मेरी निजी डायरी के सार्वजनिक हिस्से
मेरी निजी डायरी के सार्वजनिक हिस्से
विद्या भूषण
इस आलेख (यदि इसे आलेख कहें तो) का नाम ‘फ़िरोज़पुर डायरी’ भी हो सकता था लेकिन इस उम्मीद में कि मैं अपनी डायरी जारी रख सकूँगा, इसे एक शहर से नहीं बांध रहा हूँ।
अपने एक मित्र के आग्रह पर हाल ही में मैं एक धार्मिक समागम के सिलसिले में पंजाब में पाकिस्तान सीमा से लगे फ़िरोज़पुर शहर गया। उनके आग्रह के अलावा मेरी अपनी रुचि भी इसलिए बनी कि राधा-स्वामी संप्रदाय की इस शाखा के मुख्य स्वामी जी सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने पर ज़ोर देते हैं और सिर्फ धर्मों को ही नहीं, सभी जातियों में भी वह भेदभाव के सख्त खिलाफ हैं। ऐसा लगता है कि हर माह होने वाले इन सत्संगों में वह मुख्यत: गुरुग्रंथ साहब में संकलित वाणी को आधार बनाकर सभी को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं और सिमरन एवं नामजप के माध्यम से ईश्वर से जुडने का मार्ग बताते हैं।
आजकल जब कभी मुझे पता चलता है कि धार्मिक विद्वेष फैलाये बिना और दूसरे धर्मों के लिए कड़वे बोल बोले बिना कोई संत अपने धार्मिक कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे हैं तो मैं गदगद हो जाता हूँ। यही विचारते हुए मैं एक रात और दो दिन फ़िरोज़पुर में कहीं और रुकने की बजाय समागम स्थल पर ही ठहरा जिसे श्रद्धालु ‘डेरा’ कहते हैं। यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं इस आलेख में यहाँ सम्पन्न हुए दो बड़े भाषणों के सम्बन्ध में कोई सारांश या निष्कर्ष देने का प्रयास नहीं करूंगा क्योंकि मैं स्वयं को इस काम के लिए योग्य नहीं मानता। मैं तो केवल यहाँ ठहरने के दौरान हुए अपने अनुभव सांझे करना चाहूँगा – खासतौर पर ऐसे अनुभव जिनसे मैं खासा प्रभावित भी हुआ। यह होगा आलेख का पहला हिस्सा! दूसरे हिस्से में इस डेरे से हटकर भी इस शहर के बारे में जो मेरी observations हैं, उनका बहुत संक्षेप में ज़िक्र करूंगा।
इस समागम के बारे में पता चला कि यह मासिक कार्यक्रम है जो हर महीने के दूसरे रविवार को होता है। मासिक सत्संग के एक दिन पहले और एक दिन बात तक तो खूब चहल-पहल रहती है। फ़िरोज़पुर और आस-पास के गांवों के अलावा काफी संख्या में श्रद्धालु पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के कई और शहरों से भी आते हैं। इसके अतिरिक्त दिल्ली, रुद्रपुर (उत्तराखंड), बरेली आदि के श्रद्धालु भी पहुंचे हुए थे। कुछ लोग अपनी रंगीन पगड़ियों के कारण अलग से पहचाने जा रहे थे। उनसे पूछने पर पता चला कि वो लोग भुज (गुजरात) से आए हैं और लगभग हर माह ही आते हैं। ऐसा लगा कि बड़ी संख्या में लोग सुबह आ कर देर शाम तक लौट जाते हैं। वैसे मुख्य सत्संग के दिन अर्थात महीने के दूसरे रविवार को सत्संग के लिए करीब चार हज़ार लोग इकट्ठा हो जाते हैं।
श्रद्धालुओं के ठहरने के इंतज़ाम की बात की जाए तो डेरे में काफी संख्या में बड़े-बड़े कमरे बने हुए हैं। एक कमरे में 12 लोगों के रुकने का इंतज़ाम किया गया था और ऐसे बहुत सारे कमरे थे – हो सकता है, पचास के करीब ऐसे कमरे हों या शायद कुछ ज़्यादा-कम! सही संख्या पता लगाने की कोई ऐसी ज़रूरत भी नहीं थी। बस यह पता चला कि सभी कमरे एक ही प्रकार के हैं और इन कमरों में ठहरने का कोई किराया नहीं है। यहाँ श्रद्धालुओं को मौसम के अनुसार रज़ाई/कम्बल गद्दा इत्यादि मिल जाता है।
