संवाद, भाषा और तत्त्वबोध : दर्शन शास्त्र शृंखला

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Dec 23, 2024 | 698

भारत संवाद प्रिय भूमि है। एक समय जहाँ बिना पूर्वपक्ष सुने खंडनपक्ष का सवाल ही नहीं उठता था, और उत्तरपक्ष अर्थात सिद्धांत पक्ष स्थापित करना तो बहुत दूर की बात होती थी, तब यह कलहपूर्ण, निरर्थक दलील, हुज्जत करने की परंपरा कहाँ से आई जिसे टीवी पर देखना हमारी दैनंदिन दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। श्रुति परंपरा की इस धरती पर जहां सुन-सुन कर ही इतने श्रेष्ठ ग्रंथों को और उनकी टीकाओं को कंठस्थ कर लिया जाता था, वहाँ समाचार टीवी चैनल्स पर इतनी स्तरहीन बहसें सुनना कभी-कभी तो किसी सज़ा से कम नहीं लगता। भारत में संवाद और शास्त्रार्थ की परंपराओं को हमारे लिए सरल बनाया है डॉ मधु कपूर ने अपने इस लेख में। आइए देखिए दर्शन शास्त्र पर उनके लेखों की शृंखला का यह अगला लेख। 

संवाद, भाषा और तत्त्वबोध

डॉ मधु कपूर 

दो विरोधी संवाद सामने कौंध जाते हैᅳᅳ टीवी पर झायं झायं करते वक्ता जो बिना किसी निष्कर्ष के बहस समाप्त करके, मछली बाज़ार का एहसास देकर खड़े हो जाते हैं. दूसरी ओर सांय सांय करते हुए रास्ते पर पैर बढ़ाता बालक नचिकेता, जो पिता के द्वारा दान कर दिए जाने पर, यमद्वार पर खड़ा यम के साथ मृत्यु का रहस्य सुलझाने वाला संवाद करने के लिए कटिबद्ध. पहला निरर्थक और बौद्धिक प्रहसन, दूसरा सत्य से जूझता कथोपकथन. 

सृष्टि का उद्भव ही वाद-संवाद से हुआ है. बृहदारण्यक उपिनषद् में सृष्टि कैसे हुई इस पर विचार करते हुए कहा गया है-- सृष्टि के आरम्भ में परम पुरुष अकेला था. अकेला वह रम नहीं सकता था. इसलिए उसने अपने को दो में विभाजित कर दिया, और उसके साथ ही वाद और संवाद की शुरुआत हुई. भाषा ही साधारणत वाद-संवाद का वाहक कही जाती हैं. ‘संवाद’ शब्द ‘वाद’ शब्द में सम् उपसर्ग लगने से बना है, सम् का मतलब है समान और वाद का अर्थ बोलना. इस प्रकार संवाद  सामान्य रूप से दो लोगों के बीच होने वाले विचारों की उलझन को एक व्यवस्थित रूप देता है. जैसे अर्जुन ने विषादग्रस्त होकर प्रश्न पूछा एवं श्री कृष्ण ने उत्तर दिया और गीता महात्म्य की उत्पत्ति हो गई. कृष्ण और अर्जुन के मध्य हुए इस संवाद को अद्भुत संवाद कहा गया है,  “राजनसंस्मृत्य संस्मृत्य सम्वादिमममद्भुतम्.”  यक्ष ने प्रश्न पूछा, धर्मराज ने उत्तर दिया, और हमें जीवन का सार उपलब्ध हुआ. देवर्षि नारद ने महाराज युधिष्ठिर से सवाल किया, तो युधिष्ठिर के जवाबों से हमें एक ‘परिकल्पित सुशासन के सूत्र’ प्राप्त हुये. जनक की सभा में ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य से जब ब्रह्मवादिनी गार्गी प्रश्न पूछती हैं, तब संसार के सामने इस विश्व जगत का रहस्य उन्मोचित हो गया. संवाद के प्रति यह भारतीय दृष्टि अत्यंत परिमार्जित हैं.  संवाद के अभाव में न तो कोई समाधान मिल सकता हैं, और न ही कोई नये ज्ञान का सृजन हो सकता है, और लोकहित तो दूर की कौड़ी साबित होगी. शायद इसी को ध्यान में रख कर एक प्रसिद्ध उक्ति अक्सर  सुनी जाती है ‘वादे वादे जायते तत्वबोध’.  शंकराचार्य का दिग्विजय इसी वैचारिक अभियान की देन था.  इस तरह कथा का सूत्र चल पड़ता है.  

