सुखों की गठरी की याचनाएँ – प्रार्थना दूसरी कड़ी

राजेन्द्र भट्ट | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Jan 19, 2025 | 139

प्रार्थना की पहली कड़ी में आपने वैदिक प्रार्थनाओं के बारे में पढ़ा कि कैसे उनकी प्रकृति सर्वसमावेशी है और ये प्रार्थनाएँ समग्र का कल्याण चाहती हैं। अपने इस लेख में वह चर्चा कर रहे हैं अगले पड़ाव की जब प्रार्थनाएँ व्यक्तिगत उत्थान के लिए होने लगीं और समग्र के कल्याण की बात पीछे छूटती नज़र आई। देखिये राजेन्द्र भट्ट के चार लेखों की शृंखला का दूसरा लेख। 

सुखों की गठरी की याचनाएँ – प्रार्थना दूसरी कड़ी 

राजेंद्र भट्ट 

‘प्रार्थना के स्वरों’ के विवेचन की पहली कड़ी में हमने वैदिक श्रुति  परंपरा की चर्चा की। अगले पड़ाव में  पीढ़ियों से अक्षरशः ‘सुने हुए’ (श्रुति)  पर आधारित ज्ञान-सम्पदा  ‘याद रहे’ (स्मृति) वाङ्मय में सँजो ली जाती  है, ग्रन्थों में लिपिबद्ध हो जाती है।  स्मृतियों, पुराणों, महाकाव्यों (रामायण तथा महाभारत) और तंत्र-मंत्र के  छोटे-बड़े ग्रन्थों के जरिए  जीव-जगत के अनुभवों-निष्कर्षों की  विविधता की थाती हमें मिलती है।

रामचरित मानस में अनेक स्थानों पर ‘वेद और लोक’ – दोनों के आधार पर  विवाह आदि विविध संस्कार किए जाने का उल्लेख है। वेद  हिन्दू समाज के लिए, प्रामाणिकता और वैधता के  सर्वोच्च मानक हैं इसलिए हर अनुष्ठान, विचार के वैदिक उद्गम और मान्यता का दावा किया जाता है। लेकिन स्मृतियों, पुराणों और रामायण और महाभारत महाकाव्यों में ऐसी अनेक कथाएँ, विवरण जुड़े जो समाज के सामान्य जन – यानि ‘लोक’ को ज्यादा जोड़ने और मोहने वाले थे।  मूलभूत आदर्शों - जैसे प्रकाश, पोषण, नैतिकता, शुचिता और प्रकृति-सौन्दर्य  के देवताओं-देवियों, सविता, पूषा और वरुण, सावित्री (गायत्री) तथा  इन्द्र जैसे सैन्य-नायकों  के स्थान पर, ब्रह्मा-विष्णु-महेश की देवत्रयी (और बाद में तो केवल विष्णु और शिव) और  देवी माँ के सौम्यता-वात्सल्य से लेकर रौद्र रूप प्रतिष्ठित हुए। इनसे वाङ्मय में जो मनोरमता और वैविध्य आए, उसने संस्कृत तथा ज्ञान के अधिकारी पुरोहित-वर्ग को ‘लोक’ को बांधने तथा धर्म-प्रथाओं को वैधता देने के अनेक साधन मिले, मिथक मिले।

दोनों महाकाव्यों ने अपनी मूल कथा – प्रभु राम की गाथा  और महाभारत-संग्राम के साथ-साथ ज्ञान-भक्ति-वैराग्य की विविध विचार-धाराओं को व्यक्त किया। महाभारत में मूल कथा के साथ-साथ  गीता, यक्ष-प्रश्नों, विदुर और धर्मव्याध से जुड़े   प्रसंगों ने जहां नीति-धर्म के मर्म की व्याख्या की, वहीं सावित्री-सत्यवान, नल-दमयंती जैसी मानवीय भाग्य और पुरुषार्थ से जुड़ी अनेक कथाएँ समाज को दीं। रामायण की कथा, अनेक भाषाओं और पश्चिम, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन-जापान तक भौगोलिक-सांस्कृतिक  क्षेत्रों में विविध रूप लेती रही और इनमें राम की प्रमुखता के साथ, विविध अन्य चरित्रों को प्रमुखता दी गई, नए प्रसंग जोड़े गए।  

