उपहार
सत्येन्द्र प्रकाश*
बुधवार की शाम थी। प्रिंसिपल साहब के घर बच्चे तैयार हो रहे थे। बुधवार की शाम को टीचर्स ट्रैनिंग स्कूल में संगोष्ठी का आयोजन होता था। प्रशिक्षु शिक्षक संगोष्ठी में अपने अपने हुनर और कला का प्रदर्शन करते थे। कुछ प्रशिक्षक भी अपने अनुभव साझा करते थे। ऐसी संगोष्ठियों के माध्यम से प्रशिक्षु शिक्षकों और प्रशिक्षकों को पाठ्यक्रम और आम दिनचर्या से हट कर एक दूसरे को जानने समझने का अवसर मिल जाता था और साथ में मनोरंजन भी हो जाता था।
प्रिंसिपल साहब का भतीजा मोहन भी संयोगवश उन के यहाँ आया हुआ था। प्रिंसिपल साहब मोहन के लिए मझला बाउजी थे। वह छपरा के पास बंगरा शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय के प्रिंसिपल थे जहां नव-नियुक्त अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जाता था। उनके उनके घर आने का मोहन का कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम नहीं था। मोहन तो अपने बड़े भाई के साथ हाजीपुर में कार्यरत अपने पिता के पास कुछ दिनों के लिए आया था। दरअसल मोहन के पिता वहाँ अकेले ही रह रहे थे और उनका परिवार गाँव में रहता था। कुछ ही दिन पहले बड़े भाई का हायर सेकेंडरी का परिणाम आया था। काफी अच्छे अंकों से उन्होंने ये परीक्षा पास की थी। परिणाम आने के बाद बड़े भैया मोहन के साथ हाजीपुर आए थे। उन्हें पटना साइंस कॉलेज में नामांकन का पता करना था। तय यही था कि कुछ दिन हाजीपुर रहने के बाद मोहन को वे छपरा स्टेशन पर अपनी बड़की माई जो अपने नैहर (मायके) से गाँव जाने वाली थी, के साथ ट्रेन में बैठा कर वापस हाजीपुर लौट जाएंगे।
लेकिन संयोग ऐसा हुआ कि मोहन और बड़े भाई की ट्रेन छपरा पहुंचे, उसके चंद मिनटों पहले बड़की माई की ट्रेन छपरा स्टेशन से निकल चुकी थी। सो बड़े भैया ने निर्णय लिया कि वे मोहन को मझला बाउजी के वहाँ पहुंचा कर हाजीपुर वापस लौट जाएंगे और मोहन जल्द ही शुरू होने वाते ग्रीष्मावकाश में मझला बाउजी के परिवार के साथ गाँव लौट जाएगा।
तो उस बुधवार मोहन अपने मझला बाउजी यानि प्रिंसिपल साहब के वहाँ ही था। मोहन के चचेरे भाई बहनों ने मोहन को भी तैयार हो जाने का निर्देश दिया। साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में तैयार होने की अवधारणा आज से बिल्कुल इतर थी। हाफ पैंट के ऊपर शर्ट ही तो डालना था। फिर क्या था मोहन मिनटों नहीं कुछ ही सेकेंड में उनके साथ चलने को तैयार था। आगे आगे मझला बाउजी और उनके पीछे सभी बच्चे चल पड़े। प्रशिक्षण विद्यालय के प्रधान होने के नाते मझला बाउजी और उनके साथ सभी बच्चों का काफी गर्मजोशी से स्वागत हुआ। मझला बाउजी के साथ ही मंच के समीप की अगली पंक्ति में बच्चों को भी बैठाया गया।
प्रहसन (लघु हास्य नाटिका) से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। गोष्ठी, प्रहसन इत्यादि शब्दों या इनके अर्थ से मोहन का साक्षात्कार पहली बार हो रहा था। मोहन उम्र में काफी छोटा था। अभी उसकी औपचारिक शिक्षा भी नहीं शुरू हुई थी तो उसके लिए इन शब्दों का अपरिचित होना अस्वभाविक नहीं था। प्रहसन रोचक था। ऐसा लग रहा था कि सभी का खासा मनोरंजन हुआ लेकिन बच्चे शायद ज्यादा खुश थे। प्रहसन समाप्त हुआ। फिर