चार चूड़ियाँ : अनीता गोयल की नई कहानी
अनीता गोयल ने यह कहानी हमें प्रेषित करते समय जो लिखकर भेजा, वही हम कहानी के 'इंट्रोडक्शन' के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं. "मानव संबंधों को समझना बहुत ही कठिन है। इनकी कोई परिभाषा करना उससे भी जटिल है। शायद तभी तो हम बाक़ी प्राणियों से कुछ हट कर है।रंग-रूप, गंध, स्पर्श, स्वाद, घृणा, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, इच्छा और अधिक की इच्छा इत्यादि हमारे भावों को कृत और विकृत करती है। इन सबके बावजूद जो सुख और सुकून निर्मल और पवित्र प्रेम देता है उसकी कोई बराबरी नहीं। फिर हर परिस्थिति में भाव बदलते है और कुछ भाव किसी परिस्थिति में नहीं बदलते।"
चार चूड़ियाँ : अनीता गोयल की नई कहानी
कविता लगभग 30 साल पहले अपने पति अविनाश के साथ मेलबर्न आकर बस गई थी। दोनों यहाँ आकर बहुत अच्छे से बस गए थे और एक भव्य मकान में रहते थे। आज करवा चौथ का दिन था और कविता सुबह से ही उत्साहित थी। आजकल मेलबर्न शहर में सभी भारतीय सामान आसानी से उपलब्ध है। इस अवसर के लिए उसने एक नई साड़ी ख़रीदी थी। अब वो गहनों का चयन करने लगी। जब वह अपने आभूषण निकाल रही थी, तो वह कंगनों की तलाश करने लगी। उसे अपने चार कंगनों में से उसे केवल तीन ही दिख रहे थे। अविनाश उसकी परेशानी देखकर कहने लगे, अरे इतने कंगन है, कोई और पहन लो।"
उसके विवाह के समय उसके पिता की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए उसकी शादी में जो गहने बने थे, वे घर में काफी संघर्ष के बाद ही बने थे। उन गहनों को देख कर उसे पिता की विवशता का स्मरण हो आता।
उसके पास कुछ कंगन उसकी सास के थे — हर बार जब वह उन्हें पहनती, उसे अपने ससुर की मृत्यु के बाद हुई वह बहस याद आ जाती कि “कौन क्या लेगा।” वह याद आते ही उदास हो जाती।
कुछ कंगन उसे मायके से मिले थे। उन्हें देखकर उसे हमेशा याद आता कि उसकी बहन को वे कंगन बहुत पसंद थे, लेकिन उसने मन न होते हुए भी उसे दे दिए थे। उसने चुपचाप कंगन ले लिए ताकि ऐसा न लगे कि उसे कुछ और चाहिए।
अविनाश हर साल कविता को गहनों की खरीदारी के लिए बड़े गर्व और अहंकार से ले जाता था। सो वो अहंकारी शब्द उन गहनों और कंगनों के साथ कविता के कान में गूँजने लगते, इसीलिए कविता को उन गहनों से कभी कोई प्रेम और जुड़ाव महसूस नहीं हुआ।
पिछले तीस वर्षों से वह अपने एक ख़ास पुराने कंगनों को हर मौके पर पहनती थी। उसकी सहेलियाँ हमेशा उन कंगनों की तारीफ़ करती थीं — उनमें प्रेम स्नेह और अनुराग की एक अलग ही चमक और सुंदरता थी। जब कविता को आखिरकार चौथा कंगन मिल गया, तो उसके चेहरे पर गहरा संतोष छा गया। उसने गुनगुनाते हुए स्वयं को तैयार करना शुरू किया ।
आज के समय में तो दिल्ली के चारों ओर अनेक आधुनिक फ्लैट्स वाली कॉलोनियाँ बस चुकी हैं। 1980 के दशक से पहले तक लोग कहा करते थे कि जनकपुरी सबसे बड़ी ऐसी कॉलोनी है जिसमें इतने सारे डीडीए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) के बनाए फ्लैट्स हैं। जनकपुरी के बाद या लगभग साथ-साथ रोहिणी नाम से उपनगर बसाया गया और फिर आने वाले दशकों में जनकपुरी के आगे 'द्वारका' उपनगर का विकास हुआ। द्वारका के विकास के साथ साथ ही हमारी पात्र कविता का भी विकास हुआ। कविता सुशिक्षित और कर्मठ युवती थीं। उसने एम.कॉम. की उपाधि प्राप्त की थी और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कार्यरत थीं। कविता का मायका सोनीपत जैसे छोटे नगर में था, जहाँ से वह विवाह के उपरांत दिल्ली आई थीं। दुर्भाग्यवश, सगाई के तुरंत बाद उनकी सास का निधन हो गया। परिवार ने यह सोचकर विवाह शीघ्र संपन्न कर दिया कि घर में कोई स्त्री सदस्य रहे जो बीमार पिता की देखभाल और घर की व्यवस्था संभाल सके।
