स्वतन्त्रता का निर्मल प्रभात - प्रार्थना चौथी कड़ी

राजेन्द्र भट्ट | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Jan 27, 2025 | 69

राजेंद्र भट्ट 

इस लेख-माला में हमने विविध भाव-भंगिमाओं  और काल-खंडों की प्रार्थनाओं की चर्चा की – वैदिक और पौराणिक प्रार्थनाएँ, संस्कृत और लोक-भाषा हिन्दी में प्रार्थनाएँ, निजी सुख-लाभ से लेकर सामूहिक हित, शक्ति और समृद्धि के लिए प्रार्थनाएँ, पाप-नाश से लेकर ज्ञान तथा ईश्वर के साथ तादात्म्य पाने के लिए प्रार्थनाएँ।

बीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन की पराधीनता के दौर की दो अनूठी प्रार्थनाओं का अब उल्लेख करते हैं। दोनों ही प्रार्थनाएँ ‘देश’ की  स्वतंत्रता की कामना करती हैं। लेकिन यह मात्र राजनैतिक स्वतन्त्रता नहीं है, यहाँ तो आकांक्षा मानव-मात्र को अज्ञान के अंधकार से, अतीत की रूढ़ियों और तमाम संकीर्णताओं से मुक्ति दिलाने की है; इन प्रार्थनाओं का ‘भारत’ भौगोलिक सीमाओं को पार कर, विश्व-समाज को सौहार्द्र और विवेक से सम्पन्न करने का आकांक्षी है।

हमारे  वाङ्मय में सरस्वती विद्या और कला की देवी हैं। वह श्वेत-वस्त्र धारिणी हैं। उनका वाहन शुभ्र-श्वेत, नीर-क्षीर विवेक करने वाला हंस है, उनके हाथों में मधुर स्वरों वाली वीणा है। इसीलिए, ज्ञान  और विवेकपूर्ण, कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए उनकी आराधना की जाती है। देश के अनेक हिस्सों में, सरस्वती-पूजा के साथ बच्चों की शिक्षा का प्रारम्भ किया जाता है। कवि-कलाकार अपनी रचनाओं-प्रस्तुतियों  के प्रारम्भ में ही  मंगलकारी गणेश और रचनात्मकता की देवी सरस्वती की वंदना करते हैं।

लेकिन शीर्ष हिन्दी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी कालजयी प्रार्थना में सौम्या सरस्वती को नई ओजमयी भंगिमा  दी है। देश की पराधीनता के दौर में, सरस्वती को स्वतन्त्रता के आह्वान की देवी बना दिया है -

वर दे वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे।

  इस ‘स्वतंत्र-रव’ में क्या आज़ादी के आंदोलन के जन-समूह के निर्भय उद्घोष नहीं सुनाई देते! मधुर लय वाली वीणा लिए  और नीर-क्षीर विवेक वाले, धवल-पावन हंस पर शोभित  सरस्वती के प्रसाद से ही तो हमारा स्वतन्त्रता-आंदोलन संयत वाणी और विवेकपूर्ण कर्म वाले नेतृत्व द्वारा चलाया गया था! निर्भयता,  अपने लक्ष्य के औचित्य तथा सफलता पर विश्वास ही तो वह ‘अमृत’ मंत्र है जो आंदोलनों को शक्ति, उल्लास और उत्साह देता है। हमारी वैदिक प्रार्थना भी ‘मृत्यु से अमरता’ की और ले जाने की आकांक्षा रखती है। यह मात्र बरसों तक जिंदा रहने की अमरता नहीं है; यह महान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए, बिना दैन्य, निराशा,   कुंठा और संशय के – उत्साह और उल्लास की अमरता है। यही तो वह ‘अमृत मंत्र’ है, जिसे  गुरु गोबिंदसिंह जी ने संत-सिपाहियों को ‘छकाया’ और न्याय और गरिमा के लिए संघर्ष में उन्हें ‘सवा लाख’ पर भारी बना दिया। ‘निराला’ जी ने भी सौम्या सरस्वती को ओज और  उत्साह की देवी, ‘भारत’ के जन के ‘स्वतंत्र-रव’ को ‘अमृत-मंत्र’ देने वाली देवी बना दिया।

यह विवेक-पूर्ण उल्लास, अमृत-मंत्र में यह विश्वास हताशाओं और रूढ़ियों के अंधेरे से  मुक्त करता है, ज्ञान, आशा और विश्वास के प्रकाश से ज्योतित कर देता है। हमें जड़ता, द्वेष और कुंठा के अँधेरों वाली नहीं, हर जन के प्रति समानुभूति (एंपैथी) वाली,  ‘ज्योतिमय झरने’ जैसी स्वतन्त्रता चाहिए -  

काट अंध-उर के बंधन-स्तर।
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर,
   जगमग जग कर दे।

इस कविता में जो अद्भुत  है, वह है ‘नये’ की कामना – नई दिशा में उठाए गए कदम (नव गति), नए तरीके की कला-कविता-अभिव्यक्ति-भंगिमा  ( नव लय, ताल, छंद, कंठ, स्वर) के साथ नई संभावनाओं के आकाश में आत्म-विश्वास भरी विविधता के साथ नई उड़ान - 

