गाँधी जंयती २०२५ पर विशेष : गांधी की कला-दृष्टि
पराग मांदले गाँधी जयंती पर हमारे लिए इससे पूर्व भी लेख लिख चुके हैं। पिछले वर्ष का उनका लेख 'गाँधी को समझने की कुंजी' खूब सराहा गया था। इस बार उन्होंने गांधीजी के बारे में एक अनछुए पहलू को अपने लेख का विषय बनाया है। यूँ तो गाँधी जी की दृष्टि अत्यंत व्यापक थी और कोई विरला ही ऐसा सामाजिक-राजनीतिक विषय होगा जिस पर हमें उनका कुछ कहा हुआ ना मिलता हो लेकिन गाँधी जी के कला-सम्बन्धी विचार क्या थे, इसकी कोई विशेष चर्चा नहीं सुनी। पराग मांदले ने इस बार अपने लेख का विषय यही चुना है। लेख को पढ़कर लगता है कि बहुत श्रमपूर्वक उन्होंने हमारे पाठकों के लिए गाँधी जी के कला-विषयक विचारों को संकलित किया है। आइए, उनकी इस प्रस्तुति को पढ़िए!
गांधी की कला-दृष्टि
पराग मांदले
डेढ़ पसली वाले शरीर पर आधी धोती लपेटे गांधी की आकृति में यूँ कोई कलात्मकता खोजना बहुत दूर की कौड़ी माना जा सकता है, मगर इसी आकृति ने दुनिया भर के कितने कलाकारों को प्रेरित और प्रभावित किया, इसकी गिनती करना मुश्किल है।
चाहे गांधी के बारे में कम जानने वाले उन्हें महज देश की राजनैतिक स्वतंत्रता के अगुवा के रूप में ही अधिकांशतः जानते हों, मगर सच तो यह है कि गांधी के चिंतन और कार्य के विषय और क्षेत्रों की एक बेहद लम्बी सूची है। यह सूची इतनी बड़ी है कि कई बार आश्चर्य होता है कि भारत में महज बत्तीस साल के अपने सार्वजनिक जीवन की अवधि में कोई व्यक्ति इतने अधिक विषयों पर इतना मौलिक चिंतन कैसे कर सकता है? कैसे वह इतने सारे विषयों पर तार्किक ढंग से अपने विचार व्यक्त कैसे कर सकता है और उन पर खुद अमल करके असंख्य लोगों को कार्य करने के लिए प्रेरित कैसे कर सकता है।
इसके बावजूद यह भी सच है कि कला के मामले में गांधी के व्यापक चिंतन की जानकारी हमें नहीं मिलती है। ऐसा नहीं है कि गांधी ने इस विषय पर अपने विचार बिलकुल ही व्यक्त ना किए हों मगर यह भी उतना ही सच है कि गांधी की प्राथमिकता सूची में देश की स्वतंत्रता और देश के तमाम नागरिकों को उस स्वतंत्रता के योग्य बनाने के विविध उपाय और कार्यक्रम सबसे ऊपर थे, इसलिए उन्हें बहुत विस्तार से कला के विषय में अपने विचार व्यक्त करने की फुरसत कभी मिली ही नहीं। इसके बावजूद जब उन्हें अनायास ऐसा कोई मौका मिला, उन्होंने कला पर अपना दृष्टिकोण सामने रखने से परहेज़ भी नहीं किया।
ऐसा ही एक अवसर 21 और 22 अक्तूबर 1924 के दौरान आया था। इसकी भी एक रोचक कथा है। गांधी के अत्यंत सुह्रद मित्र चार्ल्स फीयर एंड्र्यूज उन दिनों गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के सानिध्य में शांति निकेतन में शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। एंड्र्यूज, जिन्हें गांधी चार्ली कहकर बुलाते थे, एक ईसाई मिशनरी, समाज सुधारक और शिक्षक थे। वे तमाम विषयों और मुद्दों पर गांधी के साथ बड़ी बेबाकी से विचार-विमर्श किया करते थे। उन दिनों गांधी और एंड्र्यूज दोनों ही दिल्ली में थे। एंड्र्यूज के साथ शांति निकेतन में पढ़ रहा उनका एक छात्र जी. रामचंद्रन भी था। रामचंद्रन को 20 अक्तूबर की शाम को वापस कलकत्ता जाना था। एंड्र्यूज ने उसका गांधी से परिचय कराते हुए अनुरोध किया कि चूँकि रामचंद्रन गांधी से कुछ प्रश्न पूछना चाहता है इसलिए 20 की सुबह थोड़ा समय इसके लिए दिया जाए। संयोग से 20 अक्तूबर को सोमवार था और वह गांधी का मौन रहने का दिन था। तब रामचंद्रन ने 21 अक्तूबर की सुबह जाने का निर्णय लिया। गांधी ने उसे प्रार्थना के ठीक बाद सुबह 5.30 बजे मिलने का समय दिया, ताकि वह ठीक समय पर रवाना हो सके।
