लाइब्रेरी - नन्दिता मिश्र की नई कहानी
नन्दिता मिश्र की नई कहानी युवावस्था में बनने वाले पुराने-नए संबंधों से होने वाली कशमकश और असमंजसपूर्ण स्थितियों को बहुत खूबसूरती से सामने लाती है.
लाइब्रेरी
नन्दिता मिश्र
आज घर से याने अपने किराये के टू बी एच के फ्लैट से निकलते निकलते बहुत देर हो गयी। मेरे साथ अंजुम नाम की एक बहुत प्यारी लड़की फ्लैट शेयर करती है। उसे सुबह देर से उठने की आदत है। रोज़ तैयार होने में देर कर देती है। उसके पास एक्टिवा है और वो मुझे रोज़ यूनिवर्सिटी में मेरे डिपार्टमेंट तक छोड़ देती है। फिर अपने विभाग चली जाती है। वह एम.ए. के फाइनल ईयर में है. मैं शोध छात्रा हूं इसलिये चल जाता है। पर अंजुम को क्लास में देर से आने पर लगभग हर दिन डांट खानी पड़ती है।
उसके देरी करने से मेरा एक बड़ा नुक़सान हो जाता है। मैं जब तक लाइब्रेरी पहुंचती हूं मेरी तय सीट पर कोई और बैठ जाता है। वैसे उस टेबल पर तीन और लोग भी बैठ सकते हैं। पर खिड़की वाली जगह विशेष महत्त्व रखती है। उस कोने वाली सीट का लालच तो हर एक को रहता है लेकिन मेरे लगातार बैठने के कारण आमतौर पर लोग लिहाज़ कर देते हैं और मेरे देरी करने पर भी सीट मेरे लिए छोड़ देते हैं। यह सीट एक तो खिड़की के पास है और दूसरे ऐसी जगह है कि जहां से कैंटीन भी पास है। खाने पीने की उत्तम सुविधा। कैंटीन के दो एक बैरों को पटा लो तो चाय-नाश्ता सीट पर मिल जाता है। ये तो वो कारण है जो जग जाहिर है। असली बात सिर्फ दो लोग जानते हैं। एक मैं खुद और दूसरा वो। दूसरा वो .. ये शब्द बड़ा रहस्यमय है। आप समझ गये होंगे और वो के बारे में आपने बहुत से अनुमान लगा लिये होंगे। ये वो मेरा रोज़ का आटो वाला है जो मुझे शाम को यूनिवर्सिटी से वापस घर ले जाता है। इस खिड़की से उसके आने का पता चल जाता है।
उस दिन लाइब्रेरी में कदम रखते ही मेरी आंखें 20/25 किलो मीटर की रफ्तार से खिड़की वाली सीट तक पहुंच गयीं। ये कौन नया पंछी बैठ गया है मेरी सीट पर। चारों ओर नज़र घुमाई और दूसरी जगह देखी। देरी का नुक़सान। कोई ढंग की सीट खाली नहीं थी। बीचों बीच एक सिंगल सीट खाली दिखी। तेज़ क़दमों से वहां पहुंच कर अपना झोला झंगल टेबल पर पटका। इधर उधर देखा। अपनी हाजिरी लग चुकी थी। कई लोगों से निगाहों निगाहों में हाय हैलो भी हो गयी। एकाध से आँखों के इशारे से पूछ भी लिया कि ये नया बंदा कौन है। उसने भी कंधे उचका दिये कि नहीं मालूम। आज पढ़ाई लिखाई में पूरा मन तब तक नहीं लगेगा जब तक पता नहीं चल जाता कि ये साहब कौन हैं। उठ कर अलमारी में से अपनी किताबें लेने गयी। देखा कल जितनी अलग रख गयी थी उसमें से दो किताबें कम हैं। लाइब्रेरियन के पास गयी उससे पूछा अमल मेरी रखी हुई किताबों में से वहां दो कम हैं। किसी ने लीं क्या। उसने कहा मैंने ध्यान नहीं दिया। गुस्सा तो बड़ा आया। पर कुछ कहने का मतलब नहीं है। नियमों के हिसाब से संदर्भ के लिये रैक में से निकाली गयीं किताबें जहां की तहां रखना ज़रूरी होता है। क्या कहती। जैसे तैसे समय काटा। उस खिड़की वाली सीट पर तीन लोग एक साथ बैठ सकते हैं। मैं चाहती तो वहां चली जाती। पर मन नहीं हुआ।
