गुलाब-जामुन : ब्रैन्डा से वृंदा और फिर ब्रैन्डा बनने का वृत्तांत

अनीता गोयल | साहित्य | Apr 22, 2025 | 291

 

अनीता गोयल से इस वेब-पत्रिका के पाठक पहले से परिचित हैं। पूर्व में प्रकाशित उनकी कविताएं आप यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी लिखी एक कहानी जो पाठक को कहीं अंदर तक भिगो देती है।

गुलाब-जामुन : ब्रैन्डा से वृंदा और फिर ब्रैन्डा बनने का वृत्तांत 

अनीता गोयल 

मुझे ऑस्ट्रेलिया में रहते बीस बरस से ऊपर हो गए हैं। बढ़ते वैश्वीकरण के चलते संस्कृतियों का आदान-प्रदान भी बढ़ रहा है। लोग अपनी नौकरियों और व्यापार के कारण और कई बार प्रेम-बंधन के चलते, एक देश से जाकर दूसरे देश में बस जाते है। जब अप्रवास बिल्कुल नए देश, नई भाषा और नई संस्कृति में होता है तो आरम्भ उत्साह से होता है और फिर शुरू होती है अपनी पहचान की खोज। युवावस्था में व्यस्तता चिंतन का समय नहीं देती और उम्र के आखिरी पड़ाव पर इंसान अपनी मूल जगह लौटना चाहता है लेकिन लौटना आमतौर पर कठिन ही होता है।

ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर का एक छोटा सा उपनगर है ग्लेन वेवरली। फेंग शुई की एक गणना के अनुसार इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति बहुत ही विशेष है जो यहाँ के वासियों को समृद्धि प्रदान करती है, इसीलिए चीनी अप्रवासियों का यह प्रिय क्षेत्र है और उनका प्रयास रहता है कि जैसे भी हो, यहीं आकर बसा जाए। वैसे तो यहाँ अन्य देशों से आए अप्रवासी भी बसना चाहते है,फ़ेंग शुई के कारण नहीं बल्कि इनका आकर्षण, यहाँ के स्कूल के रिज़ल्ट्स हैं जो अन्य स्कूलों से बहुत बेहतर होते हैं। डेडीनोंग पहाड़ियों की तलहटी पर बसा यह उपनगर, मेलबर्न के अन्य उपनगरों की भाँति ही बहुत सुंदर है। 

बलखाती, लहराती गलियों में, प्राईमरी स्कूल की बगल वाली गली में ब्रैन्डा का मकान था। ब्रैन्डा ने इसी पाठशाला में अपनी शिक्षा का पहला कदम उठाया था। अब वह एक अस्सी वर्षीय वृद्धा है। ऑस्ट्रेलियाई सोच के अनुसार वृद्ध आप मन से होते हैं, तन से कभी नहीं। सो यहाँ के हिसाब से ये कहना भी उचित होगा कि वह एक अस्सी वर्षीय युवती हैं। अपनी पाठशाला के मित्र, पाठ्यकार्यक्रम और खेलकूद का स्मरण आज भी उसके मुख पर मुस्कान ले आता है। वह अपने घर में अकेले ही रहती है, उसे बच्चों को आते और जाते देखना बहुत अच्छा लगता है  इसीलिए विद्यालय के आरम्भ व समाप्त होने के समय वह पास के पार्क के बेंच पर बैठ कर बच्चों को देखती है। वैसे घर में अकेलेपन के सिवाय कुछ और करने को भी नहीं था। 

ब्रैन्डा हमेशा ऐसी अकेली ना  थी। नहीं, यहाँ से नहीं बल्कि ब्रैन्डा की कहानी मैं गुलाब-जामुन से शुरू करती हूँ क्योंकि उससे मेरी मित्रता गुलाब-जामुन से ही शुरू हुई थी। तो ब्रैन्डा की गुलाब-जामुन यात्रा यूँ शुरू होती है।

