सुमिरन मेरो हरि करें - प्रार्थना तीसरी कड़ी
प्रार्थना की पहली कड़ी में आपने वैदिक प्रार्थनाओं के बारे में पढ़ा कि कैसे उनकी प्रकृति सर्वसमावेशी है और ये प्रार्थनाएँ समग्र का कल्याण चाहती हैं। प्रार्थना शृंखला के दूसरे लेख में राजेंद्र भट्ट ने बताया कि अपने अगले पड़ाव की प्रार्थनाएँ व्यक्तिगत उत्थान के लिए होने लगीं और समग्र के कल्याण की बात पीछे छूटती नज़र आई। आज प्रस्तुत है इस शृंखला का तीसरा लेख जिसमें वह बता रहे हैं कि आगे चलकर 12वीं शताब्दी के आस-पास से धीरे-धीरे धर्म और अध्यात्म में संस्कृत और (प्राकृत/पाली) के स्थान पर भारतीय भाषाओं की पैठ बढ़ती गई जिससे प्रार्थनाओं का भी विस्तार और लोकतंत्रीकरण हुआ।
सुमिरन मेरो हरि करें
राजेंद्र भट्ट
वैदिक और पौराणिक प्रेरणाओं से संस्कृत भाषा में रची प्रार्थनाओं के भाव-संसार की हमने पिछली दो कड़ियों में चर्चा की। पिछली सहस्राब्दी के आस-पास देश भर में, अनेक आधुनिक भाषाओं का उदय और विस्तार हुआ। इससे उस समय तक उपलब्ध अध्यात्म और ज्ञान की विविध धाराओं की बहुआयामी सम्पदा का लोकतंत्रीकरणऔर सामंजस्य संभव हो सका। इसमें वेदों, महाकाव्यों और पुराणों की संस्कृत में वर्णित-रचित थाती तो थी ही,बौद्ध,जैन और इस्लाम मतों से मिले विचार,वेदान्त की गहनता और सूफियों की रहस्यमाकता के रंग भी थे। इसमें पाँचवीं से दसवीं शताब्दी के दौरान दक्षिण भारत के आल्वार और नयनार संतों की भावमयी थाती भी थी।
आम जन तक फैली ऐसी विस्तृत परंपरा पर काल-निर्णय की सीमा-रेखाएँ खींच पाना तो संभव नहीं है, लेकिन आम तौर पर बारहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक इस सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन का, भारतीय भाषाओं-बोलियों के जरिए, पूरे देश में विस्तार हुआ। समग्र रूप से हम इसे भक्ति आंदोलन कहते हैं। लल देद (ललेश्वरी) और रुषि परंपरा, गुरु नानक देव और अन्य सिख गुरुओं, रामानन्द, कबीर, वल्लभाचार्य,, तुलसी, रैदास, चैतन्य महाप्रभु, शंकर देव, बसव, अंडाल, अक्क महादेवी और मीराबाई जैसे भक्तों और संतों के जरिए भक्ति की धाराएँ देश भर में बहने लगीं।
भक्ति परंपरा के कथ्य, मर्म और विस्तार को समझ पाना तो अनेक ग्रन्थों का विषय हो सकता है। यहाँ हम इन संतों की प्रमुख प्रवृत्तियों का स्पर्श भर कर सकेंगे जो उनकी प्रार्थनाओं में नज़र आती हैं। ये संत प्रोफेशनल तरीके से पुरोहिताई, ग्रंथ-रचना, मत-निर्धारण नहीं कर रहे थे, न ही शिष्यों-यजमानों को सुखों के नुस्खे दे रहे थे। ये निजी सुख-लाभ की कामना से भी ऊपर थे। दरअसल, ये सभी एक अतींद्रिय आध्यात्मिक ‘स्पर्श’ (स्पार्क) से दीपित थे। उसी अनुभूति और आकर्षण के बल पर जिस भक्ति का प्रसार कर रहे थे, वह जन-जन के लिए सहज, सरल और भावविह्वल करने वाली थी। अनुभूति और ज्ञान की इस गंगा पर किसी का भी एकाधिकार नहीं था, न इसमें स्नान करने के लिए पांडित्य, धन, सत्ता और जाति-धर्म की शर्तें थीं।
हिन्दी साहित्य में भक्ति-गंगा के इस प्रवाह को, आराध्य के स्वरूप के अनुसार, इसे कुछ इस तरह समेटा जाता है – ईश्वर के सगुण रूप की भक्ति के अंतर्गत भारत के जन-जन के दो महानायकों – लोकरक्षक राम की प्रायः दास्य भाव की भक्ति और लोकरंजक कृष्ण की प्रायः सख्य भाव की भक्ति; और अलख, अरूप निर्गुण ईश्वर की भक्ति।
इन संतों की प्रार्थनाओं में न तो अपने लिए सुख-सम्पदा की कामना है, न भक्तों को मालामाल कर देने का वादा है। इनकी तो भक्ति और ज्ञान – यानी प्रभु का साहचर्य या एकात्मता की ही कामना है जिसमें भौतिक कामनाएँ बाधा ही बनती हैं। आराध्य प्रभु के साथ यह आध्यात्मिक ‘स्पार्क’, इस सीधे जुड़ाव से संत कवियों को ऐसा स्वाभिमान और आत्म-विश्वास मिलता है जो जाति-लिंग, धन-सत्ता की कमतरी और वंचनाओं को चुनौती देता है, उन्हें खास तेवर और त्वरा देता है। कबीर साहब की घोषणा है–
