इतना सीधा नहीं है ये मामला - सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता
दर्शनशास्त्र की गुत्थियों को सुलझाते-सुलझाते अब हम इतना तो समझने लगे हैं कि जो इतना सीधा दिख रहा होता है, असल में वह उतना सीधा होता नहीं. है. हालाँकि, हम चाहते हैं कि जीवन में भी सब कुछ सीधा सरल हो, पर आदर्श स्थिति में ऐसा होता नहीं है।.तो फिर ये माजरा क्या है? हम यह तो नहीं कहेंगे कि डॉ मधु कपूर के इस लेख को पढ़कर आपकी सभी जिज्ञासाएं शांत हो जायेंगी लेकिन आप यह जानकर आश्वस्त महसूस कर सकते हैं कि जटिलताओं को सरल बनाने की इस यात्रा में आप अकेले नहीं हैं बल्कि स्वयम दार्शनिक भी आपके साथ इस खोज में लगे रहे हैं.
इतना सीधा नहीं है ये मामला - सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता
डॉ मधु कपूर
"दो बिंदुओं के बीच सबसे छोटा और सीधा मार्ग जो दिशा नहीं बदलता है, गणित में उसे सरल रेखा कहते हैं" — यह रेखा एक ही दिशा में बढ़ती है, बिना किसी मोड़ या वक्रता के। इसकी लंबाई सैद्धांतिक रूप से दोनों दिशाओं में अनंत तक फैली होती है, भले ही हम उसे सीमित रूप में चित्रित करें। पूर्णतः सीधी रेखा केवल लंबाई रखती है, जो एक आदर्श कल्पना हैं, या एक hypothesis है। जैसे बिंदु का कोई आयाम नहीं होता, वैसे ही सरल रेखा की न तो कोई चौड़ाई होती है और न ही कोई मोटाई होती है। ऐसी सरल रेखा की वास्तविकता का प्रश्न गणित से निकलकर दर्शन की भूमि में प्रवेश करता है। भौतिक जगत में कोई भी रेखा—चाहे वह धागा हो, किरण हो, या सड़क—हमेशा कुछ न कुछ वक्र होती है। धागा या रस्सी कभी पूरी तरह सीधा नहीं रह सकता, क्योंकि उसमें लचीलापन होता है और वह अपने भार या खिंचाव के अनुसार झुकता है। प्राकृतिक जगत में कोई भी रेखा पूर्णतः सीधी नहीं होती, क्योंकि हर वस्तु पर बलों का प्रभाव पड़ता है, जिससे उसमें वक्रता उत्पन्न होती है।
व्यवहारिक जीवन में, सरल रेखा एक प्रतीक बन जाती है—सत्य की सीधी राह। लेकिन क्या सचमुच जीवन में कोई भी मार्ग इतना सीधा और सरल होता है? जीवन तो मोड़ों, घुमावों से गुजरता हुआ पूर्ण होता है। सूर्य की किरणें पृथ्वी के वायुमंडल में जब प्रवेश करती हैं, तो वे विभिन्न कणों की गति, प्रकाश की तरंगें, धूल, जलवाष्प और गैस, गुरुत्वाकर्षण इत्यादि के दबाव से गुजरती हैं। इससे उनकी दिशा थोड़ी बदल जाती है। पृथ्वी की धुरी के झुकाव और गति के कारण सूर्य की किरणें दिन के अलग-अलग समय और ऋतुओं में अलग कोणों पर गिरती हैं। पृथ्वी की इस गति के कारण सूर्य की किरणें केवल भूमध्य रेखा के आसपास सीधी गिरती हैं। जैसे-जैसे हम ध्रुवों की ओर बढ़ते हैं, किरणें तिरछी पड़ती हैं। रेलवे ट्रैक दूर से सीधा दिखता है, पर धरती की गोलाई के कारण उसमें सूक्ष्म वक्रता होती है, जो यह दर्शाता है कि सरल रेखा भी संदर्भ के अनुसार वक्र हो जाती है।
हालाँकि, हम चाहते हैं सब कुछ सीधा सरल हो, पर आदर्श युक्लिडीयन ज्यामिति में ऐसा होता नहीं है। दुनिया वास्तव में अस्पष्ट और निरंतर बहने वाली एक विशृंखल व्यवस्था है, जिसे व्यवस्थित करने के लिये सरल और सीधे अनुशासन का प्रयोजन होता है। क्योंकि सीधी सरल बात समझने में आसान होती है, जबकि जटिल होने से गलत होने की संभावनाएं बढ़ जाती है। सूर्य की किरणों से हम जंगल में सीधा रास्ता खोजने की कोशिश करते है, ज्यादा भटकने की अपेक्षा अंततः जहाँ से चले थे वहीँ घूम फिरकर वापस आ सकते हैं। यह एक ज्ञानीय भरोसा (cognitive scaffolding) होता है, जो जटिल राहों को सुगम बना देता है।
