बरमबाबा की व्यथा कथा
सत्येन्द्र प्रकाश की कहानियों और आलेखों में मानव मन की अतल गहराइयों को छू लेने की उनकी क्षमता से हम भली-भांति परिचित हैं। पिछले दिनों प्रकाशित हुई उनकी कहानियाँ ‘रामो गति देऊ सुमति’ और ‘मौनी अमावस्या का गंगा स्नान’ खूब पढ़ी और सराहीं गईं। इस बार की उनकी कहानी गाँव की देहरी पर बने पीपल और बट (बरगद) के संयुक्त हो चुके वृक्ष की मार्मिक व्यथा सुनाती है जिसमें आधुनिकता से जन्मे विरोधाभासों की झलक मिलती है। लीजिए प्रस्तुत है इस वृक्ष (या वृक्षों) की व्यथा कथा!
बरमबाबा की व्यथा कथा
सत्येन्द्र प्रकाश
बरम बाबा से मुलाकात होती रही है। साल में एक दो बार गाँव का चक्कर लग जाता है। गाँव जाना हो और बरम बाबा से भेंट ना हो यह तो हो ही नहीं सकता। हमारे घर के बिल्कुल पास ही हैं वो। चाहें तो भी उनसे नज़रें चुरा कर नहीं निकल सकते। कहीं भी आते जाते उनकी तरफ हो कर ही निकलना होता है।
फिर उस ओर ध्यान क्यों नहीं गया! या देख कर भी कुछ अटपटा नहीं लगा जिस पर ध्यान जा सके। पर अटपटा कैसे नहीं लगेगा, पहले और अब में अंतर स्पष्ट है। तो क्या अब उनकी अहमियत इतनी कम हो गई है जो इस स्पष्ट अंतर के बाद भी वह ध्यान देने योग्य नहीं रहा। हाँ कोविड काल में गाँव जाने के क्रम में थोड़ा व्यतिक्रम जरूर आया। और उनसे मिलने-जुलने में खलल भी पड़ा। लेकिन उनकी यह हालत कोविड के दो ढाई वर्षों के दौरान में ही हो गई है, ऐसा तो नहीं लगता।
उनको सभी से सदैव आदर और सम्मान मिलता रहा है। बरम बाबा को याद किए बगैर किसी भी शुभ काम की शुरुआत की कोई सोच भी नहीं सकता। उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए किसी तामझाम की आवश्यकता नहीं होती। अपनी शक्ति और सामर्थ्य के मुताबिक आप जो कर दें वे उसी में खुश हो जाते।
गाँव का सबसे अधिक आत्ममुग्ध प्राणी भी उनकी आत्मीयता से मुग्ध हो जाता। उनकी सम्मोहन क्षमता इतनी सशक्त रही है कि बचपन से ही एक गहरा नाता उनसे जुड़ जाता। सालों-साल बाहर रहकर भी कोई उनसे विरक्त नहीं हो पाता। गाँव वापस पहुँचते ही पहले उपलब्ध अवसर पर उन्हें नमन करने पहुँच जाता। ज़रूरत और हैसियत के अनुसार बतासा ही सही, उन्हें समर्पित करता। देशी घी के लड्डू उन्हें अतिरिक्त खुशी नहीं देते। बचपन से उनकी गोद में खेल कूद कर ही गाँव वाले बड़े होते। उन्होंने जिसे प्यार दिया हो वे उन्हें बस याद कर ले, इसी में उनकी खुशी है।
बचपन और बरम बाबा का नाता अनोखा था। जब तब वे उन दिनों को याद करतें हैं। बचपन चहकता था और उनका रोम-रोम खिल उठता था। उनके नजदीक बच्चों को उधम मचाने की स्वच्छंदता थी। गुल्ली डंडा हो या कंचे, उनके पास खेलने में कोई रोक टोक नहीं होता। छुपम-छुपाई और ओला-पाती में तो वे इतने रम जाते मानो वे स्वयं बच्चों के साथ खेलने लगे हों। पिट्ठू उनकी नज़रों के सामने बच्चे खेलते ताकि किसी की खेल में बेईमानी की हिम्मत ना हो। बच्चों का और उनका ताना-बाना देख कर लगता कि यह कई जन्मों से है।
उनके इर्द-गिर्द बच्चे भी मँडराते रहते। सिर्फ खेल और उछल-कूद के वास्ते नहीं। बरम बाबा के पास बच्चे के लिए कुछ ना कुछ अवश्य रहता। सर्दियों में गन्ने बैलगाड़ियों में लादकर किसान चीनी मिल ले जाते। अपनी राह में वे बरम बाबा को नहीं भूलते। बैलगाड़ी में बैठे-बैठे एक-दो गन्ने बरम बाबा की ओर उछाल जाते। पर बरम बाबा को उनका क्या करना था। वे तो किसानों की श्रद्धा का आत्मिक रस पान कर संतुष्ट हो जाते। समीप जो भी पहला बच्चा होता गन्ना उसी का हो जाता। किसी खास बच्चे से कोई अतिरिक्त प्रेम उन्हें नहीं होता। बच्चे को गन्ना चाभते देख वे पुष्ट हो जाते। उनकी बाँछे खिल जाती।
