फिल्मों में मलिन बस्तियां और यथार्थ

जयप्रकाश वाल्मीकि | समाज-एवं-राजनीति | Mar 04, 2025 | 595

बॉलीवुड फिल्मों में दलित बस्तियों का चित्रण शुरू से ही एक स्टीरियोटाइप ढंग से किया जाता रहा है। पारंपरिक रूप से, दलित पात्रों को उत्पीड़ित और दयनीय जीवन जीने वाले के रूप में दिखाया जाता था। नीचे के लेख में जयप्रकाश वाल्मीकि ने कुछ पुरानी हिन्दी फिल्मों का उल्लेख करते हुए दलितों की स्थिति पर टिप्पणी की है। हालांकि, हाल के वर्षों में, सिनेमाई कथाओं में बदलाव आया है और अब अधिक सशक्त दलित पात्रों को दिखाया जा रहा है, जैसे न्यूटन और मसान में। इन फिल्मों में दलितों की गरिमा को प्रमुखता दी जा रही है। अगले किसी लेख में, हम बॉलीवुड में दलितों के चित्रण के बदलते परिदृश्य का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे। फिलहाल आप जयप्रकाश जी का यह लेख देखिये जिसमें वह इन फिल्मों  के बहाने से दलितों की स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं। 

 

फिल्मों में मलिन बस्तियां और यथार्थ

जयप्रकाश वाल्मीकि
                   
फिल्म नीचा नगर का निर्माण सन 1946 में हुआ था। ख्वाजा अहमद अब्बास और हयातुल्लाह अंसारी  की लिखी इस फिल्म का निर्देशन चेतन आनंद ने किया था। कहानी कुछ इस प्रकार थी कि गांव में कमजोर और गरीब लोग नीचे ढलान में बसे हैं और गांव का एक पूंजीपति नहर बनाने का नाम लेकर गंदे नाले का निकास ( बहाव) उनकी तरफ कर देता है। गांव वाले उसका विरोध तो करते है। पर उनका विरोध इतना सशक्त नहीं होता। विरोध के बाद भी नाले का निर्माण हो जाता है। गंदे नाले के कारण गरीब बेसहारा लोगों की बस्ती में महामारी फैल जाती है। लोग मरने लगते है, पर पूंजीपति पर इसका कोई असर नहीं होता। मीडिया और जनप्रतिनिधि भी मौन है। वह उन्हें भी इसलिए धमकाता है कि दोनों को उसका प्रश्रय और संरक्षण प्राप्त होता है। यह फिल्म यह बताती है कि पूंजीवाद का शिकंजा सदा से ही उन पर कसा हुआ रहा है। ये लोग पर्दे के पीछे से  सबको संचालित करते रहते है।

 जैसा कि अधिकांश फिल्मों में होता है, सेठ की बिटिया अर्थात नायिका की संवेदना नीचे बसे लोगों अर्थात नीचा नगर के लोगों के साथ है। जिस समय उसका पिता (सेठ) गणमान्य लोगों की मीटिंग में गंदे नाले को स्वच्छ पानी की नहर बता रहा था, उस समय सेठ की बेटी गंदे नाले में गिर कर कीचड़ से लथपथ हालत में आती है और बताती है कि वह  नहर नहीं बल्कि गंदा नाला ही है। पिता बेटी को झुठला नहीं पाता और बेटी के आगे झुक जाता है। फिल्म में यदि नायिका अर्थात सेठ की लड़की नीचानगर के लोगो के साथ खड़ी न होती तो सेठ अपने साम, दाम, दंड भेद के द्वारा गंदे नाले का बहाव निरंतर बनाए रखता। पूरी कहानी में नायिका के पिता (सेठ) के तेवर तो यही बताते है कि नीचा नगर वालों मरते रहते। शनै: शनै: पूरी बस्ती काल के गाल में समाती चली जाती और एक दिन पूरी बस्ती अर्थात नीचानगर पर उस सेठ का एकाधिकार हो जाता। गांवों में आज भी दलित लोग गांव से बाहर बसे हुए होते है और नीचा नगर वाले भी धनाढ्य लोगों से अलग ढलान में बसे हुए हैं। फिल्म से बस वही एक सबसे बड़ा फर्क है कि असल ज़िंदगी में सेठ की कोई बेटी ऐसे लोगों को बचाने नहीं आती। जो गरीब हैं, वो असंगठित भी हैं और कहीं उनकी सुनवाई भी नहीं होती। आज भी दलित उत्पीड़न के मामले सामने आते रहते हैं और गांवो में आज भी दबंग लोग दलितों की भूमि को बाहुबल से  हथिया लेते हैं। उनकी कही सुनवाई नहीं होती क्योंकि दबंगों की सत्ता के विभिन्न हिस्सों में पहुंच होती है । दलित तहसील कार्यालय और पुलिस थानों के बीच फ़ुटबॉल बना रहता है।

