तलब पैदा कर, नज़र पैदा कर
रागदिल्ली परिवार के एक अनन्य सदस्य राजेन्द्र भट्ट ने फिल्म और टेलीविज़न संस्थान (एफ़टीटीआई), पुणे की पत्रिका ‘लेंसाइट (Lensight)’के दो अंकों में प्रकाशित सामग्री के अनुवाद के क्रम में पाया कि इन पत्रिकाओं में जो पढ़ा, उसकी मुख्य बातें लोगों तक भी पहुँचने चाहिएं, इसलिए उन्होंने दो लेख लिखे जिनमें से एक 'सिनेमा ऐसे देखो' आप पढ़ चुके हैं. दूसरे लेख में आप सिनेमाटोग्राफी (छायांकन) से सम्बंधित बहुमूल्य सामग्री से रु-ब-रु होंगे.
तलब पैदा कर, नज़र पैदा कर
राजेंद्र भट्ट
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है।
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
पिछली बार, जिक्र किया था फिल्म और टेलीविज़न संस्थान (एफ़टीटीआई), पुणे के चमन की उर्वर माटी में श्रेष्ठ सिनेमा से जुड़ा सब कुछ है- उत्कृष्ट सामग्री, प्रतिभाशाली फ़ैकल्टी और विद्यार्थी, नवीनतम ज्ञान और टैक्नोलॉजी, 60 वर्षों की ज्ञान-अनुभव परंपरा की थाती का पुख्ता ‘डॉक्यूमेंटेशन’। अँग्रेजी में प्रकाशित होने वाली ‘लेंसाइट’ पत्रिका इसी ‘डॉक्यूमेंटेशन’ का एक गौरवमय अंश था। यानी एफ़टीटीआई में मिट्टी, पानी, बयार - सब कुछ था, पर यहाँ भी हिन्दी की नर्गिस के नूर पर नज़र डालने वाला दीदावर नहीं था। दीदावर बनने का संयोग निदेशक भूपेन्द्र कैंथोला के नाम बना और सिनेमा पर गहन कथ्य और मनोरम प्रस्तुति के साथ नर्गिस के नूर को पहचान मिली – ‘लेंसाइट (हिन्दी)-1’ पत्रिका के रूप में, जिसकी विशद चर्चा पिछली कड़ी में हुई है।
अपने सिस्टम में हिन्दी की नर्गिसों की राह आसान नहीं होती। एक बार नूर बिखेर कर भी, निरंतरता न रहने पर हिन्दी, सरकारी दफ्तरों में फिर बेनूर राजभाषा रह जाती है। लेंसाइट-2 (हिन्दी), वादे के हिसाब से छह महीने में तो नहीं निकली। सरकार में अफसर बदल जाते हैं, श्री भूपेन्द्र कैंथोला भी एफ़टीटीआई से चले गए। पर थोड़ा देर-सबेर ही सही, नर्गिस की किस्मत पलटी। एफ़टीटीआई की चमन को फिर दीदावर मिला। वर्तमान निदेशक धीरज सिंह कवि भी हैं, और सिनेमा के विविध पक्षों और वैश्विक परिप्रेक्ष्य के मर्मज्ञ भी। मतलब दीदावर फिर मिला, फिर से चड्डा साहब जुड़े तो नर्गिस का नूर सामने आया।
लेंसाइट (हिन्दी) -2 आ गई है। अबकी बार फोकस किया गया है ‘चलचित्र-छायांकन यानी सिनेमेटोग्राफी के अतीत के दस्तावेजों’ पर – एफ़टीटीआई के खजाने से डॉक्यूमेंटेशन का एक और तोहफा। हिन्दी में ऐसे तकनीकी विषयों पर तो बहुत कम मानक सामग्री है।
