दो शब्दों के बीच शून्य स्थान की अहमियत - भाषाशास्त्र का दर्शन
डॉ मधु कपूर आजकल भाषा-दर्शन पर लेख लिख रही हैं। इस कड़ी में आपने पिछले दिनों संवाद, भाषा और तत्त्वबोध, अस्तित्व, चेतना और भाषा की अद्भुत लीला : कश्मीर शैवागम, और शब्दहीनता और अर्थहीनता का समीकरण = शून्यता जैसे लेख पढ़े हैं। प्रस्तुत है इस कड़ी में उनका अगला लेख!
दो शब्दों के बीच शून्य स्थान की अहमियत
डॉ मधु कपूर
पिछले लेख में अवयव और अवयवी के सन्दर्भ में हमें एक विचित्र परिस्थिति का सामना करना पड़ा, जिसमें यह विचार करना कुछ कठिन हो रहा था कि अवयवी अवयवों का समूह है अथवा उससे भिन्न कुछ है. गाय की सींग, कुत्ते की पूंछ, मिट्टी का घट इत्यादि जब हम कहते हैं, तो हम पहले से मान कर चलते है कि गाय और कुत्ता, घट आदि अवयवी है तथा उनके सींग, पूंछ और मिट्टी अवयव है. अथवा हम यह भी मान सकते हैं कि अवयवों के समूह यथा पूंछ, आँख, सास्नादि अवयवों में गाय (अवयवी) अवस्थित रहती है. दर्शन चर्चा में मुख्यतः यही सवाल ‘शब्द, वाक्य और अर्थ’ के संदर्भ में भी उठता है.
बाबा ने कहा ‘पानी’ और पुत्र समझ जाता है ‘पानी लाओ’ एक ही शब्द से पूरा वाक्य समझ में आ जाता है. लेकिन पुत्र प्रश्न पूछ सकता है “पानी किसलिए? पीने के लिए, या हाथ धोने के लिए, कुल्ला करने के लिए या खिड़की बंद करने के लिए क्योंकि पानी बरस रहा है. ऐसे प्रसंगों में अक्सर पूरे वाक्य का उच्चारण करना पड़ता है. इस तरह वाक्य, ‘पदों का वह सार्थक समूह’ होता है, जो भावों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा की सूक्ष्मतम इकाई माना जाता है.
प्रश्न है वाक्य के द्वारा प्रेषित अर्थ पदों के समूह में एकत्रित होकर रहता है अथवा पदों के समूह से भिन्न कुछ होता है. यूँ तो पदों का विभाजन संज्ञा, क्रिया, विशेषण, कारक, विभक्ति, वचन, लिंग, काल, पुरुष आदि में किया जाता है, पर विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति पदों से नहीं होती है. जैसे ‘व्यायाम’, ‘कल्याण’, ‘पढना’ कहने से अर्थबोध तब तक नहीं होता है, जब तक हम यह न कहें कि ‘वह प्रतिदिन व्यायाम करता है’, ‘रमेश पढ़ता नहीं है’, ‘तुम्हारा कल्याण हो !’ कुछ अपवादों के सिवाय जैसे ‘श्रोत्रिय’ शब्द के द्वारा पूरे वाक्य का अर्थ बोध होता है, यथा ‘जो वेद पढता है’.
कुछ विचारक मानते हैं कि वाक्य की अपेक्षा पदों को प्रमुखता देनी चाहिए क्योंकि पदों का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, और वाक्य को पदों का संयुक्त रूप ही कहा जाना चाहिए.
कुछ अन्य लोगों के अनुसार वाक्य ही प्रमुख होता है, पदों का यथार्थरूप तो वाक्य के द्वारा ही व्यंजित होता है. जब कोई पद वाक्य में प्रयुक्त होता है, तो उसका अर्थ निकट रहने वाले पद के द्वारा नियंत्रित हो जाता है. जैसे, ‘पानी’ शब्द का अर्थ निर्भर करता है ‘लाओ’ शब्द के ऊपर और यदि श्रोता पूछे ‘क्या लाओ’ तो इसका उत्तर मिलता है ‘पानी’. इस तरह वे परस्पर सम्बन्धित होकर वाक्य बोध करवाते है. इस सिद्धान्त को नष्टाश्व-दग्धरथ न्याय की मदद से समझा जा सकता है. इस न्याय के अनुसार दो प्रवासी अलग-अलग घोड़ागाड़ी से यात्रा पर जाते हैं. दोनों रात एक सराय में रुकते हैं. रात उस सराय में आग लग जाती है, जिससे एक का घोडा भाग गया और दूसरे का रथ जल गया. अब दोनों ही आगे जाने में असमर्थ हैं. दोनों ने एक दूसरे की सहायता की – एक के रथ में दूसरे के घोड़ों को जोत कर, उन्होंने अपनी यात्रा पूरी की.
