मनभरन का अनाध्यात्मिक अध्यात्म

सत्येन्द्र प्रकाश | साहित्य | Sep 25, 2023 | 79

सत्येन्द्र प्रकाश*

बीते सावन (अगस्त 2023) सैंतालीस वर्ष हो गए मनभरन काका को मृत्युलोक छोड़े हुए। उन्नीस सौ छिहत्तर, जिस वर्ष देश में आपात काल लगे एक साल हो गया था, की बात है । सावन में सतमी की पूजा के लिए माई (माँ) के साथ गाँव आया था। सावन शुक्ला सप्तमी को हमारे कुल देवता की पूजा होती है। यह पूजा गाँव के रसोई में ही करने की परम्परा रही है। यद्यपि परिवार में नियमित पूजा करने वाले कई लोग थे, हमारे वहाँ घरों में कोई मंदिर नहीं होता था। रसोई में ही देउकरी यानि देवताओं का वास माना जाता था। शादी विवाह के मातृपूजन, पित्तर नेवताई  (पितृ आमंत्रण), बच्चों के छठिहार से लेकर सावन के सतमी पूजन तक सभी रसोई में ही होते थे।

बात मेरे मनभरन काका की हो रही थी, प्रसंगवश सतमी का ज़िक्र आ गया। तो उन्नीस सौ छिहत्तर की सतमी पुजा समाप्त हो गई। हम वापस छपरा, जहां मेरे बाबूजी पदस्थापित थे और जहाँ मै हाई स्कूल की पढ़ाई कर रहा था, वापस आने को तैयार थे। उसी तैयारी के बीच मनभरन काका ने अपनी एक इच्छा व्यक्त की। इच्छा क्या, अपनी निशक्तता जताई। उन्होंने ने बताया अब उनके दांत कमजोर हो गए हैं। दातून चबा कर उसकी कूँची नहीं बना पा रहें हैं। और इस कारण वे दातुन से दांतों की सफाई नहीं कर पाते  हैं। अतः उन्होंने छपरा से एक टूथब्रश और टुथपेस्ट भिजवाने को कहा। उन दिनों गाँवों में ये सब चीजें आसानी से उपलब्ध नहीं थीं। मनभरन काका को मैंने कभी न तो पैसों के साथ देखा था ना ही कभी पैसों की चर्चा करते सुना था। आज जब उनकी बात हो रही है तो मैं स्मरण करने की कोशिश कर रहा हूँ । अगर मुझे सही याद है तो मनभरन काका के पास पैसे होते ही नहीं थे। या वे पैसा रखना ही नहीं चाहते थे।

उन्हें खईनी, बीड़ी, तम्बाकू इत्यादि की कोई लत नहीं थी। अमूमन पैसे की उन्हें ज़रूरत भी नहीं पड़ती थी। गाँव के एक संभ्रांत परिवार जिसके मुखिया पंडित रमाकांत पाण्डेय थे उनके घर माल मवेशियों की देखभाल की जिम्मेदारी मनभरन काका की थी। पंडित रमाकांत पाण्डेय अपने इलाके के ख्याति प्राप्त वैद्य थे। सो मनभरन के खाने पीने एवं कपड़े लत्ते की व्यवस्था उन्ही के द्वारा हो जाती थी। और कोई आदत मनभरन को थी नहीं तो वे पैसे भी नहीं रखते थे।

मेरे मनभरन काका वैद्य जी के लिए मनभरन थे। वैद्य जी मेरे बड़े बाबूजी यानि ताऊजी थे। वैद्यजी और उनके अन्य चार भाइयों के बच्चों के होश सम्हालते ही मरभरन को मनभरन काका के रूप में परिचय कराया जाता था। इस तरह हमारी पीढ़ी के सभी बच्चों के लिए वो मनभरन काका बन गए। यद्यपि मनभरन का वैद्यजी से कोई खून का रिश्ता नहीं था।

