बच्चियों के साथ रेप : सिर्फ शर्मिंदा होने से नहीं चलेगा...
आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका मई 2018
क्या सोच रहे हैं आप आजकल? हमारा मतलब यह कि जब देश-समाज की बात होती है तो सबसे पहले आपके मन-मस्तिष्क में क्या तस्वीरें सामने आती हैं ? व्यक्तिगत समस्याएं तो अलग बात हैं लेकिन जब दीन -दुनिया की सोचते हैं तो मन में आजकल क्या चिंताएं उपजती हैं? हमें लगता है कि अगर दस लोगों से तो ये सवाल पूछा जाये तो उनमे से कम से कम सात ये जवाब देंगे कि देश के अलग अलग कोनों से जो बच्चियों और लड़कियों से रेप की ख़बरें आ रहीं हैं, उनसे मन बहुत दुखता है और आदमी एकदम बेबस भी महसूस करता है! ऐसी घटनाओं से अगर हम सिर्फ "हम शर्मिंदा हैं", कह कर पीछा छुड़ाना चाहते हैं तो कोई फायदा नहीं - क्या शर्मिंदा हैं हम? हमारे शर्मिंदा होने ना होने से कुछ नहीं होने वाला जब तक कि हम अपने मन-मस्तिष्क को, अपने बच्चों और नौजवानों के मन-मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं करेंगे कि हमें अपनी इच्छाओं से कैसे डील करना है, कैसे हमें अपनी सीमाओं में रहना है और कैसे सही-गलत के बीच अंतर सीखना है!
अगर कोई ये सोचे कि अपराधी को फाँसी की सजा का प्रावधान होने के बाद इन अपराधों में कमी आ जाएगी तो (विशेषज्ञों का कहना है) वह गलत सोच रहा है ! तो अगर आप शर्मिंदा होने की सोच रहे हैं तो कृपया ना हों क्यूंकि आपको एक्शन लेना है, शर्मिंदा नहीं होना है ! हाँ, लेकिन अपने भारतीय होने पर गर्वित भी ना हों क्यूंकि पिछले कुछ साल से गर्वित होने का रिवाज़ बढ़ता जा रहा है - इतना कि लोग आजकल बलात्कारियों को बचाने के लिए प्रदर्शन भी करते हैं तो गर्व के साथ राष्ट्रीय ध्वज लेकर करते हैं और राष्ट्रीय और धार्मिक नारों को मिला-जुला कर एक मिक्सचर बनाते हैं ताकि उनके इस गर्वीले प्रदर्शन का कारगर असर हो और बलात्कारी बच जाए! तो ऐसा खोखला गर्व करने से कुछ ना होगा - वैसे भी अंतराष्ट्रीय अखबारों में हमारी काफी "प्रशंसा" हो रही है - भारत को महिलाओं के लिए बहुत सेफ देश नहीं माना जाता - ऐसे में गर्वित ना होने का कोई खास कारण नहीं बनता!
वैसे शायद पहले भी आपके इस स्तम्भकार ने एक आध-बार ये लिखा था कि दुनिया का ये हिस्सा जिसे हम दक्षिण एशिया कहते हैं, जिसमे मुख्यत: भारत, पाकिस्तान, बांग्लदेश और नेपाल आते हैं, इसमें दुनिया के सबसे बड़े बतौलेबाज़ या नकली लोग रहते हैं - जिन्हें अंग्रेजी वाले हिपोक्रैट कहते हैं! यहाँ के समाज में गैरबराबरी और ऊंच-नीच कूट-कूट कर भरी है जबकि इन देशों में प्रचलित मुख्य धर्मों में बराबरी का पाठ निरंतर पढ़ाया जाता है ! ईशोपनिषद में बहुत स्पष्टता से ये लिखा गया है कि इस सृष्टि में सब बराबर हैं यहाँ तक कि आदमी और पत्थर भी बराबर हैं लेकिन यहाँ की जाति -प्रथा जैसी गैर-बराबरी वाली चीज़ इक्कसवी सदी में भी ज़ोर-शोर से चल रही है और अभी तक ये बहस बिना किसी अपराध-बोध के चल रही है कि घोड़े पर बैठे दलित दूल्हे की बारात सुरक्षित ढंग से कैसे निकले? कोर्ट-कचहरियों तक को इस मामले में दखल देना पड़ रहा है लेकिन मन ही मन हम सब लोगों को जैसे असलियत मालूम है कि चलो इस बार तो बारात निकल जाएगी अब अगली बार की अगली बार देखी जायेगी !
जातिप्रथा तो इतने गहरे में घुसी हुई है कि दक्षिण एशिया के देशों में मुस्लिम समाज में भी जाति का गहरा असर है ! तो कुल मिला कर ये कि आजकल तो हम में ऐसा कुछ ख़ास नहीं जिसपर हाथों-हाथ गर्व किया जा सके ! हाँ, पांच हज़ार साल पहले के महाभारत काल पर गर्वित होते रहना है तो अलग बात है क्यूंकि किन्हीं मंत्री जी ने बताया है कि उस समय हमारे पास ज़रूर इंटरनेट वगैरह था जिस पर कुरुक्षेत्र की लड़ाई की लाइवस्ट्रीमिंग की जाती थी लेकिन (जैसा कि एक व्हाट्सएप्प पोस्ट में कहा गया) पता नहीं ये कैसे दिन आ गए कि तब इतना कुछ था और अभी टॉयलेट भी नहीं हैं और अब सरकारी प्रयास से ये काम किया जा रहा है!
सच बात ये है कि महाभारत काल पर गर्व करने से अब कुछ नहीं होने वाला ! गर्व करने वालों से एक प्रार्थना है, कि देखिये उस काल पर गर्व करना है तो ज़रूर करते रहिये लेकिन आज भी गणित और विज्ञान जैसे विषय गहराई से पढ़ें और अपने को भी ज़रूर तैयार करें ताकि महाभारत काल जितना एडवांस सिस्टम ना तो ना सही लेकिन इतना तो कम से कम हो ही जाए कि हमारे बच्चे भी अपने देश में ही कुछ आविष्कार वगरैह कर सकें अन्यथा सब अमेरिका जाकर ही चमकते हैं और वहां से भारतमाता की जय के नारे लगाते हैं! अरे भैया, भारत माँ से इतना ही प्यार था तो वहां जाकर कहाँ बैठ गए - भारत के गॉवों में ही कुछ सोशल वर्क करते ! एक बात अपने आप से ये भी पूछनी है कि हम जैसे हैं, वैसे क्यों हैं - आपके इस स्तम्भकार के पास कोई रेडीमेड उत्तर नहीं हैं - हाँ, एक बात दिमाग में ज़रूर आ रही है कि यहीं पर महात्मा बुद्ध, गुरु नानक देव जी और महात्मा गाँधी जैसे लोग यहीं क्यों पैदा होते हैं ? क्या इसलिए की हमें ऐसे महापुरुषों की और लोगों से ज़्यादा ज़रूरत होती है? हालाँकि हम फिर भी कहाँ सुधरे!

विद्या भूषण अरोरा