इन्द्रजाल : अनीता गोयल की नई कहानी
अनीता गोयल की पिछली कहानी गुलाब जामुन : ब्रैन्डा से वृंदा और फिर ब्रैन्डा बनने का वृत्तांत पाठकों ने काफी पसंद की थी। अनीता की कलम मन की अतल गहराइयों तक कुशलतापूर्वक डुबकी लगाती है और फिर गहरे पानी पैठ मनोविश्लेषण की जटिलताओं से ऐसे मोती चुनती है कि हम आश्चर्यचकित से रह जाते हैं।
इन्द्रजाल : अनीता गोयल की नई कहानी
रेवती केवल ६५ वर्ष की थी लेकिन कैंसर ने ऐसा घेरा कि देखते ही देखते एक ही बरस से कम में काया ने माया का त्याग करना शुरू किया और उसके श्वास देह का केवल आख़िरी सिरा ही पकड़े हुए थे। आज, जैसे जीवन, जीवन से आगे निकल गया था। रेवती को सरकारी अस्पताल के निजी कक्ष से शिफ्ट कर सार्वजनिक कक्ष में ले जाया जा रहा था। उसकी काया कमजोर, या कहें बिल्कुल पिंजर हो गई थी। देह ऐसे शांत थी, जैसे कि निष्प्राण हो पर साँसे अभी चल रही थी। अभी कुछ देर पहले ही उसकी छोटी बहू ने गर्म तौलिये से पौंछकर उसके कपड़े बदले थे और उसके काले-श्वेत बालों को बाँधा था। सलीके से सुंदर साड़ी पहनने वाली रेवती आज बस एक ढीली सी कमीज़ और नीचे पेटीकोट में लेटी थी या कहें कि पड़ी थी। नासिका में दो माह से भोजन के लिए पाइप लगी थी। उसका गोरा मुख ख़ून की कमी से पीला पड़ गया था पर चहरे पर अभी भी उज्ज्वलता थी, मानो कि वो बता रही हो कि मैं अभी यही हूँ।
रेवती पिछले करीब एक बरस से कैंसर की बीमारी से काफ़ी जूझ रही थी। पति रहे नहीं थे पर उसके लिए पर्याप्त छोड़ गए थे। किमियोथेरेपी दी नहीं जा सकती थी और यही बताया गया कि अब जितना लिखा है, उतना जियेंगी। रेवती के कैंसर की अंतिम अवस्था में पेट में पानी पड़ जाता था और उसे निकालने के लिए अस्तपताल की जरूरत पड़ती थी। घर में धन की कमी नहीं थी लेकिन निजी और सरकारी दोनों अस्पतालों ने रेवती के इलाज के लिए मना कर दिया था क्योंकि डाक्टरों के अनुसार अब इलाज को कुछ बचा ही नहीं था। बड़ी दुखद अवस्था थी। पड़ोसी आनंद मिश्रा अखिल भारतीय संस्थान में चिकित्सक थे, उन्होंने रेवती और परिवार की दशा देखते हुए, वहाँ इलाज के लिए अनुमति ले ली। सो तय हुआ कि अब अनुमति मिले पास ही के सरकारी अस्पताल से आगे का इलाज कराया जाये या कि आगे की बीमारी को संभाला जाए।
अग्रसर होते कैंसर को झेलते हुए रेवती एक दिन बेहोश हो गई। घर में हाहाहकार मच गया और दोनों पुत्र माँ को अस्पताल ले आए। अस्पताल के सभी बड़े चिकिस्तकों ने आज सुबह माँ का निरीक्षण किया। हृदय की धड़कन सुनी, फेफड़ों की आवाजे सुनी, धमनियों के आवागमन की चाल को सुना,अपने सूक्ष्म औजारों से परीक्षण किया और बताया कि सम्पूर्ण तंत्रिका-तंत्र की संवेदनाएँ चली गई है। मस्तिष्क और शरीर का आपस में संबंध टूट गया है। नेत्र पत्थर बन गए हैं और कमजोर देह कोमा में चली गई है। चिकित्सकों ने कहा, ”अगर आप चाहें तो अपनी माताजी को घर ले जा सकते है, इनमे अब कुछ बचा नहीं है। कैंसर शरीर में चारों तरफ़ फ़ैल गया है, अब ये उठेगीं नहीं। बस सांस बाक़ी है तो केवल कुछ ही दिनों की बात है। मात्र प्राण ही बचे है, घर पर ही त्यागें तो मुक्ति होगी।