मौनी अमावस्या का गंगा स्नान

सत्येन्द्र प्रकाश | साहित्य | Jan 26, 2025 | 784

29 जनवरी को मौनी अमावस्या है। सत्येन्द्र प्रकाश ने पिछले दिनों शास्त्री जी की पुण्यतिथि पर और उसके बाद मकर संक्रांति पर अपने बचपन की यादों को बहुत ही कोमलता से सहेजते हुए हमारे पाठकों तक पहुंचाया। उसी क्रम में उन्होंने  इस आलेख में मौनी अमावस्या पर अपनी माँ के साथ किए एक गंगा स्नान का सजीव चित्रण किया है। 

मौनी अमावस्या का गंगा स्नान

सत्येन्द्र प्रकाश 

माई  (माँ) को गंगा स्नान की बड़ी ललक रहती थी। यह अवसर किसी भी दिन मिल जाए उसे वे हाथ से निकलने नहीं देती। जीवन के आरंभिक दिनों में उन्हें यह सौभाग्य शायद ही मिल पाता। गंगा ना तो उनके मायके के बहुत नज़दीक रहीं हैं और ना ही ससुराल के! यूं तो गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों में नहाने का भी महात्म्य है। कर्मनाशा नदी को छोड़ कर। कर्मनाशा नदी बिहार के कैमूर और बक्सर तथा उत्तर प्रदेश के चंदौली और सोनभद्र जिले से होकर बहती है।  ऐसी लोकमान्यता है कि एक श्राप की वज़ह से कर्मनाशा में स्नान से सभी सत्कर्म और पुण्य का नाश हो जाता है।

माई का नदी स्नान विशेष कर गंगा स्नान की ललक कोई असामान्य बात नहीं थी। शादी के पूर्व और वैवाहिक जीवन के शुरू में नारायणी (गंडक) में स्नान हो जाए यही बहुत बड़ी बात थी। मायके और ससुराल दोनों के समीप होते हुए भी यातायात की पर्याप्त सुविधा ना होने के कारण नारायणी स्नान भी दुष्कर था।

वैसे तो किसी भी दिन गंगा स्नान श्रेयस्कर है किन्तु तिथि विशेष को सामूहिक नदी स्नान के आध्यात्मिक महत्व को बार बार दुहराया गया है। मौनी अमावस्या ऐसी ही शुभ तिथियों में से एक है।  इन विनिर्दिष्ट तिथियों में से किसी तिथि विशेष को गंगा स्नान का सुयोग बन जाए तो क्या कहना। उन दिनों के सीमित साधन-संसाधन इस सुयोग को आसानी से बनने नहीं देते थे। ईश्वर और धर्म कर्म में अटूट आस्था के बावजूद बाबूजी को नदी स्नान में कोई खास रुचि उन दिनों दिखती नहीं थी। समय का अभाव या भीड़-भाड़ से दूर रहने का स्वभाव - कारण चाहे जो भी रहा हो, बाबूजी माई की ऐसी इच्छाओं को अक्सर नजरअंदाज कर जाते। हर बार कार्यालय से अवकाश नहीं मिल पाने की दुहाई दे कर।

बाबूजी की व्यस्तता और भीड़ से उनकी असहजता दोनों माई समझती थी। तभी तो उसने अपनी धार्मिक आध्यात्मिक आकांक्षाओं को लगाम लगा रखी थी। हाजीपुर के कार्यकाल में जब मनभरन ने गंगा स्नान और सोनपुर मेला देखने की अपनी इच्छा बाबूजी से जताई तो वे उन्हें मना नहीं कर पाए। कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होने वाले मेले के कारण माई के पहले गंगा स्नान का सुयोग इसी शुभ दिन को मिला। हाजीपुर सोनपुर के समीप पहलेजा घाट में माँ गंगा उपलब्ध थी।

इस स्नान के वर्षों बाद तक माई की गंगा स्नान की इच्छा शांत सी रही। दर असल इसके बाद कई वर्षों तक माई का रहना गाँव में ही रहा। मेरी कक्षा सात तक की पढ़ाई भी गाँव रह कर ही हो रही थी। इस दौरान यदा कदा कार्तिक पूर्णिमा या मकर संक्रांति को परिवार की अन्य महिलाओं के साथ माई को भी नारायणी स्नान का अवसर मिल जाता था।