अंजुम अक्सर मुझसे पहले घर आ जाती है। घर पहुंच कर मैंने उसे खूब डांटा और धमकी भी दे दी। अगर कल से तुम टाइम पर तैयार नहीं हुईं तो मैं सोमनाथ भैया को सुबह के लिये भी लगा लूंगी। सोमनाथ मेरे आटो वाले का नाम है। अंजुम का मुंह उतर गया। कुछ बोली नहीं। उसे बहस की आदत नहीं है। दूसरे दिन सुबह वह जल्दी उठ गयी और समय से पहले तैयार हो कर मेरे सामने खड़ी हो गयी। देखा आपने कल जो धमकी दी थी उसका कितना बढ़िया जवाब मिला है। दूसरे दिन मैं रोज से पहले विश्वविद्यालय पहुंच गयी। लेकिन पुस्तकालय में वो सज्जन खिड़की वाली सीट पर पहले से बैठे थे। बैठे नहीं थे विद्यमान थे। गुस्सा तो बहुत आया। कुछ कर तो नहीं सकती थी। फिर एक तरकीब सूझी। अपनी किताबें बैग सब उठा कर वहां जा पहुंची। वो तब तक कुर्सी से खड़े हो चुके थे।
"नमस्कार। मैं अरुण गुप्ता। यहां रिसर्च के लिये कुछ सामग्री इकट्ठी करने इंदौर से आया हूं। पी एच डी कर रहा हूं। मेरे गाइड यहीं के पढ़े हुए हैं। वे यहां की लाइब्रेरी की बहुत प्रशंसा करते हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक बार सागर ज़रूर जाऊं। लाइब्रेरी में बैठने की ये जगह भी उन्हीं की बतायी हुई है। बाकायदा नक्शा बना कर दिया था उन्होंने। मैं उसको फालो करता करता ठीक यहीं आ कर रुका। जैसा कि उन्होंने बताया था ये लाइब्रेरी किताबों को ले कर बहुत अमीर है। और मिस अमल भी ने सामग्री ढूंढ़ने में बहुत मदद की। ये तो रहा मेरा परिचय। और आपकी तारीफ।"
"जी तारीफ तो दूसरे लोग करते हैं। मैं खुद की तारीफ करके अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बन सकती। मेरा नाम किरण आचार्य है। मैं भी पी एच डी कर रही हूं क्या मैं यहां बैठ सकती हूं। वैसे तो ये जगह मेरी है। पिछले बरस भर से यहीं बैठ कर अपनी थीसिस पर काम कर रही हूं। दो दिन से आपके कारण मेरे काम का हर्ज हो रहा है।"
"जी। वो कैसे।" उसने खड़े हो कर कुर्सी के आगे पीछे देख कर कहा इस पर कहीं भी ये नहीं लिखा है कि ये सीट रिजर्व है। "ये तो मैंने भी नहीं कहा कि ये रिजर्व है। मैं यहां लम्बे समय से बैठ रही हूं और मुझे इस जगह बैठ कर काम करने की आदत हो गयी है। दो दिन पहले आपने इंदौर से आ कर इस पर बैठना शुरू कर दिया।"
"देखिये किरण जी, आप यहां बैठ सकती हैं। यहां आपके अलावा और कोई भी बैठना चाहे तो वो भी आ सकता है। अच्छा किया आप यहां आ गयीं। जी सच कहूं तो मेरे गाइड ने इस जगह का ऐसा वर्णन किया था कि मुझे लगा वहां जाना ही पड़ेगा। वो खिड़की देखनी ही पड़ेगी। इस कुर्सी पर बैठ कर सामने वाली खिड़की से दिखाई देने वाले दृश्य,आते जाते लोग, टू व्हीलर पर बैठे प्रेमी या पति पत्नी या कोई भी और चहल कदमी करते दोस्त, लड़कियां, पहाड़ी पर बने यूनिवर्सिटी के विभाग ,बड़े बड़े घने वृक्ष ये सब अद्भुत हैं। पहाड़ी पर बनी ये यूनिवर्सिटी बहुत आकर्षक है।"
"अच्छा तो आप ये सब देखने आये हैं। यहां आने का उद्देश्य पी एच डी पर काम करना कम और खिड़की से दिखने वाले दृश्यों के मज़े लेना ज्यादा है। लीजिए मज़े", और ऐसा कहते हुए मैं वहां से उठ कर दूसरी जगह आ कर बैठ गयी। गुस्से में अपना झोला पटका। तभी खयाल आया ये लाइब्रेरी है। मैं शोर करके यहां के नियमों का उल्लंघन कर रही हूं। कुर्सी पर बैठ कर दोनों हाथों के बीच अपना सिर दबाया और सोचने लगी कि अब इसी जगह बैठ कर काम करना पड़ेगा। उस अरुण गुप्ता से बेकार की बहस में पड़ना ठीक नहीं था। थोड़ी देर बाद एक दो साथी आ गये। एक ने कहा 'चलो किरण कुछ चाय काफी हो जाये।' हम लोग कैंटीन में जा कर बैठ गये। रचना ने पूछा तुमने उस लड़के से तुम्हारी तय जगह से उठने क्यों नहीं कहा। "अरे छोड़ो यार। बाहर से आया है। दस पन्द्रह दिन से ज्यादा क्या रहेगा। और फिर उस कुर्सी पर मेरा नाम तो लिखा नहीं है", मैं क्यों नरम पड़ गई थी, मुझे भी नहीं मालूम.