अमर्त्य सेन अपनी पुस्तक The Argumentative Indians में मानते है कि भारतवर्ष में वाद-विवाद की कला बहुत प्राचीन है, जिसकी शुरुआत समस्त संशय और आशंकाओं का निवारण हेतु सत्य को जानने के लिए हुई. प्राचीन  भारतीय साहित्य में ऋग्वेद के  संवाद-सूक्त  के रूप में वाद-विवाद की एक बहुत ही जीवंत परंपरा थी, जिसे वाद विद्या  कहा जाता था.  इस परंपरा की प्राचीनता का पता बृहदारण्यक उपनिषद में राजा जनक के संवाद में मिलती है. कथा-लक्षण श्री माधवाचार्य द्वारा दार्शनिक वाद-विवाद की कला के बारे में रचित एक संक्षिप्त ग्रन्थ है, जो ब्रह्म सम्बन्धी तर्क पर आधारित है. श्री माधवाचार्य हमें उचित वाद-विवाद की विशेषताओं के बारे में बतलाते हैं. 
    
वात्स्यायन ने अपने न्यायभाष्य में उल्लेख किया है कि किसी विषय पर विद्वानों का पारस्परिक वैचारिक आदान प्रदान ‘कथा’ कहा जाता है. जब यह विचार शुद्ध न्याय से तत्वनिर्णय के उद्देश्य से किया जाता है तो इसे  "वाद" कहते है. इसमें विचारकों के बीच जय-पराजय की कोई भावना नहीं होती है, जो एक निष्पक्ष और सम्मानजनक चर्चा होती है.  इसलिए श्रीकृष्ण स्वयं को “कथाओं में वाद”  कहते है. 

प्रतिद्वंद्वी पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जाने वाले विचार को "जल्प" कहा जाता है. जल्प में वादी और प्रतिवादी दोनों अपने-अपने पक्ष का साधन और परपक्ष का खंडन करते हैं, अपने विचारों और विश्वासों को दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं. जल्प बहस का एक आक्रामक और विवादास्पद रूप है, जिसमें अक्सर एक गरमागरम बहस होती है. सत्य या समझ की तलाश करने के बजाय यह बहस जीतने पर जोर देती है. इस प्रकार का संवाद संघर्ष, विवाद और आपसी वैमनस्य को जन्म देता है. 

वितंडा में केवल वादी ही अपने पक्ष के साधन का प्रयास करता है, प्रतिवादी वादी के पक्ष का खंडन करने में ही अपनी सार्थकता समझता है. वितण्डवाद में किसी भी पक्ष को स्थापित करने की कोई मंशा नहीं होती है,  इसमें केवल वक्ता को खण्डन करने और उसे परेशान करने की इच्छा प्रदर्शित होती है, इसमें न तो सत्य को जानने की इच्छा का प्रकाश होता है और  न ही अपने पक्ष को  स्थापित करने की प्रवृत्ति होती है.  इसमें सिर्फ नकार और नाजायज जवाब जैसी चालाकी का उपयोग कर वादी पक्ष को छल-कौशल के द्वारा अपमानित करने  की कला शामिल होती है. लेकिन तत्वनिर्णय के लिए "जल्प" और वितंडा की जरूरत इसलिये पड़ती है, क्योंकि इसी बहाने सिद्धांत की सत्यता का परीक्षण भी हो  जाता है. जैसे बीज की रक्षा के लिए सब ओर से काँटेदार शाखा लगानी पड़ती हैं, उसी प्रकार तत्त्वनिर्णय का इच्छुक व्यक्ति जल्प और वैतंडिक के द्वारा उठाये गये तर्कों का खंडन करके, अपने पक्ष को मजबूत कर लेता है. 

तत्त्वनिर्णय जिस न्याय की सहायता  से किया जाता है, वह  प्रमाणों के आधार पर किया जाता हैᅳ नीयते विवक्षितार्थः अनेन इति न्यायः  अर्थात जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित तत्त्व के पास पहुँचते हैं, उसे न्याय कहा जाता है. न्यायभाष्यकार वात्स्यायन  प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः  अर्थात प्रमाणों के द्वारा सिद्धान्त का परीक्षण ही न्याय है  ᅳ ऐसा कहते हैं. इस दृष्टि से जब कोई मनुष्य किसी विषय में कोई सिद्धान्त लेता है तो उसे न्याय सिद्ध अथवा प्रमाणसिद्ध  होना चाहिए. अक्सर हम अदालतों में देखते है प्रमाण के अभाव में दोषी निरपराध छोड़ दिया जाता है. 

वादी और प्रतिवादी में अपने पक्ष को स्थापित करने के लिए जीत-हार होने तक जो चर्चा होती है वह विजिगीषु-कथावाद कहलाती है और गुरु तथा शिष्य में अथवा रागद्वेष रहित विशेष विद्वानों में तत्त्व के निर्णय होने तक जो चर्चा चलती है वह वीतरागकथा भी कहते है. बौद्ध चीनी स्रोतों के साथ-साथ कथावत्थु जैसे पाली स्रोतों में वाद-विवाद आयोजित करने की कला में प्रशिक्षण भी दिया जाता है.

आजकल कथा का एक विशेष रूप लोकप्रिय हुआ है जिसमे सभी मतों को समान रूप से आदर करने की बात कही जाती है, चाहे वे कितने भी निराधार क्यों न हों. बेशक ऐसे कई लोग भी हैं, जो सत्य और तथ्यों को समझने की अपेक्षा बुरी मंशा से क्रोधित और ईर्ष्यालु होकर  चर्चा में शामिल होते हैं. विषय की गहराई को समझे बिना  प्रतिद्वंद्वी के  व्यक्तिगत चरित्र पर  हमला कर, उसे बदनाम करने के लिए अथवा वास्तविक विषय को टालने के लिए अथवा वादी को विचलित करने के लिए इस तरीके को अख्तियार करते है, जो  विवाद में परिणत हो जाता है.  संवाद की महान परम्परा को हमने  वाक्-युद्ध में अथवा हाथापाई में परिणत कर दिया है. 

संवाद आवश्यक है अन्यथा संवाददहीनता भी गणसंघर्ष का कारण बन जाती है, जैसाकि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा. लेकिन वर्तमान सन्दर्भ में यह भी एक अड़ियलपने में परिवर्तित हो चुका है. संवाद की यह आक्रामक प्रवृत्ति अपना अर्थ खो बैठी है, लक्ष्यभ्रष्ट  हो चुकी है. हम समाधान के लिए संवाद नहीं, स्वयं को सिद्ध करने के लिए कुतर्क करते हैं. अपनी-अपनी हांकते हैं, बहस सिर्फ  जीतने के लिए होने लगी है. समाधान  कुछ दिखाई नहीं देता है. हम भूल जाते हैं कि यह संवाद ही है जो समाज को दिशा देता है, पर आज यही कलहपूर्ण संवाद-प्रवृत्ति समाज को दिग्भ्रांत कर रही है. बहस की जिस संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है, वह न केवल विरोध को जन्म दे रही है. बल्कि चिंतन की जो हमारी थाती थी उस पर भी बेवजह बौद्धिकता लाद कर उसकी समृद्धि को अवरुद्ध कर रही है. 
      
मशहूर डच भाषाविज्ञानी और दार्शनिक फ्रिट्स स्टाल ने पाणिनी की रचना अष्टाध्यायी की तुलना यूक्लिड के ज्यामिती के सिद्धांतों से की और भारतीय ज्ञान परंपरा को एक श्रेष्ठ आधार कह कर प्रशंसित भी किया. ऋग्वेद के १०वें मंडल का यह १९१वां सूक्त सबकी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले अग्निदेव से आपसी मतभेदों को भुलाकर सुसंगठित होने की प्रार्थना करता है ᅳ 

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्....
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः.
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति.
 
(परस्पर साथ-साथ चलें. परस्पर स्नेहपूर्ण संवाद करें. सबके मन एक हो, सब मिलजुल कर  ज्ञान प्राप्त करें).

डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance  विश्व पुस्तक मेला में  फरवरी में रिलीज़ हुआ है।



We are trying to create a platform where our readers will find a place to have their say on the subjects ranging from socio-political to culture and society. We do have our own views on politics and society but we expect friends from all shades-from moderate left to moderate right-to join the conversation. However, our only expectation would be that our contributors should have an abiding faith in the Constitution and in its basic tenets like freedom of speech, secularism and equality. We hope that this platform will continue to evolve and will help us understand the challenges of our fast changing times better and our role in these times.

About us | Privacy Policy | Legal Disclaimer | Contact us | Advertise with us

Copyright © All Rights Reserved With

RaagDelhi: देश, समाज, संस्कृति और कला पर विचारों की संगत

Best viewed in 1366*768 screen resolution
Designed & Developed by Mediabharti Web Solutions