21 की सुबह तय समय पर रामचंद्रन गांधी के पास पहुँच गया और फिर सवाल-जवाब का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि रामचंद्रन की गाड़ी का समय ही निकल गया। अगले दिन रवाना होने से पहले रामचंद्रन ने अपनी कुछ और शंकाओं का समाधान गांधी से कराया और संतुष्ट होकर कलकत्ता रवाना हुआ। दो दिनों में फैली यह बातचीत इस मायने में अनोखी है कि आध्यात्मिक, सामाजिक या राजनैतिक विषयों से इतर यह बातचीत पूरी तरह से कला और उसका जीवन में महत्व पर केंद्रित रही।
गांधी की कला-विषयक दृष्टि को समझने से पहले हमें इस बात को ठीक से समझ लेना होगा कि गांधी एक राजनेता या समाज-सुधारक होने से पहले और ज्यादा एक आध्यात्मिक व्यक्ति थे। उनका मुख्य लक्ष्य अध्यात्म के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति था और उनकी बाकी सारी क्रियाएं एक इसी लक्ष्य की प्राप्ति की ओर ले जाने का मार्ग या साधन थीं। इस बात को गांधी ने अनेक अवसरों पर असंदिग्ध रूप से व्यक्त भी किया है। यही वजह है कि उनके कई कदम अन्य लोगों को कई बार अव्यावहारिक लगते थे, मगर सत्य के प्रति अपनी निष्ठा के चलते गांधी उन कदमों को बिना किसी झिझक या हिचक के उठा लिया करते थे।
जीवन को और उसके प्रत्येक पहलू को समझने की उनकी कसौटी हमेशा अध्यात्म के मूल सिद्धांत रहे हैं। जाहिर है, कला की ओर भी वे इसी तरह से देखते हैं। इसलिए जब गांधी कहते हैं कि उनके लिए वही कला स्वीकार है जिससे आत्मा की अभिव्यक्ति होती है तो हम समझ पाते हैं कि यह एक आध्यात्मिक व्यक्ति का कला को देखने का दृष्टिकोण है।
गांधी मानते थे कि सच्ची कला तो वही है जो आत्म-दर्शन में सहायक हो। यहाँ कला कला के लिए और कला जीवन के लिए से इतर एक तीसरा दर्शन गांधी देते हैं, जो कहता है कि सच्चा कला वही है जिससे आत्म-दर्शन में सहायता मिलती हो। जाहिर है, इस कला के लिए बाह्य रूप से सहायता तो मिल सकती है, मगर इसके लिए बाह्य रूप अनिवार्य नहीं है।
इसका उदाहरण देते हुए गांधी कहते हैं कि “मैं अपने बारे में यह दावा कर सकता हूँ कि मेरे जीवन में सचमुच पर्याप्त कला है, यद्यपि जिन्हें तुम कला-कृतियां कहते हो, उन चीजों को तुम मेरे आसपास शायद न देख सको। मेरे कमरे की दीवारें बिलकुल सादी, सूनी हो सकती हैं और हो सकता है कि मैं अपने सिर पर कोई छत भी नहीं रहने दूँ ताकि दृष्टि ऊपर उठाने पर अनन्त सौंदर्य का वितान फैलाये तारों से भरे आकाश को देख सकूँ।”
यहाँ गांधी इंसान की बनायी हुई कलाकृतियों को महत्वहीन नहीं मानते मगर सृष्टि की बनायी कलाकृतियों की तुलना में कमतर जरूर मानते हैं। इसका कारण बताते हुए वह कहते हैं कि “ऊपर तारों से जगमगाते इस आकाश की ओर दृष्टि डालने पर मैं जिस विराट् दृश्य को देखता हूँ, वैसे विराट् दृश्य के दर्शन मुझे किस कलाकृति में हो सकते हैं?” अपनी दृष्टि को और भी स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि “इसका यह मतलब नहीं कि जिन चीजों को सामान्यतः कलाकृतियां माना जाता है, उन्हें मैं कोई महत्व ही नहीं देता; हाँ यह अवश्य है कि व्यक्तिगत रूप से मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि प्रकृति के चिरंतन सौंदर्य-प्रतीकों की तुलना में ये कृतियां कितनी अधूरी हैं। मनुष्य की इन कलाकृतियों का महत्व उसी सीमा तक है जिस सीमा तक ये आत्मा के अंतर्दर्शन में सहायक हैं।”
