दर्शनशास्त्र में संदेह की टटोलन, ज्ञान की सीमा और विश्वास का धरातल
दर्शनशास्त्र में रुचि रखने वाले पाठक या दार्शनिक सिद्धांतों में उत्सुक लोग डॉ मधु कपूर के दार्शनिक लेखों की श्रृंखला से भली-भांति परिचित हैं ही. नए जुड़ने वाले पाठकों को बता दें कि आप डॉ मधु कपूर के नाम पर क्लिक करके उनके सभी लेख एक साथ देख सकते हैं. इस बार उन्होंने अपने लेख की इंट्रोडक्शन स्वयं ही भेजी है जो हम यहाँ ज्यों की त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं.
"पिछले लेख में विलियम जेम्स के एक नवस्नातक के कथन से हमें इस बात का आभास मिल चुका है कि हम ऐसे दो जगतों के बीच निवास करते हैं, जिनका आपस में कोई तालमेल नहीं होता है। इनमें से एक को हम जानते है, जो विज्ञान का जगत है, दूसरे को मानते है, जो ईश्वर, आत्मा की अमरता और जगत सृष्टि पर विश्वास का आधार है। Immanuel Kant, इस सदी के विख्यात जर्मन दार्शनिक, के ज्ञानमीमांसा की केंद्रीय धुरी इस ‘आभासिक जगत’ (Phenomenal World) और ‘वास्तव जगत’ (Noumenal World) के बीच चक्कर काटती है।"
संदेह की टटोलन, ज्ञान की सीमा और विश्वास का धरातल
डॉ मधु कपूर
हम निरंतर अपने चारों ओर की दुनिया को देखते है— पेड़, नदी, मनुष्य, पहाड़, सड़क, किताब, कुर्सी, टेबल और चिन्ता-भावनाएँ इत्यादि जिनका कोई अंत नहीं है। पर इसके अलावा एक दूसरा जगत है जो अनुभव से परे है "वस्तु अपने आप में" जैसी है, अर्थात फ़िल्टररहित। क्योंकि हम जागतिक वस्तुओं को वैसी नहीं देख पाते हैं जैसी वे है, हम वैसी देखते है, जैसी हमें दिखाई देती है। हम दर्पण में अपना चेहरा देखते हैं—पर दर्पण की सतह पर जो दिखता है वह प्रतिबिंब है, असली रूप नहीं। इस तरह यह विचार कांट के दर्शन से मुख्यतः तीन प्रश्नों की जबाबदेही मांगती है—
१.‘मैं क्या जान सकता हूँ?’
२.‘मुझे क्या करना चाहिए?’
३.‘मैं क्या आशा कर सकता हूँ?’
पहले प्रश्न के उत्तर में Kant कहते है कि हमारे ज्ञान की शुरुआत इंद्रिय अनुभव से होती है, जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध की दुनिया है। किन्तु इन्द्रियां बाहरी तथ्यों को निष्क्रिय रूप से ग्रहण तो कर लेती है, पर उनके बारे में कोई सत्य निर्णय नहीं कर पाती है। जैसे पहली बार आँख खोलने पर बच्चे को पता नहीं होता है कि सामने क्या है? लेकिन जैसे जैसे उसकी सक्रियता बढती है वह एक ठोस क्रमबद्ध व्यवस्थित जगत को अनुभव करता है एवं उसके सम्बन्ध में निर्णय भी करने लगता है। उदाहरण के लिए, स्वप्न देखना स्वाभाविक क्रिया है, चाहे वह कितना भी असंगत या कल्पनात्मक क्यों न हो। लेकिन यदि कोई यह मान ले कि स्वप्न में देखी गई घटना वास्तव में घटित हुई थी, तो यह एक गलत निर्णय है। यह निर्णय इंद्रियाँ नहीं ले सकती क्योंकि उनमें यह निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं है। यह निर्णय तो तर्क लेता है।
इस तरह कांट के अनुसार हमें संसार का वास्तविक ज्ञान दो स्रोतों से प्राप्त होता है: इन्द्रिय-प्रदत्त तथ्य (sensibility) और तर्क (understanding)। पृथक पृथक इन्द्रियों के द्वारा हमें किसी वस्तु के सम्बन्ध में पृथक पृथक संवेदनाएँ प्राप्त होती है, पर उनके स्वरूप-गठन का कार्य इन्द्रियां नहीं बल्कि स्थान और काल के द्वारा संपन्न होता है, जो अंतःप्रत्यय की संरचनाएं है। जिस तरह फूलों को जब तक माला में पिरोया नहीं जाता है, तबतक वे विच्छिन्न रहते है। लेकिन धागे में पिरोने के बाद वे माला बन जाते है। उसी तरह इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त विच्छिन्न संवेदनाएँ स्थान और काल के अंतर्गत एक व्यवस्थित स्वरूप ग्रहण कर लेती है। इस प्रसंग में दस्तानों का उदाहरण देना अत्यन्त प्रासंगिक होगा। भले ही दोनो हाथों के दस्तानों को इन्द्रियां एक जैसा देखती हैं, पर बाएँ हाथ का दस्ताना दाएँ हाथ में फिट नहीं हो सकता है, क्योंकि उनका आतंरिक गठन दिशा सापेक्ष होता (directionality) होता है। यह उदाहरण प्रमाणित करता है कि ऐसी दो वस्तुएँ जिनका गठन तो एक जैसा होता हैं, किन्तु उनकी आंतरिक संरचनाओं यथा स्थानगत भेद के कारण वे एक-दूसरे से मेल नहीं खाती है। इसलिए बायाँ और दायाँ हाथ एक जैसा होने पर भी बाएँ हाथ का दस्ताना दाहिने हाथ में पहना नहीं जा सकता है।
इसके अलावा हमारी संवेदनाओं को आकार देने का कार्य कारण-कार्य सम्बन्ध, परिमाण, द्रव्यादि भी करते है। जैसे हम बार बार देखते है कि आग में हाथ देने से हाथ जलता है तो हम ‘आग’ और ‘जलने’ के मध्य कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर लेते है। हालाँकि कार्य कारण की यह संरचना प्रत्यक्ष के द्वारा प्राप्त नहीं होती है। हमारे अन्दर निहित इस संरचना को विज्ञान कार्य-कारण के सांचे में ढालकर उपयोग करता है। जिस तरह एक थान कपड़े को पहनने योग्य बनाने के लिए उसे काट-छांटकर एवं सिलाई करके, शारीरिक माप-जोख के अनुसार बनाया जाता है। उसी तरह तर्क के द्वारा विज्ञान सार्वभौमिक नियमों की खोज करता है और संसार को एक नियमबद्ध एकता का रूप प्रदान करता है।
इसके अतिलिक्त तर्क का एक और महत्वपूर्ण कार्य है, दुधारी तलवार की तरह चलना। दृष्टान्तस्वरूप एक तरफ हम ‘स्थान’ को सीमाहीन कहते है, वहीँ दूसरी ओर कमरे में बंद स्थान को सीमित भी कर देते है। एक तरफ सृष्टि का परम कारण ईश्वर को स्वीकार करते है, वहीँ दूसरी ओर सृष्टि को एक आकस्मिक घटना भी मानते है। एक ओर आत्मा को अमर कहते है, वही दूसरी ओर उसे अनित्य भी मानते है। यद्यपि कांट स्वीकार करते हैं कि तर्क हमें बार बार परातात्त्विक दुनिया की तरफ जाने को उकसाता है, पर साथ ही साथ अपने अन्दर निहित मूलभूत अंतर्विरोधों को भी उजागर कर देता हैं। अंततः कांट बाध्य होकर स्वीकार करते हैं कि परातात्त्विक विषयों का ज्ञान तर्क के द्वारा संभव नहीं है। इस प्रयास में हमें Antinomies या विरोधाभास को झेलने के सिवाय और कुछ हासिल नहीं होता है।
जिस तरह रंगीन काँच की खिड़की से बाहर सब कुछ रंगीन दिखाई देता है। पर ‘वास्तव’ दुनिया वैसी नहीं है। यह वह यथार्थ है जिसे हम न देख सकते हैं, न सुन सकते हैं, न अनुभव कर सकते हैं—क्योंकि हमारा मस्तिष्क अनुभव को समय, स्थान, और कारण के सांचे में ढाल चुका है। कांट के लिए ‘वास्तव’ जगत यानी फ़िल्टर रहित जगत अनजाना है, पर वे उसकी संभावना से इन्कार नहीं करते है।
उदाहरण के लिए नैतिकता के प्रसंग में अक्सर जब हम द्वंद्व में फंस जाते है, तो सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि किसी विशेष परिस्थिति में ‘हमें क्या करना चाहिए’? और तर्क से सुलझाने की प्रक्रिया में विरोधों का भी सामना करते है। दृष्टान्त स्वरूप यदि कोई व्यक्ति धक्का देकर कतार में आगे पहुँचने की कोशिश करता है और पूछने पर कि उसने ऐसा क्यों किया, वह अपने समर्थन में तर्क देता है—मेरा बच्चा रो रहा है, मेरे पिता बीमार है, आफिस की जल्दी है इत्यादि। किन्तु अन्य लोगों के लिए यह उसकी अशिष्टता है, जो उसकी इस प्रवृत्ति को उचित नहीं समझते हैं। प्रश्न है —क्या उसे ऐसा करना चाहिए?
