यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व पूर्ण समग्रता में किया था। महिलाओं और दलितों को स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदार बनाने के अलावा वह अन्तर्जातीय विवाहों के बहुत बड़े हिमायती थे। उनका मानना था कि अन्तर्जातीय विवाहों के बिना जाति-भेद मिटाना बहुत मुश्किल काम है। हालांकि हमारे देश के मानस पर जातीय शिकंजा इतना कसा हुआ है कि बहुसंख्यक जनता इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखती है और अभी तक भी अन्तर्जातीय विवाह कोई सामान्य घटना नहीं होते बल्कि कभी-कभी तो उनके चलते 'ऑनर किलिंग' जैसे अपराध होते देखे गए हैं। फिर भी सत्येन्द्र प्रकाश ने कथा कहने की अपनी अनूठी शैली का प्रयोग करते हुए इस संवेदनशील मुद्दे पर कितनी सहजता से अपनी बात कही है, वह देखते ही बनता है।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
सत्येन्द्र प्रकाश
चन्दा आजकल बहुत खुश रह रही है। उसके बेटों के जनेऊ की बात हो रही है। उसके मायके में किसी का जनेऊ नहीं होता है। इसलिए जनेऊ के बारे में उसे बहुत पता नहीं है। वह सिर्फ इतना जानती है कि पंडित कथा पूजा कराता है। बड़ा आयोजन है जनेऊ। हाँ शादी बिआह जितना बड़ा ना भी हो, फिर भी काफी बड़े स्तर पर आयोजित होता है। विशेषकर ब्राह्मण परिवारों में। जिन बच्चों का जनेऊ होता है उनका मुंडन होता है। उसके बाद तीन सूत का बना जनेऊ जिसे पवित्र धागा भी कहते हैं बाएं कंधे के ऊपर से दायें बाँह के नीचे बच्चों को पहनाया जाता है। यह पवित्र धागा पहनते समय पंडित-पुरोहित मंत्र पढ़ते हैं। बच्चे के ऊपर अक्षत डाल कर परिवार के बड़े-बुजुर्ग बच्चे को आशीष देते हैं। फिर ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। ब्राह्मणों के खाने के बाद नाते-रिश्ते और गाँव-घर के लोग साथ खाना खाते हैं।
जनेऊ की रस्म को यज्ञोपवीत या उपनयन संस्कार भी कहते हैं। शादी बिआह की रस्में रात में होती हैं, पर जनेऊ दिन में होता है।
वह सपने में भी नहीं सोच पाती कि उसके बेटें का भी जनेऊ हो सकता है या कोई इसके बारे में सोच सकता है। यह तो बड़आदमियों (सवर्णों) के बच्चों का अधिकार है। चन्दा एक दलित परिवार की बेटी है। गाँव के ब्राह्मण लड़के आशीष से चन्दा ने भागकर बिआह कर लिया था। शायद यह कहना अधिक सही होगा कि आशीष और चन्दा ने अपने-अपने परिवार की मरजी के बिना घर से दूर जाकर शादी की थी। बिआह के बाद सालों दोनों की हिम्मत गाँव आने की नहीं हुई। आशीष ने मनोवेग में शादी का फैसला कर लिया था। शादी के बाद का कोई ठोस प्लान उसके दिमाग में था नहीं।
गाँव के स्कूल में ही आशीष से चन्दा मिली थी। आशीष को पहली नजर में भा गई थी वह। सुंदर गोरा रंग, छरहरा बदन, तीखे नाक-नक्श की चन्दा को पसंद करने वाला आशीष अकेला नहीं था। कई बच्चे फ़िदा थे उस पर। पर चन्दा अपनी सीमाओं को समझती थी। सिर झुकाए चन्दा सीधे स्कूल जाती और स्कूल से घर आती, बिना किसी भटकाव के। पर आशीष से जब उसकी नजरें पहली बार मिली थी, पता नहीं उसे भी कुछ अलग महसूस हुआ था।
