अस्तित्व, चेतना और भाषा की अद्भुत लीला - कश्मीर शैवागम

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Dec 06, 2024 | 269

डॉ मधु कपूर आजकल भाषा-दर्शन के सिद्धांतों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए प्रयासरत हैं। इस क्षेत्र (भाषादर्शन) का उनका पहला लेख था “आकाशगंगा में चमकता यह दूसरा सितारा” जिसे आप यहाँ देख सकते हैं।इसमें उन्होंने शब्द से होने वाले अर्थ-बोध की चर्चा की थी। इसी विषय को आगे बढ़ाता हुआ उनका दूसरा लेख था “दर्शनशास्त्र : जब बोलने की अपेक्षा ना बोलना महत्वपूर्ण हो जाता है” और फिर आया “इंतज़ार बकवास खत्म होने का.......” उनका लेख “कुछ कहना कुछ करना है” – जॉन ऑस्टिन के कथन का परीक्षण डॉ कपूर का इसके पहले का अंतिम लेख था। भाषा दर्शन पर शृंखला आरंभ होने से पूर्व उन्होंने दर्शन के अन्य विषयों पर करीब दर्जन भर लेख इस वेब पत्रिका के लिए लिखे थे जिन्हें आप ‘अध्यात्म एवं दर्शन’ नाम की केटेगरी में एक-एक करके पढ़ सकते हैं।

अस्तित्व, चेतना और भाषा की अद्भुत लीला : कश्मीर शैवागम

डॉ मधु कपूर 

काश्मीर शैवागम में, “अस्तित्व, चेतना और भाषा की अद्भुत लीला” शिव और शक्ति के  माध्यम से प्रकट होती है, जिसमें ‘अहं’ की एक खास भूमिका होती है. हम पूर्व के लेख “शब्दहीनता और अर्थहीनता का समीकरण = शून्यता” में देख चुके हैं कि भाषा, बौद्धों के अनुसार, वस्तु स्वरूप का उद्घाटन एक सीमित दायरे में ही करती है, एवं दिग्भ्रांत करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती है. कश्मीर शैवागम इसके विपरीत भाषा को एक ऐसा उपाय मानते है, जो हमारे अज्ञान का पर्दा उठा कर सत्य का साक्षात्कार कराने में मदद करती है. भाषा न केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक अस्तित्व की यात्रा का पथ सुगम करती है, बल्कि चेतन सत्ता के माध्यम से व्यक्ति और विश्व के बीच की दीवार को हटा कर अभेद का मार्ग प्रशस्त करती है, जिसमें न तो नकार है, और न ही मिथ्या की प्रामाणिकता. 

शैवागम में परावाक् को एक सूक्ष्म सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया है, जहाँ  सम्पूर्ण अस्तित्व वाङ्मय हो उठता है. उदाहरण के लिए, एक सौ रुपये की गड्डी टेबल पर पड़ी है जो पहली दृष्टि में हम केवल एक ‘वस्तु’ के रूप में उपलब्ध करते हैं, क्योंकि उसके स्वरूप को हम स्पष्ट पहचान नहीं पाते हैं, धीरे धीरे जितना उसके नजदीक जाते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘यह एक सौ रुपये की गड्डी है’. इसी तरह जब हम किसी ऊँचे शिखर से किसी शहर को देखते है तो नगरवासी, नदियां, गाड़ी, पेड़ इत्यादि स्पष्ट नहीं दिखाई देते है, पर सामग्रिक रूप से सब कुछ उस दृश्य में उपस्थित रहता है. लेकिन जैसे जैसे हम नीचे उतरते है, इस शिखरस्थ ज्ञान की पोटली खुलती जाती है, और वस्तुएं स्पष्ट होने लगती है. परावाक्, जो दर्पणनगरन्याय की तरह सारे सांसारिक वैचित्र्य, जैसे घट पट आदि वस्तुओं को अपने में समेटे रहता है, उसी तरह सभी वर्ण परावाक् के गर्भ में पहले अस्फुट अवस्था में समाये रहते है, और पुनः उनका स्वरूप हमारे सामने धीरे धीरे स्फुटित होता रहता है. 

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने के लिए हमें एकबार प्रत्यभिज्ञा दर्शन को समझना पड़ेगा, जो काश्मीर शैवागम का ही अंग है. प्रत्यभिज्ञा शब्द का अर्थ है पूर्वपरिचित किसी अभिज्ञान में लौट जाना. दृष्टान्त स्वरूप कालिदास के “अभिज्ञानशाकुंतलम” में राजा दुष्यंत शकुंतला को भेंट दी गई अंगूठी को देख कर उसके साथ अपने गन्धर्व विवाह को स्मरण करने लगते है. 

