टि प्रदान करता हैं। जैन या बौद्ध दोनों ही न केवल तर्क की सीमाओं को पहचानते हैं, बल्कि तर्क की सीमाओं से परे जाने की अंतर्दृष्टि भी देते है। एकान्त से अनेकान्त की यह यात्रा केवल तर्क की नहीं, संवेदना की भी है। अंतिम लक्ष्य केवल अधिक तथ्यों को जानना नहीं है, बल्कि ज्ञान का करुणापूर्वक कैसे उपयोग किया जा सकता हैㅡइसकी कहानी भी है, ताकि हम ब्रह्मांड को बेहतर तरीके से समझ सके । तात्पर्य है कि ज्ञान कोई तलवार नहीं है कि हम उसके दो टुकड़े कर देㅡसत्य या असत्य, बल्कि वह धागा है जो दोनों छोरों को पिरोने का काम करता है ।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।