इस अंक के सम्पादकीय में लिखा है: एक्टर-डायरेक्टर के बिना शायद फिल्म बन जाए, सिनेमेटोग्राफर के बिना नहीं बन सकती। तभी तो संस्थान की पत्रिका का समझदार नाम था: ‘लेंसाइट’ – लेंस के जरिए ‘देखा गया’ अनुभव।
लेकिन ऐसे तकनीकी विषय से, वह भी अनुवाद के जरिए, पाठक को कैसे बांधा जाए, उसे समझाया जाए! चुनौती बड़ी थी, लेकिन यहाँ सुंदर संयोग यह है कि जिन्होंने बताया, वे खुद, देश के ही नहीं, दुनिया के मशहूर सिने-छायाकार रहे। बताया भी बेहद अपनेपन से; और जिन्होंने इस ज्ञान को लेखों में बांधा; वे लेखक भी सिने-विशेषज्ञ थे। उन्होंने ध्यान से सुना, गुना भी; और तब जो पाठक तक पंहुचा है, वह बेहद दोस्ताना, मददगार शैली में है।
तो बिना झिझके पहुंचें पहले लेख पर। विवरण है नवंबर 1997 में संस्थान में आयोजित की गई एक बहुत महत्वपूर्ण कार्यशाला का; और जीवंत अंदाज़ में ब्योरा दिया है तब के ’विद्यार्थी’ और बाद में संस्थान के प्रोफेसर सुरेन्द्र चौधरी ने।
यह वर्कशॉप ली थी राउल कूतार्द ने, जो फ्रांस के 1950-60 के दशकों के ‘न्यू वेव सिनेमा’ के प्रख्यात निर्देशकों ज्यां लुक गोदार और फ्रांस्वा त्रूफो की अनेक फिल्मों के सिनेमेटोग्राफर रहे। ‘न्यू वेव सिनेमा’ पूरी दुनिया में सार्थक सिनेमा का प्रेरणा-स्रोत रहा है। वर्कशॉप का यह विवरण मजे-मजे में बहुत कुछ सिखाता जाता है। कूतार्द को अंग्रेजी नहीं आती थी, वह अपनी दुभाषिया ( जिसे वह ‘माइ वॉइस’ कहते थे) के जरिए बातें करते थे – यानी चौधरी साहब वर्कशॉप की कुल अवधि को ‘एक बटा दो’ ही मान रहे थे। लेकिन फिल्मों की सार्थक, समझदार चर्चा हुई – उनके ‘श्रंगारिक आवेश’ की, ‘रहस्यात्मकता के अतिरिक्त आयाम की’; सिनेमा की सघनता के बारे में यह ज्ञान भी मिला कि ‘अगर किसी दीवार के बिना गिरे, उससे एक ईंट निकाली जा सके तो इस दीवार का होना ही ज़रूरी नहीं था।'
गोदार की फिल्म-भाषा में, सजग रूप से ‘चरित्र को प्रोजेक्ट नहीं करना, भाव नहीं प्रकट करना’, यानी ‘अभिनय न करना’ भी कई बार अभिनय होता था। कूतार्द ने लाइटिंग, बाउंस लाइट और कैमरा के कई गुर विद्यार्थियों को बताए और वापस लौटकर भी एक चिट्ठी लिखी जिसमें वस्त्रों का झक सफ़ेद प्रभाव कम करने के लिए ‘सस्ती नील इस्तेमाल करने’ और ‘चाय के पतले घोल’ से उन्हें धोने की सलाह भी दी! तो इतना मुश्किल भी नहीं ‘सिनेमेटोग्राफी’ को पढ़ना-समझना!
