लोकतन्त्र का संरक्षण गरीब के लिए सबसे ज़रूरी
आखिरी पन्ना
आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के मार्च 2021 अंक के लिए लिखा गया।
कभी-कभी लगता है कि थकान हो चली है आपके इस स्तंभकार को! थकान किस चीज़ से – थकान हो गई है लगातार एक जैसी चिंताओं पर बात करते हुए, एक जैसी समस्याओं पर लिखते हुए और एक जैसी आशंकाओं से डरते हुए! सभी कहते हैं कि उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए और शायद अंदर ही अंदर हमने भी उम्मीद ना छोड़ी हो लेकिन सच कहें तो अब ये भी चिंता होती है कि आने वाले दिनों में देश में लोकतन्त्र का स्वरूप कहीं पूरी तरह ही ना बदल जाये। ऐसा लगता है कि जिन संवैधानिक मूल्यों को हमारे देश ने आज़ादी मिलने के बाद से हमेशा सँजोया है (आपातकाल के 19 महीनों को छोड़ कर), वह मूल्य पता नहीं अक्षुण्ण रह भी पाएंगे या नहीं!
हमारे देश को दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के रूप में जाना जाता है और यह स्तंभकार चाहता है कि हमारा ये गौरव हमेशा हमारे साथ रहे – आज़ादी के बाद हमें जिस प्रकार का लोकतन्त्र मिला, उसमें चाहे बहुत सी खामियाँ हों, लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि उसी लोकतन्त्र के कारण यह संभव हो सका कि देश के गरीब को कोई सत्ता भी पूरी तरह उपेक्षित नहीं कर सकी – आज़ादी मिलते ही ज़मींदारी प्रथा से मुक्ति मिली, भूमि सुधार लागू हुए, बंधुआ मज़दूरों को मुक्ति मिली, दलितों पर अत्याचार रोकने के कानून बने और इसी तरह अन्य कई सामाजिक बुराइयों पर लगाम कसी गई जिससे आम जन को कुछ ना कुछ लाभ पहुंचा। आगे चलकर देश जैसे जैसे देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई, वैसे वैसे देश भर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों को सस्ता अनाज देने, मिड-डे मील (दोपहर का निशुल्क भोजन), आंगनवाड़ियों में शिशुओं को पौष्टिक आहार, खाद्य सुरक्षा कानून, और राष्ट्रीय ग्रामीण सुरक्षा योजना जैसे कार्यक्रम लागू हुए। यह लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं का ही दबाव था कि अफसरशाही और सत्ताधारी नेताओं की लगभग अनिच्छा के बावजूद सूचना के अधिकार जैसे महत्वपूर्ण कानून बने।
यह बात सही है कि राजनीति में पैसे और बाहुबल का इस्तेमाल बहुत बढ़ गया है लेकिन फिर भी इसी लोकतन्त्र के चलते यह भी संभव हुआ कि समाज के पिछड़े वर्गों और दलितों को राजनैतिक ताकत मिली। वोट के अधिकार का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करके जनता ने कई आम चुनावों में राजनीतिक प्रेक्षकों को आश्चर्यचकित किया जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 1977 का आम चुनाव है जब देश के मतदाताओं ने, जिनमें अधिसंख्य निरक्षर थे, इन्दिरा गांधी का तख़्ता पलट कर अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों को वापिस हासिल किया। इसी तरह 2004 में जब जनता को लगा कि वाजपेयी सरकार जन-कल्याण की उपेक्षा कर रही है तो उसने पस्त पड़ी हुई काँग्रेस को खड़ा करके उसके नेतृत्व में यूपीए को सत्ता सौंप दी और जब यूपीए-2 के बारे में अत्यंत भ्रष्ट होने की छवि बनी तो जनता ने वोट के लोकतान्त्रिक अधिकार का इस्तेमाल करके दस वर्ष बाद 2014 में भाजपा को सत्ता में वापिस ले आई लेकिन भाजपा को भी पूर्ण सत्ता सिर्फ इसलिए नहीं मिली कि उसने सफलतापूर्वक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर लिया बल्कि इसलिए भी मिली कि पार्टी ने नरेंद्र मोदी को पिछड़े वर्ग से आने वाले एक गरीब (चाय बेचने वाले) परिवार के पुत्र के रूप में प्रोजेक्ट किया।
