और गर मर जाइए तो...: दास्ताने सोशल मीडिया
हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में सोशल मीडिया का दख़ल इतना बढ़ गया है कि अब ज़्यादातर लोगों के लिए इसके बिना जीवन की कल्पना करना मुश्किल होगा. अगर हम बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए महज़ डाटा बन गए हैं तो हमें इसकी कोई चिन्त्ता होती नहीं दिख रही. इसके लाभ गिनाने वालों से भी हमारा कोई झगड़ा नहीं है जब वो कहते हैं कि सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण इन्टरनेट और सोशल मीडिया ने ही किया है और साथ ही ध्यान दिलाते हैं कि आज व्हाट्सएप कॉल के माध्यम से एक प्रवासी मज़दूर सैंकड़ों-हजारों मील दूर बैठी अपनी माँ से या बीवी बच्चों से चेहरा देखते हुए बात कर सकता है. लेकिन इस सबके बावजूद क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि सोशल मीडिया ने मानवीय संबंधों को बहुत मशीनी भी बना दिया है और कृत्रिम भी. व्हाट्सएप वीडियो कॉल करने वाले बहुत से लोग आपको बताएँगे कि यह सब अब एक रस्म-अदायगी जैसा लगता है. राजेन्द्र भट्ट के इस लेख में सोशल मीडिया की इन्हीं विडम्बनाओं की ओर संकेत किया गया है.
और गर मर जाइए तो...: दास्ताने सोशल मीडिया
राजेन्द्र भट्ट
इसे अपने समय का विरोधाभास कहूँ या विडम्बना कि जिस माध्यम के छिछोरेपन के बारे में आगाह करना चाहता हूँ, उसी माध्यम – यानी आज का सोशल मीडिया, उसे ही वाहक बना कर अपनी बात कहने की मजबूरी है। सोशल मीडिया में जो अंतर्निहित भटकाव हैं, एकाग्रता का अभाव है, उसकी वजह से इस के ही ज़रिए, इसी की आलोचना करने पर भटकाव और एकाग्रता से फिसलन और ‘ड्रिफ्ट’ तो इस लेख में आ ही जाएगा। फिर भी, अपनी बात को कुछ प्रसंगों की खूंटियों में बांध कर ‘फोकस करने’, भटकने से बचने और एकाग्र हो पाने की कोशिश कर रहा हूँ। आगे आप बर्दाश्त कर लें। शायद कुछ काम की टिकाऊ बात भी निकल जाए।
सोशल मीडिया प्रसंग - 1 : मृत्यु के बाद शुभकामनाएँ
एक सौम्य, संजीदा परिचित थे। लगभग पाँच साल पहले उनका निधन हो गया। उस समय उनके किसी परिजन ने उनके ही फेसबुक पेज पर उनके निधन की सूचना दे दी थी। शायद ज्यादा नजदीकी परिचितों के लिए व्हाट्सएप पर भी सूचित किया होगा। मतलब, ‘सोशल मीडिया फ्रेंड्स’ को पता चल ही गया होगा। (जान-बूझ कर ‘सोशल मीडिया फ्रेंड्स’ कह रहा हूँ, क्योंकि बीमारी, मृत्यु, सुख-दुख के दौर का जिन्हें पहले से पता न हो, जो ऐसे समय मदद और दिलासे के लिए करीब न हों, संवाद में न हों – और जिनके लिए मृत्यु के बाद मुनादी करनी पड़े, वे कैसे मित्र! वे तो ‘सोशल मीडिया फ्रेंड’ ही हो सकते हैं – अंगूठे, फूल, ‘जय मंगलवार’ टाइप संदेशों वाले भाव-शून्य ‘फ्रेंड'!)