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के प्रख्यात फिल्म-निर्देशक-संपादक इस्तवान गाल का छोटा सा वृत्तान्त ऐतिहासिक इमारतों-वीथियों के बीच रोम के एक हिस्से की उनके द्वारा अलस्सुबह ‘रेकी’ करने की दिलचस्प दास्तान है। इमारतें, सड़कें, पुल, नदी, गिरजों की खिड़कियाँ, पतले होते शिखर – कैसे नज़र के सामने आते हैं, सघन होते हैं, हटते हैं – इसके बेहद महीन शब्द-चित्र मंत्र-मुग्ध करते है और समझाते हैं कि निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर कैसे ‘देखते’ हैं, जो हम सिनेमा के मर्मज्ञ की अंगुली पकड़ कर ही देख-समझ सकते हैं। इस लेख के अनुवाद में मुझे लगभग हर पंक्ति में, स्थानों के विवरण समझने और भूगोल-स्थापत्य को मन में ‘विजूअलाइज’ करने के लिए ‘विकी’ की शरण लेनी पड़ी। अंग्रेजी लेख के साथ इस्तवान गाल के बनाए कुछ स्केच भी थे, जिनसे मुझे शब्दों को चित्रित कर पाने में बहुत मदद मिली – मसलन, कैसे ‘खिड़कियों के लिंटेल क्षैतिज ,,,, नुकीले, ,,, चापाकार क्रम’ में थे जिनकी ’लय का प्रभाव सतह को दबाता और ऊपर को उठाता लगता है।‘ इस हिन्दी अंक में, ये स्केच छूट गए हैं। होते, तो लेख ज्यादा सहज, समृद्ध हो जाता। अपने सत्यजित रॉय भी तो दृश्यों के स्केच बना लेते थे!
दस्तावेजी महत्व का अगला लेख हमारे समय की भव्यतम फिल्मों – ‘मुगले आजम’ और पाकीज़ा’ के चलचित्र-छायाकार आर डी माथुर के अनुभवों पर आधारित है। निर्देशक के आसिफ के जुनून से बनी ‘मुगले आजम’, दस साल की तैयारियों के बाद 1960 में पर्दे पर आ सकी। इसमें भव्य महल हैं, फव्वारों-उद्यानों-गलियारों भरा लेंडस्केप है, प्रकाश-संयोजन, पोशाकें – सब कुछ भव्य हैं, युद्धों के लोमहर्षक दृश्य हैं, और सबसे बढ़ कर ‘प्यार किया तो डरना क्या’ वाला शीशमहल है। सेट्स बनाए जाते रहे, और उससे भी अधिक सावधानी से ‘डिसमेंटल’ किए जाते रहे। पैसा पानी की तरह बह रहा था, पर इस बहाव को रोकना भी था। कुल मिलाकर, एक ‘युग’ तक दर्शकों को ले जाना था। आज से 65-70 पहले की तकनीकी स्थितियों में यह शाहकार कैसे बना, उसे सिनेमेटोग्राफर की नज़र से देखना फिल्म-प्रेमियों और विशेषज्ञों-विद्यार्थियों की दृष्टि से बेहद महत्व की, सहेजने लायक सामग्री है।
‘पाकीज़ा (1972) संवेदनशील निर्माता-निर्देशक-लेखक की कालजयी फिल्म है। यह फिल्म मीनाकुमारी की अप्रतिम अभिनय-क्षमता का भी जीवंत दस्तावेज़ है। माथुर साहब ने कमाल अमरोही की कार्य-शैली और इस फिल्म के मार्मिक अनुभवों, खास तौर से ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ और ‘गुलाबी महल’ दृश्यों का भावभीना उल्लेख किया है।