जब यह बात चली है तो यहाँ यह भी बताया जा सकता है कि मैंने इन दो दिनों में यहाँ डेरे की ओर से पैसे के लिए कोई अपील नहीं सुनी और पूछताछ करने पर पता चला कि दानपात्र भी बहुत कम संख्या में हैं और बहुत सीमित समय के लिए रखे जाते हैं। मुझे यह भी पता चला कि लोगों को सलाह दी जाती है कि वह दान का पैसा डालते समय यह ध्यान रखें कि उसका प्रदर्शन बिलकुल ना हों – लिफाफे या अख़बार में लपेटकर दान का पैसा डालना चाहिए।
एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी रहा कि जब हम समागम स्थल पर प्रवेश कर रहे थे तो सामने ही एक लंबे कद के चश्मा लगाए सज्जन सड़कों पर इस्तेमाल होने वाले झाड़ू से प्रांगण साफ कर रहे थे। इन झाड़ू लगाते सज्जन का मेरे मित्र के साथ खूब गरमजोशी से ‘ग्रीटिंग्स’ का आदान-प्रदान भी हुआ। यहाँ अभिवादन के लिए नमस्कार के स्थान पर ‘सतनाम जी’ का प्रयोग होता है। मैंने बाद में अपने मित्र से उनके बारे में पूछा तो पता चला कि हालांकि काफी लोग यहाँ मासिक वेतन पर कर्मचारी भी हैं किन्तु यह सज्जन जो फिलहाल झाड़ू लगा रहे हैं, एक सम्पन्न परिवार से आते हैं और सफाई का उनका उनका यह काम स्वयंसेवी (वॉलंटियर) सामुदायिक सेवा का हिस्सा है। बाद में मैंने देखा कि टॉयलेट कॉम्प्लेक्स में भी फर्श और वाशबेसिन की सफाई के काम में भी कुछ वॉलंटियर लगे हैं। वैसे तो यह कोई बड़ी बात नहीं लगनी चाहिए थी क्योंकि गांधी जी साउथ-अफ्रीका के अपने आश्रम में करीब सौ-सवा सौ पहले टॉयलेट साफ करवाने का काम कर चुके थे। लेकिन सच्चाई ये है कि अभी भी हम इस तरह के सफाई के काम करने से कतराते ही हैं और इसलिए यदि कोई बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के, केवल सामुदायिक सेवा की भावना से ऐसे कार्य औरों के लिए कर रहा है तो यह सचमुच बड़ी बात है।
यह सब बातें मैं इसलिए बता रहा हूँ कि ये निश्चित ही मुझे प्रभावित करने वाली थीं और एक आदर्श स्थिति की ओर संकेत कर रही थीं। इसी तरह की एक और प्रशंसनीय और प्रभावित करने वाली बात यह थी कि वहाँ दिन में तीन समय जो लंगर-प्रसाद (नाश्ता, लंच और डिनर) दिया जाता है, वह भी बिना किसी भेदभाव के दिया जाता है अर्थात सभी लोग, अति-साधारण और विशिष्ट, साथ-साथ पंगत में बैठकर अपना भोजन पाते हैं। मैं एक दोपहर जब कहीं बाहर से रिक्शे में लौट रहा था तो मेरे रिक्शे वाले ने मुझसे पूछा कि डेरे में लंगर-प्रसाद कब तक मिलेगा? मैंने उसे बताया कि मैं तो पहली बार आया हूँ, इसलिए मुझे जानकारी नहीं है। बहरहाल, थोड़ी देर बाद जब मैं हाथ आदि धोकर पंगत में बैठा तो मैंने देखा कि मेरा रिक्शे वाला भी मेरे साथ पंगत में बैठा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी पंगत में ऐसे उद्यमी भी थे जिनका वार्षिक टर्न-ओवर मुझे पता चला कि करोड़ों में है। स्वाभाविक है कि सामाजिक समानता के ऐसे आदर्शों को वास्तविक जीवन में व्यवहार में लाना बहुत मुश्किल काम है जो यहाँ किया जा रहा है।