अठारह पुराणों के मूल विषयों और विविध कथाओं-प्रसंगों में अपने-अपने मुख्य आराध्यों ( ब्रह्मा,  विष्णु, शिव, और देवी माँ के विविध स्वरूपों) की श्रेष्ठता स्थापित की गई लेकिन इनका सम्पूर्ण संदेश  प्रायः प्रतिस्पर्धा का नहीं, स्वस्थ समग्रता का रहा। आम जन की आराधना में लोकप्रिय अनेक पूजा-पाठ और कथा-प्रसंग पुराणों से ही आए।  श्रीमद्भागवत महापुराण में विष्णु और उनके अवतार कृष्ण भगवान की सात्विक चर्चा और लोक-मन को मोहने वाले अनेक प्रसंग हैं।  मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा सप्तशती की कथा और माहात्म्य, ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि के निर्माण, गृहस्थाश्रम, दिनचर्या, नित्यकर्म आदि की चर्चा तथा कृष्ण-राधा, राम-जानकी, हरिश्चंद्र, मदालसा, अत्रित्री-अनुसूया और दत्तात्रेय के कथा-प्रसंग  समाहित हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी कृष्ण जी की प्रमुखता है और उनकी श्रृंगारिक  तथा अन्य कथाएँ हैं। स्कन्द पुराण के मुख्य नायक कार्तिकेय हैं। इसमें वर्तमान में लोकप्रिय विभिन्न तीर्थ-स्थानों, नदियों, लोकप्रिय सत्यनारायण कथा, शिवरात्रि तथा अन्य पर्वों-त्यौहारों के विवरण-माहात्म्य हैं।   ‘लोक’ ने इन पुराणों से अपने धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन और (इन ग्रंथकारों की समझ के अनुरूप) अध्यात्म, भूगोल, खगोल, ज्योतिष,  स्थापत्य,  आयुर्वेद आदि ‘ज्ञान-विज्ञान’ को भी ग्रहण किया।

जैसे शेक्सपियर के नाटकों और प्राचीन ( और बाद के भी) यूरोपीय साहित्य में यूरोप के प्राचीन इतिहास, कथाओं-मिथकों का आधार लिया गया, उसी तरह ललित संस्कृत-साहित्य  (कालिदास, भारवि, माघ आदि द्वारा रचित धर्म-कर्मकांड से इतर साहित्य) से लेकर बाद में विकसित तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य के विकास में मूल कथानक, रूपक  और प्रेरणाएँ  रामायण, महाभारत और पुराणों के विषय रहे। उन्हें नई प्रस्तुति, नई व्याख्याएँ  दी गईं।

इसके साथ-साथ,  ललित साहित्य के इतर, आम जनों के पूजा-पाठ के लिए खास तौर से  पुराणों की व्रत कथाओं, प्रार्थनाओं, तीज-त्योहार-तीर्थों की कथाओं-गाथाओं के भारतीय भाषा-रूप लोकप्रिय होने लगे। इस तरह ‘वेद’ की ‘लोक’ में व्याप्ति हुई। इन्हीं कथाओं में अनेक स्तुतियाँ-प्रार्थनाएँ गुंथी हैं। लेकिन भारतीय भाषाओं के हज़ार साल के विकास और संस्कृत के लोक-व्यवहार की भाषा न रहने के बावजूद, पूजा-पाठ, संस्कारों, सामूहिक-पारिवारिक आयोजनों  और स्तुतियों के ‘स्वीकृत और प्रामाणिक’ रूप संस्कृत में ही जारी रहे, भले ही इनके कथ्य, रूप और दृष्टिकोण में अब वैदिक स्वरूप से भिन्नताएँ आ गईं और इनमें दुनियादारी की लालसाएं, अतिरंजनाएं और कर्मकांडी ताम-झाम भर गए। पुरोहित वर्ग की संस्कृत जानने-बोल सकने की क्षमता और आम जन के  अज्ञान ने, संस्कृत में होने वाले कर्मकांड और पूजा-पाठ को जो उच्चता और ‘रहस्यमयता’ मिली, उससे पुरोहित-वर्ग का इन कामों ( और इनके सामाजिक-आर्थिक फ़ायदों) पर प्रोफेसनल एकाधिकार बनाए रखना सुनिश्चित रहा। विषय-सामग्री चाहे सत्यनारायण कथा जैसी हो जो लोक के सामान्यतम स्तर का भी मन रमा सके; भले ही उसे हिन्दी जैसी जनभाषाओं-बोलियों में व्याख्या करके, और बीच-बीच में भजन-कीर्तन, अन्य लोकरंजक कथाओं-प्रसंगों  के तड़के से अधिक  आकर्षक बनाया जाए; लेकिन मूल ‘पाठ’ ‘दिव्य-गूढ’ संस्कृत में ही सुनिश्चित किया गया।