मनभरन और वैद्यजी का साथ जुड़ना कोई दैवीय विधान ही रहा होगा। अपने बड़े बाबूजी यानि वैद्यजी और अपने बाबूजी तथा चाचा काका से हम सभी बच्चे मनभरन के बारे में अक्सर सुना  करते थे। मनभरन की उम्र यही कोई बारह चौदह साल की रही होगी। बिहार में प्लेग फैला हुआ था। डॉक्टर वैद्य भी डर के मारे मरीजों को देखने नहीं निकलते थे। किन्तु मेरे बड़े बाबूजी हाल ही में GAMS (ग्रैजूइट इन आयुर्वेदिक मेडिकल साइंस ) की डिग्री लेकर गाँव आए थे। अभी उनकी कहीं नियुक्ति नहीं हुई थी। जवानी का जोश था, नई डिग्री का आत्मविश्वास भी। उस महामारी के दौर में बड़े बाबूजी अपने गमछे से नाक मुंह अच्छे से बांध कर अपने थैले में दवाइयाँ लेकर निकल पड़ते थे। बड़े बाबूजी भगवती का नाम लेकर उपचार शुरू करते थे। वे भगवती के भक्त थे और लोग कहते थे कि भगवती की उन पर कृपा भी रही है। वैसे तो महामारी से मरने वालों की तादाद काफी बड़ी थी, बड़े बाबूजी के इलाज से कई मरीज स्वस्थ भी हुए। बड़े बाबूजी एक सफल वैद्य के रूप में अपनी पहचान बनाने लगे थे।

इलाज के क्रम में ही वह मनभरन के गाँव भी जाते थे। मनभरन भी देखते थे एक जवान ओजस्वी वैद्य के उनके गाँव पहुंचते ही मरीजों में एक उम्मीद जग जाती थी। महामारी में उपचार से लाभ हो या न हो, एक कुशल चिकित्सक के उपलब्ध होने मात्र से मन को दिलासा मिलता है। सो इस नए वैद्य के प्रति लोगों के मन में सम्मान और विश्वास का बढ़ना स्वाभाविक था। मनभरन के भोले  मन ने भी इस वैद्य का एक चित्र उकेरा था।

महामारी के दौरान मनभरन के माता पिता नहीं रहे। वैद्य जी के उपचार से भी उनकी जान नहीं बच पाई। लेकिन मनभरन के बाल मन में वैद्यजी के प्रति विश्वास में कमी नहीं आई।  बारह चौदह साल के एक अनाथ अबोध बालक के मन में वैद्यजी में अपना रक्षक दिखा। और अपना सब कुछ छोड़ वे वैद्यजी के साथ रहने की इच्छा जाहिर करने लगे। मनभरन के गाँव के लोगों को भी लगा शायद वैद्यजी जिनका परिवार उदीयमान था, के वहाँ यह अनाथ पल जाएगा।

ऐसा नहीं था कि मनभरन भूमिहीन थे। उनके पिता की अपने भरण पोषण लायक खेती थी। लेकिन गुलामी के उस दौर में खेती किसानी के द्वारा एक साधारण जोतदार के लिए अपना पेट पालना भी कठिन था तो मनभरन जैसे अबोध के लिए यह दुरूह ही था। मनभरन वैद्य जी के वहाँ रहने को तैयार थे, फिर भी उनकी अपनी एक शर्त थी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा वे किसी इंसान की चाकरी नहीं करेंगे। माल मवेशियों की सेवा ही उनका दायित्व होगा। परिवार का कोई भी सदस्य उनसे अपना कोई निजी काम नहीं कराएगा, यहाँ तक की पीने के लिए एक लोटा पानी भी नहीं मांगेगा (उन दिनों गाँव में ग्लास की मौजूदगी नहीं थी)।

मनभरन वैद्य जी  के घर आ गए। वैद्यजी का पाँच भाइयों का एक साझा परिवार था। वैद्यजी ने परिवार के सभी सदस्यों को मनभरन के परिवार में रहने के शर्तों की जानकारी दे दी। खासकर परिवार के महिलाओं को स्पष्ट कर दिया की कोई भी मनभरन से किसी काम के लिए नहीं कहेगा। परिवार के बच्चों को मनभरन को उनके नाम के साथ काका लगाकर ही संबोधित करने की सख्त हिदायत दी गई। इस तरह मनभरन मेरी पीढ़ी के बच्चों के काका बन गए। बच्चों के मन में भी मनभरन के प्रति नौकर भाव नहीं देखा गया।