आशीष गाँव के ही प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार का लड़का था। तीक्ष्ण बुद्धि और अच्छी कद काठी का आशीष गोरा चिट्ठा युवक था। चन्दा से जब उसकी नजरें मिली थीं उसे उसके दलित होने का आभास नहीं था। आशीष अभी स्कूल की पढ़ाई ही कर रहा था। उम्र ही क्या थी। सुंदर लड़की पर नजरें पड़ीं और दिल फिसल गया। जब तक चन्दा के परिवार का उसे पता चले, अपनी ओर उसके मन ने प्यार की लंबी छलाँग लगा ली थी। चन्दा का कोई स्पष्ट संकेत तो आशीष को नहीं मिला था पर उसकी मदमस्त आँखों ने जैसे आशीष के दिल से कुछ कहा हो, आशीष का दिल मान बैठा था।
आशीष को जब तक चन्दा के दलित समाज से होने का पता चला, उसका दिल बेकाबू हो चुका था। पता भी होता तो क्या उसका दिल मान गया होता, शायद नहीं। किसी पर जब दिल को आना होता है तो वह जात-पात कहाँ देखता है। खुद से मजबूर दिल उस ओर बस खिंचता चला जाता है। आशीष के साथ भी यही तो हुआ था।
चन्दा की तस्वीर उसके आँखों के सामने नाचती रहती थी। चन्दा को आशीष के ब्राह्मण होने की जानकारी थी। बड़े घर के लड़के ऐसे संबंधों को लेकर कितने गंभीर होते हैं, इसमें भी उसे संदेह था। उसे इस रिश्ते का भविष्य पता था, अंत स्पष्ट था। शहरों में भी ऐसे रिश्तों को पारिवारिक सहमति नहीं मिलती। फिर एक गाँव के परिवेश में इसका सुखद अंत कल्पना से परे दिखता था। यही सोच कर चन्दा आशीष से कतराती रही। वह सतर्क रहने लगी थी कि किसी भी तरह वह आशीष के सामने ना पड़े। वह जितनी कोशिश करती बचने की, आशीष उतना ही उतावला रहता कि उसे जी भर देख ले।
स्कूल का परिसर इतना बड़ा भी नहीं था कि चन्दा को देखने के लिए आशीष को कोई खास प्रयत्न करना पड़े। आते जाते दिख ही जाती। समस्या थी तो बात करने की। सामान्य बात हो तो कोई झिझक ना हो। पर प्यार-मुहब्बत की बात बतानी हो हिम्मत साथ छोड़ जाती है। स्कूल में अन्य सहपाठियों के सामने तो मुश्किल और बढ़ जाती है। पर चन्दा थी तो अपने ही गाँव की। साधारण परिवार से थी। पढ़ाई के बाद के खाली समय में मेहनत-मजदूरी के लिए घर से बाहर निकलना ही पड़ता था। रसोई के लिए लकड़ी चुन कर लाने या गाय गोरू के लिए घास इकट्ठा करने के लिए वह निकलती थी। आशीष ताक में रहता था कि कभी चन्दा अकेली मिल जाए।
मौका मिलते ही आशीष ने अपना प्यार चन्दा को जता दिया। वह शरमाकर भाग जाए इससे पहले आशीष ने कह डाला, जब भी हो और जैसे भी हो वह शादी तो उसी से करेगा। आशीष के साहस और सनक से चन्दा प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाई। भागते-भागते उसके मुँह से निकल गया, अच्छा! ‘मैं देखूँगी’! गाँवों में लोग धुआँ उठने के पहले आग को भाँप लेते हैं। आशीष और चन्दा की कहानी फैलते देर न लगी। चन्दा को अकेले घर से निकलने की मनाही हो गई। उसका स्कूल जाना बंद हो गया। घर के किसी काम के लिए भी उसे अकेले बाहर नहीं निकलने दिया जाता था।
