तन समर्थ हो, मन पावन हो – प्रार्थना पहली कड़ी
प्रार्थना – यह शब्द सुनते ही आपके मन में क्या आता है, इस पर हम कोई अनुमान नहीं लगाना चाहते क्योंकि यह हम सबकी व्यक्तिगत अनुभूति से जुड़ी बात है। प्रार्थना हम में से अधिकांश के जीवन का एक अभिन्न अंग होती है। पता नहीं कब सीख जाते हैं हम प्रार्थना करना। नास्तिक भी अपने ढंग से प्रार्थना करते देखे जाते हैं। राजेन्द्र भट्ट ने, जो इस वेब-पत्रिका के लिए पहले भी कितने ही उत्कृष्ट लेख लिख चुके हैं, फिर एक बार यह चुनौतीपूर्ण विषय चुना है। उन्होंने प्रार्थना के विभिन्न आयामों पर चार लेखों एक शृंखला लिखी है। इसी शृंखला का पहला लेख आज प्रकाशित किया जा रहा है।
तन समर्थ हो, मन पावन हो – प्रार्थना पहली कड़ी
राजेन्द्र भट्ट
प्रार्थनाओं का मूल स्वर तो याचना का ही है – असमर्थ, अपूर्ण मानव द्वारा किसी पूर्ण, सर्व-समर्थ ईश्वर से अभावों-वेदनाओं से मुक्ति पाने की, कामनाओं की पूर्ति की याचना। एक तरह से, अपूर्ण मानव की प्रार्थनाएँ ही तो हर धर्म-भाव-भाषा में ईश्वर को गढ़ती-तराशती हैं, उसे स्वरूप देती हैं, पूर्णता और करुणा की आभा देती हैं।
साधारणत: पूर्ण प्रार्थना व्यक्ति और ईश्वर के बीच निःशब्द ही हो सकती है, क्योंकि कोई भी भाषा पूर्णता को व्यक्त नहीं कर सकती। तिस पर हर व्यक्ति की मानसिक बुनावट विशिष्ट और अबूझ होती है। इतनी भिन्नता होते हुए भी, अभाव सब को टीसते हैं और किसी सर्वशक्तिमान की करुणा का स्पर्श सभी को दिलासा देता है। यह साझा अनुभव विविध समाजों, धर्मों, भाषाई और सांस्कृतिक समुदायों की प्रार्थनाओं को जन्म देता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, ये प्रार्थनाएँ – श्रुति से होती हुई हमारी स्मृति, और फिर हमारे वाङ्मय का हिस्सा बन जाती हैं। बिना किसी भाषा-संस्कृति आदि की विशेषज्ञता की शर्त के, हम प्रार्थनाओं की अपनी सामूहिक-सामाजिक थाती के मर्म को अनुभूत कर पाते हैं, सहज विश्वास से उसे साझा कर पाते हैं। वे हमारे सामूहिक ‘स्व’, हमारे ‘सुपर ईगो’ का हिस्सा बन जाती हैं।
बेचारगी नहीं है हमारी प्रार्थनाओं में
न ही संस्कृत भाषा का और न ही विषय का विशेषज्ञ हूँ। फिर भी अपने जन्म-दायी (यानी हिन्दू) समाज, अपनी परिचित भाषाओं से मिली और समृद्ध करने वाली प्रार्थना-परंपरा पर भरोसा है। इसीलिए कुछ सहजता और विश्वास से चर्चा करने का साहस कर रहा हूँ कि याचना के मूल स्वर वाली हमारी प्रार्थनाएं विराटता, विविधता, और मार्मिकता से भरपूर हैं। यह तब और स्पष्ट होता है जब हम विचार करते हैं कि इन प्रार्थनाओं में क्या, कैसे और किसके लिए मांगा जा रहा है।
अनेक परम्पराओं की तरह, हमारी प्रार्थना-परंपरा का प्रारम्भ भी वेदों से होता है। वेद हमारे धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को मूल स्वरूप देते हैं। किसी धार्मिक-सामुदायिक प्रेरणा या दिशा-निर्देश के लिए वैदिक साहित्य ध्रुव तारा हैं। आजकल की शब्दावली में कहें तो जैसे संविधान के मूल स्वरूप को समझने के लिए उसकी प्रस्तावना को समझ लें। हमारी यह प्राचीनतम वाचिक, श्रुति परंपरा हमें आधार देती है, राह दिखाती है।