कविता नवविवाहिता थीं, परंतु पारंपरिक अर्थों में नई दुल्हन नहीं कहलाई जा सकती थीं। विवाह के तुरंत बाद ही उसने अपने अस्वस्थ ससुर की देखभाल तथा संपूर्ण गृहस्थी की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। वह स्वभाव से अत्यंत शांत, विनम्र और मर्यादित थीं। कविता के लिए यह सब कुछ बिल्कुल नया था—नया घर, नया शहर, नई जिम्मेदारियाँ। मात्र बाईस वर्ष की आयु में वह अभी जीवन के अनुभवों से अपरिचित थीं। धीरे-धीरे कविता ने परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालना आरंभ किया।
सुबह के लगभग चार बजे, कविता नींद से उठी। उसने अपने बाल बाँधे और घर के कामों में लग गई। सबसे पहले उसने गमलों में पानी डालना शुरू किया। अपने शयनकक्ष से सटी बालकनी का दरवाज़ा खोलते ही उसकी नज़र सामने वाले फ्लैट की बालकनी पर गई, जहाँ लगभग पचास वर्ष की एक दक्षिण भारतीय सी दिखने वाली महिला पौधों में पानी दे रही थी। उसके गीले बालों पर तौलिया लिपटा हुआ था और साड़ी घुटनों तक संभाली हुई थी ताकि काम करने में सुविधा रहे।
महिला ने कविता को देखा और मुस्कराकर पुकारा —
“अरे, क्या तुम कविता हो? मैं तो सोच रही थी तुमसे मिलने आऊँ, पर जब तक तुम बैंक से घर पहुँचती हो , शाम हो जाती है। सुना है तुम अकेले ही सारा घर संभालती हो — पापाजी की सेवा, खाना बनाना, सब कुछ! मेरे पास एक बाई है, उसकी बेटी नौ साल की है। वह तुम्हारे कुछ छोटे-मोटे कामों में मदद कर सकती है।”
कविता कुछ कह पाती, उससे पहले ही महिला ने ज़ोर से आवाज़ लगाई —
“मानवती! इधर आओ, कविता से बात करो।”
तभी चालीस की उम्र के आस-पास की एक महिला बाहर आई और बोली,
“हाँ जी बीबीजी, क्या हुओ ?”
महिला ने कहा, “तुम अपनी बेटी कमला के लिए काम ढूँढ रही थीं न? वो तुम्हारे साथ सुबह आकर सामने वाली कविता आंटी की मदद कर सकती है।“ फिर कविता की तरफ़ देखकर बोली, “ क्या कहती हो कविता ?”
मानवती ने शरमाते हुए कविता की ओर देखा और पूछा,
“भाभी जी, आपको ठीक लगे तो मेरी कम्मो आ जाए? अभी छोटी है पर खूब काम जाने है।”
कविता ने सोचा — यह तो ईश्वर की कृपा है! — और मुस्कराकर “हाँ, कल से ले आना” कह दिया। बाद में उसके पति ने बताया कि सामने वाली महिला को सब लोग “जीनी आंटी” कहते हैं — यह नाम उनके छोटे पूडल कुत्ते जीनी के नाम पर पड़ा था।
अगले ही दिन सुबह चार बजे दरवाज़े की घंटी बजी। कविता ने दरवाज़ा खोला तो छोटी सी कम्मो मुस्कराती हुई अंदर आई। वह बहुत खुश थी कि अब उसे भी अपनी माँ की तरह काम मिला है।
धीरे-धीरे यह दिनचर्या बन गई — रोज़ सुबह चार से पाँच बजे तक कम्मो पिछले रात के बर्तन धोती, रसोई साफ करती, सब्ज़ियाँ काटती, आटा गूँधती, कपड़े फैलाती और फिर पाँच बजे के बाद कमरे साफ़ करती। यह सब कविता के लिए बहुत बड़ी मदद साबित हुआ।
साल दर साल यही दिनचर्या चलती रही। इस दौरान कविता के दो बच्चे भी हुए और कम्मो उनके पालन-पोषण में बड़ी सहायक बनी। छह वर्षों बाद बड़ी लड़की स्कूल जाने लगी तो कम्मो ही बड़ी लड़की को स्कूल और छोटे को डे-केयर छोड़ने जाने लगी।