फ्लैट पर आने के बाद शाम के कामकाज में लग गयी। लेकिन अवचेतन में अरुण गुप्ता घूमता रहा। इसके गाइड कौन हैं जो अब इंदौर में हैं और यहां के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। ये कैसे पता लगेगा। दूसरे दिन तबीयत कुछ ढीली और अनमनी सी लगी। यूनिवर्सिटी नहीं गयी। शाम को जीजी के घर चली गयी। माधवी मेरी चचेरी बहन हैं। पास में ही रहती हैं। जीजाजी पालिटिकल साइंस विभाग के हैड हैं। तीन बच्चे हैं। वहां जा कर बच्चों के साथ और सब भूल जाती हूं। जीजी ने देखते ही कहा "ठीक तो हो। तुम आज डिपार्टमेंट नहीं गयीं। चौबे जी तुम्हें लाइब्रेरी तक जा कर देख आये। कहां थीं।"
"अरे जीजी कहां याने घर पर और कहां। कुछ अच्छा नहीं लग रहा था सो नहीं गयी। चौबे जी क्यों ढ़ूंढ़ रहे थे।" उनका ढूंढ़ना याने कोई मुसीबत या शिकायत। कल डिपार्टमेंट में जा कर मिल लूंगी। इतने में बाहर से हॉर्न बजने की आवाज़ आई तो पता चला कि जीजाजी आ गये। कार अन्दर पार्क होती है, इसलिए गेट खोलने चली गयी। जैसै ही देखा बोल पड़े, "क्यों आज पढ़ाई लिखाई से छुट्टी ले ली। क्या हुआ।" मैं बिना कुछ बोले अंदर आ गयी। जीजाजी ने अंदर आ कर फिर वही सवाल किया तो खीझ गयी। अगर एक दिन डिपार्टमेंट या लाइब्रेरी नहीं गयी तो चारों तरफ शोर मच गया। जीजाजी समझ गये पारा गरम है। बिना कुछ बोले फ्रेश होने चले गये। मैंने अपना मोबाइल उठाया और चीनू से कहा जीजी को बता देना। मैं जा रही हूं। दिया बत्ती का समय हो रहा है। अंजुम भी देर से आयेगी। वो जब तक रोकती मैं गेट के बाहर निकल चुकी थी।
जीजी के घर मन ठीक करने गयी थी और, और खराब करके आ गयी।
समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। मैं इस सीट वाली बात को ले कर इतनी परेशान क्यों हो रही हूं। घर आ कर हाथ पांव धोये, कपड़े बदले। दिया लगाया। तुलसी में रखा। सारे घर की लाइट आन की। लगा जल्दी डिनर कर लूं और सो जाऊं ताकि कल सुबह फ्रेश उठूं। फ्रिज खोला। बचा खुचा बाहर निकाला अंजुम को फोन किया। उसने बताया रास्ते में है। डिनर पैक करवा कर ला रही है। सुन कर अच्छा लगा। आराम से बना बनाया खा कर सो जाऊंगी।
अपने कमरे में आ कर कोने में रखा टेबल-लैम्प आन किया। धीमी आवाज में मदन मोहन के संगीत बद्ध और लता जी के गाये गाने यू ट्यूब में लगा लिये। दूसरे दिन की तैयारी की। एक बहुत पुरानी सलवार कमीज़ निकाली। प्रेस की। उसका रंग भी धुल धुल कर हल्का हो गया था। पर मुझे वो बहुत पसंद है। उसके साथ के कान के टाप्स और कड़ा निकाला। अंजुम की राह देखने लगी और गाने सुनती रही। वो आई तब फिल्म भाई भाई का गाना बज रहा था ..कदर जाने ना मोरा बालम बेदर्दी जी मेरा बालम बेदर्दी..। उठ कर दरवाजा खोला और फिर कमरे में आ गयी। अंजुम से बात नहीं की। वो भी नहीं बोली। हाथ का सामान डायनिंग टेबल पर रख कर मुंह हाथ धोने चली गयी। वहां से कब आई कब खाने की पैकिंग खोली,गर्म किया मुझे कुछ पता नहीं। वो समझ गयी थी मामला कुछ गम्भीर है। हम एक दूसरे के मूड को खूब समझते हैं। उसने खाना परोस कर आवाज़ दी। किरण दी आइये थाली लग गयी है। पानी भी ले आई हूं। वैसे पानी लाना,डिनर के बाद टेबल और चौका समेटना,सुबह के लिये दही जमाना ये सब मेरे हिस्से के काम हैं। कमरे से निकलते निकलते पूछा 'ये आज पानी लाने की मेहरबानी क्यों।'
