क्या भारतीय लोकतन्त्र कमज़ोर हो रहा है?

विद्या भूषण अरोरा | समाज-एवं-राजनीति | Mar 17, 2021 | 153

आज की बात

आज हिंदुस्तान टाइम्स में प्रथम पृष्ठ पर एक खबर प्रकाशित हुई है जिसके अनुसार हमारा विदेश मंत्रालय इस बात पर विचार कर रहा है कि किसी भारतीय ‘थिंक-टैंक’ को इस बात के लिए तैयार किया जाये कि वह ‘वर्ल्ड डेमोक्रेसी रिपोर्ट’ और ‘ग्लोबल प्रैस फ्रीडम इंडेक्स’ जैसी अपनी ही वार्षिक रिपोर्ट्स निकाला करे। दरअसल इस विषय पर विचार हाल ही में आई ‘फ्रीडम हाउस’ रिपोर्ट और स्वीडन के एक संस्थान ‘वी-डेम इंस्टीट्यूट’ द्वारा जारी रिपोर्ट से पहले से ही चल रहा है। पाठकों को स्मरण होगा ही कि इन दोनों रिपोर्ट्स में भारत में लोकतान्त्रिक मूल्यों के ह्रास पर चिंता व्यक्त की गई थी – जहां पहली रिपोर्ट ने भारत को अब केवल आंशिक रूप से स्वतंत्र लोकतन्त्र की श्रेणी में रखा वहीं दूसरी रिपोर्ट में भारतीय लोकतन्त्र को पाकिस्तान की बराबरी पर रखा और बांग्लादेश से भी ज़्यादा कमजोर लोकतन्त्र बताया था। विदेश मंत्रालय ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि भारत को ऐसी संस्थाओं से किसी प्रमाण पत्र की दरकार नहीं है। हैरानी की बात तो यह भी है कि इस सरकार को दो अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा हमारे लोकतन्त्र  की आलोचना करने से चिंता हो रही है क्योंकि पहले ऐसा कभी लगा नहीं कि सरकार को इस किस्म की आलोचनाओं की ज़रा भी परवाह है।   

उपरोक्त खबर को पढ़कर (कि हम अपनी ही रिपोर्ट तैयार किया करेंगे) याद आती है चीन से आई उन खबरों की जिनके अनुसार चीन में भी लोकतन्त्र है और इस लोकतन्त्र को चीन ने सीपीसी यानि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के माध्यम से प्राप्त किया है। चीन अपने ‘लोकतन्त्र’ को पश्चिम के लोकतन्त्र से बेहतर बताता है। आप चीन को बेहतर लोकतंत्र बताने वाले लेख यहाँ और यहाँ देख सकते हैं। वैसे इस स्तंभकार को इस बात से कोई शिकायत नहीं कि चीन पश्चिम के लोकतन्त्र को अपना आदर्श नहीं मानता क्योंकि ये तो हर समाज को अधिकार है कि वह अपनी परिस्थितियों के मुताबिक अपनी व्यवस्था चुने। गांधी भी पश्चिम के लोकतन्त्र को आदर्श नहीं मानते थे, खासतौर पर उसके पूंजीवादी स्वरूप से उन्हें आपति थी और उनका मानना था कि किसी भी व्यक्ति को मशीन और तकनीक का भी ग़ुलाम नहीं होना चाहिए। ग्राम-स्वराज की उनकी परिकल्पना पश्चिम के लोकतन्त्र से बिलकुल भिन्न थी। बहरहाल, यह इस लेख का विषय नहीं है।

विषयांतर ना हो, इसलिए हम वापिस उपरोक्त खबर पर अपनी टिप्पणी को बढ़ाते हैं कि क्या किसी भारतीय ‘थिंक-टैंक’ द्वारा सकारात्मक प्रैस फ्रीडम रिपोर्ट मिल जाने से हमें संतुष्ट हो जाना चाहिए? हाल ही में एक आलेख में हमने भारतीय लोकतन्त्र गरीब के लिए क्यों ज़रूरी है, इस विषय पर अपनी बात कही थी। इस लेख में हम उन चिन्हों को खोजने की कोशिश करेंगे जिनसे ऐसा लग सकता है कि ये भारतीय लोकतन्त्र को कमज़ोर कर सकते हैं।