हम घर जाल्या आपणाँ , लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।
यानी ज्ञान की मशाल से हम तो अपना (भौतिक सुख-सुविधाओं) का घर जला ही चुके हैं, अपने साथ चलने वालों का घर भी जला देंगे।
कृष्ण-भक्ति में तो प्रभु अपने सखा हैं। उनके रूप-गुणों, श्रृंगार से अभिभूत होना है, उसका वर्णन करना है। उनसे दुनिया की चीजें क्या मांगनी! और जो साहचर्य मांगना है, उसमें दैन्य नहीं है, अपना हक है। सखा की जरा-सी भी उदासीनता महसूस होने पर प्रेमपूर्ण उलाहने हैं। उद्दाम श्रृंगार है, वात्सल्य है, प्रेम-भाव से सखा-प्रभु के साथ एकरूप हो जाने की कामना है। लेकिन, यह श्रृंगार भौतिक से शुरू हो कर उत्कट और अनन्य समर्पण तक जाता है। यहाँ भी, किसी ‘निचले दर्जे’ की सांसारिक कामना को तुच्छ समझा गया है। कृष्ण भक्ति में अद्भुत ओज है। कहते हैं, सूरदास पहले दास-भावी रचनाएँ करते थे। गुरु वल्लभाचार्य ने फटकारा, “सूर (सूर्य) है तो रिरियाता क्यों है?” तभी तो सूरदास की गरिमा और दृष्टि स्पष्ट है –
जिहि मधुकर अम्बुज रस चाख्यो क्यूं करील फल भावे
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै
अमृत-फल पा चुका (आराध्य की भक्ति में डूबा) भक्त जंगली फल क्यों खाएगा? इसे कामधेनु मिली है, वह गधी का दूध क्यों चाहेगा!
सखा-प्रभु को उलाहने दे सकने वाली, जग के लोभों से विरक्त और आत्म-सम्मान से तनी हुई मुद्रा आपको सभी कृष्ण-भक्तों में मिलेगी। तभी तो कुंभनदास हरि-नाम को बिसरा देने वाली, दुखदायी सत्ताधीशों को सलाम कहलवाने वाली ‘सीकरी’ (राजसत्ता) से विरक्त हैं – “संतन को कहा सीकरी सों काम?”
दूसरी ओर, दास्य-भाव की भक्ति में अपनी दीन-हीनता और पाप-बोध के स्वर हैं। (वैसे ही स्वर, जिनका संस्कृत प्रार्थनाओं के संदर्भ में, पिछली कड़ी में जिक्र किया गया था।) ‘विनय पत्रिका’ में तुलसीदास कहते हैं:
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप - पुंज – हारी।
लेकिन यह दीनता निजी लाभ की नहीं है और न ही इसमें नकारात्मकता और गिड़गिड़ाहट है। ये परम सत्ता से, दासत्व के मार्ग से ही सही, तादात्म्य के उद्गार हैं: ‘ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो । तात - मात, गुरु - सखा, तू सब बिधि हितु मेरो।‘
लेकिन भौतिक कामनाओं से मुक्त आत्म-सम्मान की यहाँ भी कमी नहीं है। तुलसीदास को जब राजसत्ता उदारता और सम्मान से बड़ा पद देना चाहती है तो वह पूरी तुर्शी से उसका प्रतिकार करते हैं –
हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार।
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार।
यों तो पूरी भक्ति-परंपरा में ही, जाति, वर्ण, पांडित्य पर आधारित श्रेष्ठता मायने नहीं रखती, लेकिन खास तौर पर निर्गुण भक्त, इन श्रेष्ठताओं का पूरे आत्म-विश्वास से प्रतिकार करते हैं। इनमें से अधिकतर भक्त समाज के कथित निचले, वंचित वर्गों से हैं जिन्हें ग्रन्थों की विधिवत शिक्षा नहीं मिली है। लेकिन उन्हें जो आध्यात्मिक अनुभूति और स्पर्श मिला है, उसके बल पर, वे पूरे विश्वास से पारंपरिक धर्मों की रटंत-पठंत, ‘वेद-कितेब’, जाति-धन-सत्ता की श्रेष्ठता को नकारते हैं। उन्हें विश्वास है कि सिर्फ उन्हीं ने शरीर-रूपी ‘चदरिया’ को ‘जतन से’ ओढा और मैला नहीं होने दिया। बाहरी पूजा-पाठ से प्रभु को मोहने का प्रयास तो उसकी करुणा पर अविश्वास करने जैसा है! वह तो प्रभु हैं, खुद मेरा ध्यान रखेंगे, मैं क्यों पूजा करूँ! प्रदर्शन क्यों करूँ! संत मलूकदास के तेवर देखिए -