हालांकि यह भी कहना होगा कि इतने अच्छे उपदेशों पर पालन लोग कैसा करते हैं, इस पर भी बात करनी चाहिए। यह तो सही है कि हर महीने एक दिन या दो-तीन दिन जब आप ‘डेरे’ पर आते हैं तो आप अपना आचरण समानता, दया, करुणा आदि सिद्धांतों के अनुसार रखते हैं। प्रश्न यह है कि कितने लोग बाद में भी इन्हीं उपदेशों के अनुरूप अपना आचरण रख पाते हैं? उदाहरण के लिए क्या यहाँ आने वाले श्रद्धालु आजकल फैलाये जा रहे धार्मिक विद्वेष के वातावरण के विपरीत जाकर सभी धर्मों और सभी जातियों को बराबर मानेंगे? संभवत: इसका उत्तर पूरे विश्वास के साथ हम हाँ में तो नहीं दे पाएंगे। लेकिन फिर भी ऐसे सकारात्मक प्रयास किए जा रहे हैं, यह अत्यंत प्रशंसनीय है। यह बात तो निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि डेरे के वातावरण में एक अलग ही सकारात्मकता का माहौल था और हो भी क्यों ना! यहाँ दी जा रही अनेक हिदायतों में एक महत्वपूर्ण हिदायत ये भी तो है कि किसी की निन्दा न करो और ना ही सुनो बल्कि हम सब ईश्वर का अंश हैं और हमें सभी को उसी रूप में देखना है।
अब अगर चर्चा की जाए फ़िरोज़पुर शहर के बारे में अन्य बातों की तो पहला इम्प्रैशन यही है कि फ़िरोज़पुर अपने ऐतिहासिक महत्व के बावजूद पंजाब के अन्य शहरों जैसा सम्पन्न नहीं लगता। ऐतिहासिक महत्व इसलिए कि फ़िरोज़पुर को 14वीं शताब्दी में फिरोज़शाह तुगलक द्वारा बसाया गया था। आज भी भारत के उत्तर-पश्चिम का यह अंतिम नगर इसके पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण स्थानीय लोगों ने यही बताया कि बॉर्डर टाउन होने के कारण यहाँ कुछ औद्योगिक विकास नहीं हुआ। इसलिए शहर में आर्थिक विकास का बहुत ही सीमित स्कोप होने के कारण लोग फ़िरोज़पुर के बाहर ही संभावनाएं तलाशने निकल जाते हैं। कुछ तो चंडीगढ़ या पंजाब या देश के अन्य शहरों में और कुछ कनाडा जैसे देशों में भी।
1971 के भारत-पाक युद्ध के कारण लाहौर-हुसैनीवाल बॉर्डर पोस्ट पर पाकिस्तान के साथ होने वाला व्यापार प्रतिबंधित हो जाने के कारण भी यहाँ के स्थानीय व्यापारियों को बहुत धक्का पहुँच। सतलुज नदी कि किनारे बसे इस शहर के ऐतिहासिक महत्व को पर्यटन के स्थल के रूप में भी स्थापित नहीं किया जा सका। 1897 में हुए सारागढ़ी युद्ध में 36वीं सिक्ख रेजीमेंट के केवल 21 रणबांकुरे सिक्ख सैनिकों ने 10,000 पठान कबीलों से किले की रक्षा की थी, उनकी याद में स्मारक गुरुद्वारा तो है लेकिन पर्यटन स्थत के रूप में विकसित नहीं है।
इसी तरह शहीद भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर जेल में फांसी देने के बाद फ़िरोज़पुर में ही सतलुज के किनारे ही 23 मार्च 1931 को उनका अंतिम-संस्कार किया गया। हर वर्ष 23 मार्च को उनकी समाधि पर हजारों लोग इकट्ठा होते हैं। हालांकि आवश्यकता इस बात की है कि वहाँ देश के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े क्रांतिकारियों से संबंधित कोई म्यूज़ियम बनाया जाए और उसमें उनसे जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की प्रतियां रखी जाएँ। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के दोषी जरनल डायर से बदला लेने वाले शहीद उधम सिंह की याद में उनके नाम पर एक चौराहा है जिसमें उनकी मूर्ति लगी है। साथ के चित्र में आप यह मूर्ति देख सकते हैं। इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ कि मन में ये ख्याल आया था कि क्या शहीद उधम सिंह को इससे कुछ बेहतर ढंग से दिखाया जा सकता था? शहर से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर बज़ीदपुर गाँव में जामनी साहिब गुरुद्वारा है जहां खासी भीड़ रहती है। फ़िरोज़पुर के धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में इस स्थल को विकसित करने की बहुत गुंजाइश है।
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विद्या भूषण अरोरा