मेरे स्मृति पटल पर मनभरन काका की पहली छवि एक वाकये से जुड़ी है। उन्नीस सौ उनहत्तर की बात होगी। बाबूजी की पोस्टिंग हाजीपुर में थी, जो सोनपुर (भारत के संभवतः सबसे बड़े पशु मेला के लिए प्रसिद्ध) का जुड़वां शहर है। मनभरन ने सोनपुर मेला देखने और पहलेजा घाट (पटना को स्टीमर उत्तरी बिहार से जोड़ने वाला घाट) में गंगा स्नान करने की मंशा व्यक्त की। चूंकि मनभरन की कोई ऐसी इच्छा होती नहीं थी, इसे तुरंत ही स्वीकृति मिल गई। और मनभरन माई (मेरी माँ) और बाबूजी के साथ गाँव से हाजीपुर आ गए। मेरी उम्र यही कोई 6-7 साल की थी तो माँ के साथ मुझे भी गाँव से हाजीपुर आने का सुअवसर प्राप्त हो गया। पहलेजा घाट और सोनपुर के बीच ट्रेन की शटल सर्विस थी। इन ट्रेंस को स्थानीय बोली में घटही ट्रेन (घाट को कनेक्ट करने वाली) कहते थे। हाजीपुर से पहलेजा घाट की यात्रा का स्मरण नहीं है। किन्तु कार्तिक पूर्णिमा के स्नान के बाद वापसी में हम पहलेजा घाट स्टेशन पर घटही ट्रेन में बैठ गए। हमें सीट भी मिल गई, क्योंकि स्नान के बाद एक ट्रेन छोड़ कर अगली ट्रेन में हमने जगह ले ली। लेकिन देखते देखते ही ट्रेन भर गई। हमारे डिब्बे में तिल रखने तक की जगह नहीं। वैसे तो कार्तिक पूर्णिमा तक हल्की ठंड शुरू हो जाती है, तो भी शायद भीड़ के कारण उफनाहट और घबराहट में मुझे जोर की प्यास लगी और मैं पानी के लिए जिद करने लगा। ट्रेन के दरवाजे के रास्ते जा कर पानी लाना असंभव था। माई मुझे समझाने लगी कि थोड़ी देर में हम पहुँच जाएंगे। इस भीड़ में पानी के लिए जिद नहीं करो पर मैं कहाँ मानने वाला था। मेरी प्यास की तड़प देख कर मेरे मनभरन काका ने मेरे लिए पानी लाने की ठान ली।

मनभरन काका की यह ट्रेन की पहली या दूसरी यात्रा थी। बच्चे के लिए पानी लाने की मनभरन काका की बात से माई चिंता में पड़ गई। कहीं ऐसा न हो की वो ट्रेन में फिर वापस चढ़ ही न पाएं  और ट्रेन चल पड़े। लेकिन पानी पानी की रट्ट लगाए बच्चे को देख कर वे मानने वाले कहाँ थे। छोटे कद काठी के मनभरन काका ने अपने झोले से लोटा निकाला और ट्रेन की खिड़की के रास्ते ट्रेन से बाहर निकल गए। यहाँ मैं यह बताना चाहूँगा की उन दिनों गाँव देहात के लोग घर के बाहर की यात्रा के समय साथ में लोटा अवश्य रखते थे। हाँ और लोकल ट्रेन की खिड़की में कोई रॉड नहीं लगा रहता  था सो छोटे कद काठी वाले मनभरन काका के लिए खिड़की के रास्ते बाहर निकलना कोई मुश्किल नहीं था। बाहर निकलना जितना ही आसान था, छोटे कद के कारण खिड़की के रास्ते ट्रेन के अंदर आना उनके लिए उतना ही कठिन। पर हम सब को अचंभित करते हुए मनभरन काका ने पहले पानी से भरा लोटा माई को पकड़ाया, फिर युक्ति लगाकर स्वयं ट्रेन के अंदर आ गए।  