अब कम्मो पंद्रह–सोलह वर्ष की हो चुकी थी। दोपहर में जब बच्चे स्कूल से लौटते, तो कम्मो उन्हें खाना खिलाती, “पापा जी” की देखभाल करती, और बच्चों के साथ खेलती भी थी। उसमें सीखने की उत्सुकता थी। वह बच्चो के साथ अंग्रेज़ी और कंप्यूटर भी सीखना चाहती थी।
गर्मियों की दोपहर में जब घर में ए सी की ठंडी हवा चलती, तो कम्मो बेहद प्रसन्न रहती — उसे यह घर और यह वातावरण बहुत अपना लगता था। कविता के परिवार में किसी ने कभी उस पर कोई रोक-टोक नहीं की; बच्चे भी उससे बहुत घुल-मिल गए थे। कविता की छोटी लड़की उसे अपना होमवर्क दिखाती, छोटे-छोटे प्रोजेक्ट — जैसे रसोई के सामानों से कुछ बनाना या पेड़ों का मॉडल तैयार करना और वह कम्मो के साथ मिलकर काम करती। कम्मो अब किशोरी हो चली थी। उसका मन अब सुंदर और मोहक दिखने का करता था। उसके कच्चे से मकान में नहाने की बड़ी कठिनाई थी। कभी-कभी वह कविता के दिए अतिरिक्त पैसे से अपने लिए एक छोटा-सा शैम्पू का सैशे या कोई अच्छा साबुन खरीद लाती। वह सुबह आंटी से संकोच-पूर्वक पूछ ही लेती, “आंटी, काम हो जाये तब क्या दोपहर में, मैं ऊपर वाले खाली बाथरूम में नहा सकती हूँ?”
कविता मुस्कराकर उसकी अनुमति दे देती। धीरे-धीरे कम्मो का इस घर से एक आत्मीय संबंध-सा बन गया था। वह बच्चों के साथ अंग्रेज़ी के कुछ शब्द सीखने लगी थी — “गुड मॉर्निंग”, “थैंक यू”, “ओके” जैसे छोटे-छोटे वाक्य अब उसकी ज़ुबान पर सहज ही आने लगे थे। घर से उसे कभी-कभी अच्छे कपड़े, स्वादिष्ट खाना, और नई-नई पकवान विधियाँ भी सीखने को मिल जातीं। कम्मो की भाषा और व्यवहार बहुत सुसंस्कृत हो गया था। इस घर के स्नेह और वातावरण ने उसके भीतर एक नया आत्मविश्वास भर दिया था। कह सकते हैं कि कम्मो की आँखें अब एक नए संसार की ओर खुल रही थीं — जहाँ मेहनत के साथ-साथ सीखने और आगे बढ़ने की प्रेरणा भी थी।
कभी-कभी कविता कम्मो से प्रेम भरे स्वर में कहा करती —“कम्मो, अपनी ज़िंदगी को अपनी माँ की तरह मत जीना। तुम भले ही ठीक से स्कूल न जा पाईं, लेकिन यह ज़रूर सुनिश्चित करना कि तुम्हारे बच्चे पढ़-लिख जाएँ। उन्हें इतनी शिक्षा दो कि उन्हें किसी के घरों में काम न करना पड़े, बल्कि वे अपना खुद का घर संभालें।” कम्मो बड़ी गंभीरता से सुनती और फिर हल्की मुस्कान के साथ आह भरते हुए कहती —“नहीं आंटी, मैं ऐसा ही करूँगी। मेरे बच्चे ज़रूर स्कूल जाएँगे, चाहे मुझे कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े। कम्मो की माँ मानवती बहुत निराश रहती थी कि कम्मो अपना समय कविता के साथ बहुत व्यर्थ करती है। पर माँ का मन कहीं खुश भी था कि उसकी पाँच बेटियों में से एक को तो सलीका आया। पर वो भी अक्सर सोचा करती, “ इन सबसे के होवेगो, बस एक दो साल में, ब्याह करे दूँ तो कविता भाभी की कुछ मदद हो जावेगी।“
यह कहना कठिन है कि कविता और कम्मो के बीच कैसा संबंध विकसित हुआ था। मनुष्य के रिश्ते अक्सर इतने जटिल होते हैं कि उनका विश्लेषण कर पाना आसान नहीं होता। कम्मो बहुत साधारण पृष्ठभूमि से आई थी, परंतु उसके भीतर सौंदर्य के प्रति एक सहज आकर्षण था। वह अक्सर कविता की साड़ियों, गहनों और सलीके की प्रशंसा करती। रोज़ सुबह वह कविता का ड्रेसिंग टेबल सजाती — हर वस्तु को बड़े ध्यान से उसकी जगह पररखती — और फिर मुस्कराकर कहती,
“आंटी, आपकी पसंद बहुत अच्छी है।”
एक दिन कविता ने देखा कि कम्मो ने अपने हाथों में कुछ चूड़ियाँ पहन रखी हैं।
कविता ने मुस्कराते हुए कहा, “अरे वाह, कितनी सुंदर चूड़ियाँ हैं तुम्हारी!”
