तुरूप का पत्ता - कहानी संग्रह की समीक्षा
यदि हमारे समाज के सबसे बड़ी बुराई जाति प्रथा, ऊंच-नीच और आडंबर के खिलाफ आवाज़ उठाने की बात की जाए तो उत्तर भारत में हमें कबीर, दादू, नानक और रैदास के समय के भक्तिकालीन युग की ओर देखना होगा। हिन्दी में आगे चलकर जब प्रचुर साहित्य सृजन होने लगा तो मुंशी प्रेमचंद का नाम विशेष तौर पर लिया जाना चाहिए जिन्होंने अपने अनेक उपन्यासों में और बहुत सी कहानियों में जाति-प्रथा के खिलाफ मार्मिक मुद्दे उठाए। उनके जितना ना सही लेकिन जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और आगे चलकर फणीश्वरनाथ रेनू जैसे अनेक लेखकों ने दलित-विमर्श को अपनी रचनाओं में रखा। हालांकि कुछ लोग यह मानते हैं कि हिन्दी में वास्तविक दलित-विमर्श लेखन तभी शुरू हुआ जब कुछ दलित लेखकों ने 'भोगे हुए यथार्थ' के अनुरूप साहित्य रचना शुरू की। ऐसा लेखन बीसवीं शती के अंतिम दो दशकों में तो खूब हुआ जब अनेक दलित लेखकों की नई-नई रचनाएं सामने आईं। यदि कुछ लेखकों का नाम लें तो ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिषराय,अनीता भारती, मनोज सोनकर जैसे कुछ नाम दिमाग में जल्दी से आ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में जयप्रकाश वाल्मीकि की कुछ कहानियाँ और कविताएं दलित-विमर्श साहित्य में विशेष चर्चित हुई हैं। हाल ही में उनका एक कहानी संग्रह आया है, 'तुरुप का पत्ता' जिसका परिचय हमसे करा रहे हैं साहित्यकर्मी डॉ रामगोपाल भारतीय!
कहानियों से समाज सुधार की कोशिश __"तुरूप का पत्ता"।
डॉ राम गोपाल भारतीय*
हिन्दी साहित्य में ही नहीं किसी भी भाषा के साहित्य में कहानी विधा अत्यंत प्राचीन है। कहानी के माध्यम से न केवल जनमानस का मनोरंजन होता है,बल्कि समाज और व्यक्ति के लिए एक उपयोगी संदेश भी मिलता है। इसीलिए कहानियां बच्चों से लेकर बड़ों तक सदैव लोकप्रिय रही हैं और उनके जीवन को प्रभावित करती है।
इतना अवश्य हैं कि कहानीकार अपनी रचनाओं मे यदि कल्पना का समावेश करता है तो वे अधिक रोमांचक और रोचक लगती है, किंतु यदि कोई कहानीकार यथार्थ का चित्रण करता है तो वह जीवन की सच्चाई के अधिक निकट लगती है। और यदि कोई कहानीकार अपना भोगा हुआ यथार्थ अपने शब्दों मे कहानी बना कर प्रस्तुत करता है तो हम उस कहानी के दृष्टा होने के साथ-साथ उसे जीने वाले पात्रों में शामिल हो जाते है। छुआछूत और जातिगत भेदभाव हमारे देश के समाज की एक कड़वी सच्चाई रही है।
उसे भोगने और निकटता से देखने वाले जयप्रकाश वाल्मीकि का हाल ही में प्रकाशित कहानी संग्रह "तुरूप का पत्ता" एक ऐसी ही पुस्तक है, जो हमें समाज के इस अमानवीय घिनौने सच के दर्शन तो कराती ही है, हमें उससे बाहर निकालने रास्ता अर्थात समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। इसलिये इन कहानियों से गुजरते हुए हमें लगता है कि "तुरुप का पत्ता" के माध्यम से कहानीकार ने समाज सुधार की ईमानदार कोशिश की है। यह कहानी संग्रह इण्डिया नेटबुक, नोएडा से प्रकाशित किया गया है। अड़सठ वर्षीय साहित्यकार जयप्रकाश वाल्मीकि के इस कहानी संग्रह में कुल आठ कहानियां हैं - मनीषा, किस जाति से हो?, ग्राम पंचायत का चुनाव, जाल, तुरूप का पत्ता, समय का फेर, मृत्यु का पुन:संस्कार, कलंदर बने कारीगर।
संग्रह की प्रत्येक कहानी दलित समाज से जुड़ी है और शिद्दत से समाज में व्याप्त अशिक्षा,छुआछूत, भेदभाव और संसाधनों के असमान बटवारे को प्रदर्शित करने में सफल हुई है। भाषा सरल है, सुबोध है, कहीं-कहीं देशज शब्द और मुहावरों की अधिकता के कारण पाठक कहानी के उद्वेश्य से स्वत: ही जुड़ जाता है।