चन्दा का बापू राम बरन जल्दी से जल्दी उसका रिश्ता अपनी बिरादरी में कर देना चाहता था। इस कोशिश में वह जुट गया। उसे और उसके टोले के बाशिंदे अच्छी तरह जानते थे कि गाँव के बाभन(ब्राह्मण) इस तरह का रिश्ता कभी नहीं मानेंगे। वैसे आशीष के परिवार में पहले विजातीय शादियाँ हुई थी। पर दलित लड़की की बात पहली बार थी। वह भी अपने ही गाँव की। आशीष के जिन चचेरे भाईयों का विवाह दूसरी जाति में हुआ था, वो सब पढ़ाई पूरी कर अच्छी नौकरी कर रहे थे। उनके माता-पिता भी गाँव के बाहर शहर में रहते थे। जबकि आशीष के माता-पिता को गाँव में ही रहना था।
राम बरन की बिरादरी में डर था कि कहीं चन्दा की खामख्वाह की बदनामी ना हो जाए। इसलिए एकजुट हो बिरादरी वाले उसे शीघ्र ब्याहने की जुगत में जुटे गए थे। आशीष भी बारहवीं के बाद बी ए की पढ़ाई के साथ कंप्युटर कोर्स भी करने के लिए गाँव से बाहर चला गया था। कंप्युटर सीख कर वह आसानी से कोई नौकरी पा लेगा, और तब चन्दा से शादी की हिम्मत करेगा। किन्तु वक़्त कहाँ किसी की नौकरी का इंतजार तो नहीं करता है। चन्दा की शादी की राम बरन की कोशिश कामयाब होती दिख रही थी। आशीष को ख़बर मिली की चन्दा की शादी लगभग तय हो गई है। अगर उसके मन में वाकई कुछ है तो उसे अभी ही कुछ करना होगा।
और फिर एक रात चन्दा की सहेली और अपने दोस्त की मदद से आशीष चन्दा के साथ गाँव छोड़ कर चला गया। नाराजगी तो दोनों परिवारों में थी। चन्दा के परिवार में चिंता कुछ अधिक थी। लड़की वाले थे। जमाने को देख डरते थे कि कुछ दिन के बाद कहीं आशीष उसे छोड़ ना दे। पर जब उन्हे सूचना मिली कि आशीष और चन्दा ने गाँव से निकलने के बाद पहले मंदिर में बिआह कर लिया और फिर कहीं दूर दराज के शहर चले गए, तो कुछ राहत हुई।
बिआह का सुन कर राम बरन और चन्दा की माई को थोड़ी तसल्ली हुई थी, पर टोला वालों का गुस्सा कम नहीं हुआ था। एक टीस थी सबके मन में, दलित लड़की को एक बाभन भगा कर ले गया था। लेकिन करते भी क्या? मन मसोस कर रह गए। पीढ़ियों का संबंध था गाँव के बाभनों से उनका, सुख-दुख में सब साथ खड़े मिलते थे।
बात शुरू हुई थी चन्दा के बच्चों के जनेऊ यानि यज्ञोपवीत की। बिआह करने के पाँच साल तक चन्दा और आशीष गाँव आने का साहस नहीं जुटा पाए। समय के साथ चन्दा ने दो बेटों को जन्म दिया। बड़ा ऋषि और छोटा रोहित। कंप्युटर की सीमित जानकारी से आशीष को मामूली नौकरी ही मिली थी। बच्चों के साथ परिवार की जरूरतें बढ़ीं, बड़े शहर का खर्च और छोटी आय, गुजारा मुश्किल था।
साहस बटोर दोनों गाँव के पास के शहर आ गए। किराये पर एक कमरा ले कर वहीं टिक गए। दोनों ने सोचा, रो-गिड़गिड़ा कर घर वालों से माफ़ी माँग लेंगे। गाँव के पास रहेंगे तो कुछ राशन-पानी का जुगाड़ वहाँ से भी कर लेंगे। यहाँ आने के बाद आशीष पहले अकेले गाँव गया। काफी डरा-सहमा था। गाँव की कौन कहे, घर वालों की प्रतिक्रिया के बारे में भी आशंका थी उसके मन में। घर पहुँच कर आशीष सीधा माँ के पास पहुँचा और लिपट कर रो पड़ा। माँ का दिल माँ का दिल होता है। बेटे की आँसू के साथ माँ का गुस्सा बह गया। आशीष ने माँ को ऋषि और रोहित के विषय में बताते हुआ कहा कि अब वो पास के शहर ही आ गया है। सुनते ही उसकी माँ पोतों से मिलने को बेचैन हो उठीं। और अगले दिन ही शहर पहुँच गई। पोतों और पतोहू (बहु) दोनों को आशीष की माँ ने अपना लिया। विस्तारित परिवार के सदस्यों का मन टटोलने के बाद एक दिन वे पोतों को गाँव लेकर आ गई। ना कहीं कोई विरोध हुआ और ना ही किसी ने कोई उत्साह दिखाया।
