शब्दहीनता और अर्थहीनता का समीकरण = शून्यता
डॉ मधु कपूर द्वारा आरंभ की भाषा-दर्शन के सिद्धांतों की चर्चा अब काफी आगे बढ़ चुकी है। जैसा कि हम एक बार पहले भी निवेदन कर चुके हैं, दर्शन या फिलासफी में सरलता से समझ आने वाला शायद कुछ नहीं है। लेकिन अच्छी बात ये है कि डॉ मधु कपूर फिर भी काफी हद तक विषय का प्रस्तुतिकरण रोचक ढंग से कर देती हैं। कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि विषय सरल नहीं भी हो पाया तो सरस तो हो गया। अब आज के लेख का यही वाक्य लीजिए - "भाषा यद्यपि शिक्षण में मदद करती है, पर इसकी सीमा निर्धारित है, क्योंकि वह सत्य को उजागर करने में कोई मदद नहीं करती है, उलटे अपव्याख्या कर श्रोता को दिग्भ्रांत करती है।" तो हुई ना लेख पढ़ने में रुचि! आइए आगे बढ़ते हैं।
शब्दहीनता और अर्थहीनता का समीकरण = शून्यता
डॉ मधु कपूर
मेरे किसी मित्र ने पूछा ‘रसगुल्ले का स्वाद कैसा होता है’,
मैंने कहा ‘मीठा’.
उसका प्रश्न था ‘मीठा? शहद की तरह? या फिर चाकलेट की तरह ?’,
मैंने कहा ,’नहीं, नहीं, चीनी की तरह, और रुई की तरह नरम’.
‘वह तो प्राय सभी मिठाइयों का होता है’ काफी बहस के बाद मैंने कहा, ‘तुम, बस अब खा के देख लो, और कुछ नहीं कहा जा सकता. इस बात का सिलसिला चलता रहता जब तक मैं इस विवाद को ख़त्म न कर देती कि लो, खा के देखो, तो ...
जब पहली बार किसी वस्तु को देखते हैं, तो क्या देखते हैं, केवल उसका रंग, आकार लम्बाई, चौड़ाई, नरमाई आदि. पर यह नहीं जानते है कि यह क्या वस्तु है, किस काम आती है, यहाँ तक की रंग इत्यादि के सम्बन्ध में भी कोई जानकारी नहीं होती है ? जरा गौर से सोचें इन सभी दृश्य धारणाओं के अतिरिक्त बर्तन, नारंगी, कप, रसगुल्ला कहाँ देखते है, जब तक यह न बता दिया जाय कि ‘यह नारंगी है,’ ‘यह बर्तन है,’ ‘यह कप है’ इत्यादि.? वस्तु से यदि इनके गुणों को एक एक कर निकाल दिया जाय तो क्या बचेगा? एक शून्य!
यह असंगति बौद्धों को यह निष्कर्ष निकालने की अनुमति देती है कि धारणा से अतिरिक्त बाहरी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं है. हम सभी गुणों के समूह का पुनर्निर्माण करते है, और कहते है कि ‘यह कप है’ या ‘यह नारंगी है, इत्यादि.
हम यह भी जानते है कि शब्द एक निश्चित अर्थबोध का ही नियामक होता है, अन्यथा श्रोता को किसी भी शब्द से किसी भी अर्थ का बोध होने लगेगा. लेकिन प्रश्न है कि यह सम्बन्ध का नियामक कौन होता है ?
कुछ के अनुसार शब्द और अर्थ का संबंध ईश्वर अथवा मनुष्य जनित इच्छा संकेत है, जो किसी व्यक्ति के द्वारा किसी विशेष समय में निर्धारित कर दिया जाता है. उदाहरण के लिए किसी बच्चे के जन्म पर माता पिता उसका नामकरण अपनी इच्छानुसार करते है.
