और कल्लू राम को प्यारा हो गया
सत्येन्द्र प्रकाश*
आज भी वैद्यजी खाना खा कर बाहर निकले। उनके बाएं हाथ में पानी का लोटा था और दाएं हाथ में दाल और भात मिला हुआ एक बड़ा कौर (निवाला)। बाहर निकल कर उन्होंने आवाज़ लगाई, “कल्लू आ तूह---“। दिन और रात के खाने के बाद वैद्यजी हाथ धोने के लिए आँगन से बाहर आते। साथ में दायें हाथ में एक बड़ा निवाला होता। दिन में दाल मिला भात और रात में एक या दो रोटी। बाहर निकलते ही वे आवाज लगाते, “कल्लू आ तूह---“। वैद्यजी के हाथ का कौर (निवाला) कल्लू का होता था। इसे स्थानीय बोली में कौरा कहते है। ये कल्लू का खाना होता था। वैद्यजी के परिवार के कुछ और बड़े लोग भी कल्लू को कौरा देते थे।
परिवार के अन्य सदस्य कल्लू को कौरा देना यदा-कदा भूल भी जाते थे। पर वैद्यजी कभी नागा नहीं करते। नहाने धोने, पूजा पाठ की तरह इस नियम का पालन भी वैद्यजी दोनों समय बिना नागा करते थे। कल्लू का सुबह-शाम का कौरा वैद्यजी की दिनचर्या का एक अभिन्न अंग था। ऐसा नहीं था कि वैद्यजी के कौरा से ही कल्लू का पेट भर जाता हो। परिवार के अन्य सदस्य भी कल्लू को खाना देते थे, कभी कोई तो कभी कोई। अगर कभी भी भूल से ही सही, वैद्यजी के अतिरिक्त किसी और ने कल्लू को खाना नहीं दिया और उसका पेट नहीं भरा तो भी कल्लू घर की देहरी नहीं लांघता।
घर की देहरी नहीं लांघना है, यह कल्लू का स्व-संकल्पित प्रण था। मनभरन की तरह! मनभरन जिनकी चर्चा आप इस वेब-पत्रिका में यहाँ पढ़ चुके हैं। कल्लू का वैद्यजी के साथ जुड़ना भी दैवीय संयोग ही लगता है। ठीक उसी तरह जैसे मनभरन उनकी जिंदगी में आए। वैद्यजी आस-पास के गाँवों से मरीज़ देख कर अपने घर लौटे। साइकिल से एक पाँव जमीन पर रख, दूसरा पाँव नीचे उतारने की अभी सोच ही रहे थे कि तभी उनकी नजर जमीन पर रखे अपने पैर पड़ी। एक नन्हा सा पिल्ला अपना सिर ऊपर किए उनकी तरफ देख रहा था। काले सफेद बालों वाला ये पिल्ला कहाँ से आया! वे अचंभित थे। आस पास के किसी गाँव से उनकी साइकिल के साथ चलता आ गया। या अपने ही गाँव की किसी कुत्तिया का बच्चा है। उनकी समझ में नहीं आ रहा था। पर नजर मिलते ही उस पिल्ले ने मानो कह दिया, देख क्या रहे हो!! मैं तुम्हारे साथ ही रहने वाला हूँ।
वैद्यजी ने अपनी साइकिल खड़ी की और बरामदे में रखी कुर्सी खींच कर बैठ गए। फिर ‘आ तूह’ ‘आ तू’ कर उन्होंने ने पिल्ले को अपनी ओर आकर्षित किया। वो पूंछ हिलाता उनके पास आ कर खड़ा हो गया। कितने महीने का था, उम्र क्या थी, इसका कुछ पता नहीं। हाँ उसके पाँव इतने ही बड़े थे कि वो साइकिल के साथ साथ मटकता-मटकता वैद्यजी के साथ आ जाए। वैद्यजी का यह घर अभी नया-नया ही बना था। उस इलाके में पूरी तरह पक्की छत वाला यह पहला घर था। वैद्यजी कि व्यावसायिक कुशलता