पर प्रश्न उठता है वाक्य में निहित पदों का आपसी सम्बन्ध क्या होता है, जो वाक्य को पूर्ण बनाता है? पदों का उच्चारण या उनका समूह पर्याप्त नहीं होता है. जैसे ‘हाथी, घोडा, पानी, किताब’ – पद समूह है पर इसे वाक्य नहीं कहा जा सकता है. वस्तुत: वाक्य तो मकान की तरह होता है, जिसके अवयव ईंट, बालू, सीमेंट इत्यादि होते हैं. ईटों का ढेर मकान नहीं होता है. वे स्वयं में अपूर्ण होते है. धागा, सूई मशीन, कपडा कैंची कपास के गट्ठर को वस्त्र नहीं कहा जा सकता है, जब तक उनके अंतर्गत पारस्परिक सम्बन्ध न हो. मिट्टी के ढेर को घट (या घड़ा) नहीं कहा जा सकता है, उनमें एक विशेष प्रकार की रचनात्मक प्रक्रिया से उत्पन्न पदार्थ को घट कहा जाता है. कच्ची सब्जी, मसाला इत्यादि सामने रख देने से खाना नहीं बनता है, उसे कैसे पकाया जाय ताकि वह खाने लायक बन सके अर्थात उनका आपसी सम्बन्ध क्या है – यह एक गंभीर सवाल है.
पृथक पृथक पदों के द्वारा उपस्थित पदार्थों से वाक्यार्थ बोध नहीं हो सकता है, उनके समन्वित रूप में ही वाक्यार्थ की समाप्ति है. जिस तरह चार संख्या १+१+१+१ संख्या का योग है, लेकिन मजे की बात है कि योग करना एक प्रक्रिया है जो चारों ‘एक’ में पृथक पृथक नहीं है, अपितु चारों में समुदित रूप से है. लेकिन यह कैसे हो सकता है कि जो चारों में पृथक पृथक रूप से नहीं है, वह उनके समूह में है. हाईड्रोजन की दो मात्रा और आक्सीजन की एक मात्रा का सम्मिश्रण ‘पानी’ एक नए पदार्थ को जन्म देता है है. यद्यपि अलग अलग रसायनों में पानी नहीं है, लेकिन उनके संयोजन से पानी बन जाता है. उसी प्रकार अलग अलग पदों में वाक्य न होने पर भी, उनके समूह में वाक्य की उपस्थिति एक पृथक सत्ता के रूप में रहती है. दृष्टान्त स्वरूप मित्रता एक सम्बन्ध होने पर भी मैत्री सम्बन्ध दो मित्रों के समुदाय में रहती है, किसी एक में नहीं.
पदों के क्रम से उच्चारण करने के पश्चात् वाक्य की उत्पत्ति होती है. "मुझे प्यास लगी है" यह वाक्य एक सम्पूर्ण इकाई है, जिसमें एक निश्चित क्रम है जिसे आगे पीछे नहीं किया जा सकता है. कुछ अपवादों को छोड़ कर, यथा कविता इत्यादि में. लेकिन पद तो क्रम से अपने अर्थ की प्रतिपत्ति करा के तिरोहित हो जाते है, क्योंकि क्रम का सम्बन्ध तो काल से है. उनका समूह कैसे उत्पन्न हो सकता है? एक शब्द को सुनकर एक अर्थ का ही बोध होगा पूर्ण वाक्य का नहीं. यदि एक पद से पूर्ण वाक्य का बोध होने लगे तो बाकी पद निरर्थक हो जायेंगे. कहा जा सकता है कि सभी पद अपने अर्थ का बोध कराके निवृत्त हो जाने पर भी अपने अपने संस्कार अंतिम वर्ण में संक्रमित कर जाते है. यह प्रक्रिया कुछ वैसी ही है, जैसे एक व्यक्ति का शोक या हर्ष दूसरे में संक्रमित हो जाता है. अन्तिम शब्द को सुन कर पूर्व के उच्चारित सभी अर्थ स्मरण होकर उसकी पीठ पर लद कर वाक्यार्थ बोध तक पहुंचा देते हैं.