यह वाकया शायद आपको रोमांचित ना करे, मेरे मन में इसकी अमिट छाप रह गई है। तभी तो आज लगभग आधी सदी से भी दो-चार साल ज़्यादा बीत जाने के बाद भी वह दृश्य मेरे आँखों के सामने बिल्कुल साफ है। मनभरन काका बारह महीने सर्दी गर्मी बरसात अपनी धोती घुटने तक बांधते थे, लगभग महात्मा गांधी की तरह। गर्मी में ऊपर एक बनियान डालते थे। कंधे पर लाल गमछा यदा कदा दिख जाता। सर्दियों में मोटा सूती कुर्ता और एक सूती चादर उनका पहनावा होता था। स्थानीय भेंड के ऊन के बने दो कंबल ओढ़ने और बिछाने के काम आते थे। सुबह-शाम अलाव का संबल रहता था। अलाव से याद आया, गाँवों में ठंढ के मौसम में अलाव के इर्द गिर्द छोटे बड़े सभी इकठे होते थे। दरअसल ये सुबह शाम की दिनचर्या सी बन जाती थी। लेकिन काम काजी बड़े लोग आग सेंक कर अपने अपने काम में लग जाते थे, कुछ आलसी और निकम्मे लोगों को छोड़कर।  

शौच के बाद बच्चे तो जैसे अलाव से चिपक ही जाते थे। हाँ यहाँ यह जानना जरूरी है है कि शौच खेतों, झाड़ों या घर के बाहर अन्य ऐसी जगहों पर ही जाना होता था। गाँव में शौचालय का प्रचलन ही नहीं था। इसके लिए आर्थिक स्थिति को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। गाँव के बाबू साहेब (जमींदार) भी इसे फालतू का खर्च समझते थे। सेहत की दृष्टि से भी घर से दूर शौच के लिए जाने की  महत्ता पर लंबे भाषण होते थे। वैसे मेरे यानि वैद्य जी के घर शौचालय का आगमन हमारे होश संभालने के पहले हो गया था, किन्तु फिर भी बच्चों को खेतों को आबाद करने के लिए ही प्रोत्साहित किया जाता था।

ठंड के मौसम में बच्चे शौच से निपट कर अपने ठिठुरते हाथ पाँव सेंकने अलाव के पास बैठ जाते थे। और अलाव से फिर चिपक से जाते। वहाँ से हिलने का नाम ही लेना। मनभरन  काका जो गाय बैलों को उनके नाद (मिट्टी का बड़े कड़ाही कि आकार का बना पात्र जिसे मिट्टी या ईंट से बने ऊंचे प्लेटफ़ॉर्म में स्थापित कर पशुओं को चारा खिलाने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था) में सानी पानी (चारा)  डाल कर अलाव के पास बैठ जाते थे, बार-बार हम बच्चों को जाकर पढ़ाई  करने की सलाह देते थे। उनका सलाह आदेशात्मक होता था। मैं तो एक दो बार कि झिड़की के बाद उठ कर चला जाता था। किन्तु मेरे कुछ चचेरे भाई (cousins) जो फिर भी अलाव से चिपके रहते थे उनको मनभरन काका ‘कुलही’ (होम मेड टोपी) पहनाते थे यानि उनके सिर पर हाथ कि उंगलियों को घुमाकर  एक विचित्र तरीके से ठोकर लगाते थे जिससे सिर में बड़ी तेज झनझनाहट होती थी। मनभरन काका का कुलही पहनाना सिमबोलिक होता। इसका प्रयोग वे अधिकार पूर्वक करते थे ताकि बच्चे जा कर पढ़ाई करें।

