सोशल मीडिया प्रसंग : ‘इंफ्लुएंसर’ और ‘फॉलोअर’
राजेन्द्र भट्ट के सोशल मीडिया प्रसंग का यह अंतिम लेख है. अपने पिछले दो लेखों में (पहला यहाँ और दूसरा यहाँ) वह चार प्रसंग गिनवा चुके हैं. आज प्रस्तुत है उनका पांचवा प्रसंग जिसमें वह ‘इंफ्लुएंसर’ और ‘फॉलोअर' पर टिप्पणी कर रहे हैं.
सोशल मीडिया प्रसंग : ‘इंफ्लुएंसर’ और ‘फॉलोअर’
राजेन्द्र भट्ट
बहुत मुश्किल है सोशल मीडिया की संवेदनहीनता की उसी सोशल मीडिया के जरिए आलोचना करना।
पिछली गप-शप में, ‘सोशल मीडिया फ्रेंड्स’ द्वारा, ‘मित्र’ के मर जाने से भी गाफिल शुभकामनाओं और निस्पृह भाव से, संवाद की उपेक्षा करते हुए फूल-पत्तों की व्हाट्सएप सौगातों का जिक्र किया। यह दुख भी बांटा कि कैसे, राजनीति की बलिवेदी पर, समाज का राजनैतिक-वैचारिक-धार्मिक ध्रुवीकरण हो जाता है और ‘सोशल मीडिया’ के ‘एंटी-सोशल’ मंच पर बचपन की निर्मल मित्रता में खटास डाल देती है। हमने यह चर्चा भी की कि चालीस साल पहले, ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ के तथाकथित ‘ग्लोबल विलेज’ बनने से पहले, अपने गाँव-कस्बे की मिट्टी से सुवासित चिट्ठी कुछ महीने नहीं आने पर मन कलपने लगता था – लगता था, उड़ कर अपनों तक पंहुच जाएँ। यह भी जिक्र किया कि यह मीडिया हमें सतही, उचाट और बेचैन बना रहा है। यह ‘कंपल्सिव फिंगर मूवमेंट सिंड्रोम’ यानी सरल शब्दों में ‘खैनी की टुच्ची बेचैन लत’ है।
इस दौरान सोशल मीडिया ने जन-जन का ज्ञान दो नए शब्दों से बढ़ाया - इंफ्लुएंसर’ और ‘फॉलोअर’। हम हिन्दी माध्यम के विद्यार्थी रहे लेकिन अँग्रेजी भी पूरी गंभीरता से पढ़े। जब ‘इंफ्लुएंसर’ और ‘फॉलोअर’ शब्दों का गली-मुहल्ले तक इतना फैलाव हुआ, तब हमें पता चला कि अपने सोशल मीडिया में इनका अलग ही अर्थ है, अलग ही अदा है!
हमारे ज़माने में ‘इंफ्लुएंसर’ शब्द इतना आम-फहम होता तो इसका सीधा-सटीक अनुवाद होता – ‘प्रेरित करने वाला’ यानी ‘प्रेरणा-स्रोत।‘ आप ‘प्रेरणा-स्रोत’ के तौर पर अपने देश-काल में अनेक महामानवों की कल्पना कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, हमारी आँखों के सामने स्वामी विवेकानन्द की छ्वि आ जाती है – ऊर्जा, पवित्रता और ओज के सुदर्शन स्रोत। हमारी कई पीढ़ियों के वह ‘इन्फ़्लुएंसर’ रहे हैं, ‘प्रेरणा-स्रोत’ रहे हैं।
लेकिन लगता है, ‘सोशल मीडिया’ में शब्द और अर्थ – दोनों हल्के हो गए हैं। इस मीडिया के प्रताप से, इससे प्राप्त ज्ञान के प्रसाद से मेरी आँखों के सामने बरबस एक लघु-मानव ‘इन्फ़्लुएंसर’ की छवि आ रही है जो पिछले दिनों साँपों के ज़हर को नशे की तरह लेने और उसे प्रचारित कर ‘इंफ्लुएंस’ करने, यानी ‘प्रेरणा’ देने के किए कु-चर्चित हुए थे। (ज़ाहिर है, मैं उनकी तुलना स्वामी विवेकानंद से करने का कु-विचार भी मन में नहीं ला रहा हूँ। पर उनके जैसों के साथ ‘इंफ्लुएंसर’ शब्द के इस्तेमाल से व्यथित हूँ। मुझे लगता है, यह ज्ञान, पढ़ाई, भाषा और सामाजिक संवेदना के हल्के तथा पतित होने का भी सवाल है।)
