दस्तावेज़ों की चुप्पी और सत्य की बौखलाहट
डॉ मधु कपूर के दर्शनशास्त्र के बहुत सारे लेख हम प्रकाशित कर चुके हैं किन्तु हर बार के लेख में हमें लगता है कि उसमें जानने को कितना कुछ नया मिल गया.आज का लेख भी ऐसा ही है। वैधता और सत्य के बीच के अंतर्संबंधों को टटोलता यह लेख हमें दर्शनशास्त्र के अनजान क्षेत्रों में भी भ्रमण करवाता है और तभी हमें यह भी पढने को मिलता है, "कई बार आधार वाक्य और निष्कर्ष दोनों ही सत्य होते है, पर युक्ति अवैध होती है।" पूरे माजरे को समझने के लिए आप यह लेख पढ़ें।
दस्तावेज़ों की चुप्पी और सत्य की बौखलाहट
डॉ मधु कपूर
गाँव के चौपाल में एक वृद्ध महिला रोती हुई आई। उसके हाथ में एक पुराना दस्तावेज़ था—जमींदारी के समय का। उसने कहा, "यह ज़मीन मेरे पति ने अपने खून-पसीने से बनाई थी। लेकिन पटवारी कहता है कि कागज़ में मेरे नाम का कोई ज़िक्र नहीं है।" चौपाल में सन्नाटा छा गया। सरपंच ने दस्तावेज़ देखा, सिर हिलाया और कहा, "कागज़ में नाम नहीं है, तो आप मालिक नहीं हैं।" तभी एक युवा उठा और बोला, "क्या सिर्फ़ कागज़ ही सच है? क्या उस स्त्री की स्मृति, इतने बरसों से वह जो इस जमीन पर रह रही है, क्या कोई वैधता नहीं रखता?" यह वह क्षण था जब सत्य ने वैधता को चुनौती दी—जहाँ अनुभव, न्याय और संवेदना ने दस्तावेज़ी प्रमाणों की सीमाओं को ललकारा। फिलहाल यह तर्क का विषय है।
तर्कशास्त्र में तर्क एक पारिभाषिक शब्द है, जो वैधता और सत्य दो स्तम्भों के बीच सेतु का कार्य करता है। वैधता वह है जो किसी व्यवस्था की प्रणाली या विधि के अनुकूल हो — जैसे राजनीति में संविधान, कानून में विधियाँ, भाषा में व्याकरण, तर्कशास्त्र के नियम इत्यादि। उदाहरण के लिए : सभी मनुष्य मरणशील हैं, सुकरात एक मनुष्य हैं। अतः सुकरात मरणशील हैं। यह युक्ति आधार वाक्यों के नियमों का पालन करते हुए निसृत होती है, अतएव वैध है तथा इसके सभी वाक्य सत्य होने के कारण निष्कर्ष भी सत्य है।
सत्यता और वैधता का आपसी सम्बन्ध जटिल और रोचक है । अक्सर इनमें टकराहट भी उत्पन्न होती है। जैसे— सभी कप नीले होते है, आइन्स्टीन एक कप है , अतः आइन्स्टीन नीले है । देखने में यह युक्ति हास्यास्पद सी लगती है, लोग इसे अर्थहीन कह देते है, क्योंकि न तो आइन्स्टीन नीले हैं और न ही कप हैं। पर चूँकि यह युक्ति तर्क के नियमों का पालन करती है इसलिए वैध कहलाती है।
इसी तरह कई बार आधार वाक्य और निष्कर्ष दोनों ही सत्य होते है, पर युक्ति अवैध होती है। जैसे इस युक्ति को ध्यान से देखें — सभी मनुष्य मरणशील हैं, सुकरात एक दार्शनिक है। अतः सुकरात मरणशील है। इस युक्ति के तीनों ही वाक्य पृथक पृथक रूप से सत्य है। पर निष्कर्ष आधार वाक्यों से अनिवार्य रूप से निसृत नहीं हो रहा है, इसलिए युक्ति अवैध है । वास्तव में पारंपरिक निगमन तर्कशास्त्र का सम्बन्ध वैधता मात्र से ही होता है, उसका सत्य से कोई खास ताल्लुक नहीं होता है। इसके कुछ रोचक दृष्टान्त हमें गणितीय तथा ज्यामिति की पद्धतियों में भी मिलते हैं। यूक्लिड ने The Elements में सत्य की प्रारंभिक प्रस्तावनाओं से वैध तर्कों द्वारा पूरी ज्यामिति का निर्माण किया। यदि त्रिभुज की परिभाषा ‘तीन बाहु विशिष्ट समतल क्षेत्र है’ तो उससे अनिवार्य रूप से निसृत होता है कि ‘किसी भी