कांट इस प्रसंग में जाने से पहले “हम क्या आशा कर सकते है” इस प्रश्न पर कुछ टिप्पणियाँ करते हैं। हम ईश्वर, आत्मा, जगत के सम्बन्ध में बखूबी तर्क करते है, जबकि वास्तव में हम झूठा औचित्य और आत्म-भ्रम रच रहे होते हैं। क्योंकि कार्य-कारण नियम के द्वारा आत्मा की अमरता और ईश्वर को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा कर पाते तो हम अपने कर्मों के प्रति नैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाते। जैसे किसी व्यक्ति से यदि कहा जाए कि उसे एक सम्मानित व्यक्ति के विरुद्ध झूठी गवाही देनी है, और ऐसा न करने पर उसकी हत्या हो जाने की आशंका है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति शायद यह कहने का साहस न करे कि वह ‘झूठी गवाही नहीं देगा’। किन्तु उसे यह स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि ‘उसे झूठी गवाही नहीं देनी चाहिए’,—और इसी तर्क के आधार पर वह अपने भीतर स्वतंत्रता को पहचानता है, और विश्वास करता है कि वह इस पर अमल कर सकता है। यथार्थ में हम अपने नैतिक कार्यों के प्रति उत्तरदायी होते है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में कुछ परिस्थितियाँ ऐसी आती हैं जहाँ ‘करना चाहिए’, को ‘कर सकने’ में बदला जा सकता है। नैतिक नियम के प्रति हमारी यह सचेतनता सिद्ध करती है कि हम सोचने के लिए स्वतंत्र है, जो हमें ज्ञान की गुलामी से भी मुक्त करता है।
कांट के दर्शन में स्वतंत्रता का बोध कोई साधारण मनोवैज्ञानिक या सामाजिक स्थिति नहीं है—यह एक नैतिक और बौद्धिक आवश्यकता है, जिस पर नैतिकता, कर्तव्य और आत्मसम्मान टिका हैं। जिसमें व्यक्ति बाहरी प्रभावों यथा डर, लालच या दबाव से नहीं, बल्कि अंतरात्मा की गहराई से संचालित होता है और केवल न्याय के सिद्धांत पर अडिग रहता है। इस तरह द्वंद्व से उबरने का एकमात्र उपाय है कर्त्तव्य से संचालित होना। यह एक ऐसा आदर्श है, जिसे यथार्थ में परिणत किया जा सकता है।
इससे एक बात स्पष्ट होती है कि नैतिक आचरण करने वाले व्यक्ति को सुख की कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, यद्यपि सुख की आकांक्षा हर मानव का स्वाभाविक धर्म है। झूठी गवाही न देकर व्यक्ति अपना तो प्राण गंवाता ही है, साथ ही साथ अपने परिवार की रक्षा करने में भी असमर्थ हो जाता है। सुख और नैतिकता के बीच के इस द्वंद्व को मिटाना भी मनुष्य के लिए संभव नहीं है, क्योंकि सद्गुण या नैतिकता वह सर्वोच्च शर्त है जिसके बिना वह अपने जीवन के सुख का आधार ही खो देगा। लेकिन इसके लिए उसे सतत चेष्टा करते रहना पड़ता है, जो अंत में आत्मा की अमरता के विश्वास पर आकर टिक जाता है। यह विश्वास जरूरी है, आत्मिक सुख के लिए जो हमें सद्गुण के निकट पहुँचा सकता है।
तीसरे प्रश्न “मैं क्या आशा कर सकता हूँ?” के उत्तर में कांट कहते हैं कि हमारा नैतिक दायित्व विश्वास की माँग करता हैं कि ‘हमें ऐसा करना चाहिए’। कांट के प्रसिद्ध शब्दों को उद्धृत कर कहा जा सकता है: “I have denied knowledge in order to make room for faith”। यह निषेध तर्क का नहीं है, बल्कि उसकी सीमाओं का निर्धारण करना है। जहाँ सैद्धांतिक तर्क ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर सकते, वहीं व्यवहारिक तर्क—विशेषतः नैतिक तर्क जो ईश्वर, स्वतंत्रता और अमरता में विश्वास को एक आधार प्रदान करते हैं, जहाँ विश्वास और तर्क बिना विरोध के सह-अस्तित्व में रह सकते हैं।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।