तालाबों का नामकरण है बड़ा दिलचस्प
पाँच जून अर्थात विश्व पर्यावरण दिवस! इस दिन हम कृतज्ञ भाव से स्मरण कर रहे हैं जाने-माने गाँधीवादी चिंतक एवं जल-संरक्षण के प्रणेता अनुपम मिश्र का जिन्होंने पर्यावरण-संरक्षण को उस समय मुद्दा बनाया जब हमारे देश में पर्यावरण कोई मुद्दा ही नहीं था। 1977 में जब उन्होंने गांधी शांति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष की स्थापना की तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय पर्यावरण एकदम फैशन में नहीं था। बाद में कई वर्ष यह बहुत फैशन में रहा लेकिन जल्द ही समझ आ गया कि पर्यावरणीय और पारिस्थितकीय मुद्दे अब चिंता का विषय है। आज हमें उनका यह लेख प्रकाशित करते हुए विशेष प्रसन्नता हो रही है क्योंकि यह लेख उनकी अत्यंत प्रसिद्ध हुई पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' से सम्बद्ध है। इस पुस्तक का अनुवाद देश-विदेश की दर्जनों भाषाओं में हुआ है और इसकी प्रतियां लाखों की संख्या में छपी हैं।
तालाबों का नामकरण है बड़ा दिलचस्प
अनुपम मिश्र
उल्हास की ऊँचाई को दर्शन की गहराई से जोड़ने वाले लोग पूरे जीवन को बस पानी का एक बुदबुदा मानते रहे हैं और इस संसार को एक विशाल सागर। इसमें पीढ़ियाँ आती हैं, पीढ़ियाँ जाती हैं, युग आते हैं, युग जाते हैं ठीक लहरों की तरह। जीवन और मृत्यु की लहरों से लहराते इस भवसागर से पार उतरने का लक्ष्य रखने वाले समाज ने तरह-तरह के तालाब बनाये हैं और बहुत रुचि के साथ उनका नामकरण किया है। ये नाम तालाबों के गुणों पर, स्वभाव पर तो कभी किसी विशेष घटना पर रखे जाते थे। इतने नाम, इतने प्रकार कि कहीं नामकरण में भाषा का कोष कम पड़े तो बोली से उधार लेते थे तो कहीं ठेठ संस्कृत तक जाते थे।
सागर, सरोवर और सर नाम चारों तरफ मिलेंगे। सागर लाड़ प्यार में सगरा भी हो जाता है और प्रायः बड़े ताल के अर्थ में काम आता है। सरोवर कहीं सरवर भी है। सर संस्कृत शब्द सरस से बना है और गाँव में इसका रस सैंकड़ों बरसों से सर के रूप में मिल रहा है। आकार में बड़े और छोटे तालाबों का नामकरण पुलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों की इन जोड़ियों से जोड़ा जाता रहा है: जोहड़-जोहड़ी, बंध-बंधिया, ताल-तलैया तथा पोखर-पोखरी। ये जोड़ियां मुख्यतः राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में जगह-जगह हैं और सीमा पार नेपाल में भी।
पोखर संस्कृत के पुष्कर से मिला है। और स्थानों पर गाँव-गाँव में पोखर हुआ करते थे। लेकिन बंगाल में तो घर-घर में पोखर हुआ करते थे। घर के पिछवाड़े में प्रायः छोटे-छोटे, कम गहराई वाले पोखर मछली पालने के काम आते थे। वहाँ तालाब के लिए पुष्करणी शब्द भी चलता रहा है। पुष्कर तो था ही। पुष्कर के बाद में आदर, श्रद्धा-सूचक जी शब्द लग जाने से वह सामान्य पोखर न रह कर एक अतिविशिष्ट तालाब बन जाता है। वह राजस्थान में अजमेर के पास पुष्करजी नामक प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है। यहाँ ब्रह्माजी का मंदिर है।
सबसे अधिक प्रचलित नाम तालाब ही है पर तालाबों के नामकरण में इस शब्द का उपयोग सबसे कम मिलता है। डिग्गी नाम हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में चलता था। पानी रखने के छोटे हौज से लेकर बड़े तालाब तक डिग्गी नाम मिलता है। कभी दिल्ली में लाल किले के ठीक सामने लाल डिग्गी नामक एक बड़ा तालाब था। अंबाला में अभी कई तालाब हैं और ये डिग्गी ही कहलाते हैं। डिग्गी शब्द दीघी और दीर्घिका जैसे संस्कृत शब्दों से आया है। कुंड भी हौज़ जैसा छोटा और पक्का प्रकार है, पर कहीं-कहीं अच्छे खासे तालाबों का नाम कुंड या हौज़ मिलता है। मध्य प्रदेश के खंडवा शहर में कुंड नाम से जाने गये कई तालाब हैं। हौज़ का उदाहरण दिल्ली का हौज़ खास है जो अब तालाब से अधिक एक मोहल्ले की तरह पहचाना जाता है।
