सॉफ्टी : सत्येन्द्र प्रकाश की नई कहानी
सत्येन्द्र प्रकाश की कहानियां बहुत बार उदास भी कर देती हैं. क्या विडम्बना है ना कि किसी साहित्यिक कृति की उदास करने की क्षमता भी उसका बल होती है. सत्येन्द्र प्रकाश की यह कहानी एक हमउम्र मित्र और चचेरे भाई के संबंधों को टटोलते हुए जाने कितने ही मानवीय रिश्तों की गहराइयों को बिलकुल नए ढंग से परखती है. शायद निर्मल वर्मा ने ही कुछ इस आशय की बात कही थी कि जब आप कई दुखों के लिए एक साथ रो रहे होते हो तो पता नहीं चलता कि कौनसा आंसू कौनसे दुःख का है. इस कहानी को पढने के बाद हमें सबसे पहले इसी कथन की याद आई.
सॉफ्टी
सत्येन्द्र प्रकाश
सॉफ्टी वहाँ अब भी मिलती है, जहाँ हमने पहली बार खाई थी। पर अब वह वाली नहीं मिल सकती जो हमने खाई थी। मैं फ्लेवर की बात नहीं कर रहा कि जो हमने खाई थी, अब नहीं मिलती। तब फ्लेवर इतने थे भी नहीं। वनीला और स्ट्रॉबेरी - बस यही दो फ्लेवर होते थे। या कभी चॉकलेट फ्लेवर की भी मिल जाती, पर प्रचलित वनीला और स्ट्रॉबेरी ही थीं। उसे स्ट्रॉबेरी पसंद थी, उसने अपने लिए वही ऑर्डर की। मेरी तो कोई पसंद थी ही नहीं, क्योंकि मेरे लिए ये दोनों शब्द तब अजनबी से थे। उसने मुझसे पूछा जरूर था, पर मेरी सीमाएँ उसे जल्दी ही समझ आ गई थीं। तभी उसने कहा, चलो एक स्ट्रॉबेरी लेते हैं और दूसरी वनीला। शेयर कर दोनों का मज़ा ले लेंगे।
इन दोनों स्वादों में सॉफ्टी आज भी मिलती है और वहीं मिलती है, जहाँ मैंने उसके साथ पहली बार खाई थी। तो हमने उस दिन ऐसी कैसी सोफ्टी खा ली जो अब नहीं मिलती!
वनीला और स्ट्रॉबेरी की ही तरह सॉफ्टी भी मेरे लिए उतनी ही अनजान थी। हमारे लिए उस समय सॉफ्टी और आइसक्रीम में कोई फ़र्क नहीं था। ‘हमारे लिए’ कहना, पता नहीं सही भी है या नहीं। शायद उसे पता रहा होगा। उसे ऐसी बहुत सी बातें पता होती थीं। उसका ‘वर्ल्ड व्यू’ काफी ‘ब्रॉड’ था। अच्छा एक्सपोज़र था उसे, और साथ ही जानने की रुचि भी। पर उसे यह बात उस समय पता थी या नहीं, अब यह पता करना संभव नहीं है।
पहली बार यानी उस दिन जब उसके साथ सॉफ्टी खाई, मुझे यही लगा कि जो आइसक्रीम ‘कोन’ में मिलती है, उसे सॉफ्टी कहते हैं। और कप वाली और डंडी वाली आइसक्रीम होती है। डंडी वाली आइसक्रीम का सबसे प्रिय फ्लेवर ऑरेंज हुआ करता था, जो मैंने कई दफ़ा खाई थी। यह काफी सस्ती मिल जाती थी। दरअसल डंडी वाली ऑरेंज फ्लेवर में कई लोकल और चालू ब्रांड उपलब्ध थे। इसलिए ऑरेंज कैन्डी सस्ती भी मिल जाती थी। इसी वजह से संभवतः कैन्डी खाने का साहस मैं कभी जुटा पाता था। अन्यथा आइसक्रीम तब एक लग्ज़री होती थी। खास कर स्टूडेंट्स के लिए, जिन्हें एक बँधी-बँधाई राशि हर महीने घर से आ जाती, पूरे महीने के लिए। उसमें भोजन की विलासिता सामिष खाने की तरफ ही खींचती, ना कि आइसक्रीम या अन्य मीठे की ओर।
उस समय किसी को ‘कोन’ कह कर आइसक्रीम माँगते सुना हो, ऐसा ध्यान नहीं आता। फिर मन ने अपने सहज तर्क से यह व्याख्या कर ली कि ‘कोन’ की ऊपरी कठोरता तो धोखा है। इसकी कठोरता इसलिए होती है ताकि आइसक्रीम से संपर्क होते यह गल ना जाए और आइसक्रीम का सत्यानाश ना हो जाए। अन्यथा यह कुरकुरा आवरण खाते समय आसानी से, बिना अतिरिक्त बल प्रयोग के मुँह में टूटकर बिखरने लग जाता है, अपने कुरकुरेपन के साथ। और आइसक्रीम की मुलायमियत के संसर्ग से फिर वैसे ही मुलायम, बिल्कुल सॉफ्ट हो जाता है। बाहरी कठोरता के बावजूद इस स्वभावगत ‘सॉफ्टनेस’ की वजह से ही शायद इसे सॉफ्टी कहा जाता होगा, ऐसा ही मैं सोचता रहा हूँ लंबे अरसे तक।
सॉफ्टी की बात इतनी लंबी हो गई। पर सॉफ्टी और आइसक्रीम का भेद जो शायद जानता रहा होगा, और जिसके साथ मैंने पहली बार सॉफ्टी खाई थी, उसका अभी तक नाम ही नहीं आया। वह प्रदीप था। मेरा चचेरा-मौसेरा भाई, कलकत्ता में मम्मी-पापा के साथ अपने घर में खिचड़ी और मकर संक्रांति मना कर दिल्ली आया था। उन दिनों कोलकाता ‘कलकत्ता’ ही था, अभी ‘कोलकाता’ नहीं हुआ था। गर्मी की छुट्टियों में जब एक हफ्ते के लिए मैं कलकत्ता गया था, चाचा के वहाँ, उसी समय प्रदीप के दिल्ली आने की बात तय हुई थी। प्रदीप के पिता मेरे चाचा और उसकी माँ मेरी मौसी थीं। माँ और मौसी का आपसी स्नेह देवरानी-जिठानी बन कर भी बरकरार था। तभी तो चाचा और मौसी का विशेष स्नेह था मेरे लिए। प्रदीप मेरा हमउम्र था, मात्र १०-११ महीने छोटा। हमउम्र होने के साथ चचेरे-मौसेरे भाई का रिश्ता हम दो भाइयों की आपसी समझ और व्यवहार को एक अलग मजबूती देता था। हम भाई भी थे और दोस्त भी। एक दूसरे से लगाव तो था ही, मन में एक दूसरे के प्रति सम्मान का भी भाव रहता। याद नहीं है, होश संभालने के बाद हमने एक दूसरे को कभी नाम से बुलाया हो। एक दूसरे को हम भाई कह कर ही बुलाया करते थे, यद्यपि दोनों का घर के लिए उपनाम भी था, ‘मुन्ना’ और ‘मोहन’।