रामचंद्रन सवाल करते हैं कि कलाकार तो बाह्य सौंदर्य के माध्यम से सत्य के दर्शन और उसकी प्राप्ति का दावा करते हैं तो क्या इस तरह सत्य को देखना और पाना सम्भव है? इस पर गांधी का जवाब होता है कि वह सौंदर्य को सत्य में और सत्य के माध्यम से देखते हैं। वह खेद जताते हैं कि लोग सामान्यतः सत्य में सौंदर्य के दर्शन नहीं कर पाते। इसका कारण बताते हुए वह कहते हैं कि साधारण लोग सत्य से आँख चुराते हैं और इसलिए वे उसमें निहित सौंदर्य को देखने से भी वंचित रह जाते हैं। वह विश्वास जताते हैं कि जिस दिन मनुष्य सत्य में सौंदर्य देखने लगेगा, उसी दिन सच्ची कला का जन्म होगा। यहाँ गांधी “सत्यं शिवं सुंदरम्” की उसी प्राचीन मान्यता को दोहराते हैं जो कहता है कि जो सत्य है, वही कल्याणकारी हो सकता है और केवल वही सुंदर होता है।
इसके बाद चर्चा सौंदर्य क्या है, इस पर होती है। गांधी आंतरिक और बाह्य सौंदर्य के मेल को सच्ची सुंदरता का पैमाना मानते हैं मगर यह भी स्पष्ट करते हैं कि यहाँ आंतरिक सौंदर्य अनिवार्य है, जबकि बाह्य सौंदर्य के होने या न होने से सच्ची सुंदरता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि बुरे व्यवहार वाला कोई व्यक्ति कितना ही सुंदर क्यों न हो, हमें नहीं भाता। जबकि कई बार अच्छे व्यवहार वाला साधारण शक्ल-सूरत वाला व्यक्ति भी हमें सुंदर लगता है। यहाँ हम लियोनार्डो दा विंची की प्रख्यात कृति मोनालिसा का उदाहरण ले सकते हैं। मोनालिसा शब्द सदियों से दुनिया भर में सौंदर्य का प्रतिमान माना जाता है, जबकि इस चित्र को ख्याति किसी सुंदर मुखाकृति के कारण नहीं बल्कि उस स्त्री के चेहरे के भावों की अनन्यता की वजह से मिली है।
जाहिर है गांधी सुघड़ता को सौंदर्य का अनिवार्य या एकमात्र मापदंड मानने से स्पष्ट इनकार करते हैं। यहाँ सवाल यह भी उठता है कि प्रत्येक कलाकार के जीवन और व्यक्तित्व में अच्छे-बुरे का समावेश रहता है। ऐसे में जब तक कोई कलाकार सत्य की प्राप्ति न कर ले, तब तक उसके द्वारा रची कलाकृतियां तो सत्य के अभाव के कारण गांधी की सौंदर्य की परिभाषा से बाहर ही हो जाएगी। इस पर गांधी स्पष्ट करते हैं कि “सत्य और असत्य अकसर साथ-साथ रहते हैं। कलाकार में भी सम्यक् दृष्टि और असम्यक् दृष्टि का अस्तित्व बहुधा एक साथ देखने को मिलता है। सचमुच सुंदर कृतियों का सृजन वह तब करता है जब उसकी सम्यक् दृष्टि क्रियाशील होती है।” चूँकि ज्यादातर कलाकारों के जीवन में ऐसे क्षण बहुधा कम ही आते हैं इसलिए जाहिर है कि सच्चा कला-सृजन भी कम ही हो पाता है।
यहाँ रामचंद्रन शंका उठाते हैं कि यदि सिर्फ सत्यमूलक और अच्छी चीजें ही सुन्दर हो सकती हैं तो ऐसी कोई चीज जिसमें कोई नैतिक गुण न हो, कैसे सुंदर हो सकती है? इसी बात को विस्तार देते हुए वह पूछते हैं कि जो चीजें अपने आप में न नैतिक हैं और न अनैतिक, जैसे कि सूर्यास्त या फिर रात को तारों के बीच चमकने वाला बंकिम चंद्रमा, क्या उनमें भी सत्य होता है?