कर्मकांड में गूँथीं इन संस्कृत स्तुतियों के पाठ, प्रेरणाओं और आशीर्वादों के साथ ही मैं भी बड़ा हुआ। नियमित पूजा न करने वाले, मेरे जैसे थोड़े  पढ़े-लिखे प्राणी भी,संस्कारबद्ध होने से, व्रत-त्योहारों-नवरात्रों में संस्कृत में इन स्तुतियों-स्तोत्रों को पढ़ कर, लोकप्रिय हिन्दी भजन-कीर्तनों-आरतियों की तुलना में,कहीं अधिक गर्व-गरिमा महसूस करते रहे।

संस्कृत की मेरी औसत समझ और जिज्ञासा-शांति के लिए (गीताप्रेस जैसे लोकप्रिय-प्रतिष्ठित प्रकाशन की पोथियों के प्रसाद से) साथ-साथ उपलब्ध हिन्दी अनुवाद के बूते पर  इन प्रार्थनाओं के कथ्य को लेकर अपने कुछ सामान्य निष्कर्षों का  जिक्र करना चाहूँगा।

लेकिन यहाँ एक ‘डिस्क्लेमर’ ज़रूरी है। किसी भी धर्म, संस्कृति और समाज का स्वरूप पीढ़ियों के संचित अनुभवों, अनुभूतियों और निष्कर्षों से बनता है। धार्मिक और मिथकीय, बल्कि ‘मिथहासिक’ वांग्मय में भी, क्षेपक (इंटरपोलेशंस) जुडते जाते हैं और मूल कथ्य जैसी वैधता पा जाते हैं। हमारा पौराणिक और उस पर आधारित साहित्य भी दो हज़ार वर्षों और हजारों पृष्ठों में फैला है।   इसमें, तात्कालिक जरूरतों को मान्यता-वैधता  देने, पहले से ही भविष्य को जानने का ‘चमत्कार’ पैदा करने के लिए  कथा-प्रसंग जुडते रहे हैं। इनसे साहित्य में विविधता आती है, पर विरोधाभास भी आते हैं। सबसे बड़ी बात, इनसे एक समाज, संस्कृति और धर्म के सदस्य होने का हमारा समग्र व्यक्तित्व, सोच, हमारा नैतिक परिदृश्य (एथिकल यूनिवर्स), समझने और अनुभूत करने के तरीके – कुल मिलाकर हमारा वैयक्तिक तथा सामूहिक ‘सुपर स्ट्रकचर’ घना, अनेक परतों वाला  होता  है। इसके दो पक्ष हैं। एक, अपने वांग्मय का ‘मर्म’ हम ही समझ पाते हैं। लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि हमारे सोच में, एक तरीके की व्यक्तिपरकता (सब्जेक्टिविटी) आ जाती है जो निरपेक्ष, वस्तुपरक समझ में रुकावट डालती है।