आपने भारत की कई गलियों से लेकर बड़ी-बड़ी मिठाई की दुकानों से गुलाब-जामुन खाये होंगे। ऑस्ट्रेलिया में भी भारतीयों और सभी आस-पास के देशों जैसे कि पाकिस्तान, बंगला देश, नेपाल, श्री लंका, बर्मा, इत्यादि के अप्रवासियों में भी गुलाब जामुन काफ़ी लोकप्रिय हैं । मैं न जाने कब ब्रैन्डा के साथ बेंच पर बैठने लगी और उसकी बातें सुना करती थी। वो अपनी पहली मुलाकात से ही शुरू कर देती थी अपने गुलाब-जामुन की कहानी। जो गुलाब-जामुन ब्रेंडा बनाती थी, उनका कोई जोड़ नहीं था। उसने बड़े प्यार से मुझे भी खिलाए थे अपने गुलाब-जामुन। मुझे आज भी याद है कि जैसे ही पहला गुलाब जामुन  मेरे मुँह में गया -- माया री माया, ऐसा स्वाद छाया! उसके बाद तो मैंने कई बार उसके बनाए गुलाब-जामुन खाए। मुझे तो वो श्री कृष्ण के छप्पन भोग प्रसाद का आशीष प्रतीत होते थे। ये गुलाब-जामुन भरे पेट में भूख जगा सकते थे। यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलियाई मूल के लोग भी उसके एक गुलाब-जामुन पर रुक नहीं सकते थे और कम से कम चार-छह तो मुँह के अंदर बिना रुके जाते ही थे।  ब्रैन्डा ने गुलाब-जामुन बनाना तब सीखा था जब वो वृंदा थी। अरे, ब्रेंडा और वृंदा! कैसे! 

ब्रैन्डा इमलैक बहुत तीखे नैन नक्शों की एक लंबी सुंदर युवती थी। बाईस वर्ष की कच्ची उम्र में एयर हॉस्टेस बनी और अपनी पहली हवाई उड़ान भर रही थी। नई दुनिया को जानने की ललक से भरपूर युवती भारत पहुंची। भारत आते ही उसकी पहचान राकेश से हुई। राकेश के आकर्षक, प्रभावशाली, हंसमुख और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व से ब्रैन्डा ऐसी खिची कि अगले ही वर्ष अक्तूबर में दोनों विवाह के बंधन में बंध गए। राकेश अपने काम में काफ़ी व्यस्त रहते थे और घर में केवल माँ थी जो बीमार रहती थी। माँ को देखभाल की आवश्यकता थी। ब्रैन्डा की एक छोटी बहन थी जो माता-पिता के साथ ही रहती थी। अतः तय हुआ कि ब्रैन्डा अपना घर बसाने के लिए दिल्ली रह सकती है। ब्रैन्डा ने राकेश को सहयोग का पूरा आश्वासन दिया और एक सुघड़ गृहणी की तरह उसने पूरा घर संभाल लिया। 