हम दोनों भाइयों की आपसी समझ को देखकर ही चाचा तैयार हुए थे प्रदीप को अपने से दूर भेजने के लिए। प्रदीप और चाचा के अन्य बच्चे परिवार से अलग कभी रहे नहीं थे। दरअसल, शादी के वर्षों बाद, मन्नतों और पूजा अर्चना के बाद प्रदीप की बहन आरती और फिर उसका जन्म हुआ था। बच्चों को लेकर चाचा का ‘पजेसिव’ होना स्वाभाविक ही था। चाचा ने स्वयं हॉस्टल में रह कर पढ़ाई की थी, और हॉस्टल की कठिनाइयों भरी ज़िंदगी से वे भली-भाँति परिचित थे। तभी बच्चों को हॉस्टल या पी.जी. में रखने की बात से चाचा और मौसी दोनों के दिल में घबराहट होती थी। वे नहीं चाहते थे कि उसी तरह के संघर्षपूर्ण स्थिति में उनके बच्चों का बचपन या यौवन गुज़रे, जिसका उन्हें व्यक्तिगत अनुभव था।
बावजूद इस सोच के, उनके मन में सदैव एक ऊहापोह की स्थिति बनी रहती। कई बार उन्हें लगता कि कहीं बच्चों का भविष्य उनके लाड़ में ही सिमट कर न रह जाए। प्रदीप पढ़ने में आम बच्चों की अपेक्षा बेहतर था, दरअसल काफ़ी बेहतर था। पर पढ़ाई में वह जितना ही तेज़ था, भविष्य के प्रति उतना ही बेफ़िक्र। आखिरकार वह जीवन में क्या हासिल करना चाहता है, उसकी मंजिल क्या है, इस विषय में वह तनिक भी गंभीर नहीं था। ऐसा मालूम होता कि ज़िंदगी उसके लिए बिल्कुल निरापद और निष्कंटक है। ताउम्र कोई मुश्किल नहीं आएगी और ज़िंदगी उसी सहजता से कटती रहेगी। पिता के साथ रहते हुए प्रदीप का जीवन की चुनौतियों से कभी आमना-सामना ही नहीं होता। यद्यपि वह परिवार का बड़ा लड़का था, चाचा के अपने संपर्कों से हर मुश्किल परिस्थिति का आसान हल निकल आता। जीवन की जटिलताओं को समझने और सुलझाने के प्रयत्न से ही इंसान मुश्किलों से पार पाना सीखता है। पिता की उपस्थिति मुश्किल वक्त में प्रदीप और परिवार के अन्य सभी के लिए ढाल बन कर खड़ी हो जाती। ऐसे में प्रदीप का आत्म विश्वास बढ़ने के बजाय, पिता पर उसकी निर्भरता बढ़ रही थी।
इसी उधेड़बुन में चाचा ने मुझसे प्रदीप का मन टटोलने के लिए कहा था। वह अपने विषय में क्या सोचता है? सी. ए. की ‘आर्टिकलशीप’ उसने जॉइन तो कर ली थी, पर उसके प्रति तनिक भी गंभीर नहीं था। पहले उसने सी ए करने में रुचि दिखाई थी, और अब ‘आर्टिकलशीप’ को लेकर लापरवाह है। यही उलझन थी जिसके विषय में प्रदीप से बात करनी थी। मैं और मेरे दोस्त दिल्ली में कहाँ रह रहे थे, महीने का क्या खर्च आता था, एम. ए. के बाद हम दोस्तों की क्या योजना थी, जैसे कई सवाल? इसी तरह अकेडमिक्स में जाने का मन था या सिविल सर्विसेज़ की तैयारी- ये सब उन्होंने प्रदीप से पूछने को कहा। फिर यह भी कि अगर दिल्ली में वह भी हम लोगों के साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना चाहता है, तो वह ऐसा खुशी से कर सकता है। बात करने पर प्रदीप ने दिल्ली आने की अपनी इच्छा जता दी थी।
और प्रदीप मकर संक्रांति के बाद दिल्ली आ गया। इस बीच मैंने राकेश और संजय के साथ यमुना विहार में एक दो कमरे का मकान किराये पर ले लिया था, ताकि प्रदीप के आने के बाद वह भी साथ ही रहे। दो कमरे के इस ‘इंडिपेंडेंट’ घर में किचेन की सुविधा भी थी। हम सेल्फ-कुकिंग करना चाहें तो यह सुविधा थी और हाल ही में दिल्ली में हुई घटनाओं के संदर्भ में इसकी अपनी अहमियत हो गई थी। हाँ १९८५ के जनवरी में ही तो प्रदीप आया था। श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद की घटनाओं के उपरांत दिल्ली लगभग शांत थी। कोई वैसी अप्रिय घटना सुनने या देखने में नहीं आई थी, जैसी नवंबर के पहले चार दिन में घटी थीं। हाँ मन थोड़ा बहुत आशंकित अवश्य रहता था।
प्रश्न उठता है, आज चालीस वर्ष बाद प्रदीप के साथ खाई हुई वह सॉफ्टी क्यूँ कर याद हो आई? पर ऐसा है नहीं। जब-जब वहाँ से मैं गुजरता जहाँ हमने सॉफ्टी खाई थी, उसकी याद आती रही थी। पर उसकी सबसे अधिक याद उस दिन आई थी जब मेरी पहली सॉफ्टी खाने के लगभग एक दशक बाद अप्रैल 1995 में पटना के उसके कमरे मैं उसके साथ था। वह अपने बिस्तर पर निश्चेष्ट व निढाल पड़ा था, कुछ कहने की सायास कोशिश करता हुआ। उसका हर प्रयत्न एक फुसफुसाहट में तब्दील होकर रह जाता, जैसे उसकी आवाज़ शिथिल पड़ गई हो। यह वह क्षण था जब सब कुछ साफ-साफ आँखों के सामने तैरने लगा था। उसका दिल्ली आना, उसके साथ खाई पहली सॉफ्टी, और उसके साथ दिल्ली के अपने प्रवास का एक-एक पल।