सुमिरन ऐसा कीजिए, दूजा लखै न कोय।
होंठ न फरकत देखिये, प्रेम राखिये गोय।
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माला जपौं, न कर जपौं, जिह्वा जपौं न राम।
सुमिरन मेरो हरि करें, मैं पायो विश्राम।
मलूकदास को न हज करनी है, न ताज़िए बनाने हैं, न नमाज़ पढनी है, क्योंकि उन्हें तो पूर्ण गुरु मिल गया है:
‘मक्का हज हिये में देखा, पूरा मुरसिद पाया’;
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‘तौजी और निमाज न जानूँ, ना जानूँ धरि रोजा।‘
यह तो रही साहित्य और अध्यात्म की दुनिया। लेकिन पिछले डेढ़ सौ सालों में, हिंदी-भाषी क्षेत्र में तो आम जन को भक्ति-स्नान कराने में सबसे बड़ी भूमिका आरतियों की रही है। पिछले डेढ़ सौ साल की आरती-परंपरा की बात की जाए तो पहला नाम पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी (1837-1881) का आता है। 1870 के आसपास उनकी रचना ‘ॐ जय जगदीश हरे’ आरती-परंपरा का सर्वाधिक चमकीला रत्न है। फिल्लौर (पंजाब) के श्रद्धाराम शर्मा सनातन धर्म के अग्रणी-उत्साही प्रचारक, ज्योतिषी, संगीतज्ञ और हिंदी-पंजाबी के साहित्यकार थे। उनका उपन्यास भाग्यवती हिन्दी के आरंभिक उपन्यासों में माना जाता है।
अद्भुत आरती है ‘ॐ जय जगदीश हरे।‘ इसमें सरलता है, सहजता है, संगीत की लय है और भावों की विविधता और गहराई है। इसमें भक्तों, ‘दास’ जनों के संकट दूर करने, सुख-संपति घर आने, तन का कष्ट दूर होने की विनम्र, सांसारिक कामनाएँ हैं, ‘मैं मूरख खल कामी, मैं सेवक तुम स्वामी’ की आत्म-दीनता और आत्म-धिक्कार है; तो अंतर्यामी, पूर्ण परमात्मा ईश्वर से ‘विषय-विकार’ मिटाने की आध्यात्मिक आकांक्षा भी है। माता-पिता के समान ईश्वर की यह एकनिष्ठ आराधना है। भक्त की इस निजी ‘आरती’ में अद्भुत, निस्वार्थ सामूहिक भाव है।
‘आरती’ शब्द में भक्त की आर्त-भाव की आराधना है। हिन्दू समाज की आस्था के विराट फैलाव, इसे आह्लाद, सौंदर्यबोध, लय और प्रवाह देने में ‘ॐ जय जगदीश हरे’ और फिल्लौरी जी के विलक्षण योगदान को प्रतिष्ठा दी जानी कहिए, जिन्होंने अपनी अतिशय विनम्रता में, परंपरानुसार अंतिम अंतरे में अपना नाम भी नहीं जोड़ा, बस ‘श्रद्धा’ भक्ति बढ़ाओ’ का संकेत-भर दे दिया।
तब से अब तक, हिन्दू-समाज के घर-घर में, सारी पूजाओं और कर्म-कांड के अंत में दीपकों के आलोक और शंख-घण्टियों के स्वर के साथ जो आरती होती है, वे आराधना, जुड़ाव और व्यक्तिगत-सामूहिक आस्था के सबसे भावपूर्ण और मधुरतम पल होते हैं। शायद ‘ॐ जय जगदीश हरे’ की प्रेरणा और अनुकरण में ही घर-घर और मंदिरों में होने वाली अनेक देवी-देवताओं की आरतियाँ रची गई होंगी, लोकप्रिय हुई होंगी। ठीक उसी तरह, जैसे ‘हनुमान चालीसा’ के ओज, भाव और प्रवाह की प्रेरणा से अनेक देवी-देवताओं, यहाँ तक कि दिव्य आभा पा चुके संतों की ‘चालीसाएँ’ रची गई होंगी। इसी तरह, ‘सत्यनारायण कथा’ की लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए, पिछले सौ सालों या फिर कुछ दशकों में ही अनेक ‘कथाएँ’ रची गई होंगी।
यहाँ एक पक्ष यह भी है कि बाज़ार की लालसा में पिछली अर्धशती के हमारे देखे गए समय में ही, अनेक ऐसी आरतियाँ, चालीसाएँ और कथाएँ रची गई हैं जो भाव,भाषा और लय-प्रवाह की दृष्टि से बहुत ही औसत दर्जे की हैं।
संतों की बाणियों और जन-स्रोतों से निसृत आरतियों ने आम-जन को भाव-समृद्धि दी, विश्वास दिया। अगली और अंतिम कड़ी में चर्चा करेंगे – कैसे देश के दो ‘विजनरी’ कवियों ने प्रार्थना को दिए नए आयाम।
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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।