कम्मो थोड़ी संकोच में आ गई और बोली,
“क्या आंटी, ये तो बस दस रुपये की हैं, बुधवार बाज़ार से ली थीं।”
कविता ने हँसते हुए कहा,
“मूल्य से नहीं कम्मो, चीज़ की सुंदरता उसके पहनने वाले से बढ़ती है। तुम पर ये बहुत अच्छी लग रही हैं।”
कविता के इन शब्दों से कम्मो का चेहरा खिल उठा।
उस पल के बाद से वह कविता के और भी अधिक निकट महसूस करने लगी — जैसे किसी ने उसकी आत्मसम्मान को स्नेह से सहला दिया हो।
उसी साल कुछ हालात बदले। पापा जी का निधन हो गया और कुछ ही महीने बाद कविता के पति ने विदेश जाने का निर्णय लिया।
धीरे-धीरे कविता ने घर समेटना शुरू किया। सूटकेस, बक्से और डिब्बे अब कमरे के कोनों में दिखाई देने लगे। घर के हर कोने में बीते वर्षों की यादें जैसे सिमट आई थीं।
कविता के माता-पिता, रिश्तेदार और मित्रगण सभी अत्यंत प्रसन्न थे कि उसके पति को विदेश में एक उत्कृष्ट अवसर प्राप्त हुआ है। सभी को यह सुनकर गर्व और खुशी महसूस हो रही थी कि अब उनका परिवार एक नई दिशा में आगे बढ़ रहा है।
धीरे-धीरे घर में रौनक बढ़ने लगी — कोई रिश्तेदार मिलने आ रहा था, कोई विदाई की तैयारी में मदद कर रहा था, कोई बच्चों के लिए छोटे-छोटे उपहार लेकर आता।
हर आगंतुक के मन में उत्साह था, पर कविता के मन में कहीं न कहीं एक हल्की-सी उदासी भी थी — यह घर, यह दिनचर्या, और इनसे जुड़े चेहरे अब पीछे छूटने वाले थे।
घर बंद करने के कुछ दिन पहले, कम्मो अंतिम सफ़ाई के लिए आई। जैसे ही सफ़ाई पूरी हुई, कविता ने अपनी विवाह-साड़ी अलमारी से निकालकर कम्मो को देते हुए कहा,
“कम्मो, जब तुम्हारी शादी होगी, क्या तुम यह साड़ी पहनना चाहोगी?”