“ दोनों पुत्र घबरा गए। निर्णय बहुत कठिन ही नहीं बल्कि कष्टदायक लग रहा था। दुख, दुविधा और कठोर निर्णय के संकोच से दोनों के गले रुँध गए कि क्या बस इतना ही? क्या जाने से पहले माँ से बात तक नहीं होगी? दोनों पुत्रों की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। वरिष्ठ विशेषज्ञ ने कहा, “आप समय लीजिए। घर जाइए और सोचिए, ये घड़ी आपके लिए आसान नहीं है। अगर आप अभी न ले जाना चाहे तो ये सार्वजनिक वार्ड में रह सकती है।“ छोटी पुत्रवधू सरला को वही छोड़कर, दोनों पुत्र निखिल और आदित्य घर चले गए। घर आने पर उन्होंने अपने मामों और मौसियों को फ़ोन किया कि कैसे निर्णय लिया जाए? रेवती का लगाव अपने ही परिवार से ज़्यादा था तो लिहाज़ा उन्ही से आगे के निर्णय केलिए पूछा जाना था।
रेवती जीजी अपने पिता की सबसे बड़ी संतान थी। अनुशासन, धैर्य, पारिवारिक मूल्यों के साथ-साथ उन्हें उच्च शिक्षा भी मिली थी। जीजी का विवाह देर से हुआ था और उन्होंने अपनी नौकरी से परिवार को बहुत सहारा दिया था। अम्मा और पिताजी जीजी को बहुत ही मानते थे और उनकी सलाह से ही सब काम होता था। अम्मा पिताजी के जाने के बाद भी रेवती का अपने मायके के हर विषय पर बहुत प्रभाव बना रहा। वो अपने छोटे भाई और बहनों को बहुत ही प्रेम करती थी और छोटी बहन प्रिया तो जैसे उनके हृदय का टुकड़ा थी। अम्मा पिताजी के जाने के बाद जीजी अपने परिवार का स्तंभ बनी रही। वैसे माता पिता के जाने के बाद धीरे धीरे दोनों मौसी और दोनों मामा जीजी के प्रभाव का सुख कम और बंधन ज़्यादा महसूस करने लगे थे।
दो बरस पहले रेवती बिल्कुल स्वस्थ थी। पति की मृत्यु के बाद वह, बड़ी बहू प्रज्ञा के पुत्र के प्रसव के लिए विदेश गई थी और उसके व्यवहार से काफ़ी रुष्ट थी। वैसे तो रेवती दोनों बहुओं में सन्तुलन रखने के लिए, दोनों के सामने एक दूसरे की प्रशंसा ही करती थी, पर इस बार उसके दिल को बहुत ठेस लगी क्योंकि पति के बिना वो पहली बार बड़े पुत्र के यहाँ गई थी। दिल्ली आते ही रेवती ने घर में स्पष्ट स्वरों में घोषणा कर दी थी कि प्रज्ञा का अब उनके घर में स्वागत नहीं होगा। उन्होंने बेझिझक प्रज्ञा और निखिल के व्यवहार के बारे में परिवार में चर्चा की। विदेशी बहू का सास के प्रति व्यवहार सुनकर भाई और बहनों को काफ़ी आश्चर्य और दुख हुआ। इस विवरण से छोटी बहू सरला की घर में पदोन्नति तो हुई पर उस से कहीं ज़्यादा घर कार्य में वृद्धि हुई। विदेश से वापिस आने के बाद रेवती की तबीयत ख़राब रहने लगी और कई एक्स-रे और एम आर आई के बाद कैंसर का पता चला।
रेवती का बड़ा पुत्र निखिल और उसकी पत्नी प्रज्ञा माँ की बीमारी का सुनकर विलायत से आए थे। सास का घर में बहुत प्रभुत्व था। उसकी बीमारी के कारण उसके परिवार वालों का घर में आना जाना बहुत बढ़ गया। उसके भाई बहन दिल्ली से बाहर रहते थे सो आने जाने में दिल्ली कुछ रात रुकना ही पडता था। और आदित्य स्वयं करे न करे पर आचार-विचार और पारिवारिक नियमों पर अपनी पत्नी सरला को उच्च स्वर में काफ़ी ज्ञान देता था। सरला ज़्यादा सोचती नहीं थी बस जो दिखाया या बताया जाता वही कर देती थी। बड़ी बहू प्रज्ञा विदेश से आने के बाद घर पर ही रहती थी क्योकि उसके दो छोटे बच्चे थे। प्रज्ञा बच्चों की खिट-पिट और गर्मी से बहुत खिन्न थी। इस पर घर की बड़ी बहू होने के बावजूद भी उससे कोई सलाह नहीं की जा रही थी - चाहे बात माँ से जुड़ी हो या रसोईघर से। मम्मी तो अब जाने कितने दिन लटकेगीं, ये सोचकर की वो परेशान हो जाती थी। सो इस विषम परिस्थिति में घर का वातावरण काफ़ी तनावपूर्ण था।
शाम में आदित्य माँ के पास रुका और छोटी पुत्रवधू सरला रिक्शा करके जब घर पहुची, घर मेहमानों से भरा था। दोनों मामा, मामियाँ और मौसा मौसी घर पहुँच चुके थे। प्रज्ञा अपने छोटे पुत्र को सुलाने में लगी थी। निखिल अपने विदेश में बड़े घर, बाग बगीचे, नौकरी, अच्छी सरकारी व्यवस्था और आनंदमयी जीवन के विषय में बता रहा था। सभी विदेश के बड़े घरों, उच्च व्यवस्था और समृद्ध रहन सहन के वर्णन से बेहद प्रभावित थे। निखिल भारतकी गंदगी से चिढ़ा था। वह भारतीय अस्पतालों की व्यवस्था से खुश नहीं था। उसने कहा, “ मैंने तो कहा था मम्मी से कि वापस जाने की क्या जरूरत है पर माने तब न। देखो अब यहाँ क्या हाल है, किसी काम का न हॉस्पिटल है न डॉक्टर है। हर कौने में गंदगी है घर हो या अस्पताल“ फिर वहबुदबुदाया, ”भुगतें फिर, सुननी किसी की नहीं है।“
छोटी मौसी प्रिया की घर में चलती थी वह माँ की प्रिया जो थी, उसने तुरंत अपना विचार दिया, “जीजी तो किसी की सुनती नहीं थी और हम तो जीजी की आगे कभी कुछ बोल ही नहीं सकते थे। तू जाने दे निखिल।“ चर्चा चलती रही। विदेश केआनंदमयी जीवन और सुखों और बच्चों के सुरक्षित और सुंदर भविष्य पर वार्तालाप के बीच में प्रिया ने पूछ ही लिया, “निखिल बेटा बता, तुझे विदेश का पता है, चिंटू अगले साल बाहरवीं करेगा, क्या उसे वहाँ पढ़ने का कुछ अच्छा अवसर मिलेगा? वो तो तू वहाँ है सो पूछ रही हूँ वरना तो यहाँ के कॉलेजो में भी पूरी उम्मीद है।“ निखिल ने पूरा ज़ोर लगाकर कहा, “ अरे मौसी क्या बात करती हो, मैं उसका बड़ा भाई हूँ वहाँ। आपने सोचना भी नहीं है। वहाँ पढ़ेगा तो कल को नौकरी भी अच्छी मिलेगी, बात करने और रहने का सलीका आयेगा। आदित्य को देख लो, कोई तौर तरीका आता ही नहीं। मैं बस मम्मी के लिए रुका हूँ, मुझे तो यहाँ खाने पीने में भी अलक़ायत आती है।“ प्रिया मौसी को निखिल के साथ अपने पुत्र चिंटू का भविष्य नज़र आने लगा। क्या पता विदेश रहने का ही रास्ता खुल जाये तो जून ही सुधर जाएगी।
बाक़ी रिश्तेदारों ने भी निखिल की बात को ध्यान से सुन ही लिया।सबके बच्चे अब बड़े हो रहे थे और सबको ही उनके भविष्य की चिंता थी। भई, भारत में अब बहुत कंपीटीशन है, विदेश का एक ठप्पा कई मुश्किलें आसान कर सकता है। जीजी यानी रेवती ने विदेश में निखिल के घर अपने साथ हुए व्यवहार की जो बातें बताईं थीं, उन्हें सब भूल गए, भई, जीजी थी भी तो बहुत सख्त। बहुत कुछ स्वयं पर भी निर्भर करता है। वे रही होगीं टिपिकल सास बनकर प्रज्ञा के ऊपर। तब तक प्रज्ञा भी वहाँ आ गई थी। निखिल की बात सुनकर मुस्कुराई, उसे घर की गंदगीवाली बात बहुत भाई। सरला से उसे कोई दुश्मनी नहीं थी। पहले सरला की दशा पर उसे दया आती थी कि कहाँ फस गई बेचारी। इस बार मम्मीजी की उस पर अनुकंपा देख कर उसे सरला से जलन हो आई थी। प्रज्ञा ने फटाफट मामियों और मौसियों को विदेशी उपहार दिए जिनसे सब बहुत प्रसन्न थे। इन उपहारों ने उनके पेट के दौड़ते चूहों के ऊपर काबू पा लिया। निखिल और प्रज्ञा दोनों के मुखों पर अपने विदेश की प्रगति यात्रा का अत्यंत गर्व छाया था।
काम वाली बाई ने मेहमानों की संख्या देखकर शाम की छुट्टी कर ली धी। सरला ने शाम की चाय का प्रबंध करने के बाद, बड़े कमरे में नए धुले बिस्तर सबके लिए पलंग के ऊपर और नीचे लगाकर शाम के खाने का इंतजाम किया। देर रात तक काम निपटा कर वो सबके लिए गर्म दूध लेकर आई। काफ़ी विचार चल रहा था। सरला काम के बाद काफ़ी थकी थी, सोचा थोड़ी देर बीच में बैठ कर फिर सोने जाती हूँ। सरला ने बीच में पति से पूछा, कल का क्या प्रोग्राम है। उसकी हिम्मत नहीं थी पूछने की कि मम्मी के लिए कुछ सोचा गया कि नहीं। बड़ी मौसी बोली कि “सुबह ९ बजे तक नाश्ता करके हम तो सबसे पहले हॉस्पिटल जायेंगे। और सुन, दोपहर के भोजन के लिए आलू के लावा कुछ भी बना देना, आलू से मुझे बादी होती है।सरला ने हामी में सिर हिलाया।
प्रज्ञा पहले ही दोनो बच्चों को लेकर अपने कमरे में चली गई थी। सरला बहुत ही थकी थी तो वही बैठे हुए उसे झपकियाँ आने लगी। कुछ देर बाद वो उठकर सोने जाने लगी तो निखिल ने कहा, “सरला, कल तुम्हारे जाने की जरूरत नहीं है। प्रज्ञा चलेगी। हम बच्चों को भी लेकर जाएगें। मम्मी को बच्चो से बहुत स्नेह था, शायद इनकी आवाज से ही जाग जाये। आदित्य रात से वहाँ है। मैं जाते ही उसे भेज दूँगा। और हाँ, मैं कल साग लाया था, हमारे यहाँ तो मिलता नहीं है। रसोई में रखा है, शाम के लिए बना लेना।"
थोड़ी देर की और चर्चा के बाद सभी सोने चले गए। प्रज्ञा ने रात में पति को ज्ञान दिया, “सुनो, मम्मी को घर ले मत आना, मेरे पास दो छोटे बच्चे है, काम वाली इन लोगों ने बेकार रखी है, कभी आती है कभी नहीं। बाक़ी मेहमान छुट्टी के लिए आते है। मुझसे इससे अधिक नहीं होगा। आपकी माँ रूल जाएगी। सरला से कुछ होता नहीं, अपनी बेटी तक को अपनी माँ के पास छोड़ आई है। इतना क्या काम है यहाँ?“ निखिल ने हामी भरी, “ नहीं प्रज्ञा, मैं देख रहा हूँ, सरला काम में बहुत ही ढीली है, तुझ पर बच्चों का काम बहुत अधिक है, तू फ़िक्र न कर, मैं सब संभाल लूंगा। मम्मी की देखभाल में कमी न होने दूँगा।“
आदित्य, निखिल की प्रतीक्षा कर रहा था। दस बज गए थे और मम्मी की फीड का समय हो रहा था। साथ ही बाहर के गलियारे में वो सो तो गया था पर लेकिन ठीक से सोना नहीं हुआ था। घर से पराँठियाँ नाश्ता करके सब अस्पताल पहुँचे। पहुंचने पर तय हुआ कि बच्चों को लेकर आदित्य घुमा लाएगा क्योकि वे कुछ समझेगें तो है नहीं उल्टा परेशान ही होंगे। रेवती से सब दो दो करके मिलेंगें ताकि उसके बिस्तर के पास भीड़ जमा ना हो जाये। सभी जल्दी जल्दी मिलेंगें क्योंकि मिलने का सिर्फ़ एक घंटा था और थका हुआ आदित्य भी घर भी जाना चाहता था, ताकि अगर माँ को अस्पताल रखने का निर्णय हो तो वो पुनः शाम में आ सके।
जीजी से मिलने के लिए सर्वप्रथम प्रज्ञा और छोटी मौसी प्रिया की बारी आई। प्रज्ञा ने सास को पाइप से तरल भोजन की नाप कर एक फीड दी। बहन की ये अवस्था देख कर, मौसी के नैत्र भर आए। “हाय, कितना किया जीजी ने घर के लिए। अम्मा को तो बस जीजी ही जीजी दिखाई देती थी, वैसे पिताजी को भी किसी अन्य बच्चे में क्षमता नज़र नहीं आती थी।“ प्रज्ञा ने मौक़ा देखते ही मौसी के कान में किनमिन किया, “हमारा क्या मौसी, मुझसे तो जो सरला कह देती है, मैं कर देती हूँ। एक बार मम्मी चली गई तो मेरा यहाँ क्या और कौन रह जाएगा। देखो न मम्मी कितना प्यार करती थी मुझे। इस बार जाने सरला ने क्या पट्टी पढ़ाई, मेरे आने पर जैसे सारे घर को साँप सूंघ गया हो। “ मौसी का दिल भर आया, “ऐसे कैसे बिटिया, हम है न। और जो जीजी का वो तुम दोनों का भी है। नाइंसाफी तो मैं तेरे साथ न होने दूँगी।“ प्रज्ञा बोली, “मैं क्या बोलूँ मौसी, आप ख़ुद ही तेवर देख ले सरला के, सीधे मुंह बात नहीं करती। मम्मी को भी जाने क्या घोल के पिलाया हुआ है। मुझे कल ही इसने कहा है इस घर को अपना न समझ के बैठ जाना, मेहमान बन कर आए हो तो मेहमान ही जाना। मैं तो डर के रहती हूँ। घर में कुछ भी छूने से मुझे डर लगता है।“ मौसी ने भावविभोर होकर प्रज्ञा के सिर पर हाथ फेरा। फिर जीजी के पास आई और नेत्रों से अश्रु पोंछते हुए बोली,”जीजी का कितना रौब था। हम सब थर-थर काँपते थे। बेटा मेरी शादी में मैंने कितना कहा अम्मा के कंगन मुझे दे दो पर जीजी ने साफ़ मना कर दिया कि अम्मा के है। मेरे बाद कोई तो और तो शादी के लिए बचा नहीं था – क्या किया होगा अम्मा ने उनका? तेरे छोटे मामा ने रखे होंगे या जीजी के पास होंगे? तू देखना शायद सरला के पास हों?“
प्रज्ञा सुबकने लगी, “ये सीधी साधी बन कर दिखने वाली सरला ने न जाने क्या क्या दबा कर रखा है?”