वह राजधानी एक्सप्रेस से कलकत्ता से दिल्ली आया था। मैं और राकेश उसे लेने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन गए थे। हम दोनों उस दिन समय से पहले ही स्टेशन पहुँच गए थे। इसे अपनी खुशी कहें या उत्तेजना, सामान्य से दोहरी थी। प्रदीप के आने की तो थी ही, साथ ही राजधानी एक्सप्रेस की बोगी को अंदर से देखने की। हमने सोचा, प्रदीप के पास सामान अधिक होगा, अतः हमें कोच में उसके बर्थ तक तो जाना ही होगा। सच कहूँ तो वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी के कोच के भीतर प्रवेश का ही यह पहला अवसर था, और यह तो राजधानी के द्वितीय श्रेणी वातानुकूलित कोच में प्रवेश का अवसर था। इस अवसर को हम गँवाना नहीं चाहते थे। सोचकर ही रोमांच हो उठता था। दरअसल उन दिनों ए सी कोच सभी ट्रेन में होती नहीं थी। और हर आदमी ए सी कोच का किराया वहन भी नहीं कर सकता था। फिर विद्यार्थी-जीवन में ए सी कोच का अनुभव कहाँ से होता।
राजधानी समय से ही आती थी, हम लोगों ने सुना था। घड़ी की सुइयाँ निर्धारित समय दिखा रही थीं, उधर ट्रेन प्लेटफॉर्म में प्रवेश कर रही थी। ट्रेन जैसे ही रुकी हम दोनों लपक कर उस कोच में घुस लिए। कोच में घुसते समय कुलियों से थोड़ी धक्का-मुक्की करनी पड़ी। कोच में घुसने का पहला हक़ तो हर दम कुलियों का ही होता रहा है। पर राजधानी द्वितीय श्रेणी कोच के प्रथम अनुभव की कल्पना मात्र से हम इतने उतावले थे कि कुलियों की धक्कम-पेल हमें विचलित नहीं कर पाई। अंदर प्रवेश का वह पल अति रोमांचक था। साधारण द्वितीय श्रेणी शयनयान की तुलना में इसकी भव्यता कुछ अलग ही लगी।
कुछ ही मिनट में हम दोनों प्रदीप के साथ थे। मैंने ‘होल्ड औल’ में बँधा उसका बिस्तर और एक बड़ा बैग उठाया, राकेश ने उसका सूटकेस, और प्रदीप ने स्वयं अपना छोटा वाला बैग लिया। प्रदीप ने कुली लेने की पेशकश की थी, पर विद्यार्थी जीवन में, अगर सामान खुद से ढोना संभव हो, हमें कुली से समान ढुलवाना अमानवीय लगता था, एक बुर्जुवा सोच की देन। अपना सामान स्वयं उठा कर स्टेशन से बाहर आने का प्रदीप का यह पहला अनुभव था, और घर से बाहर रहकर पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स के जीने के अंदाज़ का भी।
स्टेशन से बाहर निकलते ही प्रदीप का हमारे छात्र-अनुरूप बर्ताव से दूसरा साक्षात्कार हुआ था। प्रदीप के पाँवों की सहजता टैक्सी स्टैन्ड की तरफ मुड़ने में थी। पर हम दोनों यानी राकेश और मैं तेजी से बस स्टॉप की ओर लपक लिए। बिना उसका मंतव्य जाने। विवश प्रदीप के पास हमारे पीछे आने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था।
स्टेशन से अलग-अलग जगहों की स्पेशल बसें चलती थीं। RL सीरीज की। इनका भाड़ा साधारण बसों के किराया से अधिक होता था। फिर भी ऑटो-टैक्सी के मुकाबले बिल्कुल ना के बराबर। भीड़ कम होती थी क्योंकि भाड़ा आम बसों से काफी ज्यादा होता और फिक्स्ड भी, एक स्टॉप के लिए भी वही भाड़ा लगता जो आखिरी गंतव्य के लिए लगता। RL 9 नंबर की बस लेकर हम यमुना विहार पहुँच गए। यमुना विहार बस स्टॉप से हमारा किराये का घर अधिक दूर था नहीं। फिर वैसे ही जैसे प्लेटफॉर्म से बस स्टॉप तक सामान उठाए हम आए थे, वैसे ही बस स्टॉप से सामान उठाए अपने फ्लैट तक पहुँच गए।
प्रदीप का आत्म-संचालित और स्व-नियंत्रित जिंदगी की कटु सच्चाई का सामना यूँ होगा, उसने संभवतः सोचा नहीं था। वैसे तो पूर्व की लगभग अपनी सभी मुलाकातों में इसकी थोड़ी बहुत चर्चा मैं अवश्य करता था। लगता था कि सीमित संसाधनों में छात्र जीवन व्यतीत करने की कठिनाइयों की चर्चा से मैं कुछ अतिरिक्त अंक अर्जित कर लूँगा। या इससे मेरी ‘सर्वहारा’ सोच की छाप उस पर गहरी पड़ेगी। बहरहाल जिस रूप में इस सत्य से प्रदीप का सामना हुआ, वह कुछ अधिक ही कठोर था, हालाँकि इसकी शिकायत उसने कभी नहीं की। बल्कि हमारे हिसाब से अपने को ढालने के लिए वह सतत प्रयत्नशील ही रहा। एक आराम सुलभ ज़िंदगी से निकल वह हमारे साथ तथाकथित ‘सर्वहारा’ ज़िंदगी में ढलने की कोशिश में लग गया था।