हमें लगता है कि ये ज़रूरी काम है क्योंकि सरकार द्वारा बहुत प्रत्यक्ष में ऐसा कुछ नहीं किया जा रहा जिससे वर्तमान स्थिति की तुलना इन्दिरा गांधी द्वारा जून 1975 में लगाए गए आपातकाल से की जा सके लेकिन फिर भी कई लोग आज की परिस्थिति की तुलना उन 19 महीनों से करते हुए कहते हैं कि कुछ मायनों में लोकतन्त्र के लिए आज के हालात एमर्जेंसी से भी बदतर हैं। किसी ने सही याद दिलाया कि आपातकाल में इन्दिरा गांधी की सरकार ने सैंकड़ों विपक्षी नेताओं को जेलों में बंद कर दिया था लेकिन फिर भी किसी को देशद्रोही नहीं कहा था। अभी तो कुछ राज्य सरकारों द्वारा देशद्रोह के मुकदमे आनन-फानन में ठोक दिये जाते हैं और देशद्रोह के कई मुकदमे सिर्फ इसलिए चलाये गए हैं कि इन लोगों ने मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या कुछ अन्य राजनीतिक व्यक्तियों के खिलाफ अभद्र टिप्पणियाँ की थीं। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस तरह के 405 मुकदमे चलाये गए जिनमें से 149 प्रधान मंत्री के खिलाफ और 144 उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ ‘आलोचनात्मक या अपमानजनक’ टिप्पणियाँ करने के कारण चलाये गए। यह तब है जब सुप्रीम कोर्ट के यह स्पष्ट दिशा निर्देश हैं कि आलोचना देशद्रोह नहीं है। हाल ही में जब कांग्रेस नेता शशि थरूर और राजदीप सरदेसाई सहित छ्ह प्रमुख पत्रकारों पर देशद्रोह के मुकदमे दर्ज कर लिए गए जब इन लोगों ने गलत जानकारी के आधार पर एक गलत सूचना ट्वीट कर दी थी। देशद्रोह के मुकदमे किस कदर बढ़ गए हैं, इसका ब्यौरा वैबसाइट आर्टिकल-14 पर उपलब्ध है। इस वैबसाइट को कुछ नामी पत्रकार और शिक्षाविद चला रहे हैं और इसके परामर्शदात्री मण्डल में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज जस्टिस मदन लोकुर के अलावा कई अन्य नामचीन व्यक्ति हैं। (हालांकि पिछला वाक्य हम किसे प्रभावित करने के लिए लिख रहे हैं क्योंकि सरकार को बीच-बीच में ऐसे गणमान्य लोग चिट्ठी-पत्री लिखते रहते हैं लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।)

कहने की आवश्यकता नहीं कि इनमें से किसी भी मुकदमे में कभी कोई सज़ा नहीं होगी लेकिन इनके दायर करने के पीछे सरकार की यह मंशा नज़र आती है कि ऐसे मुकदमों से डर कर आम लोग तो सरकार की आलोचना से पीछे हट ही जाते हैं, यह भी देखा गया है कि विरोधी दलों के नेता या गणमान्य व्यक्ति भी  मुखर आलोचना से बचने लगते हैं क्योंकि इनमें से कई लोग मुकदमों के पचड़े में पड़ने से बचना चाहते हैं।