अब ‘फॉलोअर’ की बात करें। हिन्दी अनुवाद होगा –‘अनुयायी’। इस शब्द को सुनते ही मेरी आँखों के सामने, स्कूल में पढ़ी कविता के गांधी जी आ जाते हैं – ‘चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर।‘ मैं उस विराट, भावमय दृश्य के आगे नत-मस्तक हो जाता हूँ जब नैतिक आभा और ओज से सम्पन्न बापू के पीछे ‘हम भारत के लोगों’ का समूह चल पड़ा था। यह दृश्य हमें हमेशा ऊंचा उठाता है – नैतिक ओज देता है।
पर सोशल मीडिया ने मेरा ज्ञान बढ़ाया है कि मेरे जैसे, सोशल मीडिया के अपने संदेशों पर अंगूठे के लिए चिंतित-बेचैन लघु-मानवों के भी, अपनी-अपनी औकात के ‘फॉलोअर’ यानी सोशल मीडिया मित्र हैं जो मेरे वचनों का (खैनी की तरह) भी स्वाद लेने वाले और आगे उसका रायता फैलाने वाले हैं। मैं और मेरे जैसे अनेक लघु-मानव अपने उच्च-तुच्छ संदेशों के नीचे @followers और @highlight लिखकर, उनकी गर्दन पकड़ कर अपनी बात सुनाते-पढ़ाते हैं।
जो समाज बड़ा सोचता है, शब्दों को बड़े-गहरे अर्थ देता है, उनके साथ विवेकानंद-गांधी की कल्पना करता है; वह बड़ा होता है। इतिहास की किताब में उस पर पूरे अध्याय लिखे जाता हैं, भावी पीढ़ियाँ उसे कृतज्ञता से याद करती हैं।
और जो समाज शब्दों और अर्थों को तुच्छ बनाता है, ‘ट्रिविलाइज’ करता है, जो विराट कल्पनाएँ नहीं कर पाता; वह अगली पीढ़ियों की इतिहास की किताबों में ‘पतन-काल’ और ‘पतन के कारण’ जैसे सब-हैडिंग के साथ कुछ पंक्तियों में हिकारत से निपटा दिया जाएगा।
पिछले दिनों एक फिल्म देखी –‘लॉगआउट।‘ फिल्म का नायक भी ऐसा ही एक ‘इन्फ़्लुएंसर’ है जो अपने प्यार में दिल टूटने की झूठी वीडियो, चूहे को बोतल में फंसा कर मारने जैसे ‘कलात्मक’ विजुअल अनुभवों से लोगों को ‘प्रेरणा’ देता है। वह गैर-ज़रूरी होने पर छोड़ दी गई प्रेमिका का भी मीडिया में ’इस्तेमाल’ कर लेने को बुरा नहीं मानता। दस मिलियन ‘फॉलोअर्स’ बनाने की इस महायात्रा के अस्त्र –‘मोबाइल’ के पिता के हाथ से गिर जाने पर वह उनके भी चांटा जड़ देता है और अब माता-पिता से संपर्क तोड़ने का ‘महान कार्य’ कर चुका है।
दस मिलियन ‘फॉलोअर्स’ बनाने के बाद, उसे बड़ा ‘कॉन्ट्रैक्ट’ मिल जाएगा – छप्पर फाड़ के पैसा मिलेगा। जिससे वह नए वीडियो बनाएगा, खाएगा-पिएगा, उससे जुड़ी गंदगी करेगा, ‘वर्चुअल वर्ल्ड’ में दौड़ेगा, धींगा-मस्ती करके जीवन सफल बनाएगा और अपने ‘फॉलोअर्स’ को भी मस्त जीवन का ‘किक’ देगा।
लेकिन अचानक ट्रेजेडी आती है। उसका अस्त्र- वीडियो-सज्जित, संदेश-वाहक फोन खो जाता है। करेले पर नीम चढ़ा यह कि उसके मोबाइल के निर्जीव रहने के दौरान, दस लाख मिलियन ‘फॉलोअर्स’ बनाने में उसके करीब-करीब चल रही ‘कंपीटीटर इन्फ़्लुएंसर’ आगे निकलने लगती है। यह प्रतियोगी ‘इन्फ़्लुएंसर’ भोंडे, अश्लील वीडियो के ‘महान’ योगदान से सोशल मीडिया के समाज को ‘प्रेरित’ कर रही है! खतरा है कि अब वह हमारे नायक का इनामी जैकपॉट, पैसा, शोहरत मार ले जाएगी।