छोटी मौसी ने बाहर जाकर बड़ी मौसी को भेजा। बड़ी मौसी ने देखा कि प्रज्ञा वहाँ बैठी सुबक रही है। बहन के सिर पर हाथ फेर कर बोली, “मेरी बहन क्या हो गई री। बेटे, बड़े ध्यान से रहना। अभी तो बहन बैठी है, सरला ने तो घर पर नियंत्रण कर लिया है, किसी काम करने से पहले से न तेरे से पूछना और न किसी मामी या मौसी से। ये तो अच्छी बहु के लच्छन नहीं है।“ प्रज्ञा ने कहा, “मेरा तो भारत से नाता मम्मी तक ही है, मौसीजी। बस, सब देख लिया इस बार। मैं मम्मी के पास ही बैठूँगी, आप एक एक करके मामीजी को भेज दे।“ प्रज्ञा की पीठ सहलाकर मौसी बाहर निकल गई।
बड़ी मामी वैसे जीजी से छोटी थी, पर जीजी के मायके में बड़ी थी। जीजी के अम्मा पिताजी को साथ रखने में उन्होंने अपनी असमर्थता चतुराई से दिखाई थी। मामाजी की नौकरी सरकारी थी और उन्हें हर कुछ साल में जगह बदलनी पड़ती थी। जीजी उनके मत से सहमत नहीं थी और मामी की इस बात पर काफ़ी आलोचना भी हुई थी। इस आलोचना की फाँस अभी तक उन्हें चुभी पड़ी थी। उन्हें जीजी से कोई लगाव न था पर मर्यादावश देखने आना तो था। जीजी को एक उड़ती नज़र देखने के बाद बोली, “प्रज्ञा बेटा, जीजी अपने मन की हर बात बस मुझसे करती थी। उन्होंने कहा था कि उन्होंने दोनों बहुओं के लिए गहनों की दो पोटलियाँ बनाई है, तू देख लेना।“ मामीजी ने कनखी से देखा की प्रज्ञा की आँखे चमक उठी। उनके मन में कुटिल मुस्कान आई। प्रज्ञा ने कहा, “मुझे बताने के लिए बहुत थैंक्स मामीजी। मैं तो बाहर रहती हूँ और सरला तो मुझे ये कभी नहीं बताएगी।“ मामी ने कहा, “बेटा कलयुग है बस अब। जाने तुझे कुछ मिलता भी है कि नहीं।“ इस दो मिनट की बातचीत से बड़ी मामी के कलेजे की बरसो की पीड़ा को बड़ी ठंडक मिली। बाहर निकलते हुए उन्होंने जीजी की तरफ़ पलट के भी ना देखा।
इतने में दोनों मामा निखिल के साथ चल कर आ गए। छोटे मामा निखिल के साथ जीजी को देखने गए। महिलाओं को बाहर भेज दिया गया। वे छोटे थे, अम्मा पिताजी को उन्होंने ही रखा था सो वे जीजी के सबसे लाडले थे। उन्होंने जीजी से पिछले साल कुछ रुपए उधार लिए थे। उनकी गुड़िया कोलकत्ता मेडिकल कॉलेज प्रवेश मिला था। कॉलेज और हॉस्टल की फीस के लिए मदद चाहिए थी। मामी ने दिल्ली आने से पहले ही मामाजी को समझा दिया था कि दोनों बेटो के साथ अच्छा रहना। अब लोन की कोई लिखी पढ़त तो हुई नहीं थी, क्या जाने किसी बेटे को पता है या नहीं भी पता, और फिर घर में दोनों बेटों से अच्छा रहो। जाने कब अपने बच्चों के लिए दिल्ली की जरूरत हो और कब बाहर की। तो सारी बातचीत समझदारी से ही करना। छोटे मामाजी ने जीजी को देखा और निखिल से कहा, “कुछ नहीं बचा अब, थोड़े दिनों की ही मेहमान लगती है। अब समय आ गया है कि तुम सभी चीजों की एक लिस्ट बना लो। क्या नक़द है? क्या बैंक में है? क्या ज़ेवर है? क्या कपड़े है? देखो माँ के जाने के बाद तुम्हें टाइम नहीं मिलेगा और तुम्हें भी तो वापिस जाना है, यहाँ कितना रुकोगे?”
रेवती शिथिल पड़ी थी। बड़े मामाजी की बारी आई। उन्होंने भी देखा जीजी तो बस अब गई। निखिल और प्रज्ञा का साथ देने में ही ज़्यादा भलाई है। जीजी की ओर देखा और फिर बोले, “बेटा अब तुम घर के बड़े हो, फैसला तुम्हें ही करना है। क्या सोचा है?” निखिल ने तुरंत कहा,”मामाजी घर में तो जगह नहीं है। ऊपर से सरला को सफाई की आदत ही नहीं है। जब तक मम्मी की सांस चल रही है, मैं उन्हें ऐसे नहीं छोड़ सकता। चाहे कितना भी खर्चा हो, मम्मी की यही पूरी देखभाल होगी। मुझे खर्चे की कोई परवाह नहीं है, साला मेरा घर ही कई मिलियन से ऊपर है, ज़रूरत पड़ी तो बेच दूँगा। मम्मी से ज़्यादा थोड़ी है। आप तो जानते है कि इस बार मुझे जल्दी में आना पड़ा, वरना मैंने मम्मी को इस खैराती अस्पताल में न रहने देना था। आदित्य तो यहाँ से हिलना नहीं चाहता।“ मामाजी ने आखें बंद करके ऊपर की ओर खींचकर माथे पर सिलवटें डाली और एक ठंडी सांस भरकर कहा, “हाँ, सब दिख रहा है मुझे। माँ को अभी अस्पताल ही रखो कुछ दिन, फिर सोचते है।"
इसी बीच आदित्य बच्चों को घुमा कर ले आया। निखिल को मम्मी के पास छोड़कर वह मेहमानों को लेकर लौट चला। रेवती की काया यू ही शिथिल की शिथिल थी। तय हुआ कि अस्पताल में ही माँ की अच्छी देखभाल हो सकती है। जीवन और मरण पर तो अब किसी का वश नहीं। प्रभु की इस लेखनी के आगे तो सब ज्ञान और विज्ञान फेल है। रेवती बिस्तर पर पड़ी थी। एक एक करके सभी रिश्तेदार और संबंधी मिलने के लिए आए क्योकि यह उसका अंतिम समय था। अपनी अपनी भावना और हित के अनुसार सबने पुत्रों और पुत्रवधुओं को सलाह दी। रेवती की सबसे परम सखी निर्मला का रो रो कर बेहाल था। उसने सरला से अनुरोध किया कि मम्मी के सामने तुम महामृत्युंजय का जाप करो। जहाँ कहीं किसी मोह में प्राण अटके है छूट जाएँगे। जाने कौनसा मोह रेवती के प्राणों को पकड़े बैठा था।
दो महीने बाद सुबह सुबह सरला अस्पताल पहुची। आदित्य ने कहा, “तुम मम्मी को फीड दो और कपड़े बदल दो। मैं चाय लेकर आता हूँ, कहो तो खाने को भी कुछ ले आऊँ?” सरला ने कहा कि बस चाय काफ़ी है। उसने गर्म तौलिये से माँ के शरीर को पोंछ कर पाउडर लगाया और जैसे ही सास को करवट दी, सास की पलके झपकी। सरला को लगा कि उसे भ्रम हुआ है। उसने फिर से देखा तो रेवती बहुत धीरे से बोली, “सरला मुझे बिठा तो दे। अंग अंग दुख रहा है।“ हैरानी और भावों के अजीब उतार चढ़ाव से सरला हतप्रभ होकर देखने लगी। आँखें खुशी से भर आईं। किसी को उम्मीद ही न थी कि माँ अब जागेगी। रेवती बोली, “मत रो, मत रो। मैं अब उठ गई हूँ बेटा, कितना समय सोयी रही।“ फिर बोली, “आ मेरे पास आ” सरला धीरे से हृदय से लग गई। रेवती बहुत धीमी वाणी में बोली, “काश तू मेरी बेटी होती, मैं तुझसे मन की कन्दरा की बातें करती।“ सरला ने कहा, “मुझे यकीन नहीं हो रहा मम्मी, आपको बिठा दूँ।“ रेवती की मौन सहमति के बाद उसने रेवती के दोनों हाथ अपने गले में डाल कर कमर पकड़कर धीरे से बिठाया। माँ ने कहा,”आदित्य कब तक आयेगा चाय लेकर?” सरला हैरान हो गई की की मम्मी को कैसे पता चल कि आदित्य चाय लेने गए है। सरला ने जब माँ को ख़ुश्क स्नान कराया था तो जीभ गिलीसरीन से साफ़ करते हुए देखा था कि वह बहुत सूखी हो गई थी और कुछ छाले उस पर उभर आए थे। बोली,”बस पाँच मिनट लगेगें। आपको एक घूँट पानी दूँ? अच्छा लगेगा, जीभ पर एक दो छाले आ गए है।” माँ ने बहुत धीरे स्वर में हाँ की जैसे सरला की बात आधी ही सुनाई दी हो। सरला भी सोच रही थी कि माँ के शरीर का सब काम आदित्य के आने से पहले ही हो जाये तो माँ को बैठा देखकर वो भी आदित्य के भावों का आनंद लेगी।