कुछ मानते हैं शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध है, अर्थात "जो शब्द है वही अर्थ है और जो अर्थ है वही शब्द है". रामचरितमानस में तुलसीदासजी कहते हैं - 'गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न'. अर्थात शब्द और अर्थ का संबंध जल और लहरों की भांति है जिसे भिन्न-भिन्न नहीं कहा जा सकता. इसलिए मिठाई या चाट का नाम सुनते ही मुँह में पानी भर आता है. साँप या भूत का नाम सुनते ही मन में भय का संचार हो जाता है. लेकिन कभी कभी देखा जाता है कि "आग" और "तलवार" जैसे शब्दों को सुनने के बाद किसी के मुंह में जलने और काटने का वास्तविक अनुभव नहीं होता है. अतएव आशंका होती है कि यह सम्बन्ध तादात्म्य कैसे हो सकता है?
बौद्ध दार्शनिकों की मान्यता इन सबसे भिन्न है. चूँकि वे अपने तत्व चिंतन में किसी भी वस्तु की कोई सनातन या निरपेक्ष सत्ता स्वीकार नही करते है, इसलिए ऐसी स्थिति में स्वभावत: यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जब वस्तु का स्वरूप क्षणिक है, तो फिर किसी शब्द का संकेतित अर्थ निश्चित कैसे हो सकता है? जब हम कहते है ‘यह गाय है’ तो यहाँ ‘गाय’ शब्द उन वस्तुओं का निषेध करता है, जो गाय नही है. शब्द वस्तु की सत्ता का बोध नहीं कराता है, अपितु गाय से भिन्न वस्तुओं का निषेध करता है. “गाय बांधों” के कहने पर कोई अश्व को नहीं बांधता है, गाय को ही बांधता है. “मांस मत खाओ” का अर्थ है, ‘जो मांस नहीं है उसे खाओ’. इस सम्बन्ध में बौद्ध ‘अपोहवाद’ का समर्थन करते हैं, जिसका अर्थ है शब्द के द्वारा उल्लिखित अर्थ से भिन्न वस्तु का निषेध करते हुए वाच्यार्थ तक पहुँचना, अर्थात शब्द सुन कर हम अनुमान करते है कि ‘अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है’, जैसे धुआं देख कर अग्नि का अनुमान हम करते हैं.
बौद्धों के अनुसार शब्द के द्वारा किसी यथार्थ वस्तु की सत्ता का ज्ञान नहीं होता है. इन्द्रियों के माध्यम से हमें जो प्रथम संवेदनाऐं प्राप्त होती है, वह नाम, जाति, गुण इत्यादि, यहाँ तक की ज्ञाता ज्ञेय भेद से भी रहित होती है. धीरे धीरे हम उनके गुणों से परिचित होते हुए उन्हें नाम इत्यादि से पहचानने लगते हैं. लेकिन जो प्रथम क्षण का अनुभव था, वही वस्तु का असली परिचय होता है, जिसे स्वलक्षण या निर्विकिल्पक ज्ञान (विकल्प वर्जित) कहा जाता है. स्वलक्षण के पश्चात उत्पन्न संस्कार को नाम, गुण और जाति की पोशाक पहना कर सविकल्पक या सामान्य ज्ञान की संज्ञा देते है. सामान्य वाचक शब्द उस जाति की सभी वस्तुओं का बोध करने में समर्थ होता है. ‘गाय’, ‘घोड़ा’ आदि शब्द पृथ्वी के किसी भी गाय, घोड़ा आदि पशुओं का प्रतिनिधित्व करते है, किन्तु इसके द्वारा किसी विशेष गाय या घोड़े का बोध नहीं होता है, क्योंकि हमें पता नहीं होता है, कौन सी गाय ? किसकी गाय? किस रंग की गाय इत्यादि. इस तरह शब्द हमें धोखा देते है और सही दृष्टि को आच्छन्न कर देते है. शब्द सिर्फ एक ‘नाम’ है. सामान्यवाचक शब्दों को इस तरह भ्रामक ही कहना चाहिए.