गांधी इन्हें सत्यमूलक बताते हुए कहते हैं कि “ये मुझे उस स्रष्टा की महिमा का भान कराते हैं, जिसका हाथ इनके पीछे है। सृष्टि के मूल में जो सत्य है, उसके बिना ये सब सुन्दर कैसे हो सकते थे? जब मैं सूर्यास्त की अद्भुत छटा को अथवा चन्द्रमा के सौंदर्य को देखता हूँ तो मेरी आत्मा स्रष्टा की आराधना में प्रफुल्लित हो उठती है। मैं इन तमाम कृतियों में उसे और उसकी दया को देखने का प्रयत्न करता हूँ। किंतु यदि सूर्यास्त और सूर्योदय मुझे उसके चिन्तन की प्रेरणा न दें तो मैं उन्हें भी अपने लिए बाधा ही मानूंगा।”
लेकिन यहाँ गांधी इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि कला के सम्बन्ध में उनके विचार उनकी बुनियादी सोच से प्रेरित और प्रभावित हैं। इसलिए जब रामचंद्रन उनसे इन विचारों को भावी पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिए सुबद्ध रूप से प्रस्तुत करने का सुझाव देते हैं तो गांधी इससे साफ इनकार करते हुए कहते हैं कि “मैं ऐसा करने की बात सपने में भी नहीं सोच सकता। मैं कोई कला का अध्येता नहीं हूँ। मैं अपनी सीमाओं से भली-भांति अवगत हूँ, इसलिए इस विषय पर मैं न बोलता हूँ और न लिखता हूँ। मुझे अपनी मर्यादाओं का ज्ञान है। मेरा काम कलाकार के काम से भिन्न है इसलिए मुझे अपने क्षेत्र से बाहर जाकर उसकी जगह नहीं लेनी चाहिए।”
इसके बाद रामचंद्रन ने यंत्रों को लेकर गांधी से कई सवाल पूछे। इस बीच उनकी गाड़ी का समय भी हो गया था, मगर कई प्रश्न अभी भी बाकी थे। गांधी ने मुस्कराते हुए उन्हें आश्वस्त किया कि गाड़ी छूट जाने की चिंता किए बिना वह जितने चाहे उनसे सवाल पूछ सकते हैं। वह बिना थके उन सवालों का जवाब देने को तैयार हैं। इसके बाद रामचंद्रन ने विवाह प्रथा और कताई आदि के विषय में अनेक सवाल गांधी से पूछे। गांधी के उत्तरों से उनका समाधान भी हुआ और वह गांधी के दृष्टिकोण से सहमत भी हुए। अगले दिन कलकत्ता रवाना होने से पहले उन्हें फिर एक बार गांधी से चर्चा का सौभाग्य मिला।
इस बार रामचंद्रन ने सत्य और सौंदर्य के अंतर्सम्बन्ध के बारे में सवाल किया। गांधी ने कहा, “सत्य ही वह वस्तु है, जिसकी खोज सबसे पहले करनी चाहिए और फिर सौंदर्य और शिवत्व की प्राप्ति तो तुम्हें उसके साथ अपने-आप हो जाएगी।”
रामचंद्रन का अंतिम सवाल था कि सत्य से सौंदर्य तक पहुँचने की जगह क्या कुछ कलाकार सौंदर्य में और सौंदर्य के माध्यम से सत्य को नहीं देख सकते?