सॉफ्टी की कहानी ने कितना घुमा डाला। लेकिन क्या करें। पहली सॉफ्टी तक की मेरी यात्रा है ही ऐसी। एक साल से अधिक के दिल्ली प्रवास के बावजूद मेरी पहली सॉफ्टी मेरे पहुँच से बहुत दूर थी। सॉफ्टी पटना में भी मिलती रही होगी, पर मुझे उसका इल्म रहा होता तब न। वर्ष भर दिल्ली में रहकर भी इसकी तारुफ़ से महरूम था मैं। उस तक पहुँचने के लिए मुझे दिल्ली से कलकत्ता जाकर फिर वापस आना पड़ा था और प्रदीप के कलकत्ता से दिल्ली आने का भी इंतजार करना पड़ा था।
प्रदीप के आने के दूसरे ही दिन कनॉट प्लेस का प्रोग्राम बन गया। बाबा की पुरानी सीको रिस्ट वाच रिपेयर करानी थी। बाबा की वह निशानी थी। बीते दिसम्बर में उनके देहांत के बाद प्रदीप इसे सँजो कर रखना चाहता था, एक विरासत के रूप में, एक ‘Heirloom’ वाच के रूप में। ‘Heirloom’ की उसकी चाह भावुकता से भरी थी, भावनाओं से सराबोर। यही वजह उसके दिल्ली पहुँचने के दूसरे दिन ही कनॉट प्लेस जाने की थी। यह काम प्रसिद्ध ‘गांगुली ब्रदर्स’ की घड़ी की दुकान से ही कराना था। आखिर वह ऐसी वैसी घड़ी तो थी नहीं, बाबा की विरासत थी। गांगुली ब्रदर्स का यह नामी शो-रूम रिवोली सिनेमा से सटा हुआ था, रीगल बिल्डिंग में, यह जानकारी प्रदीप को थी। अतः यमुना विहार से मद्रास होटल (जिस बस टर्मिनल का नाम अब शिवाजी स्टेडियम है) बस से हम पहुँचे, और फिर वहाँ से रिवोली के निकट गांगुली ब्रदर्स। घड़ी मरम्मत के लिए शो-रूम पर छोड़ हम तफ़रीह को निकल पड़े।
शायद प्रदीप को यह भी पता था, अन्यथा इतनी आसानी से उस पर उसकी नज़र का टिक जाना महज़ इत्तफाक नहीं हो सकता। पर प्रदीप ने अपनी आश्चर्य मिश्रित भाव-भंगिमा से ज़ाहिर यही किया कि वह एक संयोग मात्र था। घड़ी के शो-रूम से कनॉट प्लेस की ओर मुश्किल से पचास कदम पर रीगल बिल्डिंग के छोर से दाहिनी ओर उसने नज़र फिराई और फिर जैसे कुछ देखकर चौंक सा गया। ‘अरे वाह, मज़ा आ गया, मुझे नहीं मालूम था कि ये भी यही हैं’। मुझे कुछ समझ नहीं आया कि वह किसकी बात कर रहा है। पर जैसे ही गेलॉर्ड-क्वालिटी के सामने उसके कदम रुके, मैं समझ गया माजरा क्या। उसका मन आइसक्रीम खाने का था, पर कहीं मैं इसे उसकी ‘अतिव्ययी’ मानसिकता न समझ लूँ, तो उसने ‘चौंकने’ का नाटक कर इसे संयोग करार दिया।
शायद इसका अंदाज़ उसे था कि छात्र जीवन के ‘सर्वहारा संकल्प’ की दृढ़ता अक्सर इन मौकों पर डगमगा जाती है। उसने कहा, “बड़ा नाम है गेलॉर्ड-क्वालिटी की सॉफ्टी का, चलो खाते हैं।”
‘प्रोलिटेरीअट’ और ‘बुर्जुआ’ के विचारों के बीच उलझे ‘कॉमरेड’ की लपलपाती जीभ ने मेरे पाँवों को जैसे अतिरिक्त गति दे दी। और कुछ ही पल में ‘स्ट्रॉबेरी’ और ‘वनीला’ कोन हमारे हाथों में थे। वनीला फ्लेवर के साथ शीतल नाज़ुक दूधिया द्रव के मुँह में घुलते ही मानो मैं अपनी ज़िंदगी की सीढ़ी के कई पायदान एक साथ फलाँग गया, और मेरा अपना कद खुद को काफी ऊँचा दिखने लगा।
‘स्वयं’ से बाहर निकल एक अजनबी की तरह ‘स्वयं’ के कद को आँकने और नापने का मेरा यह पहला अवसर नहीं था। पहले भी जब मैं कभी प्रदीप के साथ होता, ऐसे अवसर अक्सर सामने आते रहते। और ये वे पल होते जब मेरी अपनी ‘राजनीतिक और ऐतिहासिक दर्शन बोध’ की वामपंथी धार कुंद होती दिखती।
कुछ तफ़रीह कर हम दोनों यमुना विहार वापिस आ गए। वीरेंद्र भी यमुना विहार आया हुआ था, प्रदीप से ही मिलने के लिए। प्रदीप के आने की चर्चा वीरेंद्र से भी होती रही थी। इसीलिए वह भी काफी उत्सुक था। दूसरी तरफ़ मैं उन तीनों से अपने सॉफ्टी-सुख के उस पल की आत्मानुभूति साझा करने को आतुर था। वीरेंद्र और प्रदीप की परिचयात्मक बातों के खत्म होने का मुझे इंतज़ार था। अवसर उपलब्ध होते ही सॉफ्टी-सुख का अतिरंजित वृतांत मैंने सुनाना शुरू कर दिया। उसी क्षण तय हो गया कि बाबा की ‘विरासत घड़ी’ लेने हम सभी यानी हम पाँच साथ चलेंगे। रिवोली या रीगल में फिल्म देखेंगे और फिर वहाँ सॉफ्टी भी खाएँगे।
अभी कल तक इन्हीं दोस्तों के बीच बड़ी-बड़ी क्रांतिकारी बातें होती थीं। ‘आइसक्रीम’, ‘कोला ड्रिंक्स’, ‘विल्स’ या ‘किंग्स’ ऐसे तमाम शौक वैभव और विलासिता के प्रतीक थे, बिल्कुल ही ‘अक्रान्तिकारी’। हमारा मानना था कि जीवन में ऐसी वस्तुओं का समावेश कई वंचितों के पेट काटकर ही हो पाता। हम दोस्तों की ज़िंदगी ‘चार्म्स, ‘तीस छाप’, ‘पाँच सौ एक’ ‘सड़क किनारे मशीन का ठंडा पानी’, ‘बंटा-सोडा’ के साथ सरपट भाग रही थी। पर हमारे बीच प्रदीप से उसका ‘मुन्ना भाई’ बन जाना जितनी उत्साह, जोश और सरलता से हुआ, उतनी ही सहजता से उसी क्षण साथ सॉफ्टी खाने का सामूहिक संकल्प दृढ़ हुआ था, बिना किसी वैचारिक विघ्न के।