लोकतन्त्र के कमज़ोर होने के अन्य चिन्ह तलाशते हुए हम न्यायपालिका तक भी पहुँचते हैं। न्यायपालिका के फैसलों पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर रहे लेकिन पिछले कुछ समय से जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के जो फैसले हुए हैं, उन पर कानून के जानकारों ने अंगुलियाँ उठाईं हैं। चीफ जस्टिस (अब सेवा निवृत्त) रंजन गोगोई पर लगाए गए यौन दुराचार के आरोप को जिस तरह उन्होंने स्वयं और सुप्रीम-कोर्ट के अन्य जजों ने इस मामले का निपटारा किया, उसकी काफी आलोचना हुई थी। इस सबसे बड़ी बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट नागरिक के मौलिक अधिकारों का संरक्षक होता है लेकिन अपनी इस भूमिका को उसने वांछित रूप से नहीं निभाया लगता। देश में बहुत सारी घटनाएँ ऐसी हो रही हैं कि जिनमें पूर्ववर्ती न्यायालयों (हाई कोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट) द्वारा स्वत:-संज्ञान ले लिया जाता था लेकिन अब लगता है कि कार्यपालिका को न्यायालय की रत्ती भर भी चिंता नहीं है अन्यथा सुप्रीम कोर्ट के कई वर्ष पहले दिये गए दिशा निर्देशों के बावजूद (कि सरकार की आलोचना देशद्रोह नहीं होती),  कार्य-पालिका की तरफ से आए दिन देशद्रोह के मुकदमे ना ठोके जा रहे होते। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट जिस तरह से कुछ मुकदमों की सुनवाई तो तुरंत कर लेता है लेकिन कुछ ऐसे मुकदमे जिनमें सरकार कमज़ोर विकेट पर लगती है, उन पर सुनवाई ही नहीं होती जैसे चुनाव के चंदे वाले इलेक्टोरल  बोण्ड्स के खिलाफ सुनवाई या आधार कार्ड वाले कानून को धन विधेयक (मनी बिल) के रूप में पास करवा लेने के खिलाफ मुकदमा। कुल मिलाकर यह कि लोकतन्त्र के तीन स्तंभों के बीच जो ‘चेक एंड बैलेन्स’ का जो रिश्ता होता है, वह पिछले कुछ वर्षों में लगातार बिगड़ा है। न्यायपालिका और कार्यपालिका अगर एक दूसरे के सहयोगी के रूप में कार्य करेंगे तो नागरिक अधिकारों की रक्षा होना तो दूर, कार्यपालिका द्वारा किए जा रहे कार्यों की एक निरपेक्ष और निष्पक्ष दृष्टि से समीक्षा भी ना हो सकेगी।

लोकतन्त्र कमजोर हुआ या सुदृढ़, इसकी जांच करते समय आप संसद की कार्यवाही की भी समीक्षा कर सकते हैं। कोविड-19 महामारी के चलते संसद की कार्यवाही जैसी चली, उसे देखकर स्वतंत्र टीकाकारों का कहना है कि इसे बहाना ही बनाया गया है क्योंकि सरकार जहां चाहती है वहाँ खूब भीड़ वाले समारोह भी कर लेती है लेकिन संसद को सिर्फ आनन-फानन में बिल पास करने की एजेंसी बना दिया गया है। सिर्फ फिर तीन कृषि कानून राज्य सभा में कैसे ‘पास’ हुए, यह तो आपने कुछ माह पहले देखा ही है। इसके अलावा आप चाहें तो यहाँ माध्यम नामक टिवीटर हैंडल का ट्वीट-थ्रेड (शृंखला) देख सकते हैं जिसमें बताया गया है कि कैसे वर्ष 2018 का बजट और उससे संबंधित सारे संशोधन प्रस्ताव आदि का निपटारा कुल 36 मिनट में कर दिया गया। तो ये संसद की उपेक्षा का मामला सिर्फ कोविड-19 तक सीमित नहीं है। इस सरकार की कार्यशैली से लगता है कि यह संसदीय प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रपति प्रणाली वाली शैली पर चल रही है और इस तरह किसी भी सरकारी प्रस्ताव पर वांछित विचार-विमर्श की बजाय प्रस्ताव तुरंत निर्णय में बदल जाता है।