कम्मो की आवाज़ अचानक उदास हो गई। वह कुछ कह भी नहीं पा रही थी। धीरे-धीरे उसने अपनी थोड़ी सी झिझक के साथ बैग से एक छोटा अख़बार में लिपटा हुआ पैकेट निकाला और कहा,
“आंटी, यह बिलकुल वही डिज़ाइन नहीं है, पर थोड़ा मिलता-जुलता है। मैंने ये चूड़ियाँ बुधवार बाज़ार से आपके लिए ही खरीदी हैं” बस चूड़ियाँ आगे कर दी। मालूम न था कि आंटी लेगी कि नहीं।
कविता की आँखों में चमक भर आई और अश्रु पीछे कोरो में छिपे थे। मुस्कराते हुए उसने कहा, “बिलकुल कम्मो, मुझे ये बहुत पसंद हैं। थैंक यू, तुम मेरे लिए ये लाई।”
इस छोटे से क्षण ने दोनों के बीच के गहरे भावनात्मक बंधन को और मजबूत कर दिया। साड़ी और चूड़ियों के आदान-प्रदान में छिपा प्यार और सम्मान, आँखों के पीछे छुपे अश्रुओं में गहरा रहा था।
मेलबर्न शहर में तीन साल बिताने के बाद, कविता पहली बार अपने घर लौटी। जैसे ही वह द्वारका पहुँची, उसने जीनी आंटी से पूछा कि क्या मानवती अभी भी वहीं काम कर रही हैं। फिर उसने उत्सुकता से पूछा,
“और कम्मो? क्या वह अभी भी वहाँ है? मुझे उससे मिलना है।”
कविता बेहद उत्साहित थी। उसके हाथ में चॉकलेट, लिपस्टिक, आइब्रो पेंसिल और आईलाइनर जैसी छोटी-छोटी चीज़ें कम्मो के लिए थीं। वह जीनीआंटी के घर गई और वहीं प्रतीक्षा करने लगी।
कुछ ही देर में कम्मो आई। उसके सिर पर वही लाल विवाह-साड़ी थी जो कविता ने उसे शादी के समय दी थी। कम्मो अब बिल्कुल दुल्हन जैसी खूबसूरत लग रही थी। कौन कह सकता था कि वह काम वाली बाई की बेटी थी!
कविता उठी, उसे गले लगाया और पूछा,
“कैसी हो तुम? सब ठीक है ना?”
कम्मो की आँखों में आँसू थे। उसने धीरे से कहा,
“आंटी, आप चली गई, कोई नहीं था जहाँ मैं जा सकूँ। अब शादी हो गई है और मेरी एक बेटी भी है। मैं क्या कर सकती थी?”
जीनी आंटी थोड़ी हैरान हुईं कि दोनों इतनी भावुक क्यों हैं। तभी कम्मो ने देखा कि कविता ने हाथों में उसकी दी हुई चूड़ियाँ पहनी हैं। उस क्षण में कम्मो ने सोचा — भगवान ने कितनी सुंदर दुनिया बनाई है, और इसमें कितने अच्छे लोग भी हैं।
वहीं, कविता के मन में भारी दुःख और क्रोध भी था। उसने सोचा — ईश्वर कैसे इतना निर्दयी हो सकता है? यह 18 वर्षीय लड़की, अपनी बच्ची का पालन करते हुए, पूरे दिन इतनी मेहनत करती है!
कविता ने कम्मो और उसकी बेटी को कुछ पैसे दिए और विदेश से लाई छोटी-छोटी चीज़ें भी उसके हाथों में थमाईं। उन्होंने साथ में चाय पी और बातें की। जब विदा लेने का समय आया, कम्मो ने दृढ़ता से कहा,
“आंटी, मैं आपको कभी नहीं भूलूंगी। और मेरी बेटी ज़रूर स्कूल जाएगी।”
दूसरी ओर मानवती बैठी सोच रही थी — काश मुझे भी ऐसे बीबीजी मिलती तो मेरी चारों लड़कियों की ज़िंदगी कुछ शायद और होती। मुझे किसी ने दुनियाँ न दिखायी।
पिछले साल जब कविता भारत गई थी तो पता चला कि जीनी आंटी अब नहीं रही। जीनी आंटी की लड़की ने कविता को बताया था कि कम्मो की दो लड़कियां है। कम्मो को अब नोएडा की एक सोसाइटी में सफाई का काम मिल गया है। कम्मो की एक लड़की कविता की तरह बैंक में काम करती है और दूसरी आई टी प्रोफेशनल है।
शाम को कविता के घर उत्सव था। कविता के कंगन उसके हाथों को ही नहीं बल्कि उसके मन और तन दोनों को एक अद्भुत आभा दे रहे थे। जैसे हर साल उनकी स्वर्णिम दीप्ति बढ़ती ही जाती थी। उधर इस त्योहार के मौके पर कम्मो ने भी बड़े ही शौंक से कविता की दी हुई साड़ी को निकाला। दोनों के मन एक अनोखे आनंद से भरे थे।
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अनीता गोयल, दिल्ली विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में 12 साल इतिहास पढ़ाने के बाद, मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) जा कर बस गई। वहाँ उन्होंने विक्टोरियन स्कूल ऑफ़ लैंगुएजिज़ के प्रोग्राम के अंतर्गत कई बरस माध्यमिक स्तर पर हिंदी पढ़ाने का कार्य किया। अपने आस-पास के परिवेश के प्रति सजग उनकी रचनाएं सामाजिक संवेदना से सरोबर होती हैं।