लोकतन्त्र का संरक्षण कैसे हो?

विद्या भूषण अरोरा | समाज-एवं-राजनीति | Mar 02, 2021 | 124

आज की बात

देश में लोकतन्त्र कैसे बचे? इस सवाल के कई तरह के जवाब टुकड़ों में हम यहाँ-वहाँ पढ़ते रहते हैं और सही बात तो ये है कि इस स्तंभकार के पास ऐसी कोई अकादमिक योग्यता नहीं है कि इस सवाल का कोई माकूल जवाब ढूँढने में पाठकों की मदद करे। लेकिन फिर ये भी सच है कि एक सजीव लोकतन्त्र तभी फलता-फूलता है या बल्कि तभी बचता है कि जब ‘लोक’ अपने इस तंत्र को सुरक्षित रखने के लिए सजग रहे, सक्रिय रहे और सत्ता से सवाल पूछने से पीछे ना हटे। इसलिए जब हमने लोकतन्त्र क्यों ज़रूरी है और क्या भारतीय लोकतन्त्र कमज़ोर हो रहा है – ये दो लेख लिखे तो मन में आया कि इस प्रश्न पर भी विचार ज़रूरी है कि देश में लोकतन्त्र कैसे बचे?

कहने की आवश्यकता नहीं कि इसका कोई सेट फॉर्मूला तो नहीं हो सकता – वो भी भारत जैसे देश के लिए जिसके लिए स्वतन्त्रता मिलने के बहुत पहले से ही ये भविष्यवाणियाँ आनी शुरू हो गईं थीं कि यहाँ कभी भी लोकतन्त्र फल-फूल नहीं सकता। अगर अकादमिक पैमानों पर देखें तो लोकतन्त्र का जो मॉडल हमने अपनाया है, उसके टिकने के लिए जो शर्तें किताबों में पढ़ाई जाती हैं, आज़ादी के समय, उनमें से बमुश्किल ही कोई भारत पर लागू होती होगी। ये तो गांधी जी के नेतृत्व में चले स्वतन्त्रता आंदोलन की प्रवृत्ति ही ऐसी बनी कि उसमें बड़े पैमाने पर समाज के हर वर्ग के लोग जुड़े, यहाँ तक कि महिलाएं और दलित भी जुड़े और इस तरह इस आंदोलन में हाशिए पर रह रहे लोगों की भी इतनी बड़े पैमाने पर शिरकत हुई कि यहाँ लोकतन्त्र की जड़ें आज़ादी मिलने से पहले ही जमनी शुरू हो गईं थीं। फिर आज़ादी मिलने के बाद यहाँ ‘इन्स्टीट्यूश्न्स’ मज़बूत होते चले गए और इसका श्रेय पंडित नेहरू को निश्चित तौर पर सबसे ज़्यादा जाता है। उनके नेतृत्व के अलावा आप चाहें तो राजनीति में नेहरू के दिग्गज विरोधियों को (जिनको नेहरू पूरा सम्मान देते थे), न्यायपालिका को जिसने आज़ादी के बाद कई ऐसे महत्वपूर्ण फैसले दिये जिन्हें आप गर्व से देख सकते हैं, शैक्षणिक क्षेत्र के विद्वानों को जिन्होंने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की स्थापना में भूमिका निभाई, हमारी सेनाओं के प्रोफेशनल रवैये को जिन्होंने पाकिस्तान की सेना की तरह प्रशासन तंत्र पर कब्ज़े का कोई कुत्सित प्रयास नहीं किया और हमारी प्रेस को भी कुछ श्रेय दे सकते हैं। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह सब इसलिए संभव हो सका कि स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान पनपे मूल्य हमारे लोकतन्त्र ने आत्मसात लिए थे और फिर गांधी ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी नेहरू को चुना जो उदारवाद के मूल्यों में पूरी तरह पगे हुए थे।  