राकेश व ब्रैन्डा का प्रेम कभी कम न हुआ और बीतते समय के साथ यह रिश्ता और भी प्रबल हुआ। ब्रैन्डा की सास अंग्रेजी नहीं जानती थी और ब्रैन्डा हिंदी नहीं जानती थी। भाई वाह, जहाँ चाह, वहाँ राह। ब्रैन्डा को उसकी सास ने ही नया नाम वृंदा दिया। वृंदा ने धीरे-धीरे कामचलाऊ हिंदी भी सीख ली। राकेश की माताजी को भी वृंदा बहुत प्रिय थी लेकिन एक टीस हमेशा बनी रही कि उनकी बहू को यहाँ की भाषा और संस्कृति समझने में कठिनाई होती है। फिर भी एक समझदार सास की तरह राकेश की माताजी ने अपनी प्रिय वृंदा को कभी ये महसूस नहीं होने दिया की वह एक विदेशी बहू है। वह लगातार वृंदा को जीवन का दर्द और चिंतन, और अपनी कहानियाँ सुनाती रहती। धीरे-धीरे वृंदा कुछ-कुछ बातें और जीवन मरण का भारतीय मर्म समझने भी लगी थी। घर में हर काम के लिए नौकर-चाकर थे, और यहीं खाना बनाने वाली निम्मो से वृंदा ने धीरे-धीरे सभी प्रकार के पकवान बनाना सीखे। राकेश की माँ को केवल वृंदा के हाथों का बना भोजन अच्छा लगता था और वृंदा के लिए ये बात किसी स्वर्ण पदक से कम नहीं थी। मछली हो या आलू गोभी, चिकन टिक्के, पनीर टिक्के, भिंडी, कोफ़्ते, और बिरयानी इत्यादि से लेकर हलवा और गुलाब-जामुन का स्वाद घर वालों को ही नहीं, आस पास के घरों और मित्रों को भी मिलने लगा। वृंदा के पकवानों की चहुँओर तारीफ होती। कोई गोरी इतना स्वादिष्ट भारतीय भोजन बनाए तो सबके लिए आश्चर्य की बात तो होगी ही। पति-पत्नी खुश थे, वृंदा का समय भी हंसी ख़ुशी व्यतीत होने लगा। इसी तरह दोनों पति-पत्नी ने भारत ऑस्ट्रेलिया के बीच यात्राएं करते-करते सुख से दिन बिताए। 

विवाह के पैंतीस बरसों के बाद वृंदा की सास का देहांत हो गया। वृंदा को अपने पर बहुत फख्र था कि वह भारतीय बहुओं की तरह अपनी सास के साथ रही और उनकी सेवा की। उधर राकेश ने अपना बिज़नेस समेटना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे वह पूरी भी कार्य-निवृत हो गए थे। उनका एकमात्र पुत्र नौकरी के सिलसिले में लंदन गया और वहीं बस गया। उधर ऑस्ट्रेलिया में वृंदा के पिता अब नहीं रहे थे और माताजी बीमार थीं। छोटी बहन क्वींसलैंड जाकर बसी थी और मेलबर्न जाने-आने में उसे वक़्त लगता था। राकेश को वृंदा के परिवार से भी बहुत स्नेह मिला था। राकेश और वृंदा ने अब निर्णय लिया कि वे दोनों मेलबर्न आकर वृंदा की माँ को सहारा दे सकते है तो दोनों ग्लेन वेवरली आ गए।

वृंदा बहुत उत्साहित थी। राकेश उसे फिर से ब्रैंडा बुलाने लगे और अपनी माँ का सानिध्य उसके अंतर्मन  को कुछ अजीब ही तृप्ति देता था। तरह तरह की ऑस्ट्रेलियन ब्रेड, केक, बर्गर, स्टेक, स्पेगेटी, पास्ता, पिज़्ज़ा, सैंडविचेस और फ्राइज़ का आनंद जिह्वा पर उड़लने लगा। उसका घर, उसके प्राईमरी स्कूल के साथ लगा था। सुबह सुबह बच्चों  की क़तार देखकर उसे अपना बचपन याद आ जाता था। राकेश वृंदा (या फिर से ब्रैन्डा) के आभारी थे और उधर ब्रैन्डा भी राकेश के प्रेम में आज भी उतनी ही डूबी थी जितनी चालीस साल पहले। 

क़रीब दो साल बाद ब्रैन्डा की माँ का देहांत हो गया। ग्लेन का घर उसे विरासत में मिला। राकेश को मेलबर्न भाता था और वे ब्रैन्डा की ख़ुशी में भी ख़ुश थे। ब्रैन्डा ने अपने जीवन के पैंतीस साल राकेश के लिए भारत में बिताए थे और अपनी नौकरी को भी तिलांजलि दी थी। इसीलिए राकेश ने सोचा कि अगर ब्रैन्डा स्वयं ही भारत जाने की चर्चा करती है तभी वह सोचेंगे वरना मेलबर्न में भी बुढ़ापा अच्छे से गुज़ारा जा सकता है। 