"बस मुझे लगा आप थकी हैं। जीजी के घर बच्चों के साथ ज्यादा झूमाझूमी कर ली क्या।" "नहीं नहीं। दिन भर सोती रही इसलिये बहुत आलस आ रहा है। जीजी के यहां भी ज्यादा देर नहीं रुकी। देखें क्या आया है डिनर में।"
"सब आपके पसंद का है। मिक्स वेज उत्तपम। इडली है और दही बड़े।" "अरे यार एक फोन तो कर लेतीं। सांभर पाउडर और पापड़ खत्म हो गये हैं वो ले आतीं।" "अच्छा और अगर मैं वो ले आई हूं तो कुछ इनाम मिलेगा क्या।" "क्यों अपने काम का इनाम क्यों मिलेगा। नहीं लातीं तो डांट पड़ सकती थी। ये घर दोनों का है न तो जिम्मेदारी भी दोनों की" कह कर मैं हंसी। मेरी इस हंसी ने वातावरण की गम्भीरता को कुछ कम किया। अंजुम भी हंसी। आज चौका समेटने में अंजुम ने मदद की। भगवान को शयन करवा कर हम दोनों कमरे में आ गये।
अंदर आते ही अंजुम ने प्रेस की टेबल पर रखी मेरी सलवार कमीज़ देखी और कान के टाप्स और कड़ा। "वाह वाह। ये धोबी के यहां से बदरंगा हो कर आया सूट फिर बाहर आ गया। आप ये नहीं पहनेंगी।" "क्यों भाई ऐसा क्या बुरा है इसमें। थोड़ा पुराना है।" अंजुम वैसे बहुत सादगी पसंद है। उसे किसी भी तरह की तड़क भड़क पसंद नहीं। बहुत सुरुचिपूर्ण है। उसकी पसंद का कोई जवाब नहीं। सबसे हट कर। कुछ देर गप्पें लगा कर अंजुम अपने रूम में चली गयी। यू ट्यूब पर गाना बज रहा था... झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में ....गाना बंद करके बत्ती बुझाई और लेट गयी। कब नींद लगी जल्दी या देर से कोई भान नहीं।
सुबह उठी तो देखा अंजुम उठ चुकी थी। उसने चाय बनाई। हम दोनों ने मारी गोल्ड बिस्कुट के साथ चाय पी। मखाने खाये। नहाया धोया और डिपार्टमेंट के लिये निकले। मैं भी उसके साथ उसकी एक्टिवा पर बैठ कर गयी। डिपार्टमेंट की सीढ़ियों पर ही चौबे जी मिल गये। देखते ही बोले किरण रूम में आना ज़रूरी बात करनी है। जी,अभी आती हूं, आप पहुंचिए। कुछ लोगों से मिलते-मिलाते चौबे जी के कमरे में पहुंच कर आराम से बैठ गयी। वो क्या ज़रूरी बात करेंगे क्या कहेंगे इसकी कोई उत्सुकता नहीं थी। कुछ गलती हो गयी होगी तो डाटेंगे या समझायेंगे। अक्सर एक बात पर डांटते हैं कि तुम फालतू में लड़कों से क्यों उलझती रहती हो। मैं याद करने की कोशिश कर रही थी कि हाल ही में मैं किस लड़के से उलझी हूं। चौबे जी हमारे विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सज्जन पुरुष और छात्रों के प्रिय गुरूजी।
चौबे जी ने पूछा "थीसिस की क्या प्रोग्रेस है। कितना काम हो गया है तुम्हारा।"
"सर चल रहा है। दो नए चैप्टर भी लिख लिये और राधाकृष्णन साहब को दे दिये हैं। दो महीने हो रहे हैं वहां से कोई जवाब नहीं है। इसलिए और लिखा नहीं। तो दस में से सात समझिये तैयार हैं।" "ये तो बहुत बढ़िया बात है। मैं सोच रहा था यदि तुम्हें किसी कालेज में अस्थाई तौर पर पढ़ाने का काम मिल जाये तो कैसा रहेगा। इंदौर में एक लीव वैकेंसी होने वाली है। वहां के हैड ने मुझे फोन किया था किसी सुपात्र का नाम मांग रहे थे। मुझे तुम्हारा ध्यान आया। करोगी वहां काम? दो चार दिन में सोच कर बताना। राधाकृष्णन सर से मैं बात कर लूंगा।"
"सर तब तो मेरी हां है। बिल्कुल पक्की वाली। आपने मेरे बारे में सोचा, ये मेरे लिए बहुत सम्मान की बात है। चलूं सर?"