चलिए, भटकाव से बचता हूँ। कुछ दिन पहले, मोबाइल पर अंगुलियाँ फिराने की लत के चलते, अचानक उन स्वर्गीय परिचित का फेसबुक पृष्ठ सामने आ गया जिनका ज़िक्र मैंने ऊपर किया. उत्सुकतावश पेज खोला तो पिछले चार सालों से (उनके निधन के थोड़े समय बाद से ही) उनके ‘सोशल मीडिया ‘फ्रेंड’ उन्हें, विधिवत जन्मदिन की बधाइयाँ भेजे जा रहे थे। मुझे थोडा शक़ हुआ कि कहीं मुझे उनके निधन की बात गलत याद तो नहीं है. चेक करने के लिए उनके ‘पेज’ पर थोड़ा और नीचे गया तो उनकी मृत्यु की वही सूचना भी वहाँ टंगी हुई थी जिसे मैंने पहले देखा था।
जन्मदिन की शुभकामनाएं भेजने वाले इन ‘फ्रेंड्स’ के दिमागों, संवेदनाओं और स्मृतियों का उनकी मोबाइल-आतुर अंगुलियों से ‘कनेक्ट’ खत्म हो चुका था। शायद वे सभी समाज-परिवेश, पढ़ाई-लिखाई, गहरी संवेदनाओं, टिकाऊ सम्बन्धों से उचट चुके (एलीनिएटेड) होंगे। शायद वे उस होनहार अर्जुन जैसे बन गए थे, जिन्हें चिड़िया की आँख के अलावा बाकी पेड़-पौधे, रंग-रूप, समाज का कोलाहल कतई ‘डिस्टर्ब’ नहीं कर रहा होगा। रोमन लिपि में लिखी हिन्दी में टेपे अपने ‘शुभकामना संदेश’ से फारिग होकर वे आस-पास ही जड़ा मृत्यु-संदेश देखने का धैर्य नहीं रख पाए होंगे। वह संदेश उन्हें ‘विचलित’ न कर पाया हो। फेसबुक-व्हाट्सएप-रील में व्यस्त उन मित्रों से यह अपेक्षा करना तो बहुत ज्यादा हो जाएगा कि पिछले पाँच साल में वे अपने दिवंगत ‘फ्रेंड’ की कुशल उसके मिलकर, या फिर कम-से-कम फोन करके जान लेते।
(क्षमा करें, यहाँ एक और भटकाव जबरन खींच रहा है। ‘चिड़िया की ही आँख देखने’ का यह ज्ञान आजकल स्कूलों के और प्राइवेट वाले ‘सर-मैडम’ भी अपने होनहार विद्यार्थियों को देते हैं। वे ‘टिप्स’ देते हैं कि कोर्स की किताब में जो विषय से जुड़ी पृष्ठभूमि और उसके बुनियादी सिद्धान्त दिए गए हैं, जो ज्ञान और अनुभव का विस्तार तथा गहराई है, देश-समाज की बातें हैं - उसे पढ़ कर कतई वक्त बर्बाद न करें। यह सब ‘आईआईटी-जी’ में, ‘नीट’ में, बढ़िया वाले एमबीए एडमिशन में नहीं आता है। कौन सवाल कितने नंबर का है, बस उतना ही रट डालो। तभी पर्सेंटेज-पर्सेंटाइल की राह से गुजर कर होनहार बालक-बालिका ‘पैकेज’ के शिखर पर जा सकेंगे और खूब खाते-पहनते, अन्य क्रियाएँ करते, मदमस्त (पशु-सा) विचरण करते जीवन सफल बना सकेंगे।)
(यह पैराग्राफ भटकाव तो है, पर यह बताता है कि ‘सोशल मीडिया’ की साझा डोर (कॉमन थ्रेड) करियर-केन्द्रित, सामाजिक निरुद्देश्यता वाले शानदार (!) जीवन से जुड़ी है। इसलिए यहाँ जोड़ दिया।)
शायद ऐसी ही छिछोरी दोस्तियों और सम्बन्धों पर लानत भेजते हुए गालिब खिन्न होकर कह गए होंगे:
पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार
और गर मर जाइए तो नौहा-ख्वाँ (रोने वाला) कोई न हो।
जिस माध्यम के ज़रिए विश्वग्राम (ग्लोबल विलेज) बन जