बनाएँगे दुनिया को रहने के काबिल : योगेंद्र दत्त शर्मा के दो उपन्यासों का परिचय
हाल ही में योगेंद्र दत्त शर्मा के दो उपन्यास आए हैं जिनसे आपका परिचय करवा रहे हैं इस वेब-पत्रिका के चिर-परिचित लेखक राजेन्द्र भट्ट। वैसे यहाँ यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि योगेन्द्र दत्त शर्मा भी इस वेब-पत्रिका के लिए नए नहीं है। उनके गीत और ग़ज़लें आप यहाँ और यहाँ पढ़ चुके हैं।
बनाएँगे दुनिया को रहने के काबिल : योगेंद्र दत्त शर्मा के दो उपन्यासों का परिचय
राजेन्द्र भट्ट
बोधि वृक्ष पर भट्टतौत उर्फ तमाशा मेरे आगे योगेंद्र दत्त शर्मा का ताजा उपन्यास है। लेखक मेरे आदरणीय अग्रज हैं, मैंने उनसे स्नेह पाया है, पुस्तकों और पत्रिकाओं के सम्पादन का कौशल और भाषा की मार्मिकता और गहनता के पाठ (जितना मैं सीख सका)सीखे हैं। साथ ही, यह पुस्तक काफी हद तक आत्मकथात्मक है जिसके काफी हिस्से में हम साथ रहे हैं (उपन्यास में भी शायद मौजूद हूँ) और उससे पहले, यानी हमारे परिचय से पहले भी, एक ही भाव-भूमि पर रहे हैं, सम्पादन, भाषा और विचारों में भी एक-सी पसंदगियाँ-नापसंदगियाँ साझा करते रहे हैं।
इसलिए इस किताब की समीक्षा मैं नहीं कर सकता। परिचय दे सकता हूँ।
इस आत्मकथात्मक पुस्तक का नायक संवेदनशील साहित्यकार है जो रोज़गार-परिवार के संघर्षों से गुज़रते, ज़माने की चालाकियों और संवेदनहीनता से अपने अंदर के साहित्यकार को बचाते, प्रतिरोध को ज़िदा रखते एक सरकारी प्रकाशन-संस्था में संपादक हो जाता है। यहाँ उसे उदात्तता और सच्चाई के परचम संभाले थोड़े से आत्मीय मिलते हैं तो क्षुद्र स्वार्थों के लिए पद और परिचयों का निर्लज्जता से उपयोग करते सरकारी-गैरसरकारी मठाधीश भी मिलते हैं। अभावों और संवेदनाओं की सीमाओं में बंधे पारिवारिक माहौल, दुनियादारी की चालाकियों के बीच, और कभी-कभी उसमें डूब कर भी, कहानी का चरित-नायक अपने संवेदनशील ‘स्व’ को बचाए रखता है।
‘तोते’ के बिम्ब (जो इस पुस्तक के शीर्षक में भी है और लेखक ने शुरू में स्पष्ट भी किया है) के ज़रिए, लेखक ने अपनी कथा-यात्रा का सार भी प्रस्तुत किया है। इसमें एक तोता संस्कृत साहित्यकार (और संभवतः अनूठे गद्य-लेखक) बाणभट्ट का है जिसे और अच्छी तरह से समझने के लिए आपको मूर्धन्य हिन्दी विद्वान और ललित गद्य के अनूठे लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ से परिचित होना होगा। संवेदनशील और महत्वाकांक्षी कला-कर्मी के कंधे पर बैठ जाने वाला यह तोता बाहरी दबावों, प्रलोभनों और महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक है जो आत्मबल और अंतश्चेतना न जगा पाने की स्थिति में लेखक को सच्चे लेखकीय सरोकारों से विमुख कर देता है और केवल ‘यूटोपिया’ में जीने पर बाध्य कर देता है, मात्र छलावा बन जाता है। सुगना और मिट्ठू दो अन्य तोते हैं जो कथा-नायक के मन में रहते हैं और क्रमशः भावुकता और बौद्धिकता के पक्ष उजागर करते हैं।
मैं तो इस कहानी के घटना-क्रम और विस्तार से परिचित रहा हूँ। लेकिन दूसरे पाठक भी इस उपन्यास में 1980 से लेकर 2000 के दशक के दौर की आदर्शवादी आकांक्षाओं और धूर्त महत्वाकांक्षाओं, संस्थाओं की बुलंदी और क्षरण, मध्यवर्गीय जीवन के राग-विराग, भावनात्मक संबल और उचाटपन – इन सभी को देख सकते हैं। मेरे लिए इस किताब का एक और ‘टेक-अवे’ या यूँ कहें कि हासिल है, जिसका जिक्र आगे करना चाहता हूँ।
किताब के शुरू में ही पुश्तैनी बनियों के घर में (यह बात आत्मकथात्मक नहीं है, शायद लेखक ने कहानी में ‘कंट्रास्ट’ लाने को ‘कैमोफ्लाज’ किया है) साहित्य- अनुरागी किशोर पुत्र को प्रोत्साहन की जगह, सुनने को मिलता है, “ये तूने क्या तोता पाल लिया?” मेरा ‘टेक-अवे’ इस मुहावरे से शुरू होता है।
इस मुहावरे का मतलब है कि तूने यह क्या बेकार का, निष्फल शौक पाल लिया! मैं आप से साझा करना चाहता हूँ कि अपने हिन्दी-भाषी लोगों की वर्तमान पीढ़ियों ने, इतना सहज, आम-फहम मुहावरा इस दौर में सुना है क्या? इस किताब के साधारण मध्य-वर्गीय हिंदीभाषी समाज के लोग ऐसे मुहावरे, हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमुनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। किताब में, और अपने उस ज़माने में भी हजारी प्रसाद द्विवेदी, बाणभट्ट से लेकर अनेक उर्दू शायरों, गीत-संगीत परंपराओं – और फिर राजेंद्र यादव, मनोहरश्याम जोशी और पंकज बिष्ट का जिक्र होता रहा है। क्या हमारी आज की ‘रील देख रही’, मंदिर-मस्जिद की मीमांसा सोशल मीडिया पर कर रही, खान-पान-परिधान के दुनिया भर के ब्राण्डों से सुपरिचित और उनपर चर्चा करती हिन्दी पट्टी की पीढ़ियाँ अपनी बोलचाल और मिलने-जुलने में इन मुहावरों, लेखकों, गीत-संगीत वगैरह का इस्तेमाल करती है या इन्हें समझती है? हमारी ऊंचे ‘पैकेज’ से मंडित और आक्रामक चर्चाओं से विभूषित पीढ़ी जब मिलती है, सामाजिक-सामूहिक लंच-डिनर करती है तो 1980 या 1990 के दशक तक की बातचीत की उस मनोरम, समृद्ध करने वाली भाषा और चर्चा से वंचित क्यों रहती है!
योगेंद्र जी का हिन्दी और उर्दू की लोकभाषा, साहित्य और मुहावरे (ईडियम) पर अधिकार है इसलिए उनका ‘बतरस’ भला लगता है। मैं भी उससे समृद्ध हुआ हूँ। वह मनोरम लय और गहरी संवेदना से सम्पन्न गीतकार भी हैं। इस किताब के कथ्य और शिल्प में आप ये सुंदरताएँ देखेंगे और शायद सोचेंगे भी कि हम, हमारी बातचीत, हमारी महफिलें पिछले बीस साल में इनसे कैसे वंचित हो गईं।
इसके साथ ही, इसी भाव-भूमि लेकिन छोटे कालखंड को समेटता उनका दूसरा उपन्यास भी साथ-साथ आया है। शीर्षक है – आसमाँ और भी हैं। यहाँ भी एक संवेदनशील साहित्यकर्मी का संघर्ष है, रोज़ी-रोटी की मेहनत और व्यावहारिक समीकरणों को साधते हुए, संवेदनओं को बचाकर जीवन जी लेने जाने का संघर्ष है। मतलब, गमे-इश्क भी है, गमे -रोजगार भी। मेरे लिए, इस किताब की खूबी, इसके उम्मीद-भरे अंत में है जहां कथा-नायक, हर देश-काल में हौसला देने वाली बाबा नागार्जुन की कविता और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी से नई ताकत जुटाता है। इसी जुगलबंदी पर हम भी इन किताबों की चर्चा समाप्त करते हैं:
जो नहीं हो सके पूर्णकाम। / मैं करता हूँ उनको प्रणाम!
xxxxxxxx
रण की समाप्ति से पहले ही/ जो वीर रिक्त तूणीर हुए
xxxxxxxxx
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े/ रह-रह नव-नव उत्साह भरे। / पर कुछ ने ली हिम-समाधि
कुछ असफल हो नीचे उतरे। /उनको प्रणाम।
और –
सब सागर,शीशे, लाल-ओ-गुहर /इस बाजी में बद जाते हैं,
उट्ठो, सब खाली हाथों को इस रन से बुलावे आते हैं।
और यह भी –
अभी सामने एक जलता सफर है/ अभी आग बरसा रही दोपहर है।
xxxxx
नतीजा नहीं है, न है फैसला ही/ अभी हैं कई इम्तहाँ और आगे
उन्हें पार करना है बेहद ज़रूरी/ नहीं चाहिए कामयाबी अधूरी
मिलेगा नया एक जहां और आगे/ बनाएँगे एक आशियाँ और आगे / खिलेगी वहीं कहकशां और आगे
बनाएँगे दुनिया को रहने के काबिल/ हमारे सफर का यही होगा हासिल / बनाएँगे हम बस्तियाँ और आगे।
और मेरा हासिल यह है कि लिखते-लिखते मेरी भी उदासी छंटने लगी है। लगता है, खुदाइयों के अंधेरे दौर में, ऊंचाइयों की रोशनी झलकने लगी है। आदरणीय अग्रज की किताबें पढ़ने का यह प्रसाद तो वाजिब ही है। हर अच्छी किताब दुनिया को रहने के काबिल ही तो बनती है।
**********

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।