त्रिभुज के तीन आंतरिक कोणों का योगफल दो समकोणों के बराबर होगा’। वास्तव दुनिया में त्रिभुज है कि नहीं इससे उसे कोई मतलब नहीं होता है। वैधता केवल तर्क की संरचना को देखती है, न कि उसकी बाह्य उपस्थिति। दूसरा उदाहरण ले सकते है — गणितीय संरचना में यह तो निश्चित है कि दो और दो मिलकर चार होते है, पर ये चार वस्तुएँ क्या है —उन संख्याओं से जुड़ी चार पेंसिल अथवा चार कलम इत्यादि से गणित का कोई लेना देना नहीं होता है। इसलिए तर्क वैध हो सकता है लेकिन सत्य से उसका कोई सरोकार नहीं होता है।
राजनीतिविद अक्सर वैध युक्तियों का प्रयोग करते है, जो वास्तविकता से कोसों दूर होती है। गांवों में जाकर वादा करना एक बात है कि ‘आगामी पांच सालों में बिजली लगा दी जाएगी, पानी आने लगेगा, अस्पताल खुल जायेंगे इत्यादि। धनराशि भी पर्याप्त मात्र में होती है, पर उसके बीच घटने वाली तमाम सत्य घटनाओं—यथा सड़क का निर्माण में आने वाली कठिनाइयों से (मजदूरों का प्रबंधन, जमीन अधिग्रहण की समस्या इत्यादि) वे ‘अनभिज्ञ’ बने रहते है। फलस्वरूप वादे पूरे नहीं होते है । मेरे कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि औपचारिक रूप से वादे करना बिल्कुल जायज़ है, किन्तु वास्तविकता से उसका कोई संपर्क होना ज़रूरी नहीं होता है।
दूसरी ओर हम देखते है कि वैज्ञानिक परिकल्पनाएँ अनुभव और प्रयोग के सत्य पर आधारित होती है । वे पहले प्रयोग करते हैं, फिर सिद्धांत बनाते हैं और फिर उस सिद्धांत से भविष्यवाणी करते हैं। जैसे न्यूटन ने सेब गिरते देखा (अनुभव), फिर गुरुत्वाकर्षण का नियम बनाया, और फिर उससे ग्रहों की गति समझी (निगमन)। इसलिए एक तर्क तभी मान्य होता है जब वह निष्कर्ष को अपने आधारों से सफलतापूर्वक जोड़ता है, तथा उसका परिणाम सत्य या असत्य अनुभव से प्राप्त करता हैं । अतः विज्ञान आगमन और निगमन का सामूहिक प्रयत्न कहा जा सकता है।
अपने दैनिक जीवन में, जाने-अनजाने, हम इनका उपयोग करते रहते हैं। पिछले तीन दिन बारिश हुई। आज भी बादल हैं। अतएव आज भी बारिश होगी। हर बार जब मैं कॉफी पीती हूँ, मुझे नींद नहीं आती। अतएव कॉफी नींद को रोकती है। डॉक्टर भी इसी प्रकार तर्क से जांच की दिशा तय करते हैं। यथा डेंगू में प्लेटलेट्स कम होते हैं। रवि के प्लेटलेट्स बहुत कम हैं। अतएव रवि को डेंगू हो सकता है। इस तरह तर्कशास्त्र अनुभवजन्य ज्ञान को वैध तभी स्वीकार करता है, जब वह तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है।
वैसे यहाँ यह भी याद रखना होगा कि इस तरह सत्य को तर्क की चौहद्दी में कैद कर देने से सत्य की बहुलता को अनदेखा करने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। एक माँ का स्नेह, एक विस्थापित की परेशानी, रुपया वसूली करने वालों की धमकी से उत्पन्न आतंक की अनुभूति के सत्य हाशिए पर चले जाते हैं, क्योंकि इन्हें वैधता की भाषा में व्यक्त करना कठिन होता है। न्यायालय में साक्षी का बयान लेने के बावजूद प्रश्न उठता है ‘उसकी बात का क्या भरोसा, वह झूठ बोल सकता है।’ यहाँ प्रश्न है कि क्या अनुभव को दस्तावेज़ से कम आँका जाए? क्या वैध तर्क हमेशा सत्य को दर्शाता है? एक महिला ने देखा कि उसके पड़ोसी ने चोरी की। वह गवाही भी देती है पर उसके बयान को खारिज कर दिया जाता है क्योंकि प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यदि कोई व्यक्ति तीस वर्षों तक एक भूमि की देखभाल करता है, फिर भी दस्तावेज़ में उसका नाम नहीं है, तो वह उस जमीन का क़ानूनी मालिक नहीं माना जाता है, जबकि नैतिकता की दृष्टि से वह उस भूमि का स्वामी है। इस प्रकार सत्य केवल दस्तावेज़ में नहीं, बल्कि जीवन की निरंतरता में होना चाहिए। सत्य लचीला होता है, वैधता कट्टर होती है।