पूर्व में बनारस में देखे हुए  देवदत्त को कलकत्ते में देख कर ‘यह वही देवदत्त है, जिसे बनारस में देखा था’ ऐसा स्मरण होने लगता है. अभिनय कला में दक्ष अभिनेता किसी अभिनय में ऐसा डूब जाता है कि वह स्वयं को उस पात्र के साथ तादात्म्य कर लेता है, और वैसी ही हरकते करना लगता है. लेकिन यदि उसे बारबार उसका असली स्वरूप स्मरण कराया जाय तो वह अपने सही स्वरूप को पहचानने में समर्थ हो जाता है. ठीक उसी तरह अपने‘शिवरूप’ को भूल कर हम स्वयं को शिव से अलग समझ बैठते हैं, पर यदि हमें बार बार स्मरण कराया जाय कि ‘तुम शिव स्वरूप हो’ तो हम स्वयं को ‘शिवोऽहं’ कह कर पहचानने लगते हैं. 

पुनः प्रत्यभिज्ञा दर्शन दो प्रकार से कार्य करता है प्रकाश और विमर्श. प्रकाश वह विशुद्ध चेतना है, जो शिव स्वरूप होती है, और प्रत्येक विषय की सत्ता को  चेतनरूप में स्वीकार करते है. यह विशुद्ध चेतना सत् तो होती है, पर अपनी सत्ता के सम्बन्ध में सचेतन नहीं होती है. दूसरी ओर विमर्श का अभिप्राय है, विचार करना और विचार भाषा के बिना घटित नहीं हो सकता है. अतः विमर्श को वाक् का समार्थक कहना उचित ठहरता है. विमर्श के द्वारा प्रकाश सक्रिय हो उठता है. इस तरह प्रकाश और विमर्श का यह खेल निरंतर चलता रहता है. प्रकाश मार्ग दिखाता है और विमर्श भाषा के  माध्यम से उस मार्ग को स्पष्ट करता है. विमर्श में गति उत्पादन की क्षमता है. अतः वाक् वर्णोंच्चारण  के रूप में कम्पन उत्पन्न कर विचारों को उन्मुक्त करता है. प्रकाशरूपी-शिव, एक चित्रकार की तरह, विमर्श की सहायता से जगत की सृष्टि विश्व-कैनवास पर उकेरता है, और अपनी पहचान को अंकित कर देता है. जिस तरह एक नृत्यांगना को उसके नृत्य से पृथक नहीं किया जा सकता है, उसी तरह शिव-स्रष्टा को उसकी सृष्टि से पृथक नहीं किया जा सकता है.

 प्रत्यभिज्ञा दर्शन में "विमर्श" का अर्थ है चित् को आत्मज्ञान कराना, अर्थात व्यक्ति जब अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है, तो उसकी सारी क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से ज्ञान के अनुसार घटने लगती हैं. शिव-चेतना शक्ति के संस्पर्श से जाग्रत हो उठती है और तब वाक्-विमर्श का स्फुटीकरण आरम्भ हो जाता है, यानि हम अपने विचारों को भाषा के माध्यम से प्रकट करने में सक्षम हो जाते है. “मैं मोटा हूँ, दुबला हूँ” इत्यादि कहना ‘अहं’ का शुद्ध विमर्श नहीं है, तथापि प्रकाशरूप चिद्रूपता का परिचायक तो कहा ही जा सकता है, अन्यथा यह अभिव्यक्ति संभव नहीं होती. वास्तव में  ‘प्रकाश’ और ‘विमर्श’ दो अलग वस्तुएं नहीं है, बल्कि एक ही वस्तु के दो पहलू है. दोनों का कार्य क्षेत्र अलग अलग होने पर भी अस्तित्व की दृष्टि से दोनों में ऐक्य या अभेद है. 
 
सम्भवतः तन्त्रशास्त्र को ध्यान में रखकर निर्गुण शिव विशुद्ध चैतन्य और सगुण शिव शक्ति- उपाधि से युक्त होकर विश्व में एक संक्षोभ उत्पन्न करता है, जो नाद कहलाता है. नाद का क्रियाशील होना ही बिन्दु कहा जाता है. सिद्धान्ततः 'नाद' और 'बिन्दु' शिव और शक्ति के संयोग से ही उत्पन्न होने वाले एक तत्त्व हैं. जब  साधक “पूर्ण अहन्ता स्तर” पर पहुंचता है, तो वह वाक् सत्ता में निवास करता है, जो निरंतर स्थूल से सूक्ष्म और कभी सूक्ष्म से स्थूल की तरफ सहज भाव से आवागमन करता है. यह स्थिति शब्दातीत चेतना की कही जाती है, जिसमें खुद कोई ध्वनि नहीं होती है, इसलिए इसे अनाहत नाद कहा जाता है. सृष्टि का मूल स्रोत यही अनाहत नाद है, जो बिना दो वस्तुओं की  टकराहट से उत्पन्न होता है. 