केंद्र का राज्यों पर अवांछित नियंत्रण भी लोकतन्त्र के कमज़ोर होने की निशानी के रूप में देखा जा सकता है। यह लिखे जाने के समय दिल्ली में चुनी हुई सरकार को बिलकुल ही कमज़ोर करने की प्रक्रिया चल रही है और नए प्रावधानों के मुताबिक मुख्यमंत्री के सब अधिकार केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के पास चले जाएँगे। तीनों कृषि क़ानूनों को भी राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप माना जा रहा है लेकिन सरकार ऐसे मामलों में कोई संवेदनशीलता नहीं दिखाती।

दल-बदल के मामले में भारतीय लोकतन्त्र कभी भी आदर्श स्थिति में नहीं रहा लेकिन भाजपा शासन के दौरान विपक्ष की राज्य सरकारों को गिराने के लिए जो हमलात्मक रुख अपनाया जा रहा है, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने के बाद राजस्थान में सरकार गिरने से अगर बच गई तो इसलिए नहीं कि भाजपा विधायक नहीं जुटा पा रही थी, वो तो इसलिए बच गई कि राजस्थान भाजपा में मुख्यमंत्री पर मतैक्य नहीं था। इसके अलावा गोवा, मणिपुर, अरुणाचल और कर्नाटक में भाजपा ने जिस तरह सरकार बनाई, वह अपने आप में सिर्फ राजनैतिक कौशल नहीं था बल्कि राज्यों में इस तरह तिकड़म करके सरकारें बनाने से आम आदमी का लोकतन्त्र में विश्वास कमज़ोर होता है।

लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ एक स्वतंत्र और जीवंत प्रेस है लेकिन इसके बारे में क्या कहा जाये। वैसे मीडिया का दोष सिर्फ इतना है कि उसने दबाव का ज़रा भी मुक़ाबला नहीं किया जैसे कि मध्यमवर्ग का कोई भी हिस्सा नहीं कर रहा। जिस तरह सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ED) और इन्कम टैक्स विभाग जिस तरह काम कर रहे हैं, उसे भी निष्पक्ष नहीं माना जा रहा। अगर ये बात सही है तो मीडिया घरानों के मालिकों से यह उम्मीद करना कि वह झुकेंगे नहीं और निष्पक्षता बनाए रखेंगे, बहुत ज़्यादा होगा। देश के मीडिया की स्थिति यूं तो कभी भी बहुत आदर्श नहीं रही लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जो देखा जा रहा है, वह एक स्वस्थ लोकतन्त्र की निशानी नहीं है।

इसके अलावा और क्षेत्रों में भी धीरे-धीरे ऐसे बदलाव लाये जा रहे हैं जिन्हें लोकतन्त्र में साधारणतः अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता। उदाहरण के लिए विश्वविद्यालयों को यह निर्देश कि विदेश के विश्वविद्यालयों से  वेबिनार या ऑनलाइन मीटिंग आदि आयोजित करने से पहले गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी होगी। इसे शैक्षिणक स्वायतता के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा।  

इसी तरह लोकतन्त्र की सेहत को और जाने कितने ही पैमानों पर आँका जा सकता है जिन्हें देखकर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि फिलहाल जिसे लोकतन्त्र कहा जाता है, जिसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को, अभिव्यक्ति के अधिकार को, अवसर की समानता को, तक पहुँच को, सब धर्मों के धर्मावलम्बियों को राज्य द्वारा समान व्यवहार देने को महत्वपूर्ण माना जाता हो, वह लोकतंत्र तो कमज़ोर होता दिख रहा है। अब कल को हम चीन और अन्य कुछ देशों की तरह लोकतन्त्र की परिभाषा ही बदल दें तो और बात है।

विद्या भूषण अरोड़ा



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