बाबा की विरासत घड़ी दुरुस्त कर देने की मुकर्रर तारीख तकरीबन एक महीने बाद आ ही गई जब हम पाँच रीगल बिल्डिंग पर धावा बोल रहे थे। योजना गांगुली ब्रदर्स से ‘विरासत घड़ी’ कलेक्ट करने और सॉफ्टी खाने तक सीमित नहीं थी। रिवोली में अनिल कपूर, रति अग्निहोत्री, दिलीप कुमार, वहीदा रहमान अभिनीत ‘मशाल’ फिल्म देखने और सॉफ्टी से पहले मद्रास होटल का डोसा खाने का भी प्लान था। पत्रकारिता की डिग्री लेकर मशाल का नायक, ‘ज़िंदगी आ रहा हूँ मैं...’ की धुन पर चहकता, फुदकता, मचलता, नायिका की कल्पना में खोया घर का रुख करता है, और हमारा संजय इसी धुन को अपनी ‘प्रिया’ की यादों में गुनगुनाता हमें मद्रास होटल लिए चल पड़ता है। यह धुन थी तो संजय के लबों पर, किन्तु हम सब शायद अपनी-अपनी ज़िंदगी को इस धुन से मन ही मन दस्तक दे रहे थे।
मूवी, डोसा, सॉफ्टी, घड़ी सभी तय चीज़ें पूरी हो चुकी थी। पर प्रदीप की इच्छा हमें ‘खूबचन्द ब्रदर्स’ से भी मिलवाने की हो ली। अब ये खूबचन्द ब्रदर्स कौन हैं? और इनसे प्रदीप आज ही क्यों मिलवाना चाह रहा था? उस समय तो हम सब का दिल सॉफ्टी की मधुर मुलायम कोमल स्पर्श की गुदगुदाहट को महसूस करना चाह रहा था, फिर बीच में ये खूबचन्द ब्रदर्स कहाँ से टपक पड़े, खलल सा डालते हुए? किन्तु प्रदीप जो अब सबका मुन्ना भाई बन चुका था, की भावनाओं की कद्र भी सभी को थी। और हाँ, उस दिन का सारा खर्च तो मुन्ना भाई ने ही उठाया था, यह कहते हुए कि आज मेरे मित्रों से उसकी नई दोस्ती को यह उसका नज़राना था। उसकी तरफ से ऐसा ‘ट्रीट’ रोज़-रोज़ नहीं मिलने वाला था, आगे से ‘डच सिस्टम’ ही ‘फॉलो’ होगा, यह भी उसने स्पष्ट कर दिया था।
नई दोस्ती को मुन्ना भाई यानी प्रदीप के उस तोहफे के बाद उसकी इच्छानुसार खूबचन्द ब्रदर्स से मिलने को भला कौन मना कर सकता था। ऐसे में अपनी शंकाओं को मन में दबाए हम सब प्रदीप के पीछे हो लिए। पर सॉफ्टी की तरह ही खूबचन्द ब्रदर्स को भी प्रदीप ने सरप्राइज़ की तरह ही पेश किया। वहाँ पहुँच कर प्रदीप ने कहा कि अरे इनका ‘हैम’, ‘सलामी’ और ‘सॉसिजेज’ बहुत लोकप्रिय हैं। यहाँ से विदेशों में भी सप्लाई जाती है। थोड़ा ले लेते हैं, ब्रेड के साथ सैंडविच कर ब्रेकफास्ट में खाएँगे। या फिर डिनर में ही खा लेंगे। सॉफ्टी की तरह ही ये तीनों शब्द भी हमारे कानों को कभी मयस्सर नहीं हुए थे। सबने यही कहा, ‘जैसी तुम्हारी इच्छा’। और सॉफ्टी की तरह ही उस रात हमने पहली बार हैम और सलामी खाई, ब्रेड के बीच दबाकर। खुश्क और सूखा होने बावजूद भी इसका टेस्ट अच्छा लगा। इस तरह का डिनर हम सब के लिए अजूबा था और साथ में नायाब भी। इंग्लिस्तानी-ब्रितानी रात्रि-भोज पर गर्व की एक मूक अनुभूति से सब आह्लादित थे, और प्रदीप की मित्रता पर गर्वित भी।
प्रदीप दिल्ली में हम सब के साथ एडजस्ट हो रहा था और हम उसके साथ। सेल्फ-कुकिंग से लेकर डी टी सी की बसों के सफर तक, हर गतिविधि में प्रदीप हमारे साथ तादात्म्य बैठा रहा था।
आपसी सामंजस्य का यह क्रम अभी शुरू ही हुआ था कि एक महीने के लिए वह मेरे साथ बनारस आ गया। तब मेरी माँ की आँख की सर्जरी थी। मैंने उसे मना भी किया था कि वह मेरे साथ बनारस साथ ना आए पर वह नहीं माना। माँ उसकी प्रिय मौसी जो थीं। मेरे साथ माँ की सर्जरी के समय रहना वह अपना फर्ज़ समझता था या फिर मेरी अनुपस्थिति में दिल्ली में रुके रहने में संभावित मुश्किलों की सोच से उसे घबराहट थी, यह तो वही जानता था। बहरहाल कारण जो भी रहा हो, माँ की सर्जरी और पूरी रिकवरी तक बनारस में वह मेरे साथ रुका रहा। उस बीच कलकत्ता चले जाने के मेरे मशवरे को भी वह नज़रंदाज करता रहा। भैया के घर से टेम्पो से अस्पताल जाना, आम लोगों के साथ टेम्पो की यात्रा में होने वाली मशक्कत के बावजूद, पूरे दिन अस्पताल में रुकना और ऐसी अन्य तमाम परेशानियों के बावजूद वह मौसी की सेवा में मुस्तैदी से लगा रहा और दिल्ली वापिस मेरे साथ ही आया।