किसी विषय को व्यक्त करने की इच्छा जब मन में सूक्ष्म रूप से उपस्थित होती है, पर वह स्पष्ट आकार नहीं ले पाती है, तो उसे परावाक् का प्रथम स्तर अथवा पश्यन्ती कहा जाता है. जिस तरह किसी बोरे में अन्न को समेट कर रख दिया जाता है, तथा आवश्यकता पड़ने पर उसी में से हम अन्न-सामग्री निकाल लेते है, उसी तरह  परावाक् में निहित वर्ण सामग्री से पश्यन्ती वाक् को आकार देना मध्यमा वाक् का कार्य है, जिसमें वाक् की भेदावस्था का उन्मीलन आरम्भ हो जाता है. यहाँ इदंता का विमर्श ही प्रधान होता है, अर्थात ‘यह करना उचित है, अथवा यह करना उचित नहीं है’, इस तरह की अन्तःकरण वृत्तियाँ कार्य करना शुरू कर देती है. मानसिक जप इत्यादि अवस्था में देखा जाता है कि मन ही मन वाक् क्रिया चलती रहती है.  इसी तरह जब हम हाथ हिलाकर बिना किसी शब्द को उच्चारण किये वस्तु का निर्देश करते है, तो ऐसी स्थिति आन्तराभिलाप की कही जाती है, जिसमें वाचन क्रिया के अभाव में भी संकेतित अर्थ स्पष्ट हो जाता है. मध्यमा वाकवृत्ति संकल्प, निश्चय और अभिमनन की ज्ञानशक्ति है, जिसका पल्लवित रूप है बैखरी है. इस तरह परावाक् – पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी के माध्यम से नानात्वस्वरूप जगत को प्रकट करने में समर्थ होती है. दैनन्दिन जीवन में इसका आभास हमें हरदम मिलता है, जब हम मुंह से बोल कर अपनी बात श्रोता के कानों तक पहुँचाने में सफल होते है. पश्यन्ती वाक् में कोई क्रम नहीं होता है, यहाँ सभी वर्ण गड्मड रूप में उपस्थित तो रहते है, पर हम उसे पृथक  नहीं कर पाते  है, जैसे बोरे में संगृहीत अन्न. बोरे को बिना खोले हम उसमें से अन्न को परिमाण अनुयायी निकाल नहीं सकते हैं, उसी तरह परावाक् में निहित वर्णों को हम अपनी जरूरत के अनुसार  प्रयोग में लाते हैं. पश्यन्ती के बाद  विकासोन्मुखी मध्यमा विकसित होती है, और अंत में बैखरीरूप में उसका बाह्य प्रसार कंठ, जीभ, तालु, होंठ आदि के द्वारा मुख से होता है, जो श्रोता श्रोत्रेंद्रिय से ग्रहण करता है. 

इनमें पश्यन्ती इच्छाशक्तिरुपा है, मध्यमा ज्ञानशक्तिरुपा है और बैखरी क्रियारुपा है. परावाक् की धारणा सूक्ष्म स्तर पर सारे विश्व को एक सूत्र में बांधने का निमित्त बनती है, जो शब्दों के द्वारा प्रकट होकर श्रोता और वक्ता को आकार अथवा बिम्ब प्रदान करती है. इस तरह प्रकाश और विमर्श का उभयात्मक स्वरूप वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध को प्राप्त करता  है. 

यहाँ यह द्रष्टव्य है कि सृष्टि का मूल शब्द है. इस तरह शब्द-शक्ति से की गई पहचान विश्व सृष्टि की प्रक्रिया को समझने में मदद करती है. उदाहरण के लिए अहं शब्द में “अ” जो वर्णमाला का प्रथम अक्षर है एवं अव्यक्त शिव का प्रतीक है, “ह” जो वर्णमाला का अंतिम अक्षर है और गतिशील विश्व का प्रतीक है, और इन दोनों की रहस्यमय मिलन-लीला अनुस्वार के द्वारा पूर्णता को उपलब्ध करती है. इस तरह सम्पूर्ण ‘अहं’ एक  चिह्न के रूप में अर्धनारीश्वर का द्योतक भी कहा जाता है. इन दोनों का सम्मिलित स्वरूप शब्दों के माध्यम से विश्व जगत की गुत्थियों को सुलझाने में, अपने स्वरूप को समझने में, हमारे आवेग, व्यवहार, चिंतन को नियंत्रित करने में और उसे एक नया आयाम देने में सहायक होता है. शब्द की शक्ति असीमित है. अंत में गोरखनाथजी महाराज के शब्दों में –
 सबदहि ताला, सबदहि कूंची, सबदहि सबद जगाया.
सबदहि सबद सूं परचा हुआ, सबदहि सबद समाया.
(शब्द ही ताला है, शब्द ही वह कुंजी है, जो शब्द के रहस्य को उन्मुक्त करती है. शब्द से ही शब्द (द्रष्टा और दृश्य का अभेद) का दर्शन होता है, और शब्द में ही शब्द समाहित जाता है).  

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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance  विश्व पुस्तक मेला में  फरवरी में रिलीज़ हुआ है।

 



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