पता चलता है कि हमारे होनहार नायक-इन्फ़्लुएंसर के नकली, झूठे, आभासी महानायकत्व पर फिदा एक युवती के कब्जे में उसका फोन आ गया है। वह भी सोशल मीडिया उन्माद के भीषण बुखार से ग्रस्त है, जिसने फोन के अति इस्तेमाल पर रोक लगाने वाले पिता से बदला लेने के लिए उनकी नाज़ुक बीमारियों का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा दिया और अभी घर से फरार है। अपने प्रेम-उन्माद, और सोशल मीडिया तकनीक के शातिर इस्तेमाल से वह हमारे नायक को फंसा-फंसा कर, उसे मोबाइल के नशे के ‘किक’ से वंचित कर, जल बिन मछली सा तड़पा देती है।
इस भीषण गाथा में, जिससे देश-समाज का कुछ भी सरोकार नहीं है, हत्या भी होती है। और अंत में, लुटा-पिटा नायक यह ज्ञान पाता है कि उसके जैसे ‘प्रेरकों’ ने जो समाज बनाया है, उसमें पूरी मेट्रो ट्रेन में सारे यात्री - बिना किसी से संवाद किए- मोबाइल पर रील देख रहे हैं। मासूम बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम में, हॉल में मौजूद सारे अभिभावक न तो इन बच्चों को अनुराग से प्रोत्साहित कर रहे हैं, न उनके बचपन में रम कर अपने आप को बेहतर, भावपूर्ण इंसान बना रहे हैं। वे सभी – जी हाँ – सभी, अपने-अपने मोबाइल से समारोह की वीडियो रिकॉर्डिंग करते हुए अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।
मुझे ‘इन्फ़्लुएंसर्स’ के काम का अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र समझ में नहीं आता। ये न तो किसान हैं, न कामगार; न इंजीनियर हैं, न डॉक्टर; न विद्वान हैं, न शिक्षक – इनमें कोई नेहरू, पटेल, भाभा, विश्वैसरैया, साराभाई, रुक्मणी अरुंडेल, कृष्णमूर्ति, टैगोर, सत्यजित रॉय जैसे कद के लोग नहीं हैं। साँप के जहर को नशे के तौर पर प्रचारित करने वाले ‘इन्फ़्लुएंसर्स’ ने तो ये नाम भी शायद नहीं सुने होंगे। समाज की समग्र आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संपदा में इनकी क्या हिस्सेदारी है? तब इस धंधे का आखिर धंधा क्या है? हमारी आँखें खोलने के लिए इस अर्थशस्त्र, राजनीति और समाजशास्त्र का सच भी सामने आना चाहिए।
लगता है, मैं ‘इंफ्लुएंसर्स’ पर ज्यादा कटु हो गया हूँ। सभी तो सांप के जहर के ‘किक’ का प्रसार नहीं करते। बहुत से तो ‘जीवन में सफल कैसे बनें’, ‘खुद से प्यार करें’, बच्चे कैसे पालें’ पर अच्छे ‘टिप्स’ भी देते हैं। आखिर अपने जमाने में भी तो डेल कार्नेगी से स्वेट मार्डन और उनके देशी संस्करणों वाले ‘इंफ्लुएंसर’ ऐसे ही ‘शॉर्ट कट’ नुस्खे बताते थे। आज भी, अपने ‘अपवर्ड मोबाइल’ उच्च मध्य-वर्ग के सिकुड़े हुए पर सु-प्रदर्शित बुक शेल्फ में आपको ऐसी दो-तीन किताबें मिल जाएंगी। भाषा भी ‘कैची’, लच्छेदार होती ही है। अपने जमाने में, गुलशन नंदा की भाषा भी तो ऐसी ही खुमारी वाली होती थी।
पर एक बड़ा सवाल है - क्या ‘प्रेरक’ लेखक को अपना दायरा बढ़ाने के लिए अपने ‘प्रेरित’ पाठक-स्रोता-दर्शक के निम्नतम स्तर तक नीचे उतर जाना चाहिए और उसे गुदगुदाना (‘पैम्पर’ करना) चाहिए; या फिर पाठक-स्रोता-दर्शक का स्तर ऊंचा-उदात्त बनाने वाली सामग्री देनी चाहिए? क्या सबको फिजिक्स समझ में नहीं आती, इसलिए हमें फिजिक्स को ही फिक्शन बना कर हल्का कर देना चाहिए?