मनभरन काका ने कई अघोषित व्यक्तिगत संकल्प ले रखे थे। मसलन शादी न करने का। संभवतः आजीवन ब्रह्मचारी रहने के आध्यात्मिक पक्ष से वे परिचित भी न थे। लेकिन दैवीय प्रेरणा ही थी जो उन्होंने इस संकल्प का पालन बहुत ही दृढ़ता के साथ किया। गाँव में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां व्यक्ति की शादी या तो होती ही नहीं है या वह शादी नहीं करने के संकल्प के साथ कंठी धारण करता है। ऐसे बहुतेरे दृष्टांत है जहां ऐसे व्यक्तियों के मनचलेपन के किस्से मशहूर हुए हैं। खासकर के घरों में काम करने वाले व्यक्तियों के बीच ऐसे संकल्प की दृढ़ता की जगह लचीला होना ही ज्यादे आम रहा है। पर मनभरन काका के अघोषित संकल्पों में यह भी था कि घर कि देहरी से वे सिर्फ एक ही बार अंदर जाएंगे। यह अवसर रसोई से सब्जियों के छिलके, भात का पसावन (माड़) इत्यादि मवेशियों के लिए लाने का होता था। सिवाय इसके स्वयं अपना खाना लेने के लिए भी निर्धारित समय पर अपनी थाली के साथ वे देहरी के बाहर ही इंतजार करते होते थे। जीवन काल में चारित्रिक दोलन को आम तौर पर अनचाहे दिशा में ही ज्यादा खींचते हुए सुना जाता रहा है, वहाँ मनभरन काका कि चारित्रिक दृढ़ता साधु महात्माओं के लिए भी एक मिसाल है।

आध्यात्मिकता से अनभिज्ञ मनभरन काका के आध्यात्मिक गुणों का उन्नयन मनभरन के नश्वर शरीर में कैद आत्मा को ईश्वर ने अपनी विशेष कृपा से स्वयं सींचा था। तभी तो अनपढ़ मनभरन  जिन्हे जीवन में शायद ही सत्संग का अवसर मिला था, एक और निर्णय लिया था। उन्होंने ने वैद्य जी से आग्रह किया उनके गाँव कि पुश्तैनी जमीन बेंचकर वैद्य जी अपने गाँव में अपने नाम से जमीन ले लें। वैद्य जी के बहुत समझाने पर भी मनभरन वैद्य जी के गाँव में अपने नाम से  जमीन लेने के लिए राजी नहीं हुए। उनका हठ था कि वैद्यजी के नाम से ही जमीन ली जाएगी।  तन, मन और धन तीनों वैद्य जी को समर्पित कर मनभरन शायद माया जाल से स्वयं को मुक्त कर लेना चाहते थे।

मनभरन कि ममता वैद्यजी के दो जोड़ी बैलों और एक दो अदद गाय भैंसों से ही जुड़कर कर रह गई थी। उनकी सेवा ही मनभरन का धर्म था। उनकी (पशुओं के) संतुष्ट आवाज ही मनभरन के लिए गीता की वाणी। और तभी तो पशुओं का प्रसिद्ध मेला सोनपुर मनभरन का सबसे बड़ा तीर्थ था। वहाँ आने वाले कितने पशुओं के पाँव पखारने वाली पहलेजा घाट की गंगा में डुबकी मनभरन के मुक्ति का द्वार।

ऐसे मनभरन काका ने मुझसे एक टूथ ब्रश कि उम्मीद की थी। छपरा पहुंचते ही हमने टूथ ब्रश खरीद ली। मेरे बाबूजी के हाथों टूथ ब्रश गाँव भेजना था। लेकिन दुर्भाग्य उस टूथ ब्रश का जिसे ऐसे महात्मा के दांतों कि सेवा का अवसर नहीं मिल पाया। मनभरन काका मेरे गाँव से आने एक चंद दिनों बाद ही अपनी अंतिम साँस ले ली। टूथ ब्रश जिसे मनभरन काका के दांतों कि सेवा के लिए लिया गया था, वो उनकी शय्या दान पर अन्य वस्तुओं के साथ ब्राह्मणों को भेंट स्वरूप दे दिया गया। आज भी बहुदा ऐसा होता है कि टूथ-ब्रश हाथ में आते ही मेरे सामने मनभरन काका की तस्वीरें चलचित्र की भांति चलने लगती हैं। शत-शत प्रणाम मनभरन काका आपको!

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। 

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