सॉफ्टी की यह कहानी बार-बार भटकती दिख रही है। पर सॉफ्टी पहली बार जीभ लगने के एक दशक बाद ही तो दुबारा याद आई थी, जब मैं प्रदीप के पास पटना के उसके कमरे में था। जहाँ अप्रैल 1995 में वह बिस्तर पर निश्चेष्ट और निढाल सा पड़ा था। अन्यथा सॉफ्टी जीवन की इतनी बड़ी घटना तो थी नहीं कि इस रूप में उसे याद किया जाए। सॉफ्टी की याद प्रदीप के साथ ही तो जुड़ी है। फिर उसकी यानी सॉफ्टी की कहानी प्रदीप के साथ ही तो चलेगी। और उस दिन जिस स्थिति में मैं प्रदीप से मिल रहा था, वह स्थिति बनी कैसे थी? सॉफ्टी की मधुर स्मृति में सिमटी प्रदीप की बिंदास छवि एक अशक्त, असहाय, बेचैन प्रदीप में कब बदल गई थी? यह जानने-बूझने के लिए सॉफ्टी की इस कहानी की यह यात्रा आवश्यक है।
दिल्ली वापसी के साथ ही मैं अपनी एम ए फाइनल की परीक्षा की तैयारी में लग गया। राकेश और संजय पहले से लगे हुए थे। मेरे पास तैयारी के लिए समय बिल्कुल ही नहीं था। हर परीक्षा के बाद अगली परीक्षा की तैयारी में पूरे साल जुटे रहने की कसम खाई जाती, पर साल मस्ती में निकल जाता और तैयारी वही आखिर के दो-तीन महीने में होती। इस बार परिस्थिति अधिक ही विकट थी। आखिर के उन्हीं दो महीनों में से एक महीना बनारस में निकल गया था। प्रदीप ने भी सिविल सर्विसेज़ का फॉर्म भर रखा था, और उसका प्रीलिम्स जून में था। सामान्य से अधिक परिश्रम का हम दोनों के पास कोई अन्य विकल्प था नहीं। वीरेंद्र ने अपने सारे नोट्स मेरे हवाले कर दिए। “तुम इन्हें ले जाओ, जब मुझे देखना होगा मैं वहीं आ जाऊंगा”, वीरेंद्र ने मुझसे कहा था। राकेश और संजय तथा उनके नोट्स तो मेरे साथ ही थे।
प्रदीप की दिनचर्या हम सब से कुछ भिन्न थी। पढ़ाई करते वक्त बार-बार चाय सब पीते थे, पर प्रदीप की चाय की तलब बहुत ज़्यादा थी। हर घंटे-डेढ़ घंटे में चाय की प्याली प्रदीप के पास होती थी। हम सब बारी-बारी चाय बनाते थे। एक-दूसरे का टर्न पाँच-छः घंटे से पहले नहीं आता था। किन्तु बीच में जब प्रदीप को तलब लगती उठकर चाय बना लेता। चाय की चुस्की के साथ ‘फैग’ का ‘ड्रैग’ और फिर ‘मसाला’। अपनी चारपाई पर लेटे हुए प्रदीप के कानों में वॉकमैन के हेड्फोन होते जिस पर कोई फिरंगी धुन बजती होती। सामने ‘सन’ मैगजीन या ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ का क्रॉसवर्ड पेज खुला होता जो प्रदीप पेंसिल की मदद से पूरी तन्मयता से भरता रहता। बगल में ही इरेज़र होता, ताकि बॉक्स में भरा गया गलत अक्षर या शब्द मिटा कर बदला जा सके। यद्यपि वह अभी दिल्ली आया ही था, उसने सिविल सर्विसेज़ प्रिलिम्स का फॉर्म भर रखा था किन्तु तैयारी को लेकर वह कतई गंभीर नहीं था। हमें भी यही लगता कि अभी तो शुरुआत ही है, आने वाले दिनों में वह अपनी तैयारी के प्रति गंभीर हो जाएगा।
हिन्दी फिल्मों के गाने जो आकाशवाणी के विविध भारती सेवा के कार्यक्रम में बजते रहते, हम सब उसी में मस्त रहते। पर जब हम तीनों में से कोई प्रदीप के पास होता, वह हेड्फोन का एक सिरा उसके कान में फँसा देता। दूसरा छोर अपने एक कान में ही लगे रहने देता। वह बताता, कौन सा ‘नम्बर’ ‘प्ले’ हो रहा है। वह वेस्टर्न ‘क्लैसिकल’ है, ‘रॉक’ या ‘जैज़’ है या ‘पॉप’ या फिर ‘कन्ट्री सॉन्ग’। वेस्ट इंडियन संगीत को ‘कैलिप्सो’ बोला जाता है, और सॉन्ग्स को ‘नम्बर’ कहना अधिक असर डालता है, उसी दौरान वह ये सब भी बताता रहता। गैर भारतीय प्रचलित नृत्यों मसलन ‘सांबा’, ‘सालसा’, ‘बैले’, ‘हिप-हॉप’, ‘बॉल-डांस’ का दृश्य-विवरण वह बड़ी सहजता से देता रहता। यह सब तब की बात है जब ‘विकिपीडिया और ‘यूट्यूब’ आदि का जन्म नहीं हुआ था। दूरदर्शन का रंगीन ट्रांसमिशन भी अभी-अभी शुरू हुआ था। पता नहीं इतनी जानकारियाँ उसके पास कैसे होतीं। जितनी जानकारी उसे विदेशी संस्कृति की थी, भारतीय संस्कृति की जानकारी उससे तनिक भी कम नहीं थी।
इसीलिए तो मैं सोचता रहा था कि सॉफ्टी और आइसक्रीम का भेद उसे अवश्य पता रहा होगा। पर कई बार यह भी लगता कि अगर उसे पता होता तो उसने अवश्य बताया होता। ऐसा भी तो हो सकता है कि उसने मुझे बताया हो पर मैंने ध्यान नहीं दिया हो। संजय से तो अरसे से संपर्क नहीं है, पर वीरेंद्र या राकेश किसी को तो याद आता। खासकर राकेश को जिसे उस दौरान की छोटी-छोटी बातें अब तक याद है।
मुझसे ऐसी बातें साझा करने की प्रदीप की आदत से मुझे कई बार लगता था कि वह जैसे मेरी आरंभिक शिक्षा के गँवई-कस्बाई परिवेश की कमियों की भरपाई कर मेरे व्यक्तित्व को एक पूर्णता देना चाहता रहा हो।