वाक्य में निहित पदों की महत्ता वाक्य के लिए है, उनकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है. ‘देवदत्त डंडे से गाय को हांक लाओ’ इस वाक्य को सुनने के पश्चात् ही श्रोता को वाक्यार्थ का पृथक बोध होता है, जो उसे गाय को हांकने में मदद करता है. नृसिंह के नर और सिंह के अवयव अलग अलग होने पर भी उनका बोध ‘नृसिंह’ एकत्व रूप में ही होता है. षड्ज, ऋषभ गांधार स्वर पृथक पृथक होने पर भी मालकोश राग में सम्मिलित रूप से उपस्थित होकर एक अद्भुत रस-भाव उत्पन्न करते हैं.
दृष्टान्तों की कमी नहीं है. चित्र एक अखण्ड इकाई होता है, जिसका ज्ञान होने के बाद हम उसमें अलग अलग रंगों का विश्लेषण कर सकते हैं. इसी तरह वाक्य में पदों का विभाग प्रकृति प्रत्यय आदि रूप में काल्पनिक और असत्य होता है. पदों का विभाजन वर्ण में होता है. वर्णों के भी अवयव होते है, उनके भी अवयव, इस प्रकार परमाणु तक अवयव मानने पड़ेंगे. इस प्रकार अणु के भी अवयव मानने पर अवयवी ही नहीं रहेगा. अतः हमारा सारा व्यवहार योग्य नहीं रह जायेगा.
वृषभ में वृ ष भ वर्णों का कोई अर्थ नहीं है, यह विभाजन सिर्फ लोक व्यवहार के लिए होता है. ‘नागकेशर’ शब्द में ‘नाग’ और ‘केशर’ पृथक पृथक अर्थ का बोध नहीं कराता है, यह स्वयं में एक पूर्ण पद है. अवयव अपने अर्थ को समग्र वाक्य के खातिर समर्पित कर देते हैं. कहने का तात्पर्य है कि वाक्य असल में निरवयव, पूर्ण और अखंड होता है घट की तरह. हम अपनी सुविधा के लिए उसे पदों या अवयवों में विभक्त कर देते है और उनका आपस में सम्बन्ध जोड़ कर विलक्षण वाक्य की सिद्धि करते है. दो शब्दों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रकरण, वक्ता की विवक्षा आदि कुछ हद तक ही सहायक होते है.
वस्तुतः शब्दों की संख्या सीमित होती है, पर वाक्य अनंत होते है. प्रतिदिन प्रतिक्षण थोड़े से शब्दों से ही नए नए वाक्यों का सृजन हम करते चलते है. वाक्यार्थ पदार्थ का वह संसर्ग रूप है, जो वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति में मदद करता है, किन्तु उस प्रतिपत्ति का कोई निश्चित रूप नहीं होता है. इसे स्पष्ट करने के लिए वैयाकरण पानक रस का उदाहरण देते है. पानक-रस-षाड्व शरबत है, जो विलक्षण रस (मधुर, अम्ल, तिक्त, कटु, कषाय रसों का मिश्रण) को उत्पन्न करता है.
विभिन्न पदों को विच्छिन्न रूप से ग्रहण करने पर भी वाक्यार्थ ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता एक विलक्षण प्रतिभा है, जो पदार्थ बुद्धि से अतिरिक होती है. जिस तरह पक्षियों में घोंसला बनाने की प्रवृत्ति, मछलियों में तैरने की प्रव्रत्ति किसी शिक्षण से प्राप्त नहीं होती है, वैसे ही भाषा ग्रहण करने की क्षमता एक ऐसी सहजात प्रतिभा है, जो शब्दों की तह में बसे अर्थों को गोता लगा कर सतह पर लाने में कामयाब हो जाती है. उदाहरण के लिए ‘अंगुली की नोक पर सौ हाथियों का झुण्ड बैठा है’ – वाक्य वास्तविक दृष्टि से अव्यावहारिक होने पर भी अर्थ उत्पादन की सामर्थ्य से हमें वंचित नहीं करता है.
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance पिछले वर्ष विश्व पुस्तक मेला में फरवरी में रिलीज़ हुआ है।