ब्रैन्डा बाईस वर्ष की थी जब उसने अपनी पहली हवाई और प्रेम उड़ान भरी थी। उसके पश्चात् पैंतीस साल भारत में रहकर उसका कायाकल्प कब हुआ उसे ख़ुद ही पता नहीं चला। वह अब भारतीय व्यंजन पूरी कला से बनाती थी। भारतीय साड़ी उसकी सबसे प्रिय पोशाक थी और वह काफ़ी हिंदी बोल और समझ सकती थी। जब तक राकेश थे, वह उनके साथ अपने सभी शौक पूरे कर लेती थी। उसे दिल्ली छोड़ने का अभाव महसूस न हुआ। लेकिन समय कहाँ ठहरता है! मेल्बर्न आने के10 साल बाद राकेश का निधन हो गया और ब्रैन्डा अकेली रह गई। भारत में उसके कई मित्र थे लेकिन ऐसे कोई घनिष्ठ नहीं थे कि वह राकेश के ना रहने के बाद भारत वापिस आने की सोचती। वह भारतीय संस्कृति खूब समझती थी लेकिन उसकी आत्मा में तो अपनी ऑस्ट्रेलियन संस्कृति ही जज़्ब थी। वह भारतीय महिलाओं से भिन्न थी। उसके संगीत, फ़िल्म व पुस्तकों का चयन अलग था। क्लब में बैठ कर गप्प लगाने से अच्छा इस उम्र में भी उसे तैरना व खेलना अच्छा लगता था। भारतीय व्यंजन उसे पसंद थे पर ख़ास मौकों पर जश्न मनाने  के लिए उसे अपने ऑस्ट्रेलिया के पब, कई ज़्यादा रुचिपूर्ण और मज़ेदार लगते थे।  अनुसार यहाँ के कॉफ़ी हाउसेस और रेस्टोरेंट्स का तो पूरी दुनिया में कोई मुक़ाबला ही नही हो सकता। यहाँ के समुंदर, वन भ्रमण और ट्रैकिंग – उसकी नस-नस में बसे थे। ऑस्ट्रेलियन राष्ट्र-गान से उसका मन ओत-प्रोत हो उठता था। उसका कहना था कि जीवन का चिंतन और मर्म तो दोनों देशों में अलग कैसे हो सकता है? 

उसने निश्चय किया कि वो अब अपना बाक़ी जीवन अपने प्यारे ग्लेन में ही बिताएगी। 

अपने जीवन में, ब्रैन्डा प्रेम में सब कर गई पर आज अकेली है। अब सब पूर्ण है पर परिपूर्ण होने में कुछ शून्य है। घर के आस-पास ज्यादातर परिवार गोरे हैं और आश्चर्य की बात यह है कि वृंदा से ब्रैंडा बन जाने के बाद भी वह उनसे अक्सर जुड़ नहीं पाती। विडंबना ये है कि राकेश के जाने के बाद वृंदा को ब्रेंडा बनना अब मुश्किल लगने लगा। ब्रेंडा के पास अपनी गोरी सहलियों से बात करने के लिए दिल्ली, भारत, राकेश, राकेश की माँ, भारतीय व्यंजन, और भारतीय अनुभव ही हैं। गोरे परिवार उसके भारतीय अनुभवों को बस औपचारिकता भर तक सुनने में ही रुचि रखते थे लेकिन पारिवारिक आमंत्रणों  यहाँ तक कि क्रिसमस भोज जैसे कार्यक्रमों में भी ब्रेंडा का नाम नहीं होता था। शुरु-शुरु में वह काफ़ी आहत भी होती थी लेकिन फिर उसने अपनी गोरी मित्र मंडली से इन दूरियों को स्वीकार कर लिया। 

