ट्रेन की यात्रा, मन की उड़ान- कुछ नोट्स
ट्रेन यात्रा के दौरान विभिन्न दृश्यों को देखते हुए मन में आ रहे विचारों में समुदाय-समाज और राष्ट्र कैसे आ जाते हैं, कितनी सहजता से राजेश झा अपनी बात कहते जाते हैं, यह देखना हो तो नीचे के इस यात्रा-वृत्तान्त को पढना शुरू कीजिये, अंत तक कब पहुंचे, यह पता भी नहीं चलेगा.
ट्रेन की यात्रा, मन की उड़ान- कुछ नोट्स
राजेश कुमार झा
प्लेटफ़ॉर्म पर गाड़ी लगी थी। सामान ले जाने के लिए जब मैंने नज़र दौड़ाई तो सामने लाल शर्ट और पीतल के आर्मबैंड की झलक दिखी। दो सौ रुपए! थोड़ी मोलजोल की कोशिश की लेकिन फिर चारा नहीं था। सीट के नीचे सामान रखने के बाद उम्मीद से मैंने उसकी ओर देखा। 200 रुपए। थोड़ी सी खीझ के साथ उसे पैसे देते हुए मैं सोच रहा था उसकी पसीने की कमाई है तो मेरी भी ईमानदारी की !
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गाड़ी खुलने में दस मिनट बाक़ी। हाँफती हुई एक लड़की सामने की सीट पर आकर बैठी। उम्र 20-22 साल। उसकी साँस उखड़ रही थी। मैंने पानी के लिए पूछा। उसने कहा पाँच मिनट में ठीक हो जाऊँगी। कुछ देर बाद ऊपर की सीट पर जाकर बैठी। धीमे-धीमे किसी से फ़ोन पर बात करते हुए लेट गयी। थोड़ी देर बाद मैंने नज़रें ऊपर कीं। उसके हाथ में एक किताब थी- Why I am an atheist by Bhagat Singh. खिड़की से बाहर सूरज डूब रहा था। मुझे सूरज उगता दिखाई दे रहा था।
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गाड़ी खुलने वाली थी। सामने की नीचे वाली सीट पर एक बुजुर्ग महिला आकर बैठी। बड़े बक्से को सीट के नीचे रख कर बाक़ी सामान- एक छोटा झोला, कंधे में लटकाने वाले दो पर्स, प्लास्टिक के थैले में भरा खाने का सामान सीट के सिरहाने की तरफ़ रखा। आधी बर्थ सामान से भर गयी थी। उन्हें पहुँचाने आयी लड़की ने कहा, अम्मा, सामान बर्थ के नीचे रख दूँ? महिला ने उसे कहा, तू जा, मैं देख लूँगी। आखिर रात भर की यात्रा थी। सुरक्षा सुविधा पर भारी पड़ती है। अनुभव विश्वास को खदेड़ देता है।
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बाथरूम। बाहर बायो-टॉयलेट पढ़ते हुए मैं अंदर पैर रखता हूँ। छप्प! पानी में पैर पड़ते ही मन भन्ना जाता है। खैर, बिना पानी वाले गंदे टॉयलेट से तो बेहतर है पानी वाला बायो-टॉयलेट। आखिर बिल-बोर्ड को हक़ीक़त में बदलने में वक्त तो लगता है। 2047 अब ज़्यादा दूर नहीं।
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ट्रेन में चाय पीकर प्लास्टिक के कप को सीट के नीचे खिसकाने में भला कैसा अपराध बोध? हाथ में नए ढंग का झाड़ू लिए, हल्के भूरे रंग की घिसी हुई, थोड़ी मैली हो रखी शर्ट पहने ठेके पर काम कर रहे कर्मचारी का आना-जाना तो लगा ही रहता है। कई बार मन हुआ पूछूँ कि भाई तुम्हें कितनी पगार मिलती है? 10 हज़ार? 12 हज़ार? मन में उहापोह चलने लगता है। सभी को पक्की नौकरियाँ क्यों नहीं मिलती? पक्की नौकरी देने के लिए देश को कितने राफ़ेल या मिसाइलें या तोप कम ख़रीदनी होंगी? पक्की नौकरी पाते ही लोग काम करना बंद क्यों कर देते? न जाने कितने सवाल! गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली थी। कंपार्टमेंट ज़ोर ज़ोर से हिल रहा था। मैं भी संतुलन बनाए रखने में मुश्किल का अनुभव कर रहा था।