रेवती तो जैसे बर्फों और रेगिस्तान दोनों पर नंगे पांव चल कर आई थी। अपने से ही अस्पष्ट बाते कर रही थी,“अम्मा पिताजी की बहुत याद आई। तेरे पापाजी के सामने भी बहुत रोई। सब हैं मेरे अपने, क्या है सब, कुछ नहीं। जिनके लिए जीवन लगा दिया, इतना मान था मुझे। अरी, मान, अभिमान सब अज्ञान था। क्या प्रेम, क्या मोह सब निष्ठुर, सब कटु सत्य देखा और सुना री। मुझे देख, कैसे ये काया मिट्टी बन कर बह रही है। सब गुमान झटके में चला जाता है। सुंदरता किसी काम की नहीं रहती। अपने ही अपने नहीं रहते। मेरी तपस्या भंग हो गई। जीवन भर की मेहनत सब व्यर्थ हो गई। क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ कि क्या क्या सुना मैंने। मेरा हृदय बस फट गया है। इतनी पीड़ा मुझे कैंसर से नहीं हुई, जितनी सो कर जागने में। मेरी आँखे किसी कैंसर से नहीं बल्कि मिथ्या मोह के भंग से पथरा गई थीं। मैं सोई-सोई नहीं जा सकी। मुझे बहुत दर्द हुआ, मुझे बहुत दर्द हुआ री।“ तब सरल को अहसास हुआ कि माँ तो लगभग दो महीने से सब कुछ सुन रही थी। किसी को जरा सी भी आशा नहीं थी कि उन्हें अब होश आएगा। बड़े बड़े चिकित्सकों ने हाथ पैरों में सुइयाँ चुभो चुभो कर बताया था कि उनकी देह में अब जागने की कोई क्षमता ही नहीं है। सो सभी विचार-विमर्श उनके सामने ही होते रहे जैसे कि उनका कोई अस्तित्व ही ना हो। उधर जाने कैसे ये चमत्कार हुआ कि रेवती अपनों की ही बातों की सुइयों से एक दिन जाग उठी।
आदित्य इतने में बाहर से दो कप चाय लेकर आया। देखा माँ शांत और स्थिर बैठी थी और सरला रो रही थी कि माँ न जाने क्या कह रही है। उसे कोई कोई शब्द सुनाई दे रहा था और कुछ खास समझ नहीं आ रहा था। पर रेवती बिल्कुल स्वस्थ दिख रही थी जैसे किसी गहरी नींद से जागी हो। हैरत भरे आदित्य को देख कर माँ प्यार से बोली, “बस चाय लाया है, कुछ खाने को भी ले आ। तीनो मिल कर खाते है।“
रेवती अपने कुछ अधूरे काम निपटाने को आई थी। आख़िरी भौतिक दर्शन और वितरण के लिए उसे आना पड़ा जबकि वो जान गई थी कि जो उसके लिए मिथ्या है वो बाकियों के लिए भी एक न एक दिन मिथ्या ही होगा। उसके होश में आने का सुनकर भाई और बहन मिलने को दौड़े आए। उन्हें देख रेवती के नेत्र पथराये ही रहे। उनमें अब कोई भाव न आया न गया। कोई हाथ अब अपने भाई बहनों के आलिंगन के लिए न उठे।
अस्पताल के सभी डॉक्टरों के लिए रेवती एक विशेष अध्ययन का विषय थी। भाई-बहनों का कहना था कि बीमारी की दवाइयों और कोमा का जीजी के दिमाग़ पर असर हो गया है। जीजी न किसी के गले लगी, न मुसुकुराई, न रोई और न जाने कभी कभी ख़ुद से क्या बातें करतीं है जो किसी को समझ नहीं आती। कोई जान ही न सका कि रेवती कोमा में से नहीं बल्कि इंद्रजाल से बाहर आ गई थी। करीब दो महीनों के बाद रेवती का देहांत हो गया।
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अनीता गोयल, दिल्ली विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में 12 साल इतिहास पढ़ाने के बाद, मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) जा कर बस गई। वहाँ उन्होंने विक्टोरियन स्कूल ऑफ़ लैंगुएजिज़ के प्रोग्राम के अंतर्गत कई बरस माध्यमिक स्तर पर हिंदी पढ़ाने का कार्य किया। अपने आस-पास के परिवेश के प्रति सजग उनकी रचनाएं सामाजिक संवेदना से सरोबर होती हैं।