गाँव और गँवई-संगीत में मेरी रुचि रही होगी, ऐसा सोच वह मुझे जॉन डेनवर का ‘कन्ट्री रोडस टेक मी होम...’ जैसे गाने सुनवाता था। हमारी कार्ल मार्क्स, लेनिन और एंगेल्स को लेकर होती बहस देख बॉब डायलन का ‘बलोईंग इन द विंड’ और पिंक फ़्लॉयड का “यू आर जस्ट एनअदर ब्रिक इन द वाल...’ प्ले कर हेड्फोन की एक टोंटी मेरे कान में डाल देता, साथ में स्वयं गुनगुनाता रहता। हाँ ऐसा भी होता जब उम्र का जोश जोर मारता तब लौरा ब्रेनीगन के ‘इन द डे नथिंग मैटर्स, इन द नाइट नो कंट्रोल...’ और डोना समर का ‘लव टू लव यू बेबी...’ का शोर मचता।
लाड़ में पले और अँग्रेजी-माध्यम से पढ़े प्रदीप को रसोई में अपने हिस्से का काम करने से भी कोई गुरेज़ नहीं था। जहाँ उसे सॉफ्टी, पेस्ट्री, पैटिज, और हैम-सलामी का शौक था, वहीं देशी व्यंजन खाना और पकाना भी उसे उतना ही पसंद था। तभी पूरी तन्मयता से अपनी बारी के समय वह खाना बनाने में लग जाता। टिपिकल स्टूडेंट स्टाइल में चलताऊ और काम-चलाऊ खा कर निपटा लेने में उसे संतोष नहीं मिलता। कई व्यंजन हम सबने ने उससे बनाना सीखा था। मौसी यानी प्रदीप की माँ के खाने के स्वाद का कायल पूरा परिवार तो था ही, उसके पापा भी स्वयं एक कुशल कुक थे। आखिर छात्र जीवन में एक लंबे अरसे तक उन्होंने भी सेल्फ-कुकिंग की थी। कुकिंग में प्रदीप की रुचि अपने माता-पिता से विरासत में मिली थी, जिसे उसने और निखारा था। अन्यथा छात्र-जीवन में कौन सोचता है कि किसी दिन ‘भरवाँ करेला’ तो कभी ‘स्टफ्ड टोमॅटो’ या फिर कभी ‘गोभी-मुसल्लम’ बन जाए।
होली के दिन ‘माल-पुआ’, ‘गुझिया’ और दीवाली के दिन ‘कढ़ी-पकौड़े’ के बनाने की पहल भी प्रदीप की ही होती। नॉन-वेज पकाने में भी प्रदीप उतना ही निपुण था। किचेन में काम करते समय भी वॉकमैन का हेड्फोन उसके कानों में होता और ‘सन’ या ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ का क्रॉसवर्ड किचन की स्लैब पर होता।
जिस प्रदीप का ऐसा मस्त रूप मेरे सामने रहा हो, उस दिन उसे उस हालत में देख कर उसके साथ खाई सॉफ्टी और साथ बिताए दिनों का स्मरण होना अस्वाभाविक बिल्कुल नहीं था। मन कई बार दिल्ली में साथ रहते समय प्रदीप की उस स्थिति की दबी-सहमी आहट तलाशने की कोशिश करने लगा था। अब तक की कहानी में सॉफ्टी के इतर प्रदीप के कई गुणों और आदतों का जिक्र आया है, उसी आहट की खोज में।
अगले सत्र में प्रदीप ने एम एस सी, में एड्मिशन ले लिया था। संजय एम ए की परीक्षा के बाद कहीं और शिफ्ट कर गया था। उसकी जगह यमुना विहार के मकान में वीरेंद्र ने ले ली थी। यूनिवर्सिटी में प्रदीप के नए मित्र बनने लगे थे। किशोर, नीरज, योगिंदर प्रदीप के उन खास दोस्तों में थे जो कभी रात में हम सब के साथ रुक जाते। नीरज ‘सींक’ और ‘शामी’ कबाब एक्सपर्ट था। प्रदीप और मेरा मटन सबको भाता था। अक्सर पार्टी का आयोजन हो जाता। हमारा दोस्त पीयूष भी एक-आध बार हमें जॉइन कर लेता। यमुना विहार के बस स्टॉप वाले अंकल की जलेबी प्रदीप को भी भा गई थी। यूनिवर्सिटी से लौटते वक्त अंकल की जलेबी का दोना प्रदीप के हाथों में होता। लगभग रोज़ ही। घर पहुँचने तक दोने में हम तीनों के लिए कुछ जलेबियाँ बची होतीं। कई बार वह किंगसवे कैम्प के विक्रांत ढाबा का मटन टिक्का और मुग़लई पराठा लिए हुए वापिस लौटता।
प्रदीप के साथ जब भी हम दोस्त कनॉट प्लेस जाते, सॉफ्टी खाना जैसे अनिवार्य होता। बीसियों दफ़ा हम चारों ने वहाँ साथ सॉफ्टी खाई थी।
यमुना विहार में रहते हुए वह मुझे आगाह करता रहता कि उसकी मौसी यानी मेरी माँ डायबिटिक हैं, मुझे सतर्क रहना होगा। उसे जब भी टॉयलेट में चींटियाँ दिखती, तब मुझे लेकर उसकी चिंता और बढ़ जाती। एक-दो बार जिद्द कर उसने मेरा ब्लड शुगर टेस्ट भी करवाया। अब जब सॉफ्टी की सोचता हूँ तो यह भी ध्यान आता है कि मेरी मौसी यानी प्रदीप की माँ भी डायबिटिक थीं। उस समय मैंने उसे अपना चेक-अप कराने के लिए बाध्य क्यों नहीं किया? उसे दिल्ली आने के पूर्व जॉन्डिस भी तो हुआ था। फिर उसका चेक-अप संभवतः और भी ज़रूरी था।
अपनी एम एस सी की पढ़ाई के साथ ही पहले अटेम्प्ट में वह स्टाफ सेलेक्शन कमीशन की परीक्षा पास कर इनकम-टैक्स इन्स्पेक्टर के लिए ‘सिलेक्ट’ हो गया था। हम सब के बीच वह पहला व्यक्ति था जिसने कोई प्रतियोगिता-परीक्षा पास की हो। उसकी प्रतिभा और बेहतर सामान्य ज्ञान की योग्यता प्रमाणित हो चुकी थी। यह स्पष्ट था कि उसमें क्षमता थी। वह आई ए एस भी अवश्य निकालता अगर कमर-तोड़ मेहनत उसकी फितरत होती। पर मस्त-मौला मुन्ना हँसते-खेलते सहजता से ज़िंदगी की उपलब्धियां जुटाने में भरोसा रखता था.