इस तरह, पौराणिक प्रसंगों की, व्यक्तिगत आस्था और बुनावट के आधार पर अनेक मार्मिक व्याख्याएँ हो सकती हैं जो हमारी समझ के समृद्ध करती हैं। आस्था को आधुनिक संदर्भ मिलते हैं। यह विराट संभावनाओं और व्याख्याओं का क्षेत्र है और समर्थ रचनाकारों ने इस सागर से अनुभूतियों के मनोरम मोती निकले हैं, हमें समृद्ध किया है। लेकिन यह सब न तो इस लेख का विषय हो सकता है, न ही लेखक की ऐसी क्षमता है।

इस लेख में, उक्त ‘सुपरस्ट्रक्चर’ का भाग होते हुए भी, मैंने अपनी सामान्य समझ से, एक ‘बाहर खड़े’ व्यक्ति की तरह कुछ निरपेक्ष निष्कर्ष निकालने की कोशिश की है। इस निवेदन के बाद, कुछ पौराणिक प्रार्थनाओं की प्रवृत्तियों पर आता हूँ।

सबसे पहले मैं जिस प्रार्थना का ज़िक्र कर रहा हूँ, वह दुर्गासप्तशती की  एक स्तुति है जिसमें मांगा गया है – रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि।  (मुझे रूप दो, विजय दो, यश दो और शत्रुओं का नाश करो।) सामूहिक हित और  सत्य की जिज्ञासा की वैदिक प्रार्थना से यह कितनी भिन्न प्रार्थना है! यहाँ केवल अपने लिए भौतिक सुख-सुविधाओं, तरक्की  की गठरी बटोर लेने की इच्छा है।  यजमान को सुख की यह गठरी, पुरोहित द्वारा ‘दिव्य-गूढ’ संस्कृत में कर्मकांड कराने से, और फिर पुरोहित को समुचित सम्मानित करके ही प्राप्त हो सकती है। यह सहज-सरल वैदिक प्रार्थना नहीं है। इसमें ‘पाठ’ के अर्थ और मर्म की बजाय, ‘प्रोसीजर’ यानी पूजा-विधि का ताम-झाम बहुत ज़रूरी है। अनेक स्त्रोतों और कर्मकांडों के अंत में, ऐसे  ‘पाठ’  से मिलने वाले ‘फलों’ की  चर्चा है। इन ‘फलों’ में भौतिक सुख, यश, संतान से लेकर मरने के बाद देवलोकों में भी वैसा ही सुख-आराम सुनिश्चित होना शामिल हैं। यों सामूहिक कल्याण की कामना वाले मंत्र-श्लोक भी हैं।

उपरोक्त  प्रार्थना में एक पैटर्न है। श्लोक की पहली पंक्ति में आराध्या देवी के गुणों-कार्यों की प्रशंसा है और दूसरी में याचना यानी रूप, जय आदि की याचना है। अनेक प्रार्थनाओं में आराध्य की  प्रशंसा का यह अतिरेक कई बार इतना अधिक हो जाता है कि पूरी स्तुति विशेषणों की सूची हो जाती है, बल्कि विशेषण ही नाम-संज्ञाएं हो गए हैं। इनमें  ‘अच्युतं केशवं....’ वाले नामों की गिनती वाले स्त्रोत हैं तो  देवी-देवताओं के चौसठ, एक सौ आठ या फिर सहस्र नामों के पाठ हैं। प्रयास है कि आराध्य के ज्यादा से ज्यादा विशेषण/ संज्ञा-विशेषण आ जाएँ।

अब कल्पना करें कि आप किसी के आराध्य ( यानी लाभ दे सकने वाले हाकिम, नेता या सेठ) हैं और वह सांस रोक कर आपकी तारीफ में  विशेषणों की झड़ी ( माई-बाप, गरीबपरवर, न भूतो-न भविष्यति किस्म के) लगा दे तो आपको कैसा लगेगा? आप उस व्यक्ति के बारे में क्या सोचेंगे? ऐसे उदाहरण लोक और राजनैतिक जीवन में सर्वत्र हैं। अब चाहे आप आराध्य हों या भक्त,  निर्णय आप पर छोड़ कर आगे बढ़ते हैं।  लेकिन इस रटंत में, कीर्तन-मग्नता तो हो सकती है, भाव-सौष्ठव कम ही है।