घंटों के श्रम के बाद पसीने में लथपथ किसान पास बैठ दो ठंडी साँस भर लेता तो उनका हियरा जुड़ा जाता था। गाँव वालों का सुख दुख उनका अपना ही होता। हो भी क्यों नहीं! बच्चे के जन्म से लेकर शादी विवाह की पहली मिठाई बरम बाबा के निमित्त होती। कटनी के बाद फसलों को बाँध खलिहान में उन्हीं की निगरानी में किसान दिनों-दिन छोड़ देते, जब तक उनका डाँठ पूरी तरह सूख ना जाए। कई-कई दिन बरम बाबा की सुरक्षा में ही फसल पड़ी रहती। उनकी दवनी ओसऊनी के बाद अन्न का रास(ढेर) लगता। गेहूँ हो या धान, एक साथ कई किसानों के अन्न का रास देख बरम बाबा फूले नहीं समाते। उस साल के उपज की तौल हो, उससे पहले किसान प्रथम अंजली बरम बाबा को ही समर्पित करता। उनकी कृपा है तभी तो उपज अच्छी हुई है।
गन्नों की तरह इन अंजलियों को भी वे बच्चों को पकड़ा देते जिनके बदले बच्चे चने मुरमुरे, गुड़ धनिया, मसल पट्टी, घूघनी, शकरकंदी, मलाई बरफ या और कुछ जो फेरी वाले लाते, उनसे ले लेते। बरम बाबा का यह स्नेह न्यौछावर रबी और खरीफ दोनों सीज़नों में होता रहता। सीज़न दर सीज़न बच्चे उन्हीं के समीप डेरा जमाए रहते। उनके साथ सत्यनारायण कथा सुनना गाँव वालों के खुशी के अवसर का अभिन्न हिस्सा है। प्रसाद की उम्मीद में ही सही इन कथाओं के समर्पित श्रोता ये बच्चे ही होते।
गाँव के सिर्फ खुशियों के क्षण बरम बाबा के सानिध्य में गुज़रें, ऐसा नहीं होता। कष्ट और दुख के समय भी इनका मौन सानिध्य लोगों का संबल बन जाता। इस मौन सानिध्य में जैसे कोई अज्ञात प्रेरणा मिल जाती और अलग ऊर्जा और आत्मबल के साथ वह यथेष्ट के लिए पुनः प्रयास करने लग पड़ता और कष्ट निवारण का रास्ता सुगम होने लगता। इसी लोक धारणा और विश्वास के साथ गाँव बरम बाबा की छत्रछाया में आगे बढ़ रहा था। देश काल की तमाम सीमाओं के बावजूद बरम बाबा का रतनपुरा आस पास के अन्य गाँवों की तुलना में ज्यादे पुष्पित पल्लवित होता रहा। शिक्षा का आशीर्वाद रतनपुरा को मिलता रहा और बरम बाबा की गोद में खेले कूदे बच्चे देश और विदेश में कई शीर्ष पदों पर आसीन होते रहे।
दक्षिण दिशा से गाँव में प्रवेश के साथ ही उनका स्थान है। जुड़वे बट पीपल को बरम बाबा ने अपना निवास बनाया है। बट पीपल का यह समागम भी अद्भुत है। सह अस्तित्व में सम विकास का यह उदाहरण अनुपम है। दोनों ने अपनी शाखाएँ आपसी विमर्श और सम्मति से फैलायीं है। बरगद ने स्वभावानुसार अपना विस्तार किया पीपल को कभी कोई आपत्ति नहीं हुई। जमीनी राह ले बरगद ने अपनी तना मूल स्थान से छिटक कर कई दिशा में कर लिया। ब्रह्म को पीपल वहन करता है, पर गाँव का बरम बाबा बरगद बन गया। पीपल ने इसे कभी भी अन्यथा नहीं लिया। हाँ पीपल ने भी अपनी मोटी टहनियों का विस्तार पोखरा की दिशा में कर नहाने वाले बच्चों के पोखरा छलाँग लगाने की व्यवस्था बना दी। बरगद ने भी मुस्कुरा कर इसे स्वीकार लिया।
दोनों को संतुष्टि थी, दोनों का साथ उनकी शक्ति है ताकत है। बरगद की भूमिगत जड़ें अपना विस्तार कर पास ही कई छोटे और अलग प्रतीत होने वाले स्वतंत्र बरगद के रूप में उभर आए। या फिर बरम बाबा ने अपनी चौड़ी और बलिष्ट भुजायें फैला कर एक साथ कई बच्चों को अपने आगोश में समेटने की व्यवस्था बना ली। प्रतीत होता, भिन्न रूपों में पनपे इन उप बटों ने मानो बच्चों की क्रीड़ा का स्मरण कर अपना रूप धरा है। इन शाखाओं पर बच्चों के संग गिलहरियाँ फुदकती, चिड़ियाँ चहकतीं। यही कुत्तों से आक्रांत बिल्लियों की शरणगाह बन जाते। ऊदबिलाव और उल्लू के कोटरों को जगह भी तो इन्हीं की मोटे तनों में मिलती। गौरैया की चहचहाहट, कोयल की कू कू, तोतों की मीठी आवाज बरम बाबा को पुष्ट करते। यदा-कदा पास की झाड़ों से सरपट भागते नेवले इन पर छलाँग लगा साँपों को शिकस्त देने के अपने स्फूर्त सामर्थ्य का प्रमाण देते।