आशीष और आशीष की माँ को इससे अधिक क्या चाहिए था। पोतों के स्कूल की छुट्टियाँ होती, वे उन्हें गाँव बुला लेतीं। परब-त्योहार हो या आम का सीजन दादी के चहेते पोते उनके पास होते। अगर वे नहीं आ पाए तो बगीचे का आम-लीची ले वे खुद उनके पास पहुँच जाती।
अब ऋषि ग्यारह साल हो गया है और रोहित आठ साल का। तभी तो इनके यज्ञोपवीत की बात हो रही है। यज्ञोपवीत प्राचीन संस्कारों में एक है। उस पुरातन रिवाज के अनुरूप आशीष के परिवार की परंपरा है जिसके अनुसार बच्चों का यज्ञोपवीत १२ साल तक के उम्र में हो जाना चाहिए। ऋषि और रोहित की दादी उनके जनेऊ की बात तभी तो करने लगी हैं।
विस्तारित परिवार में आशीष और चन्दा की शादी और उनके बच्चों को लेकर अब कहीं कोई नाराजगी नहीं है। गाँव के घर उनके आने जाने पर भी कोई ऐतराज नहीं करता। रोजमर्रा की जिंदगी में इन चीजों को सहजता से लेना एक बात है, पर संस्कारों और रीति=रिवाजों के संदर्भ में किसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, इसकी चिंता आशीष की माँ को परेशान कर रही थी। चन्दा की जाति को लेकर कोई इन बच्चों के यज्ञोपवीत का विरोध ना शुरू कर दे।
आशीष की माँ खुद एक नामचीन पंडित की बेटी हैं। उन्हें पता है यज्ञोपवीत उनके पोतों का हक़ है। तभी तो पराशर मुनि और मछुआरन सत्यवती के पुत्र महर्षि वेद व्यास यानि कृष्ण द्वैपायन का यज्ञोपवीत सम्पन्न हुआ था। उनका यज्ञोपवीत तो होना ही था, ईश्वर ने उन्हें ही तो चुना था वेदों के वर्गीकरण और व्याख्या के लिए जो वेदों की समझ के लिए जरूरी था।
ऋषि और रोहित की दादी फिर भी दुविधा में थीं। गाँव घर के पंडितों का क्या? कोई भी बात उठा कर व्यवधान उत्पन्न कर सकते थे। वे नहीं चाहती कि बच्चों के जिंदगी के इतने महत्वपूर्ण संस्कार में कोई विघ्न हो। मुहूर्त निकल जाए, तिथि तय हो जाए उसके बाद किसी तरह की शंका उत्पन्न हो, यह अच्छा नहीं होगा। पहले ही लोगों की भावना और सोच समझ ली जाए, बेहतर होगा। इसी उद्देश्य से उन्होनें बच्चों के जनेऊ की बात परिवार में शुरू कर दी है। अभी तक किसी ने किस तरह का विरोध जाहिर नहीं किया है। महर्षि वेद-व्यासकी कृपा से उनका यज्ञोपवीत और उपनयन संस्कार परिवार के सभी बड़ों के आशीष से शीघ्र सम्पन्न होगा। आखिर ‘यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजं।।
यज्ञोपवीत (जनेऊ) परम पवित्र है और प्रजापति के साथ आरंभ से ही उपलब्ध है, यह तेजोबल की वृद्धि करता है। यह ब्रह्म और ज्ञान के निकट ले जाने का संकल्प और सामर्थ्य देता है। फिर ऋषि और रोहित ही क्यों, किसी भी शिक्षाकामी बच्चे को, अगर उसके परिवार की इच्छा हो तो कौन इससे वंचित कर सकता है!
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सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।