भोजपुरी गाने और तबला वादन से संत कुमार सिंह और नील मणि तिवारी (दो प्रशिक्षु शिक्षकों) ने अपना हुनर दिखाया। संत कुमार सिंह का भोजपुरी गीत और नील मणि के तबले की थाप ने सबको मंत्र मुग्ध कर दिया। ये दोनों नाम मोहन को इसलिए भी याद रह गए क्योंकि वे दोनों कुछ महीनों बाद से ही आकाशवाणी पटना के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगे और एक बार गाँव के किसी आयोजन के अवसर पर मँझले बाऊ जी ने इन दोनों को भी शामिल किया था।
पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के समापन के बाद प्रशिक्षकों और अन्य स्टाफ के बच्चों को भी अवसर दिया गया। मोहन को उसके चचेरे भाई बहनों ने उकसाना शुरू कर दिया। उन्हें पता था मोहन ने बाबा से कई श्लोक सीख रखे हैं। उसे भोजपुरी की एक हास्य कविता भी कंठस्थ है। लेकिन मोहन ने कभी मंच से कभी न तो कोई श्लोक सुनाई थे और न ही कोई कविता। मारे भय के उसके हाथ पाँव कांपने लगे। लेकिन इस बीच मंच से मोहन का नाम घोषित कर दिया गया। मोहन के काटो तो खून नहीं। मोहन को आज भी याद नहीं कि उस शाम वह मंच पर कैसे पहुंचा, स्वयं चल कर या किसी ने उसे उठा कर मंच पर पहुंचा दिया।
मंच से क्या सुनाना है, यह मझला बाउजी यानि प्रिंसिपल साहब बताते गए। मोहन एक के बाद एक चार-पाँच श्लोक जो उसने बाबा से सीखे थे, सुनाता गया। एक छोटे बच्चे के मुंह से श्लोक सुन कर सभागार में उपस्थित सभी लोग चकित थे। तालियाँ भी बजी। लेकिन मोहन की बड़ी बहनों को तो भोजपुरी की वो हास्य कविता सुनवानी थी जिसे श्यामा बाबू (एक अन्य शिक्षक) ने लिखा था और जो मोहन को अच्छी तरह कंठस्थ थी। बार-बार उस कविता के पाठ के लिए उसकी बहनें आवाज देने लगीं। श्लोक सुनाने के बाद मोहन का आत्मविश्वास भी थोड़ा बढ़ा था। सो उसने आखिर वो कविता जिसका शीर्षक “धूधूक लईका” (dumb kid) था, सुना ही दी।
मोहन ने जिस अंदाज में यह कविता सुनाई थी, उससे श्रोता काफी प्रभावित थे किन्तु एक सज्जन जिन्हें मोहन ने पहले कभी नहीं देखा था, दौड़ कर मंच पर आए और मोहन की पीठ थपथपाने लगे। मोहन अचंभित था, पर साथ में खुश भी। उसे समझ आ रहा था कि कुछ अच्छा करने पर उसकी सराहना हो रही है।
इतने में उन अनजान सज्जन ने मोहन से कहा वे उसे कुछ उपहार देना चाहते हैं वो भी मोहन के पसंद का। मोहन के अबोध मन में पता नहीं कहाँ से प्रेरणा मिली कि उसने छूटते ही कहा मुझे हनुमान चालीसा चाहिए। उन्होंने मोहन को आश्वासन दिया कि उसे हनुमान चालीसा अवश्य मिलेगा। बंगरा में शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय और सर्वोदय उच्च विद्यालय होने के बावजूद ऐसी कोई दुकान नहीं थी जहां से अगले दिन हनुमान चालीसा उपलब्ध करा दी जाए। उसके लिए मोहन को प्रतीक्षा करनी थी क्योंकि हनुमान चालीसा तो छपरा से लानी होगी। मोहन को हनुमान चालीसा मिले, इसके पहले ही गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गईं और मोहन अपने मझला बाउजी के साथ अपने गाँव वापिस आ गया। गाँव आकर अपने हम उम्रों के साथ खेल कूद और मस्ती में उपहार की बात लगभग भूल ही गया।
