गांधी के बहाने – पराग मांदले की ज़रूरी किताब
कल महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर हम हाल ही में गांधी पर आई एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब 'गांधी के बहाने' का परिचय आपसे करा रहे हैं।
गांधी के बहाने – पराग मांदले की ज़रूरी किताब
30 जनवरी पर विशेष समीक्षा
विद्या भूषण अरोरा
गांधी पर पुस्तकों का आना जारी है। उनके जीवन-काल से शुरू हुआ यह सिलसिला अभी तक रुका नहीं है। रुकना तो दूर, अभी तक यह क्रम धीमा भी नहीं हुआ है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि आंधुनिक विश्व के इतिहास में जितनी प्रकाशित सामग्री गांधी पर आई है, उतनी संभवत: किसी और व्यक्ति पर नहीं। लेकिन जैसा कि महापुरुषों के साथ हमेशा होता आया है, उन्हें अपने जीवन-काल में ही कटु आलोचकों का भी सामना करना पड़ता है और कभी कभी तो शारीरिक हमले भी झेलने पड़ते हैं। हमारे यहाँ भी गांधी के आलोचक उनके जीवन-काल से ही उनके द्वारा चुने हुए रास्ते और उनकी कही बातों की कटु आलोचना भी करने लगे थे। यह अलग बात है, जैसी कि किसी भी महापुरुष से उम्मीद होती है, गांधी ने कभी भी इन आलोचनाओं का बुरा नहीं माना था।
इधर पिछले एक दशक से एक वर्ग विशेष द्वारा गांधी की आलोचना का स्वर बहुत मुखर होने लगा है और आलोचना का स्तर सैद्धांतिक कम और बेसिर-पैर के आपेक्ष लगाने वाला ज़्यादा हो गया है, कभी-कभी तो गाली-गलौच के आस-पास जैसा! सत्ता में उच्च पदों पर बैठे लोग इस तरह की क्षुद्र आलोचना का समर्थन तो नहीं करते किन्तु यह स्पष्ट कर देते हैं कि उन्हें ऐसी घटिया बातों से कोई खास आपत्ति भी नहीं है। सत्ता पक्ष की एक सांसद ने तो नाथूराम गोडसे को एक बड़ा देशभक्त बता दिया था और बहुत बेशर्मी से वह अपने को जस्टिफ़ाई भी करती रहीं थीं, हाँ, जब उनके वक्तव्य ने ज़्यादा तूल पकड़ा तो उन्होंने औपचारिक और तकनीकी तौर पर खेद व्यक्त कर दिया था और संभवत: क्षमा भी मांग ली हो किन्तु उनके हाव-भाव से यह स्पष्ट था कि उन्हें केवल मजबूरी में ही ऐसा करना पड़ रहा है।
इस परिदृश्य में ताज़ी हवा के एक झोंके की तरह हमारे सामने आती है, सेतु प्रकाशन की पाण्डुलिपि योजना के तहत पुरस्कृत कृति ‘गांधी के बहाने’ जिसे गांधी विचारों के गंभीर अध्येता और पर्यावरण संवर्धन के क्षेत्र में पिछले कई वर्षों से सक्रिय पराग मांदले ने बहुत परिश्रमपूर्वक तैयार किया प्रतीत होता है। पुस्तक की विषय-सूची से ही स्पष्ट हो जाता है कि लेखक ने ऐसे बहुत से मुद्दों का जवाब देने का प्रयास किया है जिनमें गांधी की आलोचना की जाती है। इन विषयों पर बने अध्यायों पर एक नज़र डालने से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक अपने प्रयास में सफल रहे हैं और इसके लिए पराग ने गांधी के द्वारा कही गई बातों से बड़ी संख्या में उद्धरण दिये हैं और कहीं-कहीं आवश्यकता पड़ने पर अन्य विचारकों की कही बातों का भी सहारा लिया है। पुस्तक के किसी भी अध्याय को आप पढ़ लें, आप देखेंगे कि लेखक ने अत्यंत युक्तिपूर्वक गांधी को ही गांधी की सहायता के लिए खड़ा कर दिया है और यह कहीं भी असहज या बनावटी नहीं लगता।