यद्यपि इन कहानियों में संवाद कम है परंतु कहानीकार अपनी वर्णात्मक शैली से कहानी के केन्द्र में उपस्थित समस्या को विस्तार से समझाकर उसकी आवश्यकता और समाधान पर प्रकाश डालता है, जिससे कहानी की गति निर्बाध रहती हैं, और पाठक समस्या की जड़ तक पहुंच कर उसके समाधान से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये कहानियां सिर्फ कहानियां ही नहीं है बल्कि लेखक के इर्द गिर्द घट रही घटनाओं का जिन्दा दस्तावेज है। जो उसने देखा है, भोगा है और उसे जीवन के उजले पक्ष तक ले जानें की भरपूर कौशिश की है। कहानी "मनीषा "एक मध्यम-वर्गीय परिवार की शिक्षा के प्रति कभी उदासीनता तो कभी उत्साह को बखूबी प्रस्तुत करती है। इसी तरह "किस जाति से हो?" कहानी में एक अति दलित लड़की के डॉक्टर बन जाने के बाद भी उसे रहने के लिए किराये पर मकान न मिलना, समाज के विकृत चेहरे को मार्मिक शब्दो में उघाड़ता है। तीसरी कहानी "ग्राम पंचायत का चुनाव " केंद्रित है तथाकथित निम्न जातियों मे आपस में ही भिड़ते रहने पर केंद्रित है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे कुछ लोग उच्च जाति के चालाक लोगो के हाथों का खिलौना बन जाते हैं। कहानी में उच्च समाज द्वारा साम, दाम, दण्ड, भेद से पिछड़े दलित समाज के शोषण का कच्चा चिट्ठा खोला गया है। जाल" कहानी में कहानीकार ने दलित समाज के परिवारों में भी दहेज़ जैसी बीमारी के चलन का वर्णन किया है।
शीर्षक कहानी "तुरूप का पत्ता" में सफाई कर्मचारियों के आपसी संघर्ष को दर्शाते हुए इस तथ्य की पुष्टि की गई है कि इस दलित वर्ग को गरीब और वंचित बनाये रखने के लिए उच्च वर्ग के लोग दलित समाज के लोगों को ही मोहरा बना कर "तुरूप के पत्ते की तरह उपयोग करते हैं। "मृत्यु का पुन: संस्कार" में जाति व्यवस्था की व्यथा और दुखद सच को अत्यंत मार्मिकता से स्पष्ट किया गया है। जब कई पीढ़ियों तक भी इस छुआछुत के दंश का अन्त नहीं होता और यह जाति जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ती। "समय का फेर" में कहानीकार ने कोरोना जैसी महामारी के माध्यम से बतलाया है कि प्रकृति अमीर और गरीब, छूत-अछूत को नहीं देखती। उसकी मार सब पर एक-सी पड़ती है। अंतिम कहानी "कलंदर बने कारीगर" में उन लोगों के लिए अच्छी ओर सम्मानजनक आजीविका का
रास्ता सुझाया गया है। जिनकी रोजी रोटी पर युग परिवर्तन के कारण संकट उत्पन्न हो जाता है। जीने के लिए विकल्पों की खोज आवश्यक है, ताकि कलंदर भी कारीगर बन सकें।
कुल मिलाकर "तुरूप का पत्ता"कहानीकार के उद्देश्य को पूर्ण करने में सफल हुए हैं। जयप्रकाश वाल्मीकि के इस कहानी संग्रह से हिन्दी साहित्य जगत में इस तथ्य को बल मिला है और पुष्टि हुई कि दलित साहित्य मे इस प्रसार के लेखन की न केवल महती आवश्यकता है बल्कि इस प्रकार के लेखन को प्रोत्साहन दिए जाने की बहुत आवश्यकता है। कारण आज भी देश में कमोबेश अशिक्षा, छुआछूत, जातिगत भेदभाव और दहेज जैसी समस्याएं दलित समाज के विकास के मार्ग मे बड़ी बाधा है।
यदि इस प्रकार के प्रेरक लेखन से एक भी दलित परिवार का जीवन स्तर सुधर सका तो लेखक का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है।
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"तुरूप का पत्ता" कहानी संग्रह दलित समाज में एक नई चेतना लाएगा, मुझे पूर्ण विश्वास है। यह दलित साहित्य की उद्देश्यपूर्ति के मार्ग में एक मील का पत्थर साबित होगा।
तुरुप का पत्ता - कहानी संग्रह
लेखक : जयप्रकाश वाल्मीकि, जयपुर
पृष्ट संख्या: 128
मूल्य: 300 रू (पेपर बैक)
प्रकाशक : इण्डिया नेटबुक्स प्रा. लि., सी -122, सेक्टर -19,नोएडा (उ.प्र.)

*यह समीक्षा हमारे लिए डॉ. रामगोपाल भारतीय ने लिखी है। साहित्यकर्मी डॉ भारतीय अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कला मंच, मेरठ के अध्यक्ष हैं। मो नम्बर - 8126481515