"किरण अभी इसकी चर्चा किसी से भी नहीं करना।" "जी किसी से भी नहीं कहूंगी।" "वो अपनी खासम-ख़ास अंजुम से भी नहीं", उन्होंने ज़ोर देकर कहा. "जी नहीं करूंगी" मैंने उन्हें जैसे आश्वस्त किया।
मेरे लिये नौकरी कितनी ज़रूरी है ये मैं ही जानती हूं। पापा रिटायर होने वाले हैं। भाई छोटा है। एक छोटी बहन है। पेंशन से घर गृहस्थी पढ़ाई लिखाई चलना मुश्किल है। वही मध्यम वर्गीय परिवार की सारी दिक्कतें अदावतें। अम्मा और पापा दोनों ये खबर सुन कर कितने खुश होंगे। अब मेरा मन न जाने क्या क्या सोच रहा था। मुन्नी को अपने साथ इंदौर ले जाऊंगी। उसे भी उसके शौक पूरे करने का मौका मिलेगा। खुला वातावरण मिलेगा। ठीक विकास होगा। पढ़ाई के हिसाब से झांसी से इंदौर कई गुना अच्छी जगह है।
करीब छह सात दिन रोज़ यूनिवर्सिटी और डिपार्टमेंट जाती रही। आंखें पूरे समय चौबे जी को खोजती रहीं। उनका कहीं पता नहीं था। शायद लम्बी छुट्टी ले ली है। सुना है बीमार हैं। याने मेरी नौकरी बीच में अटक गयी है। क्या करूं। चौबे सर के घर जाऊं। कुछ सूझ नहीं रहा था। हिम्मत करके उनके घर गयी। वे बीमार थे। मुझे देख कर खुश हुए। कहा बहुत अच्छा किया किरण तुम आ गयीं। मैंने आज अरुण गुप्ता को बुलाया था। क्यों सर। वो इंदौर से आया है न। भला लड़का लगता है। उसे तुम्हारे लिये लीव वैकेंसी की बात बताई और कहा कि तुम इंदौर में हो, किरण की मदद करना। वो वहां जा कर प्रोफेसर मित्तल से मिल लेगा और उन्हें मेरी बीमारी की बात बता देगा। तुम्हारे बारे में भी कि ये वही छात्रा है जिसे मैं लीव वैकेंसी के लिए आपके पास भेजने वाला था। अब मैं निश्चिंत हूं। तुम्हें भी बता दिया है। अरुण वहां जाकर तुम्हारे सम्पर्क में रहेगा। जैसे मित्तल साहब उसे बतायेंगे तुम इंदौर चली जाना और तुम लैक्चरर बन जाओगी। चौबे जी सब बताते जा रहे थे और रो रहे थे। वे क्यों रो रहे थे ये मैं समझ नहीं पाई। थोड़ी देर उनके पास बैठ कर मैं लाइब्रेरी आ गयी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो अरुण गुप्ता जो मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता है उससे सम्पर्क में रहना होगा। मैं ये सोच कर परेशान थी। पर किसी से अपने मन की बात नहीं कह सकती थी। अब पी एच डी के काम में भी मन नहीं लग रहा था। अंजुम से भी कुछ नहीं कह सकती थी। वो समझ रही थी कि कुछ परेशानी है पर उसकी पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। रात को सोने से पहले उसने पूछा कुछ पता चला क्या कि चौबे सर ने लम्बी छुट्टी क्यों ली है। मैंने इंकार में सिर हिला दिया।
दूसरे दिन लाइब्रेरी गयी तो अरुण गुप्ता नहीं दिखा। कुछ देर बीच वाली सिंगल कुर्सी टेबल पर बैठ कर काम किया। इस बीच ध्यान आया कि ये बात पता लगानी है कि अरुण गुप्ता किसके कहने से सागर आया है। अब तो ये और भी ज़रूरी हो गया है। इतने में अंजुम आ गयी और हम लोग घर आ गये। शाम का समय था चाय बनी और साथ में खाने के लिये मुरमुरे का नमकीन था। बाजार का डायट नमकीन नहीं बल्कि घर का बना चिड़वा/ चूड़ा। "किरण दी आपका संयोगों में भरोसा है?" "हां है तो। क्या हुआ।"
"आपने मुझे बताया था कि ये लाख का कड़ा जो आपने आज पहना है ये आपको एम.ए. में साथ पढ़ने वाले एक लड़के ने दिया था?" "हां। इसका यहां जिक्र कैसे?" "दीदी वो लड़का और अरुण गुप्ता बहुत अच्छे दोस्त हैं। दोनों रूम मेट भी हैं।" "अच्छा रवि पाठक इंदौर में है ये मुझे पता नहीं था। तुम्हें ये बात कैसे पता चली।" तब उसने उस संयोग के बारे में बताया जिसका ज़िक्र उसने इस बातचीत के शुरू में किया था, "आज मैं कैंटीन में अपने ग्रुप के साथ चाय काफी पी रही थी। पीछे की टेबल पर अरुण गुप्ता भी दो लड़कों के साथ बैठा था और ये दोनों हमारे ग्रुप की कुछ लड़कियों से परिचित थे। तब तय हुआ कि सब एक ही टेबल पर बैठ जाते हैं. इंट्रोडक्शन के बाद बातचीत होने लगी तो अरुण गुप्ता बताने लगा कि वो यहां कैसे आया। उसने बताया कि यहां से एम.