भाषा आवरण है, जो वस्तु का नग्न अर्थात सही रूप देखने में बाधा उत्पन्न करती है. जैसे, कोई व्यक्ति जब अभिनय करता है, तो उसका वास्तविक स्वरूप हमें ज्ञात नहीं होता है. अपना अभिनय का चोला उतार देने के बाद हम पहचानते लेते है कि ’अरे! यह तो पडोसी का पप्पू निकला’. इसी तरह रोजमर्रा के जीवन में देखा जाता है, किसी भी वस्तु का वास्तव परिचय तभी संभव होता है जब हम उसके नकली मुखौटे को हटा कर देखते है. कहने का तात्पर्य है कि जिस तरह एक अपराधी के व्यवहार में परस्पर असंगति देख कर और फिर उसका निषेध करते हुए कुशल प्रशिक्षक उसके नकाब को उतारने में सक्षम होता है, उसी तरह वस्तु के गुणों का निषेध करते हुए हम उसके वास्तव स्वरूप से अवगत हो जाते है. दैनन्दिन प्रयोग में देखा जाता है, किसी नए शहर में जाकर किसी विशेष व्यक्ति के घर को ढूंढते हुए पहले हम आसपास के सभी घरों का निषेध करते है, और अंत में अभीष्ट घर तक पहुँचने में सफल होते है. शब्द से अर्थ प्राप्ति की भी यही प्रक्रिया है. बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार शब्द का वास्तविक अर्थ अपोह (इतर व्यावर्तक अर्थ) ही है.
अपोहवाद का सिद्धांत यह दिखाने में अधिक रुचि रखता है कि भाषा कभी भी बोधगम्य विषय का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है. बोधगम्यता जहाँ एक ओर ज्ञान का विषय है, भाषा वहीं वाणी का विषय है. दोनों इंद्रियां भिन्न भिन्न स्थान में होने के कारण एक-दूसरे को अपनी जानकारी नहीं दे सकती हैं, अतः बौद्धों के अनुसार भाषा के साथ विषय का कोई संपर्क नहीं होता है. किसी बोतल में लेबल लगा देख कर हम समझ जाते है कि इसमें विष है या कोई दवाई है, किन्तु बिना चखे उसका स्वाद ग्रहण हमें नहीं होता है. वस्तुतः भाषा का उद्देश्य वक्ता के अभिप्राय को प्रकट करना होता है, जैसे ‘यह मेरी नई पुस्तक है’, ‘मैं ट्रेन से जाता हूँ’. हो सकता है बोतल में बिष न होकर पानी ही हो, या मेरी कोई नई पुस्तक आई ही न हो, अथवा मैं ट्रेन से न जाकर प्लेन से जा रहा हूँ इत्यादि, पर मेरा उद्देश्य श्रोता को दिग्भ्रांत करना होता है.
अतः भाषा ज्ञान का महत्त्व बस इतना ही है कि सम्यक वाक के द्वारा हम किसी का दुःख कम कर सके, या मिथ्या, कठोर वचन, वाक वितंडा से बच कर आपस में वैमनस्य और मलिनता को बढ़ावा न दें. भाषा यद्यपि शिक्षण में मदद करती है, पर इसकी सीमा निर्धारित है, क्योंकि वह सत्य को उजागर करने में कोई मदद नहीं करती है, उलटे अपव्याख्या कर श्रोता को दिग्भ्रांत करती है. अतः भाषा की असमर्थता जानने के पश्चात् और वास्तविकता की गहराई में जाने के लिए शब्द और अर्थ के द्वैत का अतिक्रमण करना आवश्यक हो जाता है. “सूर्य अस्त होने वाला है’ यह वाक्य सुनकर चार व्यक्ति चार तरह की गतिविधियों में लग जाते है, चोर चोरी करने, वेश्या अपने पेशे में, विद्यार्थी पढ़ने में और गृहस्थ संध्या वंदन के लिए निकल पड़ता है. इस तरह बौद्धों के अनुसार शब्दार्थ निर्णय करना अत्यन्त दुर्लभ कार्य है.