गाँव के नजदीक उच्च विद्यालय ना होने की वजह से सातवीं के बाद मेरे पढ़ाई की समस्या थी। जो भी स्कूल उस इलाके में थे उनकी दूरी मेरे गाँव से पैदल क्या मेरे साइकिल से भी जाने के लिए अनुपयुक्त थी। वैसे कई बच्चे साइकिल से जाकर इन स्कूलों में पढ़ाई करते थे। उनकी शारीरिक क्षमता और डीलडौल इसके अनुकूल था पर मेरे लिए तो नियमित साइकिल से इन स्कूलों में जाकर पढ़ाई कर पाना मुश्किल था। फिर इन स्कूलों के पढ़ाई के स्तर को लेकर भी विवाद था। बाबूजी इसी बीच स्थानांतरित होकर छपरा आ गए थे तो तय हुआ मैं उनके साथ रह कर ज़िला स्कूल से आगे की पढ़ाई करूँ।

एक डेढ़ साल मैं बाबूजी के साथ अकेले रह पढ़ाई करता रहा। बाद में माई भी आ गई। माई के स्वास्थ्य को चिकित्सीय निगरानी की जरूरत थी।  परिवार के साथ रहने से मेरी पढ़ाई भी बेहतर ढंग सो हो पाएगी, कुछ ऐसी ही सोच के साथ बाबूजी ने माई को भी छपरा बुला लिया। हम साथ रहने लगे। मेरी पढ़ाई भी चल रही थी और माई का उपचार भी सुचारु रूप से चल रहा था। वे जल्द ही स्वस्थ हो अपनी नियमित दिनचर्या में वापस लौट आईं।

स्वास्थ्य में सुधार और दो बड़ी बेटियों के विवाह के पश्चात माई कुछ निश्चिंत रहने लगी थी। अब पूजा पाठ और धरम-करम के लिए समय और संसाधनों के व्यय का साहस दोनों उनमें दिखने लगा था। हाई स्कूल में पढ़ाई और दो तीन साल छोटे-मोटे शहर में रहने के बाद माई मुझे होशियार समझने लगी थी। साहस कहें या दुस्साहस, उनमें अब मेरे साथ आस पास के मंदिरों और पवित्र स्नान-तीर्थों तक जाने की माई में हिम्मत आ गई थी। गंगा स्नान की माई की उत्कट इच्छा और बलवती हो चली थी। फिर क्या था, माई ने बाबूजी से कह डाला, अगर आपको छुट्टी नहीं मिल पाए तो मैं इस मौनी अमावस्या बाबू के साथ डोरीगंज गंगा स्नान के लिए चली जाऊँगी।

डोरीगंज, बिहार के छपरा से तकरीबन तीस किलोमीटर पूर्व में है। यहाँ पवित्र सरयू और माँ गंगा का संगम है। छपरा रहते यह अवसर माई गँवाना नहीं चाहती थी। मौनी अमावस्या को दो पवित्र नदियों के संगम में स्नान का अवसर। बाबूजी माई के मन को भाँप गए। समझ लिया कि इस बार का आग्रह सामान्य आग्रह नहीं है। उनके छुट्टी ना मिलने की स्थिति का विकल्प भी सोच रखा है। वे एकदम से मना नहीं कर पाए। उन्होंने ने हामी भर दी। ठीक है मुझे छुट्टी नहीं मिली तो बेटे को लेकर चली जाना।

नवीं अच्छे अंकों से पास कर उस वर्ष मैँ दसवीं में आ गया था। हाई स्कूल पास कर अगले वर्ष मुझे कॉलेज के लिए बाहर जाना था। सो बाबूजी ने सोचा इसी बहाने मेरे दिमाग में दायित्व बोध की नींव पड़ेगी। आश्रित नहीं, अभिभावक की जवाबदेही के साथ यात्रा करने का अनुभव। छुट्टी का प्रयास करेंगे यद्यपि उन्होंने माई को कह तो दिया था, मन ही मन वे निर्णय ले चुके थे। परिवार से दूर छात्रावास में रह मेरे आगे की पढ़ाई करने और अकेले यात्रा करने के प्रशिक्षण के सूत्र पात का इससे अच्छा अवसर बाबूजी को नहीं मिलना था।