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मैं खिड़की से बाहर देख रहा हूँ। बिजली के खंभे, बीच बीच में आ रहे स्टेशन, कास के फूलों की क़तार, बबूल और तरह-तरह के पौधे , कहीं लहलहाती फसलें तो कहीं परती पड़े खेत पीछे छूटते जा रहे थे। थोड़ी देर बाद मैं सामने की सीट पर जाकर बैठ गया। दूर आसमान को प्रणाम की मुद्रा में खड़ा बिजली का हाइटेंशन खंभा नज़दीक आता दिखाई दे रहा था। ट्रेन की खिड़की से सामने फैले खेत गाड़ी की गति के साथ चलते दिखाई दे रहे थे। सचमुच आप कहाँ से देख रहे हैं, यह आप क्या देख रहे हैं, उसे बदल देता है। नज़ारा नज़रिए पर निर्भर करता है।
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सुबह हो चुकी है। ट्रेन रात भर बेतहाशा भागती रही है। अब थोड़ा सुस्ता सुस्ता कर चल रही है। अभी तुर्की गुजरा। मुज़फ़्फ़रपुर वाला। सामने ओरहान पामुक का उपन्यास ‘A Strangeness in My Mind’ रखी है। पढ़ना शुरू ही किया है। मेवलुत इस्तांबुल की सड़कों पर फेरी लगाकर घर में बनाया हल्का नशीला पेय ‘बोजा’ बेचता है। देर रात एक ग्राहक उसे अपने घर पर बुलाकर धर्म के बारे में सवाल पूछता है। कमाल अतातुर्क के आधुनिकतावादी तुर्की में ये सवाल राजनीतिक ख़तरों से भरा है। मेवलुत इस्तांबुल की गलियों में २५ साल से ‘बोजा’ बेचता रहा है। वह होशियारी से इन सवालों से बचता हुआ जवाब देता है। लेकिन बाहर जाते ही कुछ उठाईगीर उसे घेर कर सारी कमायी छीन लेते हैं। ओरहान पामुक जिस ख़ूबसूरती से तुर्की की तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक स्थिति और मानव मन में चल रहे उहापोह तथा वैचारिक संघर्षों को रोचक ढंग से दिखाते हैं, वही एक महान लेखक की पहचान है। ट्रेन की यात्रा को ऐसी किताबें और भी आनंददायक बना देती हैं।
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मुज़फ़्फ़रपुर से दरभंगा के बीच खेतों में कास के फूल छाए हैं। रामचरितमानस में कास के फूलों की चर्चा स्मरण हो आता है-
बरषा बिगत सरद रितु आई।
लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई।
जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥
वर्षा ऋतु बूढ़ी हो चुकी है। ठंढ की हल्की सिहरन मौसम में छाने लगी है। पिछली बार गर्मियों में गाँव जाना हुआ था। गाँव में बिजली तो रहने लगी है लेकिन एसी अब भी कम हैं। शहरी आदतें कब मजबूरी बन जाती है पता ही नहीं चलता। खैर, इस बार वैसी दिक़्क़त नहीं रहेगी। इंशाअल्लाह।
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गाड़ी बिलकुल समय पर दरभंगा पहुँची। मेरा ड्राइवर अब भी क़रीब आधे घंटे दूर था। हम प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार करने लगे। सामने सर्वोदय बुक स्टॉल नज़र आ रहा था। मैं उत्सुकतावश वहाँ जाकर किताबें देखने लगा। ज़्यादातर धार्मिक पुस्तकें। कुछ कबीर। मैंने मैथिली की कुछ किताबें दिखाने को कहा तो नौजवान विक्रेता ने हरिमोहन झा की खट्टर काकाक तरंग और कन्यादान व द्विरागमन दिखाई। खट्टर काकाक तरंग १९४८ में छपी थी, कन्यादान-द्विरागमन १९३३ और १९४३ में। मुझे लगा कि क्या मैथिली साहित्य इतने लंबे कालखंड में हरिमोहन झा या यात्री जी से आगे नहीं जा पाया या कि मैथिली पाठक कम होते जा रहे?