ब्रैन्डा हर सुबह और शाम - नियमपूर्वक, प्राईमरी स्कूल के पास स्थित 'लॉरपेंट रिज़र्व' जाने लगी। वहाँ आते-जाते लोगो को देखना उसे अच्छा लगता। सन 2000 के बाद ऑस्ट्रेलिया की तरफ़ भारतीय प्रवासियों का आगमन बढा।ब्रैन्डा बड़े शौक़ से प्राईमरी स्कूल के भारतीय बच्चों को अपनी युवा माँओ के साथ स्कूल जाते देखती। रंग-बिरंगे सलवार क़मीज़ ब्रैन्डा को वृंदा बना देते और वो इन परिधानों से दोस्ती के लिए आतुर होने लगी। ब्रैन्डा हाथ हिलाकर उनका अभिवादन करती पर युवा माताएँ अक्सर जल्दी में होती और रुकने की बजाय वो सब भी हाथ हिलाकर आगे बढ़ जातीं। वृंदा फिर किसी अगली महिला की प्रतीक्षा करने लगती। दिन बीते, और कई नीले पीले लाल गुलाबी जामनी रंग के, जॉर्जेट, शिफ़ोंन और सूती लिनेन के परिधान, उसकी आखों में झूलने लगे। वह उनसे दोस्ती के लिए अधीर और अत्यधिक लालायित होने लगी। 

एक दिन  ने देखा कि दूर से आती एक युवती प्रॉम में एक छोटी रोती बच्ची को लिए, उसके बैंच के पास से निकलेगी। साँवले रंग की युवती ने बहुत प्यारा हल्के नीले और लाल रंग का सलवार कमीज़ पहना था। माथे कीं एक छोटी काली बिंदी और गले में पड़े मंगलसूत्र से ब्रैन्डा ने अनुमान लगाया कि ये युवती शायद दक्षिण भारत से होगी। जैसे ही युवती पास से निकली वृंदा ने आगे बढ़कर प्राम में बैठी बच्ची को हेलो किया। बच्ची अपना रोना चुप करके वह ब्रैन्डा की ओर आकर्षित हुई और उससे बात करने लगी। युवती बच्ची के रोने से परेशान थी, उसका रुदन रुकने से उसे राहत मिली और वो ब्रैन्डा के साथ बैंच पर बैठ गई। ब्रैन्डा खुश हो गई और उसने प्यार से पूछा, ”यंग लेडी आर यू न्यू टू दिस एरिया”। कृष्णा ने बताया कि वो नई है, अभी पिछले महीने ही आई है। उसकी दो लड़कियाँ है। एक को स्कूल छोड़ा था। छोटी लड़की दो साल की थी और बहन के लिए रो रही थी। 

ब्रैन्डा ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वो पास ही में रहती है और भारत के बारे में काफ़ी जानती है, और हिंदी भी बोल सकती है। कृष्णा काफ़ी प्रभावित हुई। कृष्णा की हिंदी वृंदा से कमजोर ही थी। उसने कहा, “मुझे तो यहाँ नहीं जमा, नो हेल्प, बहुत स्ट्रगल है यहाँ।”
ब्रेंडा ने कहा,”मैं तो पास ही रहती हूँ। कभी कोई मदद चाहिए तो यू आर वेलकम!”। 

दोनों कभी कभी मिलने लगे। कृष्णा की भारतीय मूल की सहेलियों की एक मंडली थी जो उसके साथ कभी-कभी रिज़र्व आती।  ब्रेंडा फिर से हँसने और बातें करने लगी। 

एक दिन कृष्णा बहुत उदास पार्क में आई। उसका पति रुष्ट था – नौकरी का तनाव, छोटे बच्चे और मेलबर्न में भोजन में पहले सा स्वाद नहीं है। ब्रेंडा ने कहा,” मैं तुम्हें एक अच्छी रेसेपी देता हूँ, तुमने कभी यहाँ गुलाब जामुन बनाए हैं ?”

कृष्णा बोली,”बाज़ार तक में तो सब टेस्टलेस और अजीब हैं, घर कैसे बनेगा?”

ब्रैन्डा ने उत्साहित होकर एक करीबी आत्मीयता से कहा ”बहुत आसान है, तुम ट्राय करेगा?”