लोकतन्त्र की इन सफलताओं के बावजूद इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले सत्तर वर्षों में भारतीय लोकतन्त्र को आपातकाल के अलावा भी कई झटके भी झेलने पड़े हैं – इनमें सबसे बड़ा तो है पिछले लगभग चार दशकों से धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का क्रमश: बढ़ते ही जाना। फिर यह भी एक तरह से शासन प्रणाली की ही विफलता है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी देश के बहुसंख्य लोग गरीबी में ही जीवनयापन कर रहे हैं और लगभग एक तिहाई तो गरीबी रेखा के भी नीचे हैं। इस तरह ये कहा जा सकता है कि भारत की गरीब जनता भारी बहुमत में होने बावजूद और ग्रामों में निवास करने के बावजूद अभी तक चुनी हुई सरकारों को इस बात के लिए विवश नहीं कर सके हैं कि वो ग्रामोन्मुखी और गरीबोन्मुखी नीतियाँ बनाएँ ताकि हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान सँजोया गया ग्राम-स्वराज का सपना सच हो सकता और गरीब-अमीर के बीच आय विषमता कम हो सकती। इसी तरह आदिवासी भी पिछले कई दशकों से जिस तरह विस्थापित होते रहे हैं और जिस तरह से उन्हें सभी तरह की सरकारों ने उन्हें उनके जल-जंगल-ज़मीन से विस्थापित किया है, वह भी लोकतन्त्र की विफलता को ही दिखाता है। इसके अलावा यह भी सच है कि चाहे दलितों और पिछड़े वर्गों की राजनीतिक हैसियत पहले से काफी बढ़ी है लेकिन फिर भी विभिन्न सत्ता केन्द्रों पर अभी भी समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं है और पारंपरिक रूप से उच्च जातियों का वर्चस्व बना हुआ है।
फिर कुछ तकनीकी किस्म की खामियाँ तो हैं ही जिनमें सबसे बड़ी यह है कि आज़ादी के बाद पंडित नेहरू, इन्दिरा गांधी और वाजपेयी एवं नरेंद्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेताओं में किसी ने भी डाले गए कुल मतों का आधा यानि 50% भी प्राप्त नहीं किया। जहां पंडित नेहरू के नेतृत्व में काँग्रेस अधिकतम 48% मत ही पा सकी, वहीं मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा तो 2019 में मिली भरी सफलता भी केवल 37.6% वोटों से पा गई जिसमें उन्हें 302 सीटें मिल गईं जबकि 2014 में तो उन्हें कुल डाले गए वोटों का केवल 31% ही मिला जिसमें उन्हें 282 सीटें मिल गईं थीं।
फिर भी कहना होगा कि इस लोकतन्त्र में चाहे हज़ार खामियाँ हैं लेकिन फिर भी ये जैसा भी है, इसने काफी कुछ किया है और इसका संरक्षण बहुत ज़रूरी है। यह इसीलिए भी ज़रूरी है कि ये जैसा है, वैसा लोकतन्त्र भी अगर और कमज़ोर हो गया तो फिर सरकारों से सवाल पूछना मुश्किल से मुश्किलतर होता जाएगा और ऐसे में जिसका सबसे ज़्यादा नुकसान होगा, वो हाशिये पर रहने वाले लोग ही होंगे। इसलिए यदि हमने स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान सँजोये गए उच्च मूल्यों को बचाना है जो बाद में हमारे संविधान की बुनियाद बने, तो हमें सजग रहना होगा कि हमारे लोकतन्त्र पर कोई आंच ना आए।

विद्या भूषण अरोरा
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