धनकड़ का इस्तीफा - लोकतंत्र के लिए नए सवाल
भूतपूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ के इस्तीफे का मामला अब पुराना हो चला है. लेकिन राजकेश्वर सिंह ने अपने विश्लेषण कई महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं जिनकी प्रासंगिकता लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सदैव रहने वाली है. उनका कहना है कि मौजूदा दौर की राजनीति बहुत क्रूर हो गई है, जिससे हमारा संसदीय लोकतंत्र भी अब अछूता नहीं रह गया है। आइए, देखिये उनका यह लेख!
धनकड़ का इस्तीफा - लोकतंत्र के लिए नए सवाल
राजकेश्वर सिंह
देश के उप राष्ट्रपति रहे जगदीप धनकड़ अपने पद से इस्तीफा देकर हट तो जरूर गये, लेकिन वह और उनके इस्तीफे ने कई सवालों को जन्म दे दिया है। पहली तो यही बात किसी के गले नहीं उतरी कि जो व्यक्ति कुछ समय पहले खुद के 2027 में रिटायर होने की बात करता रहा हो, वह संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन राज्यसभा में सदन की कार्यवाही के दौरान बतौर उप सभापति अपने दायित्वों को निभाते हुए देर शाम स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा कैसे दे दिया। दूसरी बात यह कि पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते हुए अमूमन अपने पद की गरिमा को दरकिनार कर वहां की मुख्यमंत्री व सरकार के खिलाफ एक विपक्षी नेता की तरह मोर्चा खोलने की वजह से जो व्यक्ति सत्तापक्ष का इतना पसंदीदा रहा हो कि वह देश का उप राष्ट्रपति भी बन सकता है- वह आखिर उस स्थिति को कैसे प्राप्त हो गया कि उसे महज कुछ घंटों के भीतर ही अपना पद छोड़ने को विवश होना पड़ गया। यह सच्चाई देश के सामने है कि धनकड़ वही व्यक्ति हैं, उप राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की बाबत जिनका नामांकन दाखिल कराने खुद प्रधानमंत्री भी गए थे। इस सबके साथ ही यह बात भी कम गौरतलब नहीं है कि बंगाल का राज्यपाल और संसद में राज्यसभा का सभापति रहते हुए धनकड़ ने अपनी कार्यशैली से राजग, खासतौर से भाजपा के साथ खड़े होने में शायद ही कभी कोताही की हो। यही वजह रही कि इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि विपक्ष उनके अविश्वास प्रस्ताव की हद तक चला गया-यह बात अलग है कि तकनीकी वजहों से वह प्रस्ताव सदन तक पहुंच ही नहीं सका।
इन स्थितियों और परिस्थितियों के चलते ही यह सवाल ज्यादा बड़ा हो गया है कि वाकई मौजूदा दौर की राजनीति बहुत क्रूर हो गई है, जिससे हमारा संसदीय लोकतंत्र भी अब अछूता नहीं रह गया है। उस लिहाज से देखें तो धनकड़ के मामले में भी यह तस्वीर उभरती है कि वे राजनीतिक क्रूरता की बड़ी मिसाल साबित हुए हैं। आखिर धनकड़ ने क्या-क्या नहीं किया। राज्यसभा में सदन की कार्यवाही संचालित करते समय आसन पर होने के दौरान सभापति अमूमन नियमों व परंपराओं को ध्यान में रखकर वह व्यवस्था देते हैं कि सत्ता और विपक्ष अपनी बातों को ठीक से रख सकें और देशहित में विधायी व अन्य कार्यों को सुचारु रूप से संचालित किया जा सके, लेकिन देश ने देखा है कि सदन चलते समय पूर्व सभापति कई बार सरकार से भी ज्यादा विपक्षी सदस्यों से एक तरह से खुद भिड़े रहते थे। उनकी मौजूदगी में सदन में कई ऐसे विधेयक पारित कराये गए, जहां विपक्षी सदस्यों अपनी बात रखने का वह मौका नहीं मिला, जो उन्हें मिलना चाहिए था।
इतना ही नहीं, धनकड़ के सभापति रहते ही राज्यसभा से सदन की कार्यवाही के दौरान विपक्षी सांसदों को संभवत: सबसे ज्यादा निलंबन हुआ, अतीत में जिसकी नजीर शायद ही मिले। धनकड़ के राज्यपाल और फिर उप राष्ट्रपति रहते हुए भाजपा के प्रति इतने झुके होने व समर्पण के बावजूद उनके इस्तीफे के बाद की परिस्थिति पर नज़र डालें तो एक दूसरी तस्वीर सामने है। वह यह कि धनकड़ ने अपने जिस खराब सेहत का हवाला देकर इस्तीफा दिया, उन्हीं धनकड़ का प्रधानमंत्री समेत उनकी सरकार का कोई मंत्री हालचाल लेने तक नहीं गया। सत्तापक्ष के लोगों के लिए एक तरह से वे अछूत से हो गए हैं। सत्तापक्ष के नेता सार्वजनिक तौर पर उनसे मुलाक़ात क्या, बात तक करते नहीं दिख रहे हैं। हालत कुछ ऐसे बन गए लगते हैं, जैसे धनकड़ कभी उप राष्ट्रपति थे ही नहीं। अमूमन सेवानिर्वित्ति के बाद किसी कार्यालय के कर्मचारी तक का विदाई समारोह हो ही जाता है- धनकड़ के मामले में इसकी कोई चर्चा तक नहीं है।