पैंतालीस साल पहले देश में आपातकाल के रूप में लोकतन्त्र को जो एक गहरा धक्का पहुंचा था, वह अब कोई बहुत दूर की घटना लगने लगी थी और वह शायद सिर्फ राजनीति शास्त्र के अध्येताओं के लिए ही एक विषय बन कर रह गई थी। इस तरह हमने लोकतन्त्र को अपने लिए सहज-सुलभ मान लिया था। यहीं शायद गलती हो रही थी। किताबी पढ़ाई में राजनीतिशास्त्र पढ़ने वाले विद्यार्थियों को ये बताया जाता है कि एक जीवन्त विरोध पक्ष, मज़बूत मीडिया और स्वायत और दमदार संस्थाएं किसी भी लोकतन्त्र की रीढ़ की हड्डी होते हैं यानि लोकतन्त्र के संरक्षण के लिए तीन बुनियादी शर्तें हैं। लेकिन हमें स्वीकारना होगा कि ये तीनों शर्तें तो हमारे यहाँ बहुत कमज़ोर हो चुकी हैं। तो क्या हम उम्मीद छोड़ दें? क्या इन कमज़ोरियों के चलते  हमारे लोकतन्त्र का क्षरण निश्चित है?

यह तो किसी को नहीं मालूम कि लोकतंत्र के संदर्भ में भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है किन्तु यह स्पष्ट हो चुका है कि लोकतन्त्र को बचाने के लिए उपरोक्त तीन बुनियादी शर्तों से आगे बढ़कर ही सोचना होगा। हालांकि यह लिखते हुए ऐसा लग रहा है कि हमारे लोकतन्त्र पर यह खतरा क्यों आया, इस पर भी बात लाज़मी तौर पर बात होनी चाहिए लेकिन उन कारणों पर शायद तब साथ-साथ ही कुछ चर्चा हो जाएगी जब हम लोकतन्त्र को बचाने के उपायों पर चर्चा कर रहे होंगे।

एक जीवन्त विरोध पक्ष, मज़बूत मीडिया और स्वायत और दमदार संस्थान – इन तीनों बुनियादी जरूरतों को एकबारगी किनारे रखकर सोचें तो लोकतन्त्र को बचाने के लिए आज सबसे बड़ी ज़रूरत है कि आम लोगों की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भागीदारी बढ़े। आमजन आगे आयें, आगे बढ़कर सवाल पूछें, अपनी बात कहें और अपनी बात कहने के लिए स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान ही विश्व भर में प्रतिष्ठा पाये हुए अहिंसात्मक सत्याग्रह के हथियार का इस्तेमाल करें जिसका अधिकार संविधान भी देता है।

लेकिन यह भी वास्तविकता है कि सिर्फ कह देने भर से हो नहीं जाता। आज पूंजी का संसाधनों पर जिस तरह का कब्ज़ा है और राजनीति और पूँजीपतियों का जिस तरह का गठजोड़ है उसमें अहिंसात्मक प्रतिरोध बेमानी साबित हो रहे हैं। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है किसानों का कृषि क़ानूनों के विरोध में चल रहा आंदोलन। किसी भी लोकतन्त्र की पहचान होती है कि उसमें विरोध और असहमति के स्वरों को कैसे महत्व दिया जाता है। हमारे यहाँ किसान आंदोलन को सरकार के साथ-साथ सुविधाभोगी मध्यम-वर्ग ने भी जिस तरह से उपेक्षित किया हुआ है, वह कोई स्वस्थ लोकतन्त्र का लक्षण नहीं है। हालांकि इस तरह की उपेक्षा कोई पहली बार नहीं हुई। इस स्तंभकार को याद है कि यूपीए के दौर में भी हजारों की संख्या मज़दूर और गरीब भूमिहीन दिल्ली में प्रदर्शन के लिए आते थे लेकिन ना तो सरकार ही और ना मध्यमवर्ग उनको कोई तरजीह देता था। अखबारों में खबर आती थी तो सिर्फ ये कि उनके जुलूसों के कारण ट्रेफिक बाधित रहा। हाँ, अगर आंदोलन में मध्यमवर्ग शामिल होता था तो मीडिया उसे ज़रूर सर आँखों पर बिठाता था जैसे अन्ना आंदोलन के समय हुआ। अन्ना आंदोलन तो खैर फिर भी बड़ा आंदोलन था जिसमें छिपे रूप से आरएसएस पूरी तैयारी के साथ शामिल था और बहुत से उदारवादी, वामपंथी भी कहीं खुला तो कहीं मूक समर्थन दे रहे थे लेकिन दिल्ली में मध्यमवर्ग को तुष्ट करने का मीडिया का रवैया इस कदर था कि पानी की किल्लत को लेकर अगर भाजपा कार्यकर्ता दस-बीस लोगों को लेकर भी प्रदर्शन करते थे तो उसकी तस्वीरें अखबारों में छपती थीं और दूसरी तरफ लाखों मजदूर-किसानों के अहिंसात्मक प्रदर्शन केवल इतनी जगह पाते थे कि उनकी वजह से ट्रेफिक कैसे और कहाँ बाधित रहा।