खैर, मैं वहाँ रखी किताबों पर नज़र मार रहा था कि कुशल सेल्समैन की तरह उसने मुझे शायद दिल्ली से आया जानकर कहा कि ये किताब देखिए। आजकल अच्छी चल रही है। यह कहते हुए उसने मेरे आगे विनोद कुमार शुक्ल की बहुचर्चित किताब 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' रख दी। किताब को उलटते पलटते मुझे गहरी निराशा हुई। घटिया काग़ज़ पर अत्यंत छोटे फ़ॉण्ट में छपी इस किताब को देखकर मैं सोचने लगा कि जिस किताब के लिए तीस लाख सकी रॉयल्टी लेखक को मिली आखिर उसकी छपाई इतनी निम्न स्तरीय कैसे? वैसे यह ख़याल भी मन में उमड़ घुमड़ रहा था कि प्रकाशित होने के इतने वर्षों बाद भला यह किताब अचानक क्यों इतना बिकने लगी? कुछ तो असामान्य है। बहरहाल, मैंने दुकानदार से सर्वोदय संबंधी कुछ किताबें दिखाने कहा तो वह मुश्किल से जयप्रकाश नारायण की एक किताब ढूँढ पाया। चलो दुकान के नाम के साथ सर्वोदय तो ज़िंदा था। मेरी गाड़ी पहुँच चुकी थी। मैं मधुबनी की ओर रवाना हो गया।
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सकरी से मधुबनी की ओर जब कार मुड़ी तो अचानक मेरी नज़र एक किन्नर पर पड़ी। उसने फ़ैशन मैगज़ीन में प्रचारित की जाने वाली ड्रेस पहन रखी थी। उघड़ी हुई पीठ पर रस्सियों का झीना सा जाला। चेहरे पर ढेर सारा मेकअप। मैं समझ नहीं पाया कि इस तरह की ड्रेस उसने क्यों पहन रखी थी। मैं जानता हूँ कि किन्नर शादी ब्याह जैसे अवसरों पर नाचने के लिए बुलाए जाते हैं। लेकिन अभी तो मिथिला में लगन का वक्त नहीं था। तो क्या उन्हें यूँ ही मनोरंजन के लिए नाच गाने के वास्ते बुलाने का चलन भी है? हम अपनी ही संस्कृति के बारे में कितना कम जानते हैं। मिथिला सिर्फ़ पान. मखान (जो अब बोल चाल में मखाना बन चुका है), और माछ नहीं। संस्कृति की एक सबाल्टर्न धारा भी बहती रहती है जो कभी नटुआ नाच तो कभी राजा सलहेस और दीना भद्री के कई कई रातों तक चलने वाले कार्यक्रमों में दिखाई देती है। क्या मिथिला की इन विविध सांस्कृतिक धाराओं का व्यवस्थित अध्ययन हुआ है?