आधुनिक विचारक सत्य को पुनः परिभाषित कर उसे जीवन के साथ जोड़कर देखने का प्रयास करते हैं । Timothy Williamson का दृष्टिकोण है कि सत्य को केवल वैध मानने का अर्थ उसे सीमित कर देना है। वह तो जगत की संरचना से जुड़ा होता है। सत्य कभी-कभी तर्क की सीधी रेखा नहीं चुनता—वह पगडंडी से चलता है, जहाँ अनुभव पत्थर की तरह बिछे होते हैं। सत्य वह नहीं जो अदालत में बोले जाते है, वह है जो खेतों में चुपचाप उगते है और कभी-कभी पेड़ की जड़ों में छिपे रहते है, जिसे किसी ने बरसों पहले अपने हाथों से लगाया था । Graham Priest का वक्तव्य हम किसी पिछले प्रसंग में देख चुके है, जहाँ विरोधाभासी कथन को भी वैध माना गया हैं। लेकिन विलियमसन मानते है कि विरोधाभास ज्ञान की सीमा निर्धारित कर देता है और इस सन्दर्भ में वह रोचक ‘सोराइट्स विरोधाभास’ का जिक्र करते है। दृष्टान्तस्वरूप कितने बाल रह जाने पर किसी व्यक्ति को गंजा कहा जा सकता है। कितने बाल जोड़ने से गंजा आदमी गंजा नहीं कहा जाएगा? इसी तरह रेत के कणों का एक बड़ा संग्रह ढेर है। ढेर में से कितने दाने उठाने के बाद ‘ढेर’ ढेर नहीं रह जाता? रेत के एक कण को रेत का ढेर नहीं माना जाता है। पूछा जा सकता है कि यह कब ढेर से गैर-ढेर में बदल जाता है? हम सिर्फ सामूहिक रूप से यह निर्णय ले सकते है कि रेत का एक कण अथवा अधिकतम कितना कण ढेर कहा जा सकता है। वे मानते हैं कि ‘अस्पष्ट शब्दों’ का अर्थ समूह के द्वारा निर्धारित किया जाता है। समूह की सहमति होने पर यह मुश्किल उत्पन्न नहीं होती और विरोधाभास भी नहीं होता। हम बस इतना कह सकते है कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते है।
उनका तर्क यह दर्शाता है कि ज्ञान विचार की आदिम मानसिक अवस्था हैं, जैसे न्याय में "निर्दोषता की धारणा" को मूलभूत माना जाता है। इसी प्रकार, गवाहों के बयान में ‘विश्वास’ की बजाय ‘ज्ञान की स्थिति’ को प्राथमिकता देना अधिक उपयुक्त है। जैसे हमारी दादी आसमान देखकर, हवा सूंघकर कहती थी “आज बारिश होगी।” दादी का यह कहने का औचित्य उनका ज्ञान है । इसी तरह कोई कला मर्मज्ञ चित्रकला की किसी विशेष शैली को जानता है, भले ही वह उसे स्वयं बना नहीं सकता। यहाँ ‘अनुभवजन्य समझ’ भी वैध ज्ञान का स्रोत कहा जाता है।
संक्षेप में सत्य एक जमीन की तरह हमारे चारो तरफ बिखरा पड़ा है। तर्क वह कुदाल है जिससे हम सत्य की फसल उगाते हैं, जो हमें दिखाई नहीं देती । जैसा कि काल्पनिक कहानियों को पढ़ते समय हम इसका प्रभाव अनुभव कर सकते है। यद्यपि ड्रैगन, डाइन और भूतनी, जादूगरनी इत्यादि का अस्तित्व स्वीकृत नहीं है, पर कहानी में उनकी उपस्थिति यह दर्शाती है कि यदि वे होते तो क्या होता। कहानी को सत्य मानकर जो रस की अनुभूति हमें होती है, उसकी जमीन तर्क ही तैयार करता है।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।