उपरोक्त स्थिति शायद इसलिए बनी कि नब्बे के दशक में देश ने जब नई आर्थिक नीति को अपनाया तो उसके साथ-साथ देश में उपभोक्तावाद इस कदर बढ़ा कि एक तरह से हमारा पूरा समाज ही भौतिकतावाद की पागल दौड़ में शामिल हो गया। समाज का हर वर्ग अपने से ऊपर वाले वर्ग में पहुँचने को छटपटाने लगा। मध्यमवर्ग के बीच ही कई आर्थिक श्रेणियाँ हो गईं और उनमें से हर किसी की महत्वाकांक्षाएं बढ़तीं गईं। यह सही है कि देश में गरीबों की संख्या में वर्ष 2000 के पहले दशक में ज़रूर कुछ कमी आई किन्तु भूख और कुपोषण की हालत अभी भी चिंताजनक बनी हुई है। इसके अलावा  देश में गरीब अमीर के बीच विषमता बहुत बढ़ गई। हमारी इन बातों को विषयांतर के तौर पर ना लें क्योंकि इसका सबसे बड़ा नुकसान देश में लोकतान्त्रिक ढांचे को ही हुआ। मध्यमवर्ग में जैसे आंदोलन या राजनैतिक प्रक्रियाओं में हिस्सेदारी की एक तरह से क्षमता ही खत्म हो गई। दिल्ली केन्द्रित अन्ना आंदोलन में जो हिस्सेदारी थी, वो एक पिकनिक की तरह ज़्यादा थी। या यूं कह सकते हैं कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक प्रकार से गैर-राजनीतिक सरकार से जो एक तरह की नीरसता या उबाऊपन आ गया था, अन्ना आंदोलन से उस नीरसता को तोड़ने का मौका मिल गया।

एक और महत्वपूर्ण बात यह कि (जो शायद जल्दबाज़ी में नहीं कही जानी चाहिए थी) सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री पद पर मनमोहन सिंह जैसे गैर-राजनीतिज्ञ की नियुक्ति करने से एक तरह से देश के राजनैतिक ढांचे को ही धक्का पहुंचा। एक ऐसा व्यक्ति (जो संभवतः देश का सबसे बड़ा अर्थशास्त्री और ईमानदार प्रशासक था) जो शायद वह अपने बूते पर एक भी चुनाव नहीं जीत सकता था, उन्हें विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की सरकार का मुखिया बना देना पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को हल्के में लेने जैसी बात थी। उनको प्रधानमंत्री नियुक्त करने के फैसले से राजनीति और राजनीतिज्ञ की हैसियत में भी कमी आई और साथ ही एक तरह से स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं को भी धक्का पहुंचा। यू पी ए को दूसरी पारी मिली तो बहुत स्नेह से लेकिन जब सरकार ना तो अन्ना के आंदोलन का कोई राजनीतिक प्रतिकार कर सकी और ना ही अपने पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का कोई माकूल जवाब दे पाई तो फिर जनता ने मनमोहन सरकार की कांग्रेस को 2014 में पचास सीटों पर ही निपटा दिया। अगर कॉंग्रेस ने जनता के निर्णय को हल्के में लिया तो जनता ने भी सबक सिखा दिया।  