फिल्म नीचानगर को 29 सितंबर 1946 में कान फिल्म महोत्सव में दिखाया गया।  कान महोत्सव में दिखाई गई यह पहली हिंदी फिल्म थी। इस महोत्सव में नीचानगर को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। इसके  बाद भी नीचानगर गुमनाम ही रही और वह आम दर्शकों तक नहीं पहुंच पाई । कहा जाता है कि फिल्म को रिलीज करने वाला कोई नहीं मिला। देखने की बात यह है कि सन 1946 में देश की आजादी का आंदोलन अपने चरमोत्सर्ग था। बाबा साहेब आंबेडकर का दलित आंदोलन भी उस समय अपने चरम पर था। वे दलितों में स्वाभिमान की भावना जगा रहे थे और उनके मानव अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे।पर नीचानगर में आंबेडकरी आंदोलन की कहीं कोई झलक दिखलाई नहीं देती। जबकि अछूत कन्या और सुजाता आदि फिल्मों को गांधीवादी नजरिए से निर्मित किया गया और समीक्षको ने इसे क्रांतिकारी कदम बताया था। 

फिल्मों के शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर साहब ने सन 1954 में "बूट पॉलिश"का निर्माण किया था। भानू प्रताप की लिखी और प्रकाश अरोड़ा द्वारा निर्देशित की गई यह फिल्म दो अनाथ  बच्चों की कहानी है। भाई भोला (रतन कुमार) बहन बेलू ( बेबी नाज) के पिता को काला पानी की सजा हो जाती है तथा उनकी मां हेजे की बीमारी से मर जाती हैं। सेवा सदन का एक व्यक्ति इन दोनों भाई _बहन को उनकी चाची के यहां छोड़ जाता है। वह एक मलिन बस्ती में रहती है। वह उन्हें प्यार-स्नेह देने की बजाय बहुत त्रास देती है और भीख मांगने पर मजबूर करती है। दोनों बहन-भाई रेलवे स्टेशन और स्टेशन पर रुकी हुई रेलों में  भीख मांग कर चाची को पैसे लाकर देते हैं।

गंदी कच्ची बस्ती में आम तौर पर गरीब, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के लोग ही रहते है। उनका जीवन  भूख और बेरोजगारी से भरा और वारिश में झोपड़ियों  का टपकना और आंधियों में उजाड़ना उनकी बेबसी और लाचारी को दर्शाता है। धनाढ्य वर्ग के लोग ऐसी बस्तियों में दान-पुण्य करने आते है। जॉन चाचा (डेविड) एक दिन दानदाताओं से कहता "तुम लोग इन्हें भीख न देते तो या तो यह भूखे मर जाते या कोई काम करते, इन्हें भीख मत दो, इन्हें काम दो।" वो लोग जवाब देते, "यह हमारा काम है?" जॉन चाचा के समझाने-बुझाने पर बस्ती के लोग ही जॉन चाचा पर ही क्रोधित होते हैं। 

आज भी जाति-समाज में कोई सही बात कहता है तो उसे भी जॉन चाचा की तरह समाज का कोप भाजन बनाना पड़ता है। दलितों में वंचित वर्ग की बस्तियों में धर्म प्रचारक आते है। मंदिर आदि और अन्य गतिविधियों में सहयोग करते हैं। मंदिर तो घर-घर में होता है, सब ईश्वर की पूजा आदि करते ही है। जरूरत यहां पर इन लोगों को शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, तथा रोज़गार के लिए प्रशिक्षण केंद्र स्थापना करने की है ताकि वे शिक्षित और आत्मनिर्भय बने। यही बात यदि कोई कहे तो उसकी दशा बूट-पॉलिश के जॉन चाचा जैसी होगी। गीतकार शैलेंद्र का लिखा यह प्रसिद्ध गीत ‘नन्हें-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है’ डेविड (जॉन चाचा) और बच्चों पर फिल्माया गया है।   

फिल्म में भोला और बेलूं यह दोनों भाई-बहन मलिन बस्तियों के बच्चों के प्रतीक है। इन बच्चों का भूख की मजबूरी, आत्मसम्मान के लिए संघर्ष फिल्म के अनेक दृश्यों में मिलता है जिसे देख दर्शकों का हृदय करुणा से भावुक हो उठता है। भूख की मजबूरी और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष आज भी जारी है जिसे हम महानगरों  की  सड़कों पर  रेड  लाइटों पर देखते है। इन लाइटों पर बड़ी-बड़ी कारें रुकती हैं तो गरीबों के  बच्चे अपनी ही कमीज से उन गाड़ियों को पोछने लगते है। इनमें बालक ही नहीं बालिकाएं भी होती है। कुछ बच्चे बैलून, पेन, खिलौने भी बेचते है। कई दया भाव से कुछ दे जाते है। कई निकल जाते है। 
आज से 70 वर्ष पूर्व  बूट-पॉलिश में राजकपूर साहब ने गरीबों, दलितों पिछड़ों की दशा और दिशा को रेखांकित किया था। गीतकार शैलेन्द्र ने इन समुदायों के बच्चों की आंखों में आने वाली दुनियां में उम्मीदों की दिवाली का सपना सजाया था। वो कवि गोपाल दास नीरज की पंक्तियों में इस तरह से होकर रह गया_" गीत अश्क बन गए, स्वप्न हो दफन गए।। साथ के सभी दीए, धुआं पहन-पहन गए। और हम झुके-झुके, मोड पर रुके-रुके, उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे - कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे”,  (फिल्म "नई उम्र की नई फसल ) जॉन चाचा कहता है " यह काम हमारा नहीं, तुम्हारा नहीं, फिर किसका है? सन 1954 में बूट पॉलिश में पूछा गया यह प्रश्नआज भी निरुत्तर पड़ा है। यही कारण है कि  हमारी समाज में न भूखों की भीड़ कम हुई है ना समाज से दुखों का राज समाप्त हुआ।
                      
राजकपूर ने "बूट पॉलिश" से पहले सन 1951 में "आवारा" का निर्माण किया था। यह फिल्म सीधे-सीधे दलित संदर्भ की तो नहीं है। आवारा की विषय वस्तु का सार यह है कि व्यक्ति  का चरित्र जन्म से नहीं परिस्थितियां निर्धारित करती है। इस फिल्म में भी मलिन और झोपड़ पट्टी का परिवेश है। ऐसी बस्तियों में कथित कुलीन वर्ग तो रहता नहीं है।यहां पर भी भूख है।  रोटी के लिए संघर्ष है। आवारा का नायक (राजकपूर) बचपन में अपनी भूखी और बीमार मां के लिए रोटी चुराते पकड़ा जाता है  जेल में जब उसे रोटी दी जाती है तब वह कहता है _" यह कमबख्त रोटी बाहर मिल जाती तो मैं बार-बार भीतर (जेल) क्यों आता। दलितों में बहुत सी ऐसी जातियाँ हैं, जिनकी आजीविका का साधन मलिन और गलीच माने जाने वाले काम ही होते है। जैसे मृत पशुओं को उठाना, उनका चमड़ा निकलना, चमड़े को रंगना, मल-मूत्र उठाना आदि। वे अपराध में सलंग्न नहीं रहे परन्तु परिवेश से प्रभावित जरूर रहे है। जैसे अशिक्षा, नशा और जुआ आदि।  फिल्मों में जिन समुदाय की बात की जाती वे अति पिछड़ी दलित जातियां ही हो सकती। "आवारा"में ऐसे ही समुदाय को राजकपूर ने पर्दे पर दिखाया है। 

राजकपूर की श्री चार सौ बीस में भी फुटपाट पर बसेरा करने वाले लोग हैं। उनके अंतर्मन में स्वयं के घर का सपना है। वे भी भूख-प्यास के मारे है। श्री चार सौ बीस का यह गीत उनकी दुर्दशा को वर्णित करता है, " छोटे से घर में गरीब का बेटा, मै भी हूं मां के नसीब का बेटा। रंजो-गम बचपन के साथी, आंधियों में जले जीवन बाती, भूख ने बड़े प्यार से पाला। दिल का हाल सुने दिलवाला, कह के रहेगा कहने वाला।"
फिल्म समीक्षकऔर लेखक जयप्रकाश चौकसे लिखते है _"आजादी के 50 वर्ष बाद भी 40 प्रतिशत जनता ने पूरी उम्र संपूर्ण भोजन नहीं किया है। दलित दमित और जनजातियां नमक के साथ आधी रोटी खाती है। कहीं दाल है तो रोटी नहीं, सभी विटामिनों सहित संपूर्णभोजन आज भी आधी रात में देखा सपना है। दरअसल "आवारा" का नाम ' रोटी" भी हो सकता था, क्योंकि नायक कहता है" यह कमबख्त रोटी जेल से बाहर मिली होती तो बार-बार भीतर क्यों आता? "आवारा" उस समय तक सामयिक रहेगी जब तक भूख है, अन्याय है”।  यह लेख 25 साल पहले लिखा गया था पर हालत अभी ज्यों के त्यों है। 