ताल कई जगह हैं पर इसी से मिलता-जुलता शब्द चाल एक क्षेत्र में सीमित होकर रह गया। यह क्षेत्र है उत्तर प्रदेश के हिमालय का। इन पहाड़ी जिलों में कभी गाँव-गाँव में चाल थीं। मैदानी गाँव-शहरों में ताल आबादी के बीच या पास बनते हैं लेकिन पहाड़ी गाँवों में चाल गाँव से कुछ दूर ऊपर बनती थीं। चालों का उपयोग सीधे पीने के पानी के लिए नहीं होता था। लेकिन इन्हीं चालों के कारण गाँव के झरने वर्ष भर चलते थे। पहाड़ों में तेज बरसात के वेग को झेलने, अचानक आने वाली बाढ़ रोकने और वर्ष भर पानी चलाने के लिए चालों का चलन इतना अधिक था कि गाँव अपने ऊपर के पहाड़ों में 30 से 40 तक चाल बना लेते थे।
चाल कोई 30 कदम लंबी, इतनी ही चौड़ी और कोई चार-पाँच हाथ गहरी होती थी। यह किसी एक हिस्से के जिम्मे नहीं होती, सभी इसे बनाना जानते थे और सभी इसकी सफाई में लगते थे। ये निस्तार के काम आतीं, गाँव के पशुओं के अलावा वन्य हिमालय में चाल कहीं खाल है, कहीं तोली है तो कहीं चौरा भी। आसपास के गाँव इन्हीं के नाम से जाने जाते हैं। जैसे उफरेंखाल या रानीचौरा और दूधातोली। ठेठ उत्तर के ये शब्द दक्षिण तक चले जाते हैं। केरल और आंध्र प्रदेश में चैर और चेरुवू शब्द तालाब के अर्थ में ही पाये जाते हैं।
चौकोर पक्के घाट से घिरे तालाब चोपरा या चौपरा और र का ड़ होकर चौपड़ा भी कहलाते हैं। चौपड़ा उज्जैन जैसे प्राचीन शहर में, -झांसी जैसे ऐतिहासिक शहर में तथा चिरगाँव जैसे साहित्यिक स्थान में भी हैं।चौपरा से ही मिलता-जुलता एक नाम चौघरा है। चारों तरफ से अच्छे-पक्के घाटों से घिरा तालाब चौघरा कहलाता है। इसी तरह तिघरा भी है। इसमें एक तरफ संभवतः आगौर की तरफ का भाग कच्चा छोड़ दिया जाता था। चार घाट और तीन घाट से एकदम आगे बढ़कर
अठघट्टी पोखर भी होते थे। यानी आठ घाट वाले। अलग-अलग घाटों का अलग-अलग उपयोग होता था। कहीं अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग तालाब बनते थे तो कहीं एक ही बड़े तालाब पर विभिन्न जातियों के लिए अलग-अलग घाट बना देते। इसमें स्त्री और पुरुषों के नहाने के लिए भी अलग प्रबंध होता। छत्तीसगढ़ में डौकी घाट महिलाओं के लिए तो डौका घाट पुरुषों के लिए बनते थे। कहीं गणेशजी तो कहीं मां दुर्गा सिरायी जातीं तो कहीं ताजिए। सबके अलग घाट। इस तरह के तालाबों में आठ घाट बन जाते और वे फिर अठघट्टी कहलाते थे।
अठघट्टी ताल तो दूर से चमक जाते पर गुहिया पोखर वहाँ पहुँचने पर ही दिखते थे। गुहिया यानी गुह्य, छिपे हुए पोखर। ये आकार में छोटे होते और प्रायः बरसाती पानी के जमा होने से अपने आप बन जाते थे। बिहार में दो गाँव के बीच निर्जन क्षेत्र में अभी भी गुहिया पोखर मिलते हैं।