आचार्य नागार्जुन का मानना है किसी वस्तु का स्वरूप जानने के हमारे पास चार प्रकार है. जैसे, अस्ति (पुस्तक है), नास्ति (पुस्तक नहीं है),तदुभयम् (एक साथ ही अस्ति नास्ति दोनों अर्थात यहाँ है, वहां नहीं है) तथानोभयम् (अस्ति नास्ति दोनों कोटियों का निषेध अर्थात यहाँ भी नहीं है, वहां भी नहीं है). नागार्जुन की दृष्टि में चारों कोटियां हमारे दैनन्दिन जीवन की बुनियाद है. पर वस्तु सत्ता इससे पृथक होती है, क्योंकि हम उसे किसी कोटि में बाँध कर उसे सीमित नहीं कर सकते है. उसका असली स्वरूप इन चारों से परे है. इसीलिए उसके अभिधान के लिए "शून्य" (निःस्वभाव) शब्द का प्रयोग बौद्ध दार्शनिक करते है. ध्यान देने की बात यह है कि यह शून्य कोई निषेधात्मक अर्थ नहीं है जिसका अपलाप किया जा सके. शून्य का अर्थ यदि ख़ालीपन लिया जाय तो यह एक नकारात्मक शब्द है. ‘शून्य’ का मतलब यहाँ ‘नहीं होना’ नहीं है, बल्कि असीमित रूप से मौजूद होना है, जो भाषा का अतिक्रमण कर जाता है. वह अवस्था बस ‘हो जाने’ की है. जैसे दृष्टिहीन व्यक्ति को रंगों का ज्ञान नहीं दिया जा सकता हैं, उसी तरह निर्वाण का अनुभव भाषा के द्वारा नहीं बतलाया जा सकता है. निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् बुद्ध इसका वर्णन भाषा के द्वारा करने में असमर्थ होते है अतः कोई उत्तर न देकर वे मौन धारण कर लेते है.
भाषा तो सिर्फ संवृत्ति सत्य या व्यावहारिक सत्य का आधार मात्र है. कुछ कार्य ऐसे होते है जहाँ भाषा प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है. जैसे नल खोलना, कमरा पोंछना, बाल्टी उठाना, बर्तन उठाना, सब्जी काटना, आटा गूंथना इत्यादि और भोजन करने के पश्चात् यह बताना भी मुश्किल हो जाता है ‘स्वाद कैसा था ?’ यदि अतिथि कहे, ‘अच्छा या बहुत अच्छा’ तो भी मुश्किल है समझना, ‘अच्छा का क्या मतलब हैं?’
और इस तरह शब्द और अर्थ का समीकरण एक प्रहेलिका बन जाता है.
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डॉ मधु कपूर आजकल भाषा-दर्शन के सिद्धांतों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए प्रयासरतहैं। इस क्षेत्र (भाषादर्शन) का उनका पहला लेख था “आकाशगंगा में चमकता यह दूसरा सितारा” जिसे आप यहाँ देख सकते हैं।इसमें उन्होंने शब्द से होने वाले अर्थ-बोध की चर्चा की थी। इसी विषय को आगे बढ़ाता हुआ उनका दूसरा लेख था “दर्शनशास्त्र : जब बोलने की अपेक्षा ना बोलना महत्वपूर्ण हो जाता है” और फिर आया “इंतज़ार बकवास खत्म होने का.......” उनका लेख “कुछ कहना कुछ करना है” – जॉन ऑस्टिन के कथन का परीक्षण डॉ कपूर का इसके पहले का अंतिम लेख था। भाषा दर्शन पर शृंखला आरंभ होने से पूर्व उन्होंने दर्शन के अन्य विषयों पर करीब दर्जन भर लेख इस वेब पत्रिका के लिए लिखे थे जिन्हें आप ‘अध्यात्म एवं दर्शन’ नाम की केटेगरी में एक-एक करके पढ़ सकते हैं।
डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance विश्व पुस्तक मेला में फरवरी में रिलीज़ हुआ है।