पुस्तक के शुरुआती अध्यायों में से एक है, “भारत का विभाजन और गांधी” जिसमें पराग कहते हैं कि देश के विभाजन का पूरा ठीकरा पिछले 75 से ज़्यादा सालों से महात्मा गांधी के सिर फोड़ा जाता रहा है। “और ऐसा करते समय ना उपलब्ध तथ्यों पर ध्यान दिया जाता है ना ही सहज सामान्य बोध पर ही। उदाहरण के लिए यह सब जानते हैं कि घोषित रूप से देश का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ है। ऐसी स्थिति में इस विभाजन को ना होने देने का सबसे सबसे सहज तरीका क्या हो सकता था? ज़ाहिर है, हिन्दू-मुस्लिम एकता! अब सहज ही यह सवाल किया जा सकता है कि उस दौर में हिन्दू-मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा पैरोकार कौन था? और हिन्दू-मुस्लिम एकता को असंभव बताने वाले और दोनों समुदायों के बीच बैर को पनपाने वाले और भड़काने वाले लोग कौन थे? इन सवालों के जवाब हमें आसानी से सच तक पहुंचा सकते हैं”। फिर इस सच्चाई की पड़ताल करते हुए पराग आगे चलकर कहते हैं, “कमाल की बात यह कि जिस गांधी का अनुगमन करते हुए कांग्रेस के नेता आज़ादी की चौखट तक पहुंचे थे, विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार करते समय उन्होंने इस बारे में गांधी को सूचना तक नहीं दी थी”। इसी विषय को आगे खंगालते हुए पराग डॉ अंबेडकर की पुस्तक ‘पाकिस्तान और भारत का विभाजन’ से एक उद्धरण हमारे सम्मुख रखते हैं, “यह अजीब लग सकता है, लेकिन श्री सावरकर और श्री जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे का विरोध करने की बजाय इस पर पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं, ना केवल सहमत हैं बल्कि ज़ोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं – एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिन्दू राष्ट्र।“
पराग मांदले एक अन्य अध्याय में गांधी को कटघरे में खड़ा करके गोडसे को महानायक बनाने की नीयत से दो वर्ष पूर्व राजकुमार संतोषी द्वारा बनाई गई एक फिल्म का ज़िक्र काफी क्षोभ के साथ करते हुए कहते हैं कि यदि ध्यान से देखें तो गांधी को चरखे, चश्मे, नोट और समाधि तक प्रतीकात्मक रूप से सीमित और ज़िंदा रखकर उनकी वैचारिक हत्या की कोशिशों को यह फिल्म बल देती है। पुस्तक के एक अन्य अध्याय ‘गांधी से कौन डरता है’ में पराग यह प्रश्न पूछते हैं कि जिस देश में गांधी को गालियाँ देने वाले हमेशा से मुखर रहे हों और गांधी का समर्थन करने वाले ज़्यादातर मौन रहते हों; वहाँ दरअसल गांधी से कौन डरता है? कोई भी नहीं। लेकिन इसके विपरीत (यह भी सच है कि) गांधी की हत्या के 75 वर्ष बाद भी झूठे और बेबुनियाद आरोपों की सहायता से इस देश के जनमानस से गांधी को समाप्त करने की कोशिशें जारी हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि एक वर्ग है जो अब भी गांधी से बहुत डरता है।
पुस्तक की बानगी के लिए हम आपको यहाँ कुछ अध्यायों के नाम बताते हैं जिनसे आपको पुस्तक के कंटैंट के बारे में काफी कुछ सही अंदाज़ हो जाएगा। कुछ अध्याय इस प्रकार हैं – गांधी की अहिंसा: प्रासंगिक नहीं अनिवार्य; हिन्दू राष्ट्रवादी गांधी का निर्माण; गांधी से कौन डरता है; गांधी (विचारों) की हत्या की नई साज़िश; क्या गांधी स्त्री विरोधी थे; पूना समझौता और गलतफहमियाँ; गांधी की वैज्ञानिकता; गांधी के राम, गांधी की विरासत इत्यादि।
ऐसे करीब 18-20 मुद्दों को समेटे यह पुस्तक गांधी को समझने की एक कुंजी के रूप में भी इस्तेमाल हो सकती है और साथ ही आधुनिक भारत के निर्माण में गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका को समझने के लिए भी छात्रों एवं अध्येताओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।
पुस्तक : गांधी के बहाने
लेखक: पराग मांदले
प्रकाशक सेतु प्रकाशन, नोएडा (उत्तर प्रदेश)
मूल्य :रु 275/-
(पुस्तक सेतु प्रकाशन की वैबसाइट पर उपलब्ध है)।

विद्या भूषण स्वतंत्र लेखन करते हैं और इस वेबपत्रिका का संचालन भी।