वैदिक प्रार्थनाओं के विवेक में व्यक्तिगत सुख सामूहिक सुख की स्वार्थपूर्ण अनदेखी नहीं करता, उससे टकराता नहीं है।  लेकिन जब हम सामाजिक नियमों, हितों, प्रावधानों और कर्म से फल मिलने की अनदेखी करते हुए,  अपने आराध्य से केवल अपना लाभ मिल जाने की याचना करते हैं, तो इसमें निश्चय ही सामाजिक अन्याय निहित होता  है। मिसाल के तौर पर, रात भर प्रार्थना करने वाला नाकारा विद्यार्थी अगर परीक्षा की पहली रात पूजा-पाठ करके साल भर मेहनत करने वाले विद्यार्थी से ज्यादा नंबर पाने की उम्मीद करे या पा जाए, तो यह भावना और कर्म, कथित धर्म-पोषित सामाजिक अन्याय ही तो है। एक तरह से, यह अपने ‘लौकिक’ प्रभु (नेता या हाकिम) की कृपा से, नियम तोड़ कर पद और लाभ पा जाने के भ्रष्टाचार को  वैधता प्रदान करने जैसा है। शायद इसी प्रवृत्ति की आगे अधोगति ‘रहस्यमय’ तंत्र-मंत्र, जादू वगैरह के जरिए प्रेमी-प्रेमिका के वशीकरण, लॉटरी-खजाना मिल जाने, बीमारियों और शत्रुओं का नाश जैसे शर्तिया जंतर-मंतर  ‘साहित्य’ में हुई होगी।

ऐसी ही प्रवृत्ति है इस दुनिया के जीवन, सुखों और उल्लास को ही तुच्छ और पापमय मानने की। इस ‘पापमय’, तुच्छ  संसार में सुख, प्रेम, उल्लास -कुछ भी करने से कहीं ‘पाप’ न हो जाए और फिर परलोक में वीभत्स यातनाएँ न झेलनी पड़ें, यह आतंक-भाव है। मैं पाप-स्वरूप, पापकर्मा, पाप से ही पैदा हुआ  हूँ; हे पापहर्ता, मुझे बचा लो! (पापोहं पापकर्माहें पापात्मा पापसंभवः। त्राहिमाम् ----)।

संभवतः अपनी हीनता और ‘प्रभु’ स्तुतियों से ही भला हो सकने का यह भाव (प्रारम्भिक ईस्वी शताब्दियों के दौर से)  सामंतवादी समाज के उदय और विकास से जुड़ा हो, जिसके पदानुक्रम  (hierarchy) के टिके रहने के लिए  ऊपर से नीचे तक, हर ऊंची सीढ़ी के     ‘प्रभु’ को उच्च और स्वयं को निम्न मान लेने की प्रवृत्ति अनिवार्य है। ‘प्रभु’ बात पर – या बेबात पर भी - रुष्ट न हों, दंड न दें, ‘नियम तोड़ कर भी’ भक्त-जनों पर  कृपा बनाए रखें।

ऐसा नहीं है कि स्तुतियों-प्रार्थनाओं के यही रूप इस काल-खंड में रहे होंगे। श्रेष्ठ,मानवीय और वरेण्य भी साथ-साथ रहा होगा। पर हर लेख के विषय की, और लेखक के श्रम और ज्ञान की सीमाएं होती हैं। विषय-वस्तु की उन्हीं सीमाओं में इस चर्चा को समझे  जाने का निवेदन है।

धीरे-धीरे ‘लोक’ में संस्कृत के स्थान पर भारतीय भाषाओं की पैठ बढ़ती गई। इससे प्रार्थनाओं का भी विस्तार और लोकतंत्रीकरण हुआ। अगली कड़ी में इस पर चर्चा करेंगे। 

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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।

 



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