लेकिन सच यह भी है कि वेदों की अक्सर दुहाई दिए जाने के बावजूद, आर्यसमाजी बंधुओं के अलावा, अपने समाज के बहुत कम घर-परिवारों में ही वेद संहिताएँ रखी होंगी। पढ़ना-गुनना तो दूर, बहुतों ने तो वेद देखे भी नहीं होंगे। फिर भी धार्मिक कार्यों के समय, पाठ्य-पुस्तकों और अन्य साहित्य के अध्ययन के दौरान वेदों की पंक्तियों-अंशों की विद्वानों द्वारा की गई चर्चा-व्याख्या हमें समृद्ध करती है, उस मेधा से विभोर करती है। इस लेख में जो उल्लेख किए गए हैं, वह उसी सहृदय मन से ग्रहण की गई अल्प जानकारी पर आधारित हैं।
गायत्री मंत्र
वैदिक प्रार्थनाओं का उल्लेख होते ही, सबसे पहले गायत्री मंत्र याद आता है। ऋग्वेद के तीसरे मण्डल की यह लोकप्रिय, सुंदर प्रार्थना (ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवि॒तुर्वरेण्यं भर्गो॑ दे॒वस्य धीमहि। धियो॒ यो नः प्रचो॒दयात्॥) सभी लोकों में व्याप्त प्रकाशमान, वरेण्य (सम्मानित), पावन ईश्वर के तेज का आह्वान करती है कि वह हमारी बुद्धि-विवेक को भी सन्मार्ग में प्रेरित करे।
थोड़े से शब्दों में यह कितनी गहन और सुंदर प्रार्थना है! यह किसी व्यक्ति-विशेष के लिए, टुकड़ों में धन, बल, सत्ता, भोग जैसा कुछ नहीं मांग रही है। यह तो, आनंद के सीधे उद्गम पर पहुँच रही है। विवेकपूर्ण, पावन बुद्धि मांग रही है। ऐसा विवेक होगा तो धन, बल, सत्ता, भोग से मिल सकने वाले टुकड़ा-टुकड़ा सुख स्वयं चले आएंगे। तब ऐसे सुख, किसी तरह के अन्याय, अहंकार, क्षुद्रता-दुष्टता पर टिके नहीं होंगे – इसलिए स्थायी होंगे। साथ ही, विवेक की इस कामना में सामूहिकता की आभा है। यह विवेक ‘मैं’ के लिए ही नहीं, ‘हम’ के लिए भी प्रार्थित है। विवेक में हदबंदी तो हो नहीं सकती। व्यक्तियों के विवेक के दीपक से ही तो समाज के विवेक की निष्कंप आभा फैलती है।
पश्येम शरदः शतं
इसी तरह, यजुर्वेद में एक सुंदर प्रार्थना है - पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ॥
आदिकाल से मनुष्य को मृत्यु का बोध डराता रहा है, जिसके पार क्या है, कोई नहीं जानता। यह प्रार्थना दीर्घायु होने की कामना करती है – सौ साल तक जीने के लिए है। लेकिन क्या शानदार ठसक है इस प्रार्थना में! सौ साल तो जिएं, लेकिन असहाय, आश्रित, दीन हो कर नहीं। सौ साल तक नज़र कमजोर न हो, ठीक से देख (पश्येम) सकें। ठीक से सुन (श्रुणुयाम) सकें। आवाज़ लड़खड़ाए नहीं, ठीक से बोल (प्रब्रवाम) सकें। बेचारे, दयनीय, दूसरे पर निर्भर, लाचार न हों। ‘अदीन’ रह कर जिएं। और सौ ही क्यों, उसके आगे भी निरोग होकर जिएं।
पूरे आत्म-सम्मान और सक्रियता से भरी जिजीविषा से सम्पन्न इस रचना के मंत्र-दृष्टा ऋषि का सौ-सौ बार अभिनंदन!