कि तरह उनका घर भी इलाके में चर्चा का विषय था। हालांकि घर में कुत्ता पालने की कोई मंशा उनकी थी या नहीं उन्होंने कभी बताया नहीं। इस पिल्ले को देखकर जैसे स्व-स्फूर्त भाव वैद्यजी के मन में उठा। उन्होंने इसे रखने का निर्णय ले लिया। काले सफेद बालों में काले का अनुपात ज्यादे था। शायद इसीलिए वैद्यजी ने सोचा कल्लू नाम इसके लिए सटीक होगा। उन्होंने ‘कल्लू’ कहकर पुकारा। पिल्ला पूंछ हिलाने लगा, जैसे अपनी सहमति व्यक्त कर रहा हो। आँखों आँखों में ही दोनों ने साथ रहने की हामी भर ली।
कल्लू वैद्यजी के साथ कहीं से चलता आ गया। इससे यह तो स्पष्ट है कि वो कोई विलायती नस्ल का नहीं था। गाँवों में आम तौर पर दिखने वाले देसी नस्ल का ही था। ऐसे कुत्तों को अंगरेजी में स्ट्रीट डॉग कहा जाता। हिन्दी में जिन्हें आवारा कुत्ता कहा जाता है। पर कल्लू को आवारा कहना सर्वथा अनुचित होगा। जिन्होंने कल्लू के चाल चरित्र को देखा है, वे इससे अक्षरशः सहमत होंगे। कल्लू के नामकरण के पश्चात वैद्यजी घर के अंदर जाने लगे। कल्लू को कहा तुम यहीं बैठो। कल्लू जैसे समझ गया। शायद समझ भी गया और संकल्प भी कर बैठा। उसकी यही हद है। इसके आगे नहीं जाना है, ना आज और ना कभी भविष्य में। कल्लू ने अपने जीवन के आखिरी क्षण तक घर कि देहरी नहीं लांघी। और उसके जीते जी कोई और कुत्ता भी घर में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
कल्लू धीरे धीरे बड़ा होता गया। धीरे धीरे नहीं, बल्कि तेजी से। कहते हैं कुत्तों का एक साल मनुष्यों के सात आठ साल के बराबर होता है। वैद्यजी के घर के बच्चे तो धीरे धीरे बड़े हो रहे थे जबकि कल्लू तेजी से जवान हो गया। एक आकर्षक डील डॉल का, भरी मांसपेशियों वाला कल्लू अपनी ओर सबका ध्यान खींच लेता। कल्लू कभी कभी वैद्यजी के साइकिल के पीछे पीछे आस पास के गाँव पहुँच जाता था, जहां वैद्यजी रोगी देखने गए होते थे। अक्सर कल्लू के दूसरे गाँव पहुंचते ही उस गाँव के कुत्ते घेर लेते। ऐसे चौतरफा आक्रमण से निपटने के लिए जैसे कल्लू को प्रशिक्षित किया गया हो। बड़ी कुशलता से कल्लू इन्हें चकमा देकर और आवश्यक होने पर आक्रमण का जबाब आक्रमण से देकर निकल लेता। ऐसा अवसर शायद ही आया हो कि किसी कुत्ते को या इंसान को कल्लू ने ज़ख्मी किया हो। कल्लू के इस कौशल से कुत्तों को तो ईर्ष्या होती ही होगी, कई इंसानों को भी जलन होने लगी। और एक दिन कुछ मनचले लोगों ने कल्लू की एक टांग तोड़ दी। उसकी टांग तो टूटी थी ही, उसके टखने में घाव भी हो गया था।