गांधी ने जो उत्तर दिया, वह उनकी व्यापक सोच और सर्वसामान्य के साथ उनकी एकरूपता की पराकाष्ठा की झलक देता है। उन्होंने कहा, “हाँ, कुछ कलाकार देख सकते हैं। लेकिन मुझे तो यहाँ भी करोड़ों लोगों को ध्यान में रखकर सोचना है; और करोड़ों लोगों को हम सौंदर्यबोध का ऐसा प्रशिक्षण नहीं दे सकते जिससे वे सौंदर्य में सत्य को देख सकें। पहले उन्हें सत्य के दर्शन कराओ और बाद में वे सौंदर्य के दर्शन भी जरूर कर लेंगे। उड़ीसा की बात सोच-सोचकर मैं सोते-जागते हमेशा परेशान रहता हूँ। (उन दिनों उड़ीसा भीषण अकाल से पीड़ित था) उन लाखों-करोड़ों भूखे लोगों के लिए जो कुछ लाभदायक हो सकता है, वह मेरे लिए सुंदर भी है। पहले हम जीवन के प्राथमिक और आवश्यक उपादान जुटा दें, फिर जीवन का लालित्य और सौंदर्य तो उन्हें अपने-आप प्राप्त हो जाएगा।”
स्वतंत्रता सेनानी और गांधी के नवजीवन पत्र के सहसम्पादक रहे काशीनाथ त्रिवेदी ने एक बार गांधी से यह सवाल किया था कि संगीत और चित्रकला सीखने से कौन-कौन से गुणों का विकास होता है। अपने अंतिम ध्येय पर सतत् लक्ष्य रखने वाले गांधी का जवाब था, “संगीत से ईश्वर का ध्यान आसानी से किया जा सकता है। संगीत और चित्रकला समस्त विश्व की एक भाषा है। संगीत से विशेषकर कंठ खुलता है और चित्रकला से हाथ या आँख खुलती है।”
गांधी सादगी के साथ-साथ सुरुचि के भी पक्षधर रहे हैं। उन्होंने शांति निकेतन में कार्यरत् प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस को सबसे पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वर्ष 1936 में हुए अधिवेशन में भारतीय चित्रकला पर एक प्रदर्शनी लगाने के लिए आमंत्रित किया था। इसके पश्चात् हुए फैजपुर और हरिपुरा अधिवेशन के अवसर पर भी अधिवेशन स्थल को सजाने की जिम्मेदारी उन्होंने नंदलाल बोस को ही दी थी।
लखनऊ अधिवेशन के अपने अनुभव के बारे में नंदलाल बोस ने एक लेख में लिखा – “एक छोटी-सी घटना से मुझे बापूजी के सौंदर्य और सामंजस्य का बोध हुआ। प्रदर्शनी हॉल को सरकंडों, बाँसों और लकड़ियों से साधारण ढंग से सजाया गया था। हमने ध्यान रखा कि सौंदर्य संबंधी जरूरतों का त्याग न किया जाए। पहली बार आम जनता को यह देखने का मौका मिला कि साधारण चीजों से भी कितना सौंदर्य उत्पन्न किया जा सकता है। बापूजी इस प्रकार की सौंदर्य रचनात्मकता के समर्थक थे, इसलिए उन्होंने इसका भरपूर आनंद लिया और कलाकारों की कृतियों पर प्रसन्नता व्यक्त की।
मैं जिस घटना की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ वह यह है : प्रदर्शनी हॉल में सब कुछ व्यवस्थित होने के बावजूद, किसी ने लापरवाही से एक बाल्टी मेज के नीचे रख दी थी। यह हमारी नजरों से तो बच गई, लेकिन बापूजी की पैनी नजरों से नहीं। हॉल में प्रवेश करते ही उन्होंने तुरंत इस पर ध्यान दिया और कहा, ‘क्या इससे आपके सौंदर्यबोध में कोई बाधा नहीं आती?’ वे रोजाना ह़ॉल में आते थे और वहाँ काफी समय बिताते थे।”
हरिपुरा अधिवेशन के समय उन्होंने नंदलाल बोस को पूरे अधिवेशन क्षेत्र को कला के नमूनों से ढकने का निर्देश दिया। सेवाग्राम आश्रम में रहने के दौरान नंदलाल बोस द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने स्वीकार किया था कि ललित कला, खासकर संगीत उनके दिल के बहुत करीब है।
जहाँ तक संगीत का सवाल है, खुद गांधी ने अपनी आत्मकथा में इस बात का विस्तार से विवरण दिया है कि किस तरह विलायत में अपनी शिक्षा के दौरान उन्होंने वायलिन और नृत्य सीखने का प्रयास किया था। संगीत से उनका यह जुड़ाव प्रार्थना सभाओं के प्रारंभ में गाये जाने वाले विभिन्न भजनों के माध्यम से आजीवन रहा। खुद गांधी ने एक सवाल के जवाब में यह कहा था कि यदि मेरे जीवन में संगीत और हँसी न होती तो मैं अपने काम के बोझ से मर जाता।
दिसंबर 45 में अपनी शांति निकेतन यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने रथींद्रनाथ ठाकुर को दिनांक 22 दिसंबर 1945 को एक पत्र लिखा। वह पत्र अन्य विषयों की तरह संगीत के बारे में भी उनकी सर्वसमावेशी और वैश्विक दृष्टि का परिचय देता है। इस पत्र में वह लिखते हैं – “शांति निकेतन का संगीत बड़ा मोहक है, लेकिन वहाँ के प्राध्यापक क्या इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि बंगला संगीत ही उसकी चरम सीमा है? क्या हिंदुस्तानी संगीत के पास संगीत की दुनिया को देने के लिए कुछ नहीं है? यदि है तो शांति निकेतन में उसको उचित स्थान मिलना चाहिए। बल्कि मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि पाश्चात्य संगीत को भी, जिसने बहुत अधिक प्रगति की है, भारतीय संगीत में मिश्रित होना चाहिए।”
इसके पश्चात् वहाँ के संगीत के संदर्भ में उन्होंने जो लिखा, वह उनकी इस कला-दृष्टि को ही दोहराता है, जिसमें जीवन और उसका अंतिम लक्ष्य किसी भी कला का मूल उद्देश्य होना चाहिए। यही दो किनारे हैं जो कला की नदी को बिखर खत्म होने की जगह अपने गंतव्य तक पहुँचने में सहायता देते हैं। गांधी लिखते हैं – “स्वर- संगीत के अतिरेक में जीवन-संगीत के खो जाने की आशंका दिखाई देती है। संगीत ही हो तो फिर चलने-फिरने का संगीत क्यों नहीं, प्रयाण का संगीत क्यों नहीं, हमारी एक-एक हलचल, एक-एक प्रवृत्ति का संगीत क्यों नहीं? मंदिर में प्रार्थना के समय मैंने यों ही नहीं कहा था कि लड़के-लड़कियों को मालूम होना चाहिए कि वे कैसे चलें, प्रयाण कैसे करें, बैठें कैसे, खायें कैसे, यानी संक्षेप में, जीवन का हर कार्य कैसे करें। संगीत की मेरी यही कल्पना है।”
21 मार्च 1926 को अहमदाबाद राष्ट्रीय संगीत मंडल के वार्षिकोत्सव में भाषण देते हुए गांधी ने कहा था, “हम संगीत का ऐसा संकुचित अर्थ न करें कि वह सधे हुए कंठ से शुद्ध स्वर में ताल के साथ गाने-बजाने का अभ्यास मात्र है। जीवन में एकरागता और एकतानता होने पर ही सच्चा संगीत प्रगट होता है। ह्रदय का कोई तार बेसुरा नहीं होता, तभी संगीत का जन्म होता है।”
स्पष्ट है कि गांधी के लिए संगीत या कोई भी कला जीवन से इतर कोई वस्तु न होकर जीवन में ही ओतप्रोत है, जीवन से अभिन्न है। और चूँकि जीवन का परम लक्ष्य सत्य का साक्षात्कार है। वह सत्य जो सबके लिए कल्याणकारी होता है और इसीलिए सुंदर भी होता है। वह सबके लिए सहज उपलब्ध भी होता है। गांधी की दृष्टि में कला भी ऐसी हो जो सबके लिए सहज संभव और उपलब्ध हो, बिना किसी अपवाद के सबके लिए कल्याणकारी हो। जाहिर है, ऐसी कला से अधिक सौंदर्यवान वस्तु इस संसार में दूसरी कौन-सी हो सकती है।
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पराग मांदले के लेख, कहानियां, कविताएं और स्थायी स्तंभ देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। हाल ही में सेतु प्रकाशन से आई उनकी पुस्तक ‘गाँधी के बहाने’ खासी चर्चित हुई है. उनके तीन कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं। विगत अनेक वर्षों से वे पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ शाश्वत व वैज्ञानिक जीवनशैली के प्रचार-प्रसार से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा गांधी उनके अध्ययन का प्रमुख केंद्र रहे हैं।