जाने-माने सिनेमेटोग्राफर ए एस कनल ने 1930 के दशक से सक्रिय तथा यशस्वी निर्देशक बिमल रॉय की श्रेष्ठ श्वेत-श्याम फिल्मों - बिराज बहू (1954), यहूदी (1958) और मधुमती (1958) के सिनेमेटोग्राफर दिलीप गुप्ता का साक्षात्कार किया जिसे फिल्म-निर्देशक जयश्री कनाल ने विकसित किया है। इस आलेख में, खास तौर से ‘मधुमती’ फिल्म में दिलीप गुप्ता के काम का गहन विश्लेषण किया गया है। (मधुमती फिल्म के लेखक और पटकथा-लेखक अद्भुत प्रतिभा के धनी निर्देशक ऋत्विक घटक थे।) दिलीप गुप्ता सादे-यथार्थवादी प्रकाश-संयोजन को पसंद करने वाले सिनेमेटोग्राफर थे, जो ‘प्रकाश-स्रोत का अनुकरण करने’ पर यकीन करते थे। उन्हें चरित्रों का अनावश्यक ग्लैमराइजेशन पसंद नहीं था। वह आउटडोर शूट भी स्टूडिओ में (इंडोर) शूट करते थे और दोनों छायाओं का ‘सीमलेस’ मिलान करते थे। यह गहन जानकारी वाला, लेकिन ललित लेख है।
आक्रोश, अर्धसत्य, पार्टी, तमस, विजेता और रुक्मावती की हवेली जैसी शानदार फिल्मों के निर्देशक गोविंद निहलानी को हम भारत में सिनेमेटोग्राफी के पितामह वी के मूर्ति के शिष्य तथा हिन्दी के समांतर सिनेमा के पुरोधा श्याम बेनेगल की फिल्मों के सिनेमेटोग्राफर के तौर पर भी जानते हैं। कैमरा उनका पहला ‘पैशन’ रहा। राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित सिनेमेटोग्राफर वीरेंद्र सैनी के साथ उनकी जुगलबंदी में कैमरे, लेंसों और रोशनी के प्रभावों की उनकी गहरी समझ चमत्कृत करती है। तकनीकी भाषा के बीच बहते सौन्दर्य-बोध में हम समझते हैं कि कलाकार के चेहरे की मोहक आभा हो या फीके पड़ते सामंती अतीत को दिखाती जर्जर इमारतें – इन्हें बताने में संवेदनशील कैमरा बड़ी भूमिका निभाता है – अभिनय और कथा के साथ अगर दर्शक इस पक्ष को भी थोड़ा समझ सकें तो आस्वाद दुगुना हो सकता है।
और खुद श्याम बेनेगल बता रहे हैं अपने साथी-पसंदीदा चलचित्र-छायाकारों - वी के मूर्ति, कामत घाणेकर, गोविंद निहलानी, अशोक मेहता, पीयूष शाह, के के महाजन, जहांगीर चौधरी और सुब्रत मित्र के बारे में। यह एक तरह से भारतीय सिनेमेटोग्राफी की ‘गैलेक्सी’ है और श्याम बेनेगल अपनी पारखी, गुणग्राहक नज़र से, तमाम बारीकियों का जिक्र करते हुए जो बता रहे हैं, वह मेरे जैसे अल्पज्ञ, लेकिन अनुरागी पाठक-दर्शक को भी ललित निबंध सा लगता है। प्रसंगवश, सुब्रत मित्र अपु-त्रयी सहित सत्यजित रॉय की अनेक फिल्मों के चलचित्र-छायाकार रहे।
इसी अंक में, हिन्दी सिनेमा के एक शिखर-निर्देशक बी आर चोपड़ा बता रहे हैं कि निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर मिलकर ऐसा ‘जादू रचते’ हैं जिससे ‘सायों में जान फूंकी जाती’ है। ‘सिनेमेटोग्राफर फिल्म की फोटोग्राफिक टेपेस्ट्री तैयार कर देता है।‘ शोले (1975) जैसा शाहकार देने वाले निर्देशक रमेश सिप्पी इस फिल्म के उस चुनौतीपूर्ण मार्मिक दृश्य के छायांकन का किस्सा सुनाते हैं जिसमें साँझ ढलते ही बत्ती जलाती ठाकुर साहब की विधवा बहू ( जया भादुड़ी) की नज़र बीरू (अमिताभ बच्चन) पर पड़ती है। इस संवादहीन (बल्कि निःशब्द) दृश्य में वर्जित प्रेम, सामाजिक नैतिकता, मजबूरियों और थोड़े से उल्लास के कितने ‘शेड्स’ बसे हैं! इसे उन चंद ‘जादुई क्षणों’ (सिनेमा की भाषा में – मैजिक आवर’) में ही फिल्माना था जब ‘सूरज डूब रहा हो और आसमान की आभा सिंदूरी’ हो रही हो। ऐसे पल में ज्यादा से ज्यादा एक ‘शॉट’ और एक अतिरिक्त ‘टेक’ लिया जा सकता था। इस अविस्मरणीय दृश्य को फिल्माने में 15 दिन लगे!