ए.करके गया रवि पाठक इंदौर में पी एच डी कर रहा है। दोनों अच्छे दोस्त हैं। रवि ने ही उसे यहां आने की सलाह दी है। वो यहां की बात करते थकता नहीं है। रवि की बातों से प्रभावित हो कर उसने कुछ दिनों के लिये यहां आना तय किया। रवि बता रहा था कि प्राचीन भारतीय इतिहास कला और पुरातत्व विभाग भी बहुत अच्छा है। वहां के विभागाध्यक्ष राधाकृष्णन जी भी बहुत भले हैं। वो उनसे भी मिल चुका है। दीदी देखो आज आपने लम्बे समय के बाद ये कड़ा पहना और आज ही उसके बारे में ये खबर मिली कि वो इंदौर में है। आप इसे संयोग नहीं मानतीं।"
"अरे कैसा संयोग। मैंने तो ये लाख का कड़ा कल रात ही निकाल कर रखा था।"
"आप मानो या न मानो ये संयोग है। रवि पाठक का भेंट किया ये कड़ा आपने लम्बे समय बाद पहना है।" मैं उससे क्या कहती कि ये जो बदरंग हो चुकी सलवार कुर्ती मैंने आज पहनी है वो रवि ने ही ला कर दी थी। वो मेरा बहुत अच्छा .... दोस्त था। पर यहां से जाने के बाद वो गायब जैसा हो गया। उसने सम्पर्क नहीं किया। वो ग्वालियर का रहने वाला था। मैंने कोशिश की थी पर कुछ पता नहीं चला। आज मेरा मन कह रहा था कि ये संयोग ऐसे ही बेमतलब नहीं बना है। मेरा इंदौर जाना वहां लीव वैकेंसी में नौकरी करना ये भी एक संयोग ही होगा। वहां रवि पाठक से लगभग दो साल बाद भेंट होगी। दो साल कोई कम समय नहीं होता। हमारी मित्रता फिर से हरी भरी हो सकती है। शायद नहीं भी। अगर उसे मेरी थोड़ी भी परवाह होती तो वो मुझसे सम्पर्क करता। अंजुम को लगा मैं कुछ सोच में पड़ गयी हूं। वो खुद बोली "चलो दीदी, छोड़ो इन संयोग-वंयोग की बातों को। आज बुद्ध बाज़ार भी जाना है. सब्जी लाने का दिन है।" हम लोग बाजार के लिये निकले। हफ्ते भर की सब्जी,फल,डबल रोटी, मक्खन,चीज़ कुछ नमकीन और मीठा ले कर घर लौट आये। थक गये थे। टमाटर का सूप बनाया और ब्रेड बटर के साथ मज़े से खाया। अंजुम ने सोते-सोते बताया कि कल उसकी क्लास कल दो बजे है। मुझे यूनिवर्सिटी जाने की व्यवस्था खुद करनी पड़ेगी।
दूसरे दिन मैं आटो से गयी। सोमनाथ भैया को बुला लिया था। डिपार्टमेंट पहुंची तो पता चला चौबे जी आये हैं। तुरंत उनके कमरे में गयी। उनकी तबीयत पहले से कुछ ठीक लगी। वो मुझे देख कर खुश हो गये। "किरण तुम्हें ही याद कर रहा था। मैं अपनी छुट्टी बढ़ा रहा हूं। कहीं बाहर नहीं जा रहा। यहीं घर पर आराम करूंगा। आना बेटा जब समय मिले। अच्छा लगेगा। हां एक बात और इंदौर जाने की तैयारी कर लो।"
"सर कितने दिन के लिये?"
"शायद दस या ग्यारह महीने का अनुबंध होगा. मैं तो कहता हूँ, यहां का फ्लैट छोड़ना नहीं। यहीं वापस आना है। इस बीच थीसिस का काम पूरा करना। तुम्हारे हैड से चैप्टर जंचवाने की जिम्मेदारी मेरी। डाक्टरेट मिल जाये तो अगला काम मिलने में आसानी होगी। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि विभाग में वैकेंसी होते ही तुम्हे यहां लेक्चरर बनवा सकूं।"
"सर एक बात पूछनी थी। वहां इंदौर के विभाग में भी तो रिसर्च स्कालर होंगे, वे मेरी नियुक्ति पर आपत्ति नहीं करेंगे?"
"तुम्हें इस सब से क्या। तुम अपना कैरियर देखो। और ये कौनसी स्थाई नियुक्ति है, एड-हॉक पोस्ट के लिए इतना कोई नहीं पूछता", उन्होंने मुझे आश्वस्त किया.
फिर जैसे ये अचानक ही हुआ कि मैं चौबे जी की तरफ बढ़ी और उनके पांव छू लिये। उन्होंने सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और रोने लगे। "किरण तुम्हें देख कर मुझे अपनी बेटी की याद आती है। मैंने उसे अपनी लापरवाही से खो दिया। आज होती तो इतनी प्यारी और कुछ ऐसी ही होती।" उसका ज़िक्र पहले भी वह एक-आध बार कर चुके थे और मुझे मालूम था कि उसकी याद आने पर वह बहुत बिचलित हो जाते हैं, इसलिए मैंने किसी तरह उस बात को वहीँ ख़त्म किया या यूँ कहें कि ख़त्म हो जाने दिया.