मलिन कच्ची बस्तियां, झुगी-झोपड़ियां  आज भी हैं और इसलिए फिल्मों से विदा नहीं हो पाई। फिल्म "आर्टिकल 15," रजनीकांत, नाना पाटेकर द्वारा अभिनीत फिल्म "काला "और मराठी भाषा में माधुरी दीक्षित द्वारा निर्मित फिल्म "15 अगस्त" (सन 2019) इन सभी फिल्मों में मलिन बस्तियों को दिखाया गया है। मुंबई में एशिया की सबसे बड़ी  बस्ती धारावी"और देश की राजधानी ( दिल्ली) में कालका जी में आज भी कायम है। जयपुर में एक कठपुतली कॉलोनी है। उसकी गलियाँ इतनी संकरी है कि एक साथ लोग निकल नहीं पाते। बरसात में घरों में पानी भर जाता हैं। संकरी गलियों से मृत व्यक्ति की अर्थी भी निकाली नहीं जा सकती। क्या इसी को विकास कहा जाए? जहां  दमकल की गाड़ी भले ही न पहुंचे, पर वोट के लिए नेताओं की टोली हर बार पहुंचती है। वोटो की दलाली करने वाले इनके वोटों का सौदा कर लेते है। ठेका ले लेते है। 

सन 1958  में निर्माता रमेश सैगल की फिल्म "फिर सुबह होगी" में सड़क पर बसेरा करने वालों की व्यथा और पूंजीवाद का प्रपंच है। नायक( राज कपूर) सभी को शिक्षा रोज़गार और स्वास्थ्य की बात करता है। इस फिल्म का एक गाना है_"हिंदुस्तान हमारा, रहने को घर नहीं सारा जहां हमारा, तामील है अधूरी, मिलती नहीं मजूरी।"इसी फिल्म में साहिर लुधानवी की एक नज़्म है "वो सुबहा कभी तो आयेगी। इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढ़लकेगा। जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा, जब अंबर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमे गाएगी, वो सुबहा कभी तो आयेगी।" साहिर लुधानवी ने भविष्य में जिस सुबह की आशा की है, वो सुबह आजादी के 78 वर्ष बाद भी नहीं आई। निकट  भविष्य में आने की  कहीं से पद चाप  भी  सुनाई नहीं  देती।

 फिल्म सगीना में दिलीप कुमार पर फिल्माए एक  गाने का अंतरा है "भोले-भाले ललवा खाए जा रोटी बासी, बड़ा होके बनेगा साहिब का चपरासी” अब इन लोगों का चपरासी बनना भी मुश्किल है। चूंकि बेरोज़गारी इतनी है कि चपरासी के लिए भी उच्च शिक्षा प्राप्त लोग आवेदन कर रहे हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि सरकारी पदों को समाप्त किया जा रहा है और चपरासी और क्लर्क अब ठेकेदार उपलब्ध करा रहे है। 
सेवाओं में निजीकरण करने के बाद अनूसूचित जाति/अनूसूचित जाति का आरक्षण नाम और कहने भर का रह गया इसे शनै: शनै: समाप्त किया जा रहा है। शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। शासन के द्वारा समान शिक्षा की बात शायद इसलिए नहीं की जा रही है कि अभिजात वर्ग को इन्हीं मलिन बस्तियों से  अपने लिए घरों में काम करने वाली बाईयां, रिक्शा चालक, भवन निर्माण के लिए जूता गांठने ओर सफाई कार्य के लिए मज़दूर वर्ग भी चाहिए। अब जो मजबूर है वे ही  तो मज़दूर  बनते है। इनकी इन मजबूरी को समान शिक्षा देकर दूर किया जा सकता है। किंतु हमारे यहां खाने के लिए मुफ्त में पांच किलो अनाज और पीने के लिए धर्म रसायन दिया जा रहा है। अब यह दोनों चीजें देना करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों के लिए  इतना जरूरी हो गया है कि अब इनकी परिधि से बाहर आना उनके लिए जोखिम भरा हो गया है। फिल्म " फिर सुबहा होगी” की समाप्ति इस गाने से की गई है "वो सुबहा हमी से आयेगी" अर्थात दबे कुचले समुदायों को अपनी बेहतरी के लिए स्वयं को ही खड़ा होना होगा। इसके अलावा अब कोई विकल्प नहीं रहा।
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लंबे समय तक सरकारी प्रचार माध्यमों से जुड़े रहने के पश्चात पिछले कई वर्षों से स्वतंत्र लेखन करते हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में ‘त्रासदी -नारी और दलित उत्पीड़न के शास्त्रीय आख्यान’, ‘कब सुधरेगी वाल्मीकियों की हालत’ और ‘कहां हैं ईश्वर के हस्ताक्षर’ (कविता संग्रह) विशेष चर्चित रही हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं एवं कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं। आजकल जयपुर में रहते हैं। फोन : 8559841747

 



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