अन्ना आंदोलन के अलावा भी यूपीए-2 ने अपने पाँच वर्ष के कार्य-काल में मिलने वाली किसी भी चुनौती का सामना राजनीतिक ढंग से करने की बजाय प्रबंधकीय ढंग से किया और इसलिए उनकी राजनीति कमजोर होती गई। यहाँ तक कि पूर्व कैग-अध्यक्ष विनोद राय ने जिस तरह सरकार पर अनाप-शनाप आरोप लगाए, उनका सामना भी मनमोहन सरकार ने सहमे हुए ढंग से किया और वहाँ भी राजनैतिक कौशल का अभाव साफ नज़र आ रहा था। सच कहें तो यह एक नौकरशाह की तरफ से एक राजनीतिक हमला था और सरकार ने इस हमले का सामना राजनीति की  बजाय एक सहमे हुए अफसर की तरह किया। कॉंग्रेस की ये बेचारगी देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि यह एक ऐसी पार्टी की सरकार है जिसे बने सवा सौ साल हो चुके थे और जिसके नेतृत्व में  दुनिया का सबसे बड़ा अहिंसात्मक स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा गया था और जो राजनीति के साथ-साथ यदा-कदा प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन लाने में भी अगुआ रही थी। इस तरह 2004 से 2014 के दस वर्षों में कांग्रेस और उसकी सरकार ने एक तरह से एक बड़ा राजनीतिक स्पेस खाली कर दिया और मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने इस स्पेस को बखूबी भरा। 

मूल प्रश्न पर वापिस आयें तो हम फिर वहीं पहुँचते हैं कि जब मध्यमवर्ग किसी आंदोलन के लिए तैयार नहीं है और सरकार जिस तरह से आंदोलनों को बेमानी साबित करने को कटिबद्ध लगती है, उसमें यह गुंजाइश कैसे बनेगी कि लोकतन्त्र को सबल बनाने के लिए ‘लोक’ यानि आमजन की भागीदारी बढ़े और पाँच साल में एक बार होने वाले चुनावों में वोट देने के अलावा भी लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में सोच और कर्म के स्तर पर हिस्सेदारी करे?

मौजूदा हालात को देखते हुए लगता है कि यदि देश में स्वतंत्र राजनीतिक कर्म को बचाना है, उदारवादी मूल्यों की रक्षा करनी है और सांप्रदायिकता एवं बहुसंख्यकवाद से होने वाले संभावित नुक़सानों से देश और समाज को बचाने की ईमानदार कोशिश करनी है तो बड़ी संख्या में सभी ईमानदार राजनीतिक कार्यकर्ताओं को दीर्घकालीन नीति बनानी होगी। ये कार्यकर्ता कांग्रेस के अलावा अन्य सहमना दलों के भी होने चाहियेँ। इसके तहत उन्हें यह भी फैसला करना पड़ सकता है कि आने वाले कुछ वर्ष वह चुनावी परिणामों की चिंता किए बिना ज़मीनी स्तर पर रचनात्मक काम  करेंगे – शायद कुछ उसी तरह जैसा गांधी अपने अनुयाइयों से चाहते थे। शायद उस तरह के रचनात्मक कार्यों में ही देश पर जो बड़ी पूंजी द्वारा सारे संसाधनों पर कब्ज़े का जो सिलसिला चल रहा है, उससे निजात पाने के उपाय भी निकाल आयें।

गांधी की रचनात्मक कार्यों के बारे में समझ उनके लंबे सार्वजनिक जीवन में अर्जित अनुभव से बनी थी। वह कहा करते थे कि जिन कार्यों से से लोकशक्ति खड़ी हो वही रचनात्मक काम होता है। नारायण देसाई ने गांधी जी के रचनात्मक कार्यों के बारे में जो लिखा, उसे यहाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा। वह लिखते हैं: “गांधी अपने को व्यावहारिक आदर्शवादी कहलाते थे। इसलिए उन्होंने भिन्न-भिन्न रचनात्मक कार्यों को विकसित करते हुए उनकी व्यावहारिक कसौटी भी दे दी थी। उन कसौटियों को हम निम्नलिखित सूची में आंक सकते हैं।