सर्वमंगल की कामना करतीं वैदिक स्तुतियाँ
वैदिक स्तुतियों में सत्य, प्रकाश और विवेक के अमूर्त अनुसंधान के साथ-साथ, भौतिक जीवन को सुखमय बनाने वाली अनेक आकांक्षाएँ व्यक्त होती हैं। कम विषमताओं और कम जटिलताओं वाले कृषक और पशुपालक समाज की कामनाएँ भी सहज और स्वस्थ हैं। धरती उर्वर हो, गायें खूब दूध दें, बादल समय पर बरसें – जीवन में मधु हो, खुशियाँ मनाने और देवों को धन्यवाद देने के लिए यज्ञों के साथ-साथ सोमपान के सामूहिक आयोजन हों। लेकिन लौकिक सुख पाने की इन कामनाओं-प्रार्थनाओं में, दूसरे को धक्का देकर, दबा कर, हक मार कर आगे निकलने का भाव नहीं है। यहाँ धरती या स्वर्ग के प्रभुओं को प्रसन्न कर, नियमों को तोड़ कर केवल अपने लिए माल-मत्ता बटोरने या ओहदा पा जाने की बेशर्म धूर्तता नहीं है जो, एक तरह से, इस धरती में सभी के लिए न्याय और सत्य के प्रतिष्ठाता ईश्वर को भी छोटा और अन्यायी बना देती है।
पृथिवी सूक्त - पर्यावरणीय चेतना और प्रकृति के साथ सम्बन्धों की व्याख्या
अथर्ववेद के अंतर्गत आने वाला (पृथ्वी नहीं) पृथिवी सूक्त अनुपम रचना है। ये प्रार्थनाएँ मनुष्य और (जैव तथा अजैव) पारिस्थितिक तंत्र के बीच, समानुभूति (एम्पैथी) और सौहार्द्र पर आधारित सम्बन्धों की कामना करती हैं। संस्कृत, संस्कृति और इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान तथा प्रशासक (आईसीएस) डॉ. श्रीधर वासुदेव सोहोणी ने पृथिवी सूक्त की टीका लिखी थी जिसका संवेदनशील विद्वान पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने 1990 के दशक में सुंदर हिन्दी रूपांतर (भारतीय पर्यावरण समिति, विकास मार्ग, दिल्ली द्वारा 1992 में प्रकाशित) किया और कृपापूर्वक मुझे भी एक प्रति दी। उसी का मैंने यहाँ आधार लिया है।
पृथ्वी सूक्त पृथ्वी को मानव-मात्र की माँ मानता है और जीवनदायी वर्षा के वाहक बादलों को पिता (.....माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्या। पर्जन्य: पिता....)। सूक्त में पृथ्वी माता के स्नेह से धन-धान्य, अन्न, जल, आयु और ऊर्जा के साथ-साथ पर्यावरण की पूरी जैव-अजैव समष्टि के साथ सौहार्द्र-सद्भाव की कामना है।
विवेकपूर्ण दृष्टि की पराकाष्ठा तो यह कामना है कि हिंस्र पशु भी वनों में निर्द्वंद्व विचरें पर मानव से दूर रहें। इतना कवित्व है इस रचना में कि पुरुषों को धन-धान्य, स्त्रियों को रूपाकृति, अश्वों-हिरणों को चंचलता और हाथी को बल देने वाली पृथ्वी से कांति की कामना की गई है। इन प्रार्थनाओं में शिलाओं, कंकड़-पत्थर का भी सम्मान है। पृथ्वी के वरदानों का उपभोग हो, पर सृजनात्मक हो, सीमित हो और पृथ्वी को व्यथित किए बिना (मा व्यथिष्महि भूम्याम), उसके मूल तत्वों को छेड़े बिना हो। सृष्टि को खतरे के कगार पर लाने के बाद, जिस ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ की कुछ समझ आज की पर्यावरण-चेतना में आई है, वह हजारों वर्ष पूर्व की 63 श्लोकों वाली इस अनूठी प्रार्थना में अपने समग्र सौन्दर्य के साथ समाहित है।
उपनिषदों की अद्भुत प्रार्थनाएँ
आर्यण्यक, ब्राह्मण और उपनिषद वैदिक श्रुति परंपरा से निसृत अगली रचनाएँ हैं। ‘उपनिषद’ का शाब्दिक अर्थ है – ‘सामने , यानी शिष्य के गुरु/ आचार्य के सामने बैठ कर, चर्चा से मिला ज्ञान। ‘उपनिषद’ वेदों के आधार पर, उनके मंथन-चिंतन से निकला दार्शनिक नवनीत है। इनमें जीव, जगत, परमार्थ और ईश्वर-तत्व से जुड़े दार्शनिक संवाद और निष्कर्ष हैं, जिन्हें प्रख्यात जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहावर (1788-1860)ने ‘मानवीय मेधा की उच्चतम अभिव्यक्ति’ और ‘चरम शांति का स्रोत’ कहा था।