दो चार दिन ही बीते थे कि बाबूजी ने बता दिया वे छुट्टी नहीं ले पाएंगे। शायद थोड़ा समय उन्होंने इसलिए लिया ताकि ऐसा लगे कि छुट्टी की कोशिश की थी उन्होनें। पर मेरे साथ भेजने का निर्णय तो उसी दिन हो गया था जिस दिन माई ने प्रस्ताव रखा था। माई को मेरी काबलियत पर भरोसा था। हर माँ को अपने बेटे पर होता है। और मेरी गिनती तो सुशील और समझदार बच्चों में होती थी। तो भला उन्हें मुझ पर भरोसा क्यों न हो। माई खुश हो गईं। मैं भी उत्साहित था।

धर्म भीरु होते हुए भी मैं गंगा स्नान से अधिक दायित्वबोध से प्रफुल्लित था। अगले ही दिन स्कूल की छुट्टी के बाद सीधा बस स्टेशन जा पहुँचा। समय पर स्नान के लिए उस दिन घर से सुबह जल्दी निकलना होगा। डोरीगंज पहुँचने में कितना समय लगेगा, पहली बस सुबह कितने बजे निकलती है, बस भाड़ा कितना है, पूर्ण विवरण लेकर मैं घर आया। घर पहुँचते ही एक ही साँस में सम्पूर्ण विवरण माई को दे डाला, एक क्षण भी गँवाए बिना। इस यात्रा की तैयारी इतनी गंभीरता से मैं करूँगा, माई ने भी सोचा नहीं होगा। बाबूजी के ऑफिस से आते ही माई ने मेरी सूझ-बूझ को अतिरंजित कर बताना शुरू कर दिया। मुझे अपने साथ ले जाने का उनका प्रस्ताव गलत नहीं  था, उन्हें यह भी तो जताना था।बाबूजी भी सुनकर आश्वस्त हुए।

मौनी अमावस्या यानि माघ अमावस्या के समय ठंड चरम पर होती है। अतः माई ने धुले शॉल-स्वेटर भी अन्य कपड़ों के अतिरिक्त बैग में रख लि। उस दिन माँ गंगा में डुबकी लगाने का मनोरथ मन लिए हम तड़के घर से निकल पड़े। छपरा में हमारे डेरा (अस्थायी निवास) के पास ही एक रिक्शा वाले को सुबह बस स्टेशन छोड़ने के लिए कह दिया था। रिक्शा वाले ने निर्धारित समय पर रिक्शा ला दरवाजे पर खड़ा कर दिया और आवाज दे हमें आगाह कर दिया। हम भी तैयार थे। बिना समय बर्बाद किए हम बाहर आ गए। रिक्शा वाले ने शीघ्र ही हमें बस स्टेशन छोड़ दिया।

तीस किलोमीटर की बस यात्रा दो घंटे में पूरी हुई। उन दिनों राज्य मार्गों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। और सर्दी के मौसम में कोहरा ना मिले, ये कैसे हो सकता था। फिर दो घंटे में पहुँच गए, यह भी ईश्वर की कृपा ही थी। इन सब के बावजूद पौ फटने के साथ-साथ हम डोरीगंज पहुँच गए। मौनी अमावस्या के गंगा स्नान का महत्व माई को अकेले ही पता हो, ऐसा तो था नहीं। डोरीगंज नदी के तीर पर पहुँचने के लिए स्नानार्थियों को ताँता लगा हुआ था। यह क्रम बस अड्डे  से घाट तक कहीं टूटता नहीं दिखा। घाट पहुँच कर पता लगा कि वह सरयू नदी का तट है। नाव लिए मल्लाह आवाज दे रहे थे, ‘गंगा घाट-गंगा घाट’। नाव वालों ने बताया सरयू के दूसरे तरफ पहुँच कर दो ढाई कोस (चार पाँच मील) पैदल चल गंगा घाट पहुँच जाएंगे। सरयू का पाट वहाँ काफी सँकरा था। नाव से पार करने में कुछ खास समय नहीं लगना था। तभी एक नाव वाले ने आवाज दी अगर त्रिवेणी में नहाना हो तो इधर आयें। हमारी दुविधा को दूर करते हुए उसने बताया नाव से हम सरयू, सोन और गंगा की त्रिवेणी तक पहुँच सकते हैं।