दार्शनिक अवधारणाएं तथा वैज्ञानिक सिद्धांत इस बात की पड़ताल करते हैं कि क्या ब्रह्मांड की जटिलताओं को समझने के लिए एक सरल नियम पर्याप्त हो सकता है। न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों ने भी प्रकृति में सादगी की तरफदारी की है। वे अनावश्यक या जटिल परिकल्पनाओं को व्यर्थ समझते है। सरल सिद्धांतों को Ockham’s Razor (मितव्ययिता का सिद्धांत) कहा जाता है। जिसका अर्थ होता है— यदि दो सिद्धांत समान रूप से सटीक हैं, तो वह सिद्धांत बेहतर माना जाता है जिसमें कम से कम अनुमान या तत्व हों। यह एक बौद्धिक उस्तरा है—जो अनावश्यक जटिलताओं को तराश देता है। जैसे रात को बर्तन खटकने की आवाज आती है, तो हम अंदाज़ करते है कि बिल्ली आई है। खिड़की खुली होने के कारण उसका आना स्वाभाविक है, तो यहाँ भूत की कल्पना अनावश्यक है। इसी तरह चाबी खो जाने पर सबसे पहले हम तलाश करते है अपनी पाकेट या आसपास की जगह जहाँ भूल से रखने की सम्भावना हो सकती है। लेकिन ‘ताला तोड़ कर चाबी चोरी की गई है’, ऐसी कल्पना दिमाग में पहले-पहल नहीं आती है, जबतक दरवाज़ा टूटा न देखा जाए। डेविड ह्यूम किसी समस्या को जटिल बनाने की अपेक्षा इसी सहजता से सुलझाने की सलाह देते हैं। सरदर्द की समस्या का समाधान यदि ‘पानी की कमी’ या ‘तनाव कम करने से’ किया जा सकता है तो अनावश्यक रूप से ट्युमर की अतिरिक्त कल्पना क्यों की जाए? व्याकरण जगत में तो यह कहावत ही प्रसिद्ध है कि यदि किसी कथन में अर्द्ध मात्रा भी कम की जा सके तो तो वह आनंद पुत्र जन्मोत्सव के समान होता है — अर्द्धमात्रा लाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः।
यद्यपि कई वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के अनुसार, सरलता कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो हमेशा सत्य हो। फिर भी विचारों की भूलभुलैया में जब मन उलझता है, तब एक सरल सिद्धांत हमारा अच्छा मार्गदर्शक बन सकता है। यह निर्णय लेने को स्थिरता प्रदान करता है। एक सरल सिद्धांत समस्या को न केवल आत्मसात करने योग्य बनाता है, बल्कि भ्रम को भी निर्मूल कर देता है।
कहना न होगा कि ज्यामिति की तरह जीवन में भी सरल रेखा एक आदर्श है—जैसे सत्य, अहिंसा इत्यादि की धारणा। समाज में जब मूल्य और व्यवहार जटिल हो जाते हैं, तब सरल सिद्धांत जैसे ‘सत्य बोलो’, ‘अहिंसा अपनाओ’, ‘परहित के लिए कार्य करो’, ‘सभी मनुष्य समान हैं’—इन नैतिक रेखाओं को भी वक्रता की आवश्यकता पड़ती हैं। अर्थात क्या हर स्थिति में सत्य बोलना उचित है? क्या आत्मरक्षा में हिंसा वर्जित है? क्या व्यवहार में समानता दिखती है? क्या परहित किसी स्वार्थसिद्धि की इच्छा से नहीं किया जाता है? जीवन सरल होना चाहता है, परंतु वहाँ भी रिश्तों की गांठे इतनी उलझी होती है कि कई बार ये गुत्थियाँ सुलझने के बजाय और अधिक उलझ जाती है।
पर इससे सहजता का सिद्धांत किसी तरह भी कमतर नहीं हो सकता है। एक वास्तुकार पहले सीधी रेखा से ही नक्शा बनाता है, फिर उसमें वक्रता, ऊँचाई और बनावट अनुभव की विविधता इत्यादि जोड़ता है। सरल रेखा और सरल सिद्धांत—दोनों ही कल्पना के उपकरण हैं। वे सत्य नहीं, परंतु सत्य की ओर संकेत करते हैं। वे वास्तविक नहीं, परंतु वास्तविकता को समझने के साधन जरूर होते हैं।
सरल सिद्धांत रचनात्मकता को दिशा देता है। जैसे एक चित्रकार कैनवास पर पहले एक रेखा खींचता है—वही रेखा पूरी रचना की धुरी बनती है। कविता में एक सरल भाव—जैसे प्रेम और विरह—कितने ही रूपों में प्रकट किया सकता है। विख्यात संस्कृत काव्यकार दंडी के अनुसार काव्य केवल 'कहा-सुनी' या साधारण बातचीत नहीं होती है, उसमें इच्छित अर्थ को व्यक्त करने वाली शब्द-संयोजना भी होनी चाहिए, जो काव्य में नवीनता और सार्थकता उत्पन्न कर सके। साधारण शब्दों के समूह से जो सिद्ध नहीं होता है, काव्य का अनूठापन उसे साधारण संवाद से ऊपर उठा देता है। साधारण संवाद में केवल सूचना होती है। जबकि शब्दों की संयोजना इच्छित अर्थ को गहराई, रस, और सौंदर्य के साथ अभिव्यक्त करती है। जैसे सूचना कहती है — बारिश हो रही है पर कवि केदारनाथ सिंह कहते है:
बौछारें
तेज़ होती जा रही थीं
पहली बार लगा
कोई किसी को पीट रहा है
जैसे अँधेरे में दरवाज़े पीटे जाते हैं।
प्रकाश तब तक सीधी रेखा में चलता है जब तक गुरूत्वाकर्षण या अन्य कोई बाधा न मिले लेकिन सचमुच में वे सीधी हो पाती है क्या? गोल पृथिवी पर हम सीधा क्षितिज देखते है, पर सचमुच में क्षितिज सीधा होता है? जब सूर्य की किरणें खिड़की से भीतर आती हैं, तो वे धूलिकणों की रेखा सरल दिखाई देती है, सचमुच क्या वह सीधी होती है?
भारतीय दर्शन में लाघव (संक्षिप्तता) और विस्तार (विस्तृत विवेचन) की परंपरा एक अद्भुत द्वंद्वात्मक संतुलन प्रस्तुत करती है—जहाँ ज्ञान को अत्यल्प शब्दों में सूत्रबद्ध किया जाता है, वहीं उसी ज्ञान को गहराई से समझाने हेतु भाष्य, वार्तिक और टीकाएँ रची जाती हैं। लाघव का चरम सूत्र-लेखन में पाते हैं, जिनमें अत्यंत संक्षिप्त रूप से गूढ़ तत्त्वों का निरूपण होता है। ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ (ब्रह्मसूत्र) — केवल चार शब्दों में एक सम्पूर्ण दर्शन की भूमिका को प्रस्तुत करता है। यह लाघव का सौंदर्य है—जहाँ शब्द लघु होते हैं, पर इसके अर्थ गहन होते है। इसलिए सूत्रों पर लिखे भाष्य, वार्तिक और टीकायें टिप्पणियां इत्यादि लिखी जाती है उसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए। ऊपर लिखित सूत्र की बात करें तो इसी एक सूत्र पर शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य इत्यादि आचार्यों के भाष्य पाठक को अतल गहराई में ले जाते है, जो भिन्न भिन्न प्रस्थान के प्रवर्तक कहे जाते है—यथा अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद इत्यादि। सूत्र के प्रत्येक शब्द का व्याकरणिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक बहुआयामी विश्लेषण होता है। विरोधी मतों का खंडन-मंडन होता है। भारतीय दर्शन में लाघव और विस्तार कोई विरोध नहीं, बल्कि एक ही ज्ञान-यात्रा के दो चरण हैं। लाघव से आरंभ होती है—सूत्र-परम्परा जो यह दर्शाती है कि सरलता का अर्थ है ज्ञान के सार तक पहुँचना, न कि विस्तार को नकारना। ज्ञान का लाघव और विस्तार दोनों आवश्यक हैं—एक बीज की तरह और एक वृक्ष की तरह।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।