बरम बाबा बरबस उन दिनों को याद करते रहते। बड़ी बड़ी अमराइयों और महुअइयों से सरसराती हवा बरम बाबा के आलिंगन को बेताब रहतीं। आमों के मोजरों की भीनी मीठी खुशबू से सरोबार बासन्ती पवन जब पूरे साल की प्रतीक्षा के बाद नाकों का स्पर्श करते तो मानों उनमें नव जीवन का संचार हो जाता और युगों तक जीने की चाह उमड़ आती। मॉनसून में महुआ की मीठी मादकता के छींटे बरसात की अलसाई दिनों में भी नई ऊर्जा भर देते।
पर उस दिन जब उनकी ओर ध्यान गया तो उनकी दशा देख आँखें नम हुए बिना नहीं रह पाईं। दिल भर आया। खिंचा सा उनके करीब चलता गया। लगा वे कुछ कहना चाहते हैं। तो मैं गाँव का पहला व्यक्ति था जिसे उन्होंने अपनी बात बतानी चाही हो! या उनकी कातर दृष्टि हर ग्रामवासी को ताकती रही है। कोई तो ठहर कर मेरी सुन ले। पर काश यह हुआ होता। सब अपनी धुन में मगन अपनी तरक्की की राह चलते रहे। उनका आशीर्वाद लेना अब भी गाँव वालों को याद रहता। पर उनकी सुनने की किसी को क्या पड़ी थी।
उस दिन उनके समीप जाते ही मानो मुझे संजय की दिव्य दृष्टि की तरह दिव्य श्रवण शक्ति मिल गई हो। बरम बाबा की व्यथा कथा के एक एक शब्द कानों को बिल्कुल स्पष्ट थे। गाँव और गाँव के लोगों की खुशहाली उन्हें भी खुशी देती। पक्की सड़कों ने कच्ची टूटी फूटी सड़कों की जगह ले ली है। गरीबों की झोपड़ियाँ अब पक्के घरों में तब्दील होने लगी हैं। बमुश्किल जहाँ गाँव के किसी एक घर को लालटेन की रोशनी नसीब होती वहाँ घर घर बिजली से जगमगा रहा है। घरों से सुबह शाम का उठता धुआँ अब नदारद है। गाँव के स्कूल की झोपड़ी की जगह अब पक्का भवन है। इन सब से बरम बाबा को भी उतनी ही प्रसन्नता है जितनी किसी और व्यक्ति को है।
पर कालांतर में आए बदलाव से गन्नों से लदी बैलगाड़ियाँ और ट्रैक्टर अब नहीं दिखते। शुगर मिलों की बदइंतजामी से जब किसानों के भुगतान की समस्या बढ़ती गई किसानों ने गन्ने की खेती इन इलाकों में बंद कर दी। शुगर मिल बंद होते चले गए और रतनपुरा और आस पास के इलाकों के खेतों से गन्ना गायब हो गए। गाड़ीवान द्वारा बरम बाबा के लिए उछले गन्ने को लपकते बच्चे भी अब नदारद हो गए हैं। फसलों की कटाई और दवनी की नई तकनीक आ गई तो खेतों से अन्न सीधे घरों को पहुँचने लगे। बरम बाबा के आँखों को सुकून देती खलिहान में एकत्र धान गेहूँ के बोझे बीते दिनों की याद सी बन गई हैं।
अमराइयाँ-महुअइयाँ कट कर धान और गेहूँ के खेतों में तब्दील हो गईं। मॉनसून में बारिश को रोते किसानों को इल्म ही नहीं कि छोटे आमों के और जामुन महुआ के विशाल वृक्षों के घने बगीचों को बादलों को नम कर बारिश में बदलने का जादू आता था। आम्र मँजरों की भीनी मीठी सुगंध और मॉनसून की महुआ की मादकता भरा फुहार नहीं रहा तो जैसे बरम बाबा को अपनी छाँव में भी तपिश का आभास होने लग पड़ा है। उनकी लंबी चौड़ी भुजायें सूख सिमट गई। पीपल से अहर्निश उत्सर्जित ऑक्सीजन के बावजूद उनका दम घुटता रहता है। मैं हतप्रभ हो उनकी इस व्यथा कथा को सुनता रहा। गाँव के संरक्षक बरम बाबा कितने निरीह और असहाय दिख रहे थे। और उनके साथ मैं स्वयं!
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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।