नव गति नव लय, ताल-छंद नव,
नवल कंठ नव जलद-मन्द्र रव,
नव नभ के नव विहग-वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।

अपने यहाँ, पूजा-प्रार्थना, राष्ट्र-गौरव और इतिहास-चर्चा में अक्सर अतीत-गौरव और अतीत-मंडन की प्रवृत्तियाँ रहती हैं। निरर्थक और सड़ चुकी रूढ़ियों का औचित्य स्थापित किया जाता है। वर्तमान की, देश-दुनिया की समस्याओं से जी चुरा कर, देश-जाति-समाज-पंथ के अपने संकीर्ण दायरे को श्रेष्ठ  और दूसरों को बुरा-तुच्छ मानने के द्वेष और अहंकार के नशे में विवेक-शून्य गौरव-गान होते रहे हैं। इन कुंठित, पतनशील प्रवृत्तियों का प्रतिकार कर ‘निराला’ आत्म-विश्वास और उल्लास के साथ ‘नए’ का, आधुनिक का आह्वान करते हैं। निश्चय ही, यह ‘नवीन’ पथ की ‘नवीन’ प्रार्थना है। पिछड़ेपन की अंध-गुफाओं, गहराइयों,  हीनता और द्वेष-बोध  को महान  मानकर, पीछे की ओर जाने की बजाय, ‘निराला’ धवल-प्रकाशमय  ऊंचाइयों पर उड़ रहे मानव-विहगों को ‘नव’ स्वरों की विविधता और उल्लास देना चाहते हैं।

दूसरी प्रार्थना भी कालजयी रचना है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मूल बांग्ला (‘चित्त जेथा भयशून्य उच्च जेथा सिर’ की सुंदर पंक्तियों से शुरू होने वाली ) और उन्हीं के किए अँग्रेजी रूपांतर को हिन्दी में प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास मेरा है -

Where the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.

मन निर्भय हो, जहां गर्व से सिर ऊंचा हो

ज्ञान न हो जकड़ा बंधन में;

जहां संकरी दीवारों से नहीं बंटी हो  अपनी दुनिया;

वाणी जहाँ उमड़ती सच की गहराई से,

और पूर्णता पाने के अनथक प्रयास हों;

जहां न खो जाती विवेक की निर्मल धारा

रूढ़िग्रस्तता के बोझिल रेतीले मरु में।

अनुप्राणित हो तुमसे प्रतिफल –

बुद्धि निरंतर छूती जाए चिंतन और कर्म के नूतन आयामों को;

स्वतन्त्रता के उस निर्मल प्रभात में,

पिता ! जाग उठे यह मेरा देश! 

विराट फ़लक है इस प्रार्थना का। बहुत ऊंची आकांक्षा है। स्वतन्त्रता का प्रभात तो तभी निर्मल हो सकेगा, जब जन-जन निर्भय हो सकेगा; उसका गर्व, उसकी गरिमा सुनिश्चित होगी। यही तो लोकतन्त्र की कसौटी है।  जन को ‘अभय’ रह कर ‘सत्य के लिए आग्रह’ करने की राह तो बापू ने भी दिखाई थी।

लेकिन मतों, पंथों, देशों के अभिमानों की दीवारों से बंटी दुनिया में तो किसी  भी देश-समाज के लिए ऐसे निर्मल स्वतंत्र प्रभात की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए तो गुरुदेव के देश की भौगोलिक सीमाएं किसी एक देश से बंधी नहीं हैं। यह उदात्त कामना तो हर देश, हर समाज की मुक्ति से ही पूरी हो सकती है।

इस देश-समाज में कोई छल नहीं है, भ्रम नहीं है – यहाँ वाणी सच की गहराई से उमड़ती है, यहाँ पूर्णता से कम का लक्ष्य नहीं है।

रवीन्द्रनाथ की दृष्टि, बिना किसी संशय के आधुनिक है, विवेक की दृष्टि है – समय के साथ निरर्थक हो चुकीं, रास्ता रोकने वाली रूढ़ियों का कोई भटकाव वहाँ नहीं है।

और जब ऐसे जन हों, ऐसा समाज हो तो वह ऊर्ध्वमुखी तो होगा ही। वह प्रभु के, परमपिता के आलोक से दीप्त होगा, अनुप्राणित होगा।  अपने चिंतन में, कर्म में निरंतर ऊँचाइयाँ पाता ही रहेगा।

यही है गुरुदेव की हम सब से अपेक्षा – जो मिल कर देश बनाते हैं। यही उनकी स्वातंत्र्य-कामना है, यही कसौटी है – निर्भय, गौरव-सम्पन्न, विवेकवान, उदार जनों का जनतंत्र।

प्रार्थनाओं की यात्रा को हम इस आलोक-वृत्त पर, रोशनी की इसी राह पर  विराम देते हैं।

(लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।)

इस श्रृंखला के पूर्व लेख पढ़ें

सुमिरन मेरो हरि करें - प्रार्थना तीसरी कड़ी
सुखों की गठरी की याचनाएँ – प्रार्थना दूसरी कड़ी
तन समर्थ हो, मन पावन हो – प्रार्थना पहली कड़ी



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