उपनिषदों में अनेक अद्भुत प्रार्थनाएँ हैं। बृहदारण्यक उपनिषद, जीवन की चरम कामना को कितने संक्षेप में, कितनी बुद्धिमत्ता से व्यक्त करता है कि मानव समाज असत्य से सत्य की ओर, (अज्ञान के) अंधकार से (ज्ञान के) प्रकाश की ओर, और अंततः मृत्यु से अमरता की ओर जाए (ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।)।
दूसरी ओर, मांडूक्य उपनिषद की यह प्रार्थना गुरु और शिष्य के जिज्ञासा और ज्ञान के मार्ग पर साथ-साथ चलने, उसके सुखों का आस्वाद करने, उसी ज्ञान से साथ-साथ सशक्त और ओजस्वी होने तथा (अज्ञान/ अल्प ज्ञान के कारण) परस्पर विवाद और द्वेष न करने की कामना करती है: (ॐ सह नाववतु ।सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। मा विद्विषावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥) सर्वत्र (विवेक-सौहार्द्रपूर्ण) शांति की कामना इन प्रार्थनाओं को और भी मनोरम बनाती हैं।
उक्त दोनों ही मंत्रों में सौहार्द्र, सामंजस्य की भावना और ज्ञान की जिज्ञासा अद्भुत है। यह भारतीय वाङ्मय की उदार वैज्ञानिक मनोवृति के भी संकेतक हैं।
लेकिन वैज्ञानिक मनोवृति की सबसे अनुपम अभिव्यक्ति मुझे ईशोपनिषद की इस प्रार्थना में मिली जो मैंने, अपनी किशोरावस्था में, पहली बार एक चर्च की दीवार पर अंकित (कितनी सुंदर बात है!) देखी थी। बाद में, विद्वानों से इसका मर्म समझा था - हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥
यह प्रार्थना एक रूपक के स्वरूप में है। ‘सत्य’ को यहाँ सोने के बर्तन (हिरण्यमय पात्र) में ढका बताया गया है। सत्य का अन्वेषी साधक सर्वपोषक ईश्वर (पूषा) से प्रार्थना करता है कि वह बर्तन के ढक्कन को हटा दें ताकि वह सत्य को उसके मूल स्वरूप में देख सके, समझ सके। साधक को किसी भी लाग-लपेट से मुक्त, किसी भी (सोने के, चमकीले) प्रलोभन, पूर्वाग्रह, स्वार्थ और छद्म से मुक्त सत्य को जानना है।
यह प्रार्थना सत्य/ज्ञान के प्रति वैज्ञानिक अनुसंधान और मनोवृत्ति का अनुपम उदाहरण है।
सामूहिक उत्थान मूल भाव
कुल मिला कर, वेदों और उन पर आधारित उपनिषद आदि रचनाओं की स्तुतियों का भाव सामूहिक उत्थान का है। यह अपने साथ-साथ, पूरे समुदाय को तन से समर्थ, और सामूहिक रूप से सुखी-तुष्ट बनाने वाला उत्थान है। साथ ही अपने, और पूरे मानव-समाज द्वारा पूर्वाग्रह-मुक्त सत्य और ज्ञान पा लेने की, अज्ञान का अंधेरा दूर करने की ललक और जिज्ञासा भी है। यहाँ मूल स्वर भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और जीवन के वृहत्तर सत्यों को जान कर, व्यक्ति और समाज को अधिक सशक्त, अधिक पूर्ण बनाने का है।
इन प्रार्थनाओं में, शब्द-आडंबर से सत्य को आम जन से ओझल कर देने, तोड़-मरोड़ देने वाला छल-छद्म नहीं है। जीवन के सरल-सहज सुखों की कामना करने वाले हमारे पूर्वजों की स्तुतियों में सहजता, सरलता और सामाजिकता है। सुखों का सहज स्वीकार है – सभी के साथ मिलकर सुखमय, उद्दाम जीवन जी लेने के प्रति कोई कुंठा, पाप-बोध भी नहीं है। जीव-जगत की अबूझ पहेलियों को समझने-व्याख्यायित कर पाने के लिए किसी संकीर्ण दायरे से अबाधित, स्वस्थ, वैज्ञानिक जिज्ञासा-भाव है लेकिन किसी काल्पनिक परलोक के सुख के लिए संसार से पलायन के दैन्य भरे उपदेश नहीं हैं।
वाचिक श्रुति परंपरा की यह यात्रा स्मृति साहित्य के अगले पड़ाव पर पंहुचती है जब पीढ़ियों से अक्षरशः ‘सुनी हुई’ (श्रुति) ज्ञान-सम्पदा को ‘याद रहे’ (स्मृति) वाङ्मय में सँजो लिया जाता है, ग्रन्थों में लिपिबद्ध कर लिया जाता है। इसके बारे में संवाद – अगली कड़ी में।
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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।