अपने आप बने ऐसे ही तालाबों का एक और नाम है अमहा ताल। छत्तीसगढ़ी में अमहा का अर्थ है अनायास। गाँवों से सटे घने वनों में प्राकृतिक रूप से निचली जमीन में पानी जमा हो जाता है। ढोर-डँगरों के साथ आते-जाते ऐसे तालाब अनायास ही मिल जाते हैं। उस रास्ते में प्रायः आने-जाने वाले लोग ऐसे तालाबों को थोड़ा ठीक-ठाक कर लेते हैं और उनको उपयोग में लाने लगते हैं। अमहा का एक अर्थ आम तो है ही। आम के पेड़ से,बड़ी-बड़ी अमराइयों से घिरे ताल अमहा तरिया, ताल या आमा तरिया कहलाते हैं। इस तरह अमरोहा था। आज यह एक शहर का नाम है पर एक समय आम के पेड़ों से घिरे तालाब का नाम था। कहीं-कहीं ऐसे ताल अमराह भी कहलाते। फिर जैसे अमराह वैसे ही पिपराह- पूरी पाल पर पीपल के भव्य वृक्ष। अमराह, पिपराह में पाल पर या उसके नीचे लगे पेड़ चाहे कितने ही हों, वे गिने जा सकते हैं, पर लखपेड़ा ताल लाखों पेड़ों से घिरा रहता। यहाँ लाख का अर्थ अनगिनत से रहा है। कहीं-कहीं ऐसे तालाब को लखराँव भी कहा गया है।
लखराँव को भी पीछे छोड़े, ऐसा था भोपाल ताल। इसकी विशालता ने आस-पास रहने वालों के गर्व को कभी-कभी घमंड में बदल दिया था। कहावत में बस इसी को ताल माना: ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैया! विशालतम ताल का संक्षिप्ततम विवरण भी चकित करता है। 11वीं सदी में राजा भोज द्वारा बनवाया गया यह ताल 364 नालों,नदियों से भरकर 250 वर्गमील में फैलता था। मालवा के सुलतान होशंगशाह ने 15वीं सदी से इसे सामरिक कारणों से तोड़ा। लेकिन यह काम उसके लिए युद्ध से कम नहीं निकला- और भोजताल तोड़ने के लिए होशंगशाह को फौज ही झोंकनी पड़ी।
इतनी बड़ी फौज को भी इसे तोड़ने में तीन महीने लगे। फिर तीन बरस तक ताल का पानी बहता रहा, तब कहीं जाकर तल दिखायी दिया। पर इसके आगर का दलदल 30 साल तक बना रहा। सूखने के बाद इसमें खेती शुरू हुई, तबसे आज तक इसमें उम्दा किस्म का गेहूँ पैदा होता चला आ रहा है। बड़ों की बात छोड़ें, लौटकर आयें, छोटे तालाबपर। उथले, कम गहरे, छोटे आकार के तालाब चिखलिया कहलाते थे। यह नाम चिखड़ यानी कीचड़ से बना था। ऐसे तालाबों का एक पुराना नाम डाबर भी था। आज उसका बचा रूप डबरा शब्द में देखने को मिलता है। बाई याबाव भी ऐसे ही छोटे तालाबों का नाम था। बाद में यह नाम तालाब से हट कर बावड़ी में आ लगा। दिल्ली में कुतुब मीनार के पास राजों की बाव नामक बावड़ी आज इस शब्द की तरह ही पुरानी पड़ चुकी है।
पुराने पड़ गये नामों में निवाण, हद, कासार, तड़ाग, ताम्रपर्णी, ताली, तल्ल भी याद किये जा सकते हैं। इनमें तल्ल एक ऐसा नाम है जो समय के लंबे दौर को पार कर बंगालऔर बिहार में तल्ला के रूप में आज भी पाया जाता है। इसी
तरह पुराना होकर डूब चुका जलशय नाम अब सरकारी हिंदी और सिंचाई विभाग में फिर से उबर आया है।
कई जगह बहुत पुराने तालाबों के पुराने नाम यदि समाज को याद रखने लायक नहीं लगे तो वे मिट जाते और उन्हें फिर एक नया नाम मिल जाता: पुरनैहा, यानी काफी पुराना तालाब। आसपास के तालाबों की गिनती में सबसे अंत में बने
तालाब नवताल, नौताल, नया ताल कहलाने लगते। वे पुराने भी पड़ जाते तो भी इसी नाम से जाने जाते।
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जाने-माने पर्यावरणविद और गांधी-विचार को अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतारने वाले अनुपम मिश्र (1948-2016) का पूरा जीवन जल-संरक्षण एवं पर्यावरण-संरक्षण को समर्पित था। गांधी शांति प्रतिष्ठान में उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना वर्ष 1977 में थी और उस समय पर्यावरण के बारे में कोई खास चर्चा नहीं होती थी। उनकी लिखी दो पुस्तकें 'आज भी खरे हैं तालाब' और 'राजस्थान की रजत बूंदे' जल-संरक्षण के क्षेत्र में आज भी सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में गिनी जाती हैं।