  1. रचनात्मक कार्य का आरम्भ समाज के निम्नतम स्तर से होना चाहिए | लेकिन उसका अंतिम उद्देश्य समग्र समाज की उन्नति ही होना चाहिए।  
  2. इन कार्यों की पहचान इस बात से होगी कि उनमें जनभागीदारी कितनी होती है | याने उसके बारे में अंतिम सारे निर्णय करने, उनका अमल करने और उनकी दिशा तय करने में लोगों की सहभागिता होगी मात्र कार्यकर्ताओं की नहीं।
  3. उसकी कार्यपद्धति ऐसी होगी कि जिसमें शरीक होने वाले सभी लोगों की अपनी स्वतंत्र पहचान होगी | वह कार्यपद्धति ऊपर से दिये जाने वाले हुक्म और नीचे से हुक्म बटवारी वाली नहीं होगी। (यानि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ऊपर से आने वाले आदेश को बिना प्रश्न किए मानने के सिद्धान्त के बिलकुल विपरीत)।    
  4. उस कार्य में व्यवस्था खर्च न्यूनतम होगा | वह ऐसा कार्य नहीं होगा कि जिसमें व्यवस्था का खर्च ही ‘सोने की धड़ाई’ हो जाए।  
  5. वह काम लोगों की जरूरतों एवं लोगों की मांग से खड़ा होना चाहिए केवल कार्यकर्ता की रुचि या शौक से नहीं, न इसलिए कि उस कार्य के लिए आर्थिक व्यवस्था आसानी से हो जाती हो।
  6. यह काम ऐसा हो जो लोगों को मजबूत बनाए, उन्हें पंगु या अलग-अलग योजनाओं से भिखमंगे बनाने वाले नहीं।  
  7. उसकी सफलता की सही कसौटी यही होगी कि वह कितना शासन-निरपेक्ष हो सका”।

गांधी कितने भी अव्यवहारिक क्यों ना लगें, सच बात ये है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के बहुत सारे नेताओं और कार्यकर्ताओं को अब ये तय करना होगा कि उन्हें ज़मीनी राजनीति ही करनी है जो रचनात्मक कार्यों के बिना नहीं हो सकती। समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया के वैचारिक उत्तराधिकारी किशन पटनायक जिन्हें मोटे तौर पर आप गांधीवादी-समाजवादी धारा का चिंतक कह सकते हैं, अपने जीवन के अंतिम वर्षों में यह कहने लगे थे कि लोकतन्त्र में राजनीतिज्ञों की विश्वसनीयता होना अपरिहार्य है। आज राजनीतिज्ञ अपनी यही विश्वसनीयता खो चुके हैं। इसको पुन: प्राप्त करने के लिए उन्हें ज़मीन की ओर लौटना होगा और आम जन से जुड़ना होगा। और आम जन से जुड़ने के लिए उन्हें चुनावी राजनीति का लालच काफी समय के लिए छोडना होगा। हो सकता है कि उनकी इस तरह की ‘एंगेजमेंट’ से उन्हें अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ज़ीरो करनी पड़ें लेकिन शायद इसका कोई शॉर्ट-कट भी नहीं है। हमें ये याद रखना होगा कि भाजपा एवं संघ परिवार के भारतीय राजनीति पर इस तरह हावी होने और ना सिर्फ मध्यमवर्ग (जहां उनकी थोड़ी बहुत पैठ हमेशा रही) बल्कि दलितों एवं पिछड़ों को भी हिन्दुत्व के बंधन में जोड़ने के पीछे, संघ परिवार के हज़ारों पूर्णकालिक ‘प्रचारकों’ ने अपना जीवन लगाया है। सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद की राजनीति उन्होंने खुल्लमखुला तभी शुरू की जब दशकों की ‘मेहनत’ के बाद समाज में उसकी स्वीकार्यता बढ़ती चली गई।  

इस तरह धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ गई कि इतने दशकों बाद अब कहीं जाकर हमारे वो मूल्य जो हमें अपने स्वतन्त्रता संग्राम से विरासत में मिले थे, अब बौने हो चले हैं। उन उदात्त मूल्यों को वापिस उनकी जगह दिलाने के लिए बहुत सारे लोगों को सेवा और त्याग का रास्ता अपनाना होगा और गांधी की तरह जन-जन से जुड़ने के रास्ते तलाश करने होंगे। हो सकता है कि अब जनता से जुडने के लिए कुछ बिलकुल ही नए तरीकों पर सोचना पड़े लेकिन मूलत: तो वही सिद्धान्त अपनाने पड़ेंगे – सत्य और अहिंसा को मूलभूत मूल्यों की नींव पर सेवा और त्याग का लंबा रास्ता अपनाना होगा। तभी जाकर इस समाज ने जो खोया है, उसको वापिस पाएगा। इसका कोई शॉर्ट-कट हो, ऐसा लगता नहीं है।

........विद्या भूषण अरोड़ा



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