1942: ए लव स्टोरी, मृत्युदंड, वेल डन अब्बा और ज़ुबेदा जैसी चर्चित फिल्मों के सिनेमेटोग्राफर राजन कोठारी कहते हैं कि सिनेमेटोग्राफर सचल चित्रों के लयबद्ध समायोजन को समग्रता में प्रस्तुत करता है। उन्होंने एक सादी लेकिन पुख्ता बात कही है कि (इनडोर हो या आउटडोर), छवियों का प्रेरक स्रोत प्रकृति ही है। एक संजीदा छायाकार होने के नाते, उन्हें तेज और भड़कीली रोशनी नहीं, बल्कि फीके पेस्टल रंग और दृश्य-छटाएँ सुकून देती हैं।
अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित सिनेमेटोग्राफर-पटकथा-लेखक अपूर्व किशोर बीर एफ़टीटीआई के विद्यार्थी रहे हैं। उनका कहना है कि इस संस्थान में ‘अतीत की समृद्ध विरासत, वर्तमान के गतिशील मूल्य और भविष्य का प्रगतिशील दृष्टिकोण निहित है।'वह फिल्म-निर्माण के आध्यात्मिक, शारीरिक और मानसिक दर्द और थकान का विश्लेषण करते हैं जो दर्शक की संभावित मांग के जोखिम और अनिश्चय से बढ़ता है।
पीरुवे, स्वाहम और वानप्रस्थम जैसी प्रशंसित-पुरस्कृत फिल्मों के निर्देशक, सिनेमेटोग्राफर और केरल में फिल्म-संस्कृति के शिखर-व्यक्तित्व शाजी एन. करुन का इसी वर्ष अप्रैल में निधन हुआ है। उन्होंने वर्ष 1971-74 के दौरान एफ़टीआईआई के विद्यार्थी के रूप में अपनी सिने-यात्रा का मनोरम, विनम्र विवरण प्रस्तुत किया है।
और अंत में, तमिल फिल्म-निर्माता/ सिनेमेटोग्राफर आर वी रमणी सिनेमा में अमूर्तीकरण की चर्चा करते हुए बहुत महीन बात कहते हैं कि ‘दिखाने’ और कैमरे में ‘कैप्चर’ कर लेने के विचार से आगे बढ़ कर, ‘किसी अनुभव के प्रकट होने के क्षण (पॉइंट ऑफ रिलीज) को समझ पाना, ‘नहीं दिखने तक पहुँचना’ दिलचस्प है! ‘हवा’ पर बनाई जाने वाली एक फिल्म का वह जिक्र करते हैं। अब कबीर साहब की उलटबांसियाँ और सिनेमा की महिमा तो अकथ-अगम है!
इस अंक में मेरे अलावा दो अन्य अनुवादकों – सुश्री सुनीता डागा और डॉ. विजय शर्मा का योगदान है।
एफ़टीटीआई से एक प्रार्थना – इस सार्थक जानकारी को, ई-माध्यमों और दूसरे तरीकों से हिन्दी सिनेमा-प्रेमियों तक ज़रूर पहुंचाएं। अब तो पावस ऋतु भी है। सिनेमा का सतरंगी मोर जंगल में ही क्यों अजाना नाचे, सभी की उसे आँखों में भर लेने का मौका ज़रूर दें!