कृष्णा मन ही मन सोचने लगी, ये गोरी बुड्ढी क्या बताएगी पर उसने औपचारिकता में हाँ कहा। ब्रैन्डा ने उसे विस्तार से गुलाब जामुन बनाने का तरीका बताया। 

कृष्णा घर गई, क्रीम और मिल्क पाउडर निकालकर गुलाब जामुन बनाए। बहुत ही क्रीमी दानेदार मीठे रस के गोले जैसे ही मुँह में गए वैसे ही अद्भुत स्वाद से मन रसबोर हो गया। कृष्णा ने तुरंत अपनी मित्र मंडली को शाम के भोजन का निमंत्रण दिया। 

ब्रैन्डा इस निमंत्रण का हिस्सा नहीं बन पायी। ब्रैन्डा ने इससे पहले भी और इसके बाद भी कई युवतियों  को गुलाब जामुन बनाने का तरीका बताया पर उसे निमंत्रण कहीं से नहीं मिलता। अब वो जानती है कि उसकी दोस्ती पार्क तक ही सीमित रहेगी। गुलाब जामुन बनाने की विधि उसे थोड़े समय की मित्रता प्रदान करती और वो उसमें भी प्रसन्न थी क्योंकि इस तरह वो थोड़ी देर के लिए ही सही भारत के बारे में बात तो कर सकती थी। 

मैं भी उन्हीं महिलाओं में से एक थी। यदा-कदा उसी उद्यान में जाया करती थी। 

ब्रैन्डा नियम से सुबह-शाम को रिज़र्व में बैठ कर जाते लोगों को देखती और भारत में बिताए दिनों को याद करती रही।

शाम की हवा कुछ ठंडी सी हो चली थी, ब्रैन्डा आज अकेली ही बैठी थी। उसने अपने शॉल को अपनी सिहरती हुई बाज़ुओं पर खींचा और चारों तरफ़ देखा पूरा लॉरपेंट रिज़र्व ख़ाली हो चुका था। वह थोड़ी देर और बेंच पर बैठी और जब सूरज ढलने लगा तो घर की तरफ़ चल दी। उसका घर पार्क से कोई दस मिनट की दूरी पर था। रास्ते में उससे कई जाने पहचाने चेहरों ने अभिवादन किया पर हर रोज़ की तरह वो अपने ही विचारों में गुम थी। उसकी उम्र हो चुकी थी और अब दस मिनट की चहलक़दमी से भी उसे थकान महसूस होती थी। उसकी दिनचर्या पिछले दिनों के समान ही थी, सिर्फ़ अंतर यह था कि अगले दिन एक अक्तूबर था। ब्रेंड़ा ने इस साल अक्तूबर से वृद्धाश्रम जाने का निर्णय लिया था। 

ब्रैन्डा को वृद्धाश्रम गए 10 बरस हो गए होंगे। जाने कैसी है वो? सोचती हूँ कि है भी कि नहीं? जीवन की व्यस्तता में उससे मेरा कोई राबता न रहा। मेलबर्न के बहुत से घरों में उसके बताए गुलाब-जामुन बनते होंगे। मैं भी पारिवारिक शाम के मिलनों में और उत्सवों पर उसकी दी हुई विधि से गुलाब जामुन बनाती हूँ जो बहुत ही पसंद किए जाते हैं। गुलाब-जामुन खाने पर लोगों के चेहरे की मुस्कान मुझे ब्रैन्डा की (या आप चाहें तो कह सकते हैं वृंदा की) याद दिला देती है।  

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अनीता गोयल, दिल्ली विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में 12 साल इतिहास पढ़ाने के बाद, मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) जा कर बस गई। वहाँ उन्होंने विक्टोरियन स्कूल ऑफ़ लैंगुएजिज़ के प्रोग्राम के अंतर्गत कई बरस माध्यमिक स्तर पर हिंदी पढ़ाने का कार्य किया। अपने आस-पास के परिवेश के प्रति सजग उनकी  रचनाएं सामाजिक संवेदना से सरोबर होती हैं। 



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