हमें एक उदात्त, उदार, ज्यादा समझदार और संवेदनशील समाज बनाना है। और वह डेल कार्नेगी से गुलशन नंदा तक – और उनके जैसे लेकिन कम प्रतिभाशाली प्रेरकों के शॉर्टकट नुस्खों-फॉर्मूलों से नहीं बनेगा। न ही सांप के नशे के ‘किक’ पर ‘आईबॉल’ बिछा देने से होगा। हमारे समय के बेहद मौलिक चिंतक जे. कृष्णामूर्ति ने कहा था, ‘ट्रुथ इज ए पाथलैस लैंड।‘ – मतलब जब आप हर देश-काल के लिए एक विचारहीन, तयशुदा ‘मार्ग’ पर चलने की बात करते हैं, तो सत्य से भटक जाते हैं। हल्केपन का ‘मार्ग’ भी ऐसा ही है। कृष्णामूर्ति एक उदाहरण, एक संकेतक हैं। एक पुख्ता, टिकाऊ, सचेतन समाज के लिए हमें कृष्णामूर्ति जैसे गहरे ‘प्रेरक’ चाहिए। दुर्भाग्य से, सोशल मीडिया का चरित्र ऐसा है कि वह हमें ऐसे गहरे, सचेतन ‘प्रेरक’ नहीं दे पा रहा है।
कुल मिला कर, क्या इन लघु-मानवों से प्रेरित-मस्त हुए हम खैनी के खुमार में मस्त ‘फॉलोअर्स’ ऐसा कुछ छोड़ और जोड़ पाएंगे कि भावी पीढ़ियाँ हम पर शर्मिंदा न हों, मानवीय प्रगति-यात्रा में हमें याद रखें?
अंत में एक चेतावनी – हम मोबाइल और पूरी तरह अवास्तविक-फर्जी ‘रियल्टी शोज’ में धँसे हैं और सोचते हैं कि हम इस बाज़ार का मज़ा लेने वाले उपभोक्ता हैं, मालिक हैं। सच यह है कि जैसे ही हमें ‘लाइक’ और ‘सबस्क्राइब’ करने के लिए लुभा लिया जाता है, हमारे ‘आईबॉल्स’ को स्क्रीन पर धंसा लिया जाता है– तभी हमारे लिए आभासी दुनिया में एक ‘बबल’ बनने लगता है और रेशम के कीड़े की तरह, मगन हो कर जाल बुनते-बुनते, हम इस ‘बबल’ में कैद हो जाते हैं। इसके बाद हम उपभोक्ता (कंजूमर) नहीं, उपभोग किए जाने वाला माल, ‘कमोडिटी’ – महज ‘डाटा’ का एक टुकड़ा रह जाते हैं। हमें बार-बार बेचा जाता है। पुराने जमाने के गुलामों से भी बदतर – हमें यह भी पता नहीं चल रहा है कि हम – सिर से पाँव तक, अपने परिवार-पड़ोस, रुचियों, आदतों के साथ बिक रहे हैं – मात्र ‘डेटा’ बन रहे हैं।
बहरहाल, इस मुद्दे की अपनी गंभीरता और भयावहता है, जिसे मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के ‘बैठे-ठाले’ चिंतन में नहीं निपटाया जा सकता। यह तो एक, बल्कि अनेक नए लेखों का विषय है – विमर्श है।
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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।