देखकर वैद्यजी का जैसे दिल भर आया हो। उन्होंने कई औषधीय पौधों के पत्तों का रस निचोड़ कर उसके जख्म पर लगाया। उसकी मरहम पट्टी की। कल्लू का जख्म तो भर गया। टूटी टांग भी जुड़ गई। पर पैर छोटा हो गया। उसके बाद कि पूरी जिंदगी कल्लू ने तीन पाँव पर ही निकाला। पैर टूटने पर भी कल्लू का साहस नहीं टूटा। उसके रण कौशल और चातुर्य में तनिक कमी नहीं आई। वह अब भी निर्बाध वैद्यजी के साइकिल के पीछे पीछे चल पड़ता। इतना ही नहीं बैलगाड़ी से बहु बेटियों की पीहर/नैहर यात्रा की सुरक्षा की जिम्मेवारी भी कल्लू ने अपने ऊपर ले रखी थी। ऐसे में वह बैलगाड़ी के पीछे चल पड़ता। जाते आते पूरे रास्ते कल्लू का कुत्तों से घिरना, उन्हें डराना, चकमा देना यह क्रम चलता रहता था। कल्लू सवारी को गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचा कर ही वापस लौटता।
एक बार वैद्यजी के घर की तरफ एक बड़े वानर-दल ने चढ़ाई जैसी की। ये बंदर नहीं बल्कि लंगूर थे। पूर्वाञ्चल में कहीं-कहीं इन्हें हनुमान भी कहते हैं। बहरहाल, लंगूरों को भगाने के लिए लोगों के साथ साथ कल्लू भी दौड़ पड़ा। एक लंगूर गलती से उस दिशा में दौड़ पड़ा जिधर आस पास कोई बाग-बगीचे नहीं थे। बस एक पेड़ खेतों के बीच गिरा पड़ा था। उसकी जड़ तो जमीन से लगी थी पर तना जमीन और आकाश के बीच तिरछा खड़ा था। मरता क्या ना करता। अपने समूह से अलग-थलग पड़ा वो लंगूर उसी पेड़ पर चढ़ गया।
पेड़ पर, चाहे भले ही वो गिरा पड़ा, एक कुत्ते का चढ़ना असंभव था। पर कल्लू, वो भी तीन पैरों वाला, जोश में लंगूर के पीछे पीछे उस पेड़ चढ़ गया और लंगूर को धर दबोचा। लंगूर के दो चार झापड़ भी कल्लू को पड़े। फिर भी कल्लू मानने वाला कहाँ। एक अच्छा सबक सिखा कर ही कल्लू ने लंगूर को जाने दिया। उस दिन के बाद कल्लू के जीते जी लंगूरों ने वैद्यजी के घर रूख कभी नहीं किया।
कल्लू वैद्यजी जी के घर परिवार और उनकी दिनचर्या के साथ घुल मिल गया था। सबके साथ साथ उसकी उम्र भी बढ़ रही थी। लेकिन कुत्तों की जवानी जिस तेजी से आती है उसी तेजी से उनकी उम्र ढलती भी है। कल्लू अब बुढ़ापे की दहलीज पर पैर रखने लगा था। और तब एक रात वैद्यजी के घर डकैतों ने धावा बोला।
वैद्यजी बरामदे से लगे नवगोल (नौ कोनों वाला कमरा) में सो रहे थे। इसका एक दरवाजा सीधे बरामदे से लगा था। उनके बाकी के दो भाई भी थे। एक की तबीयत खराब चल रही थी। उन्हें मियादी बुखार था। महीनों से चल रहे बुखार ने उन्हें शारीरिक रूप से तोड़ सा दिया था। वे घर के सामने ही फूस के बंगले में सो रहे थे। उनकी देख रेख की जिम्मेवारी जैसे कल्लू ने अपने ऊपर ले रखी हो। वो भी उसी बंगले में सो रहा था। आम तौर पर अनजान आगंतुकों खासकर वे जब कुसमय आयें हो तो स्वभावतः कुत्ते भौंकना शुरू करते हैं। आधी रात कई बार वैद्यजी के पास सांपकटी के केस भी आते थे। ऐसे में भी वैद्यजी जी को जगाने लिए भौंकता था। उस रात तो उसने अपनी सूझ बुझ का एक अलग ही उदाहरण दिया। उसने वैद्यजी के भाई जो बीमार थे को उनके पैर