इन दो अंकों से फिर से गुजर कर, मेरे जैसे सिनेमा-अल्पज्ञानी का मन भी हल्का-हल्का, लेकिन हरा-भरा सा हो गया। जो मुझे हासिल हुआ, वह कुछ ऐसा है:
एक - आधुनिक, नए-नए साधनों, वीएफ़एक्स के सुलभ होने से पहले, ‘स्क्रू-ड्राइवर टैक्नोलॉजी’ के दौर में फिल्म निर्देशकों, एडिटरों, सिनेमेटोग्राफरों ने जो मेहनत की, जो तरीके निकाले, उसमें अद्भुत मौलिकता और समृद्ध विविधता थी – वह ढेरी वाला ‘मास प्रोडक्ट’ नहीं था। हमारी पुरानी क्लासिक फिल्मों में, मन में दृश्यों को सँजोते हुए, सीमित साधनों के कल्पनाशील उपयोग से उन सिने-पारखी जनों ने अभिनय, दृश्य, संगीत और रंग-विधान का जो जादू बिखेरा है, वह आज के फटाफट-युग वालों को थोड़ा ठहर कर देखने, विनम्र-कृतज्ञ होने का मौका देता है।
दूसरे, कैमरा फिल्म-विधा का राजा है। ‘दाग’ फिल्म में दिलीप कुमार जब हल्के ‘पॉज’ के साथ, दुख को समझ ही न पाने के दिमागी झटके, फिर बेबस आश्चर्य और अंत में फूट पड़ी मर्मांतक रुलाई के साथ हर बार, केवल चार शब्द ‘मेरी मां मर गई’ बोलते हैं; जब मीना कुमारी ‘साहब, बीबी और गुलाम’ में ‘भूतनाथ’ को बस संबोधित करती हैं; दूसरी ओर, अमजद खान ‘शोले’ में बहुत ‘लाउड’ होकर ‘कितने आदमी थे’ या ‘अरे ओ सांभा’ बोलते हैं; या फिर ओम पुरी तो ‘आक्रोश’ में बस निःशब्द – पथराई आँखों-चेहरे से ही बोलते हैं – तो इन दृश्यों को अमर-अमिट तो निर्देशक-सिनेमेटोग्राफर की दृष्टि और कैमरा ही बनाते है। ये ही शब्द या विवरण कथा-काव्यकार की पोथी में तो सामान्य-से लग सकते हैं, लेकिन सिनेमा में अतींद्रिय अनुभव देते हैं। सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम है - और दृश्य पहले है।
तीसरा - ‘कंजूमर पॉवर’ के शिखर पर, धन और सत्ता के आत्मविश्वास से दिपदिपाते जो सफल ‘यप्पीज (यंग अर्बन प्रोफेशनल्स) से निवेदन है कि पुराने राजे-महाराजाओं की तरह आप अब कला-संस्कृति के आश्रयदाता हैं, ‘इंफ्लुएंसर-प्रमोटर’ हैं। व्यस्त हैं आप, पर कला-सभ्य भी आपको दिखना है। लेकिन बराए-मेहरबानी कला-सिनेमा को ऐसे ने देखें कि सितार खा रहे हैं, और मुर्गे की टांग सुन रहे हों! जैसा लेख में अर्ज किया है, सिनेमा की हर बारीकी, कलात्मक अनुभव को उभरने में बहुत लोगों की बहुत मेहनत, समय और समर्पण लगता है, उसे धैर्य और विनम्रता से समझें। सिनेमा और कलाएं धैर्यपूर्ण, सहृदय एकाग्रता और एकांत मांगते हैं। हो सके, तो हॉल के अंधेरे में फिल्म देखें – बिना ‘पॉपकॉर्न-कोक’ के हो तो बेहतर। घर में भी देखें तो ‘एकांत’ पैदा करें – उतनी देर अपनी व्यस्तता की व्याकुलता को किनारे रख दें। ‘एकांत’ ‘अकेलापन’ नहीं है; यह तो अच्छे साथ-संवाद में और बढ़ जाता है। ‘सहृदय एकांत’ अकलेपन को और उपभोग की संस्कृति के शिखर पर होने के व्यर्थता-बोध और उचाटपन (एलिनेशन) को दूर करता है। कुल मिलाकर, सिनेमा को खूब गहराई और एकाग्रता से देखें – यह देखने की चीज है।
अगर नूर में डूबना है – तो तलब पैदा कर, नज़र पैदा कर।
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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।