वहां से निकल कर मैं लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर आ कर बैठ गयी। अचानक थकान महसूस कर रही थी। बैग से पानी की बोतल निकाली और दो चार घूंट पानी पिया। मन अभी भी इधर उधर भटक रहा था। कभी चौबे जी की बेटी के बारे सोच रहा था तो कभी इंदौर पहुंच जाता था। बार बार रवि का ध्यान आ रहा था। वो अब कैसा दिखता होगा। कितना बदल गया होगा। उसने जब अरुण गुप्ता को सागर विश्वविद्यालय और पुस्तकालय के बारे में इतनी बातें बताईं तो मेरे बारे में भी कुछ बताया ही होगा। पर गुप्ता ने भी ऐसी कोई बात नहीं की। एक तरफ खड़ी है इंदौर जा कर नौकरी करने की खुशी और उत्सुकता। दूसरी ओर रवि पाठक से संबंधों के ताने बाने। मैं असमंजस में पड़ गयी थी। खुशी से ज्यादा भारी पुराने संबंध लग रहे थे।
कुछ देर बाद चित्त शांत हुआ। कभी कभी इस तरह अकेले सीढ़ियों पर बैठना भी बड़ी राहत देता है। वैसे अकेले सीढ़ी पर बैठना कम खतरनाक भी नहीं। आते जाते हर एक कुछ न कुछ पूछता है...ठीक हो न। किरण क्या हुआ। ज्यादा अपनापन जताने वाले आ कर पास बैठ जाते हैं। कुछ परेशान हो तो बताओ आदि आदि और यदि आप भाग्यशाली हो तो उत्तम। जैसे आज जब कोई सहानुभूति वाला वहां से गुजरा ही नहीं। मैं थोड़ी देर बाद उठी और अंदर गयी। लाइब्रेरी के बीच वाली सिंगल सीट खाली थी वहां जा कर बैठ गयी। आदतन खिड़की वाली सीट की ओर देखा अरुण बैठा था और बाहर के नजारों का आनन्द उठा रहा था। बड़े रिसर्च स्कालर बनते हैं। वैसे एन्थ्रोपलाजी का जितेन्द्र कह रहा था ये गुप्ता बड़ा ग्रेट है। बहुत जानकार है। पांडे सर के साथ मिल कर इतने कम दिनों में उसने चार रिसर्च पेपर लिखे हैं। सर ने उसे जूनियर्स को पढ़ाने के काम में भी लगा दिया। मैं हूं हां करके सुनती रही। कुछ देर बीच वाली सिंगल कुर्सी टेबल पर बैठ कर काम किया।
इतने में अरुण गुप्ता आ कर सामने खड़ा हो गया। चलिये अपनी जगह पर बैठिये। मैं आज इंदौर वापस जा रहा हूं। मैं उसके साथ उठ कर खिड़की के पास वाली टेबल पर बैठ गयी। वो भी सामने बैठ गया। कहने लगा "किरण जी मैंने आपसे जो व्यवहार किया उस पर मुझे खेद है। सच मानिये जानबूझ कर कुछ नहीं किया था। लाइब्रेरी की यह जगह बड़ी शानदार है अनोखी है। आज मैं जा रहा हूं। मुश्किल से 15 दिन में इस जगह से ऐसा लगाव हो गया है कि क्या बताऊं। अब मैं समझ सकता हूं कि उस दिन मुझे यहां बैठा देख कर आपको कैसा लगा होगा। सच मानिये मैंने जो ढिठाई की वो मेरे स्वभाव में नहीं है। न जाने क्यों मैंने आपसे ऐसा व्यवहार किया। आपने मेरे बारे में क्या सोचा होगा। पक्का लगा होगा मैं कोई लफंगा लम्पट हूं जो इस खिड़की के पास बैठ कर मज़े ले रहा हूं। सच मानिये मैं ऐसा वैसा नहीं हूं। मध्यमवर्गीय परिवार का छोटा बेटा हूं। जो काफी बिगड़ैल हो सकता था पर हुआ नहीं । परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि उस पर एक परिवार चलाने की जिम्मेदारी आ गयी। भला हो यूनिवर्सिटी वालों का यू जी सी की छात्रवृति के लिये नाम भेज दिया और वो मिल गयी। ये तो रहा मेरा परिचय। और आपकी तारीफ ..."