प्रदीप कुछ बरसों बाद जब उसके स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ सामने आईं और सारे टेस्ट हुए तो पता चला कि उसे डायबिटिज़ है। प्रदीप की माँ यानी मेरी मौसी भी तो डायबीटिक थीं। उनकी तबीयत 1989 में अचानक ही बिगड़ी थी, और वे हम सब को असमय छोड़कर इस दुनिया से चली गईं थी। उस समय चाचा की पोस्टिंग दिल्ली में थी और वे लोग दिल्ली आ गए थे। सर्विस जॉइन करने के बाद तब मैं उनके वहाँ ही रह रहा था।
आगे चल कर यह ज्ञात हुआ कि प्रदीप की किडनीज़ डैमेज हो रहीं हैं। फिर मन में यह भाव उठने लगा कि क्या लंबे अरसे तक अनियंत्रित हाई ब्लड शुगर ही तो उस समस्या की जड़ नहीं थी! संभवतः अनियंत्रित मधुमेह ने ही उसकी किड्नीज़ को इतनी क्षति पहुंचाई थी? बस स्टॉप वाले अंकल की जलेबी के नियमित सेवन से ही तो वह डायबिटिक नहीं हुआ था? पेरीटॉनियल डायलिसिस और दिल्ली-चेन्नई-वेल्लोर के अन्य उपचार नाकाफ़ी साबित हो रहे थे, उसके किडनीज़ को रीवाइव करने में।
मेरी और प्रदीप की उस आखिरी मुलाकात की वह तारीख 18 अप्रैल 1995 थी। उस दिन चाचा यानी उसके पिता के अंतिम यज्ञ में शामिल होने के लिए मैं पटना गया था। मेरी माँ, प्रदीप की वह प्रिय मौसी तब बनारस के मुक्ति भवन में थी, अपने महाप्रयाण की प्रतीक्षा में। पर इस बार पिछली बार की तरह प्रदीप उनके पास नहीं था। वह साथ होता भी कैसे, उसकी अवस्था कमरे से निकल कर अपने पिता के अंतिम यज्ञ में शामिल होने तक की नहीं थी। फिर भला मौसी की सेवा-सुश्रुषा के लिए वह बनारस कैसे आता।
दो दिन बाद ही उसकी अस्थियाँ विसर्जन के लिए बनारस लाई गईं। उसका स्थूल शरीर मौसी से मिलने में अक्षम था, इस लिए वह इस रूप में पहुँचा था, शायद! उसके साथ जाने कितनी ही बार सुने हुए जिम रीव्स के इस गीत का उसके जीवन में निहित अर्थ तब मैं समझ पाया;
“This world is not my home I'm just a-passin' through
My treasures are laid up somewhere beyond the blue
The angels beckon me from heaven's open door
And I can't feel at home in this world”.
मुझे लगा, यह गीत कितना प्रोफेटिक साबित हुआ! क्या यही वजह थी कि वह इसे अक्सर सुनता था, गुनगुनाता था। मुझे भी सुनाता रहता था। मैं तब नहीं समझ पाया था, ठीक उसी तरह जैसे सॉफ्टी क्या होती है, नहीं जान पाया था।
आज पता है हर आइसक्रीम सॉफ्टी नहीं होती, ना ही ‘कोन’ के कारण इसे सॉफ्टी कहा जाता है। आम आइसक्रीम के मुकाबले सॉफ्टी में हवा अधिक होती है, फैट कम होता है और माइनस 4-6 डिग्री पर इसे जमाया गया होता है। तभी सॉफ्टी अधिक फैलाव लिए होती, सहजता से मुँह में घुलती है, बिना अतिरिक्त ठंड का अहसास दिए हुए। प्रदीप का जीवन भी सॉफ्टी जैसा ही फैलाव लिए हुए था, सहजता से सबसे घुलने-मिलने वाला, शीतलता देने वाला, ना कि आइसक्रीम की ठंडी दंश देने वाला जो माइनस 15-24 डिग्री पर जमी होती है।
प्रदीप की माँ यानी मेरी मौसी को गुज़रे छः साल हो चले थे और हम लोग इस सदमे से उबर ही रहे थे कि परिवार में अब तीन और जन दूसरे लोक की तैयारी करते दिखे. कुछ ही माह में ये तीनों अर्थात मेरे चाचा, स्वयं प्रदीप और मेरी माँ तीन हफ़्ते के अंदर ही हमें छोड़ कर चल दिए मानो तीनों ने तय करके ऐसा किया हो. मैं जब प्रश्नवाचक मुद्रा में अपने बाबा की ओर देखता और पूछता कि इस तरह से एक छोटे अंतराल में यह सब कैसे हो गया तो उन्होंने आकाश की ओर देखते हुए यही समझाया कि तुम्हारी मौसी के जाने के बाद जैसे ये तीनों लोग गए हैं, उससे यही अंदाज़ होता है कि इन चारों का संभवतः कोई गहरा रूहानी रिश्ता (आत्मिक संबंध) रहा होगा। इनका जाना हमारी ज़िंदगी को सदा के लिए रीता छोड़ गया, जिसकी भरपाई शायद नहीं हो सकती।
रीगल बिल्डिंग में उस जगह सॉफ्टी आज भी मिलती है, किन्तु गेलॉर्ड-क्वालिटी की नहीं। उस जगह से मैं अब भी गुजरता हूँ, पर अब प्रदीप साथ नहीं होता। उसकी मौसी भी उसके कूच के चार दिन बाद प्रस्थान कर गई थीं। मन्नतों से मिले मुन्ना को अपनी माँ, बाबूजी और मौसी के बाद संभवतः यही लगता, ‘I can’t feel at home in this world’.

सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ अध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।