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मधुबनी पहुँच कर शाम को मैं यूँ ही बाज़ार की ओर चल पड़ा। थोड़ी ही देर में आगे पीछे पुलिस के सायरन की आवाज़ सुनाई देने लगी। सामने अर्द्ध सैनिक बल और बिहार पुलिस के जवान क़तार में परेड करते हुए दिखाई दे रहे थे। संख्या रही होगी कम से कम ३००। आगे पीछे पुलिस की गाड़ी। ज़िलाधिकारी, एस.डी.एम., डी.एस.पी. की गाड़ियाँ साथ चलती हुई। बीच में डी.एम. साहब चुस्त चाल में चलते हुए। किसी रियासत के राजा वाली शान। सड़क से गुजर रही जनता किनारे ठिठकती हुई विस्मय के साथ यह दृश्य देख रही थी। थोड़ी देर बाद मेरी समझ में आया कि अभी अभी चुनाव की घोषणा हुई है। प्रशासन इस मार्च के द्वारा बताना चाहता है कि चुनाव के लिए सुरक्षा का पुख़्ता इंतज़ाम किया गया है।
संयोग की बात है कि मैं जहां ठिठक कर यह शानदार नजारा देख रहा था उसके सामने सड़क की दूसरी ओर एक तालाब हुआ करता था। पिछले पंद्रह बीस सालों में इसे भरकर बेच दिया गया और आज तालाब के नाम पर एक छोटा सा डबरा बचा है। लोग कहते हैं कि यहाँ की पुलिस और प्रशासन ने तरह तरह के ठीकेदारों, दबंगों, गुंडों और नेताओं के साथ मिलकर इसे बेच लिया। मैं सोचने लगा कि काश कभी इस तरह के अवैध कामों के खिलाफ प्रशासन की मुस्तैदी दिखाने के लिए ऐसा ही मार्च निकाला जाता तो जनता सड़क के किनारे ठिठकती नहीं बल्कि जोश में आकर प्रशासन के साथ चलती, उसकी मदद करती। शायद हमने एक ऐसी संस्कृति बना ली है जिसमें दिखावा, तमाशा, नाटकीयता और खोखली प्रतीकात्मकता ने ठोस और वास्तविक कार्यों की जगह ले ली है।
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मधुबनी का मशहूर गिलेसन मार्केट। शायद दिल्ली की खारी बावली और सब्ज़ी मंडी का एक संक्षिप्त संस्करण। शहीद अकलू तुरहा द्वार को पार कर गिलेसन मार्केट में प्रवेश करते हुए लग रहा था जैसे दो युगों के इतिहास से गुजर रहा हूँ। गिलेसन दरअसल भाषाविद एवं ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारी जॉर्ज ग्रियर्सन का ही लोक जिह्वा में घिस कर बना नाम है जिन्होंने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में सन 1980 के आसपास मैथिली भाषा को Linguistic Survey of India में एक अलग भाषा का दर्जा दिया। नौजवान अकलू तुरहा आज़ादी की लड़ाई में सन 1942 में अंग्रेज़ी हुकूमत की गोली के शिकार हुए थे। दोनों के लिए ही मिथिला के लोगों के मन में गहरी श्रद्धा और सम्मान है। छद्म और विकृत राष्ट्रवाद से लेकर भाषा और क्षेत्रीयतावाद और अपने विभिन्न स्वरूपों में पहचान की राजनीति के इस विकट दौर में मुझे लगा कि ग्रियर्सन और शहीद अकलू एक चुनौती की तरह खड़े हों।
गिलेसन का मशहूर भुंजा लेकर वापस लौटते हुए मैं कामना कर रहा था कि देश और दुनिया में गली-गली, चौक-चौक, मुहल्ले-मुहल्ले में ग्रियर्सन और शहीद अकलू जैसी स्मृतियाँ सुरसा की तरह मुँह फाड़ती संकीर्ण अस्मिता पर आधारित सोच एवं राजनीति को चुनौती देती रहे।
इति यात्रा वृत्तांत।
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राजेश झा भारतीय सूचना सेवा से हैं और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की विभिन्न मीडिया इकाइयों में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे हैं। उन्होंने 'योजना' के मुख्य संपादक और ढाका में प्रसार भारती के विशेष संवाददाता के तौर पर भी कार्य किया है।