और हम दोनों जोर से हंस पड़े। अचानक मैंने देखा पूरी लाइब्रेरी के लोग हमें देख रहे थे। अमल ने चिल्ला कर कहा, किरण मैम क्या आप भूल रही हैं कि आप लाइब्रेरी में हैं। "सारी अमल सच में ध्यान नहीं रहा।"
"किरण जी चलिये हम बाहर चलते हैं। मुझे शाम को जाना है। क्या एक चाय समोसा हो जाये विदाई स्वरूप।" हम दोनों कैंटीन में जा कर बैठ गये। माहौल भारी सा हो गया। कुछ देर कोई बात नहीं हुई। फिर अरुण गुप्ता ने ही उस अजीब होती जा रही चुप्पी को तोडा और कहने लगा, "यहां बिताये ये पंद्रह दिन भी भूलेंगे नहीं। आपसे पहचान चाहे जैसे वातावरण में हुई हो, मेरे लिये बहुत मायने रखती है। मैं अपने व्यवहार के लिये बहुत शर्मिंदा हूं।"
"अरे अरुण जी छोड़िये अब उस बात को। मुझे कोई शिकायत नहीं। वो पल शायद वैसा ही होना था। वैसे आपने मुझे खूब तनाव में रखा", मैंने हँसते हुए कहा और जोड़ा, "पर वो सब पुरानी बात हो गयी। अब कोई गिला-शिकवा नहीं। आप निश्चिंत हो कर इंदौर जायें। जब मेरे लिये कोई खबर हो तो बता दें। मेरा मोबाइल नंबर चौबे सर आपको दे ही चुके हैं। मैं बेसब्री से आपके फोन का इंतज़ार करूंगी।"
हम दोनों चाय पी कर बाहर आये। "आप अभी रुकेंगी या घर जायेंगी। घर ही जाना हो तो हम साथ चल सकते हैं। मैं कल हास्टल से अपने एक रिश्तेदार के यहां आ गया था। वहीं से स्टेशन जाना है। चलिये साथ चलते हैं। मैं आपको आपके फ्लैट पर छोड़ दूंगा और वहां से चला जाऊंगा। किरण जी आपको कहां जाना है और मुझे किस तरफ जाना है इसका कोई सवाल जवाब नहीं होगा।" ऐसा कहते हुए उसने ऑटो रोका और मुझसे पूछा कहां। मकरौनिया। ऑटो वाला तैयार हो गया। कुछ देर में अरुण गुप्ता ने मुझे वहां छोड़ दिया। जाते-जाते दूर तक हाथ हिलाते रहा।
मैं ताला खोल कर अंदर आ गयी। डायनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठी अरुण गुप्ता के बारे में सोचने लगी। कहते हैं एक आदमी में दस आदमी होते हैं। आज से पहले मेरे मन में अरुण की जो छवि थी वो बहुत उद्दंड व्यक्ति की थी। एक दिन में सब बदल गया। आज उसका एक अलग रूप दिखा। शालीन और सुसंस्कृत। इंदौर जाने की चिन्ता थोड़ी कम हुई। लगा कि वहां किसी को जानती हूं। अगर कोई ज़रूरत होगी मदद लें सकूंगी।
कमरे जा कर बैग रखा और रसोई घर में जा कर रात के खाने की तैयारी की। इस बीच अंजुम आ गयी थी। उसने चाय बनाई। चाय पीते वक्त मैंने उसे अपने इंदौर जाने की बात बताई। बहुत खुश हुई और उदास भी। "दीदी मैं हॉस्टल के लिये कल आवेदन कर दूंगी", उसने आने वाले दिनों में मेरे बिना कैसे रहना है, इसकी जैसे तैयारी शुरू कर दी. मैंने कहा, "क्यों यहां क्या परेशानी है। साल भर से कम में ही मैं वापस आ रही हूं। फिर आगे तुम्हें भी तो पी एच डी करनी है. तब हॉस्टल ठीक नहीं रहता. मैं चाहती हूं यहीं रहो। सुरक्षित जगह है। आस-पडौ़स सब अच्छा है। काहे का डर। "ठीक है दीदी हिम्मत करूंगी और नहीं बना तो यहां ताला डाल कर हॉस्टल शिफ्ट हो जाऊंगी।"
फिर दोनों अपने-अपने काम में लग गये। मैंने इंदौर जाने के हिसाब से कुछ सामान निकाला। उस रखे सामान में रवि की लिखी एक चिट्ठी मिली जो उसने परीक्षा के बाद लिखी थी। ये चिट्ठी इकलौती है और ये है हमारी अनकही अनबोली भावनाओं का साक्ष्य। याने मेरा रवि को मन ही मन पसंद करना इक तरफा नहीं था। पर यहां से जाने के बाद रवि सब भूल गया। हो सकता है उसकी कुछ मजबूरी रही हो। पर मैंने उसकी बहुत प्रतीक्षा की। धीरे-धीरे वो मन के किसी कोने में छिप गया। कभी उजागर नहीं हुआ। ऐसा नहीं हुआ कि आंख ओझल तो मन ओझल। आगे क्या होने वाला है क्या पता। और संयोग बनेंगे या नहीं, ये एक बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर क्या होगा, पता नहीं। इतना कह सकती हूँ कि इस बात को ले कर मेरा मन अब बेचैन नहीं है। शांत है। एक पुराने लगभग अनकहे और समाप्त हो चुके प्रसंग को ले कर उदास होना और सोचना कि अब क्या होगा, एकदम व्यर्थ है! लेकिन फिर बार-बार ये मन में क्यों आ जाता है कि क्या सब पहले जैसा हो सकता है? ऐसा सोचना भी कि हम फिर उतने ही अच्छे दोस्त बन सकते हैं, सिर्फ अनुचित ही नहीं मूर्खतापूर्ण भी है।
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वर्षों आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग और केंद्र सरकार के अन्य संचार माध्यमों में कार्य-रत रहने के बाद नन्दिता मिश्र अब स्वतंत्र लेखन करती हैं।