मौनी अमावस्या को नदियों की त्रिवेणी में स्नान का सौभाग्य! माई ने तो गंगा स्नान की ही कामना की थी। पर यहाँ तो भगवान त्रिवेणी स्नान का अवसर उपलब्ध करा रहे थे। माई को अपने भाग्य पर विश्वास नहीं हो रहा था। पर मौसम कुछ ठीक नहीं लग रहा था। कोहरा छँट तो रहा था पर अपनी जगह काली घटाओं को देता हुआ। ऐसा लग रहा था कि किसी भी क्षण बारिश होने लगेगी। माई ने मेरी ओर देखा, जैसे जानना चाह रही थी, क्या किया जाए। मेरा किशोर मन  युवावस्था की दहलीज़ पर था। मुझे कहीं डरपोक ना समझ बैठे, शायद ऐसा सोच कर मैंने माई से कहा त्रिवेणी स्नान का मौका तो दैवीय सुयोग है। यह बार बार नहीं मिलता। चलते हैं  त्रिवेणी में डुबकी लगाने। सब शुभ होगा।

नाव वाले को दूर से ही इशारे से हमने बताया कि हम चलेंगे त्रिवेणी। और फिर सम्हल-सम्हल कर हम उसकी नाव में जा बैठे। उस नाव में पाँच छः लोग पहले से बैठे थे। हमारे साथ दो और आ बैठे। साथ चलने वालों को देख मेरा आशंकित मन थोड़ा निडर हुआ। नाव नदी के धारा के साथ चल पड़ी। बहाव के साथ नाव को अतिरिक्त गति मिल रही थी। आधे घंटे में ही हम गंतव्य पर थे। नीचे तीन नदियों का समागम, जल को अनंत विस्तार देता हुआ, ऊपर काली घटा से आच्छादित असीम आकाश। अद्भुत छटा थी ये! आँखों से कभी विस्मृत ना होने वाली।

नाविक ने जिस तट पर उतारा था वहाँ रेतीले त्रिभुज की नोक के साथ सरयू और गंगा दोनों का मिलन हो रहा था। दो जल-धाराओं का संगम हमारे नाक के नीचे था। सामने दृष्टि के दायरे में तीसरी धारा समाहित हो रही थी। आँखों को विश्वास नहीं हो रहा था। प्रकृति अपने मूल स्वरूप में कितनी मनोरम दिख रही थी! चार-पाँच दशक पूर्व की ही तो बात है। तीनों नदियों का जल अपनी स्वच्छता और निर्मलता को उस समय तक तो सँजोये हुए था। आज नदियों की दशा देख विश्वास नहीं होगा कि हमारी नदियाँ भी कभी इतनी स्वच्छ थीं।

प्रकृति के उस निर्मल अक्षुण्ण सौन्दर्य को देख जैसे मन चेतनाशून्य हो गया और आँखे स्तब्ध! एक पल को तो आने के प्रयोजन का ध्यान ही नहीं रहा। तभी नाविक ने शीघ्रता करने को कहा। हमें भी मौसम का ख्याल हो आया।

त्रिवेणी में डुबकी लगा अपने मनोरथ को हमने पूर्णता प्रदान की। मैं देख सकता था कि माई कितनी भाव-विभोर थीं। तभी तो मौनी अमावस्या पर  मौन रखने के व्रत में छूट लेते हुए माई ने काफी मुखर हो कर नाविक का आभार प्रकट किया। आखिर इस अविस्मरणीय स्नान का कारक वो नाविक ही तो था।  

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।

 



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