चाटकर जगाया। फिर उनको ऐसे देखने लगा जैसे कोई अलग ही इशारा कर रहा हो। नींद से जग कर तुरंत तो उन्हें कुछ समझ नहीं आया लेकिन अपनी हरकतों से बताने कि कोशिश करने लगा जैसे किसी खतरे का संकेत दे रहा हो। जैसे ही वे बिस्तरे से नीचे आए कल्लू घर के पास लगी सब्जियों के झाड़ों के पीछे छुपता हुआ गाँव कि तरफ चल पड़ा। मानो उनको भी संकेत दे रहा हो कि गाँव के लोगों को बुलाओ - अकेले कुछ नहीं कर पाओगे।
वैद्यजी के भाई को साथ ले छुपते-छपाते कल्लू गाँव की ओर चल पड़ा। गाँव के अंदर पहुँच कर कल्लू ने शोर मचाना शुरू किया। तब तक दूर से आ रहे और लुटेरों पर भी भाई की नजर पड़ चुकी थी। उन्होंने पास के दो-एक लोगों को जगा कर शोर मचाने को कहा। कुछ ही पल में पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। और देखते ही देखते पूरे गाँव ने सामूहिक रूप से डकैतों पर धावा बोल दिया। बूढ़े, बच्चे, जवान सभी निकल पड़े। जिसके हाथ जो लगा वो लेकर चल पड़ा। डकैतों ने देशी कट्टे से गोली दाग कर लोगों को घायल करने और डराने की कोशिश की। गाँव के लोग फिर भी निडरता से डटे रहे। ईंट पत्थर भांड, हांडी जिसके हाथ जो लगा उसी कि बौछार डकैतों पर होने लगी। गाँव के जो कुत्ते कल्लू से लड़ते थे वे भी गाँव पर आए संकट कि नजाकत को समझते हुए कल्लू के साथ डकैतों पर टूट पड़े। अंततः डकैतों को भागना ही पड़ा। उन दिनों यह पहली घटना थी जिसमें डकैतों को प्रयास विफल हुआ हो।
आज वैद्यजी का “आ तूह---“ सुन कर कल्लू नहीं आया। वैद्यजी “आ तूह आ तूह” करते रहे। पर कल्लू नहीं आया। क्या हुआ कल्लू को। कहीं चला गया क्या। लेकिन ऐसा तो आज तक नहीं हुआ था। परिवार की बाल मंडली जिनका बचपन कल्लू के साथ गुजरा था, कल्लू की खोज में जुट गया। जहां मनभरन सोते थे उसी के पास कल्लू अचेतन अवस्था में पड़ा मिला। वैसे तो कल्लू कि उम्र हो चली थी। पर शायद मनभरन के गुजरने के बाद कल्लू भी अकेला पड़ गया था। बाल मंडली ने कल्लू को सम्मान से दफनाने का निर्णय लिया। एक चटाई पर कल्लू के पार्थिव शरीर को रखा गया। चार बच्चों ने चार तरफ से चटाई उठाई। पास के ही एक खेत में तीन चार फुट का गड्ढा खोदा गया और पूरी श्रद्धा के साथ कल्लू को दफनाया गया। बच्चों का बाल सखा और संरक्षक इस तरह राम को प्यारा हो गया।
इस घटना के बाद भी कई दिनों तक वैद्यजी, “कल्लू आ तूह आ तूह” करते घर की देहरी के बाहर आते। उनके हाथ में कल्लू के लिए कौरा होता। पर कल्लू कहीं हो तब तो आए। दिमाग तो उनका जानता था कि कल्लू अब नहीं आएगा पर उनका दिल इस सच को स्वीकार करे तब न!
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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।
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