गर्मी की छुट्टियों के दौरान ही एक दिन किसी ने मोहन को हांक लगाई कि मझला बाउजी बुला रहे हैं। ऐसे में पहली बात जो मोहन के मन आयी वो ये कि जरूर, अनजाने में ही सही, उससे कोई शरारत हुई है और पक्का डाँट पड़ने वाली है। मोहन ठिठकते हुए मझला बाउजी की तरफ बढ़ा। जैसे ही वो करीब पहुंचा, उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वही सज्जन जिन्होंने मोहन को उपहार देने का आश्वासन दिया था, मझला बाउजी के साथ बैठे थे। मझला बाउजी ने मोहन से उनके पाँव छूने को कहा। बाद में बड़ों की बातचीत से मोहन को पता चल कि वो रामानंद तिवारी जी हैं जो मझला बाउजी के सहकर्मी प्रशिक्षक थे और पास के गाँव के ही रहने वाले थे। तिवारी जी का व्यक्तित्व और उनके पहनावे से मोहन काफी प्रभावित था, जब पहली बार मंच पर देखा था तब भी, और आज जब पुनः देख रहा था तब भी। खादी की कलफ़ के साथ इस्तरी की हुई सफेद धोती और मटका सिल्क का कलफ़ वाला कुर्ता और ऊपर से नेहरू जैकेट। चेहरे का ओज और पहनावे की चमक स्मृति पटल से आसानी से ओझल होने वाले नहीं थे।
मोहन का मन कुलबुला रहा था। इनसे मिलवाने के लिए मझला बाउजी ने फिर क्यों बुलाया है। एक उपहार की बात की थी वो तो इन्होंने दी नहीं। क्या ये फिर कविता सुनेंगे। मोहन का मन अभी ऊहापोह में ही फंसा था कि तिवारी जी ने अपनी जेब से हनमान चालीसा की प्रति निकाली और मोहन को भेंट कर दी। मोहन के खुशी का ठिकाना नहीं रहा। तिवारी जी ने फिर मोहन से वचन लिया कि मोहन अब से रोज़ सुबह स्नान कर हनुमान चालीसा का पाठ करेगा। मोहन के जीवन का यह पहला उपहार था, उपहार नहीं पुरस्कार था। उसने तिवारी जी को वचन दिया कि उनके बताए अनुसार वह रोज पाठ करेगा। और तब से हनुमान चालीसा के साथ मोहन जुड़ गया। हाँ कॉलेज के कुछ वर्षों को छोड़कर जब उसका बावला तरुण मन विभिन्न विचार शृंखलाओं में भटक सा गया था।
मोहन भेंट देने वाले के विषय में और जानने के लिए उत्सुक रहता था पर कभी किसी से पूछ नहीं पाता था। मझला बाउजी, बाउजी वगैरह के बातचीत के क्रम में तिवारी जी की चर्चा अक्सर आ जाती थी। विशेषकर उनकी चुनिंदा आदतों के बारे में। ऐसा कहा जाता था कि बिहार का ऐसा कोई शहर नहीं था जहां की लाउन्ड्री में रामानंद तिवारी के कपड़े नहीं पड़े हों। उनकी चुनिंदा आदतों में यह भी था कि कपड़े गंदे होने पर वह नया जोड़ा पहन लेते थे और उतारा हुआ कपड़ा वहीं लाउन्ड्री में छोड़ आते थे। ऐसा बहुत कम होता था कि वे लाउन्ड्री से कपड़े वापस लें। फिर एक दिन सुनने में आया कि रामानंद तिवारी गायब हो गए। लोग यही कहते कि उनका कहीं अता पता नहीं है।
ऐसा कभी सुनने में नहीं आया कि वे कभी अवसादग्रस्त रहे हों। पर उनका गायब होना किसी अवसाद या उन्माद के कारण हुआ या कोई आध्यात्मिक शक्ति उन्हें परिचितों की भीड़ से अलग ले गयी, इसके बारे में तरह-तरह के कयास लगाए जाते। मोहन बड़ा होता गया लेकिन वर्षों बाद भी तिवारी जी का कुछ पता नहीं चला। धीरे-धीरे वो लोगों की चर्चाओं से भी निकलते गए। अब तो दशकों से उनके बारे में कोई बात नहीं सुनी पर मोहन के स्मृति पटल पर उनके दिए उस पहले उपहार के साथ उनकी याद आज भी ताज़ा है।
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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।
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