इस सबके बीच अहम सवाल यह है कि आखिर धनकड़ ऐसा क्या ही कर दिया कि उनको महज चंद घंटों में इस्तीफा देना पड़ गया। देखा जाए तो वह अपनी हर भूमिका में अपनी पार्टी और सरकार का हर काम कर ही रहे थे। हाल के कुछ महीनों में उनमें बस नई तब्दीली यह दिखी थी कि वह विपक्षी नेताओं को भी तवज्जो देने लगे थे। उनकी बात सुनने लगे थे। यहां तक कि राज्यसभा में विपक्ष के उस प्रस्ताव को मंजूरी देने को तैयार हो गए जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस रहे यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग लाने की बात थी। उन्होंने यह जानते हुए भी कि इस मसले पर लोकसभा में सत्तापक्ष खुद प्रस्ताव लाने की फिराक में है, लेकिन क्या महज इतनी सी बात पर सरकार के उच्चपदस्थों ने उन्हें इस तरह इस्तीफा देने को मजबूर किया होगा कि वह राष्ट्रपति से मुलाक़ात के लिए पूर्व निर्धारित समय भी न मांग सकें। फिर उनके जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को बिना समय लिए राष्ट्रपति के पास जाकर मिलने के लिए आधा घंटा इंतजार करना पड़े। ये स्थितियां यह संकेत देती हैं कि उप राष्ट्रपति का इस्तीफे के पीछे बहुत आसान वजहें तो नहीं ही हैं। हां, यह भी बताया जाता है कि उन्होंने विपक्षी नेताओं को यह संकेत दिये थे कि वे इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस जज के खिलाफ भी महाभियोग संबंधी विपक्ष के प्रस्ताव पर विचार कर सकते हैं जो धर्मविशेष को लेकर संवैधानिक दायित्वों के बाहर जाकर वक्तव्य दिये थे, जबकि सरकार उस मुद्दे को ठंडा रखने की हिमायती है।
इस सबसे अलग इस मामले में एक और मुद्दा बड़ा माना जा रहा है। वह यह है कि एक लंबे अरसे से धनकड़ न्यायपालिका को कठघरे में खड़ा करते आ रहे थे। खासकर जजों की नियुक्ति के लिए चले आ रहे कोलेजियम सिस्टम को हटाकर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन संबंधी कानून को सुप्रीम कोर्ट की ओर से असंवैधानिक करार देते हुए रद करने के बाद से। उन्होंने कई बार सार्वजनिक मंच से न्यायपालिका को उसकी हद बताने की कोशिश की। उनका कहना था कि संविधान के एकमात्र निर्माता के रुप में संसद की सर्वोच्चता निर्विवाद है और उसमें कार्यपालिका या न्यायपालिका का कोई हस्तक्षेप संभव नहीं है। बताया जाता है कि इस बात को लेकर काफी समय पहले सरकार के उच्च स्तर से उन्हें ऐसे वक्तव्यों से बचने की ताकीद भी की गई थी, लेकिन हमेशा से स्वछंद और स्वतंत्र रहे धनकड़ अपनी ही रौ में रहना चाहते थे, जिसकी परिणति अब सामने है।
वैसे अगर देखा जाये तो धनकड़ ने गलत भी क्या किया ? जब तक वह हर मामले में सौ फीसद सरकार के साथ खड़े रहे, तब तक सब कुछ ठीक था और जैसे ही उन्होंने सही और गलत के फर्क को थोड़ा सा महसूस करना शुरू किया-बात बिगड़ गई। दरअसल यही तो राजनीतिक क्रूरता है,लेकिन कहावत है – जैसे तो तैसा। आखिर धनकड़ ने भी अब तक राजनीतिक दलों का अपनी जरूरत के लिहाज से ही इस्तेमाल किया था। राजनीति में आकर जनता दल से सांसद बने थे। फिर कांग्रेस में चले गए और किशनगढ़ (राजस्थान) से विधायक बन गए। फिर 2003 में भाजपा में आ गए। 2018 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बन गए। अगस्त 2022 में राजग (भाजपा) ने उन्हें चुनाव जीतकर उप राष्ट्रपति बना दिया। जब तक ठीक चला वे उप राष्ट्रपति रहे और उन्हें बनाने वालों के पैमाने पर वे खरे नहीं उतरे तो उन्होंने उन्हें कुर्सी से उतारने को मजबूर कर दिया।
अब देखना यह है कि क्या धनकड़ अब निष्क्रिय होकर बैठ जाएंगे या अब कोई नई पारी खेलने की तैयारी करेंगे? उनके अब तक के कैरियर को देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि उनके लिए निष्क्रिय रहना सरल नहीं होगा. ऐसे में वह क्या नई राजनीतिक गोटियाँ बिठाएंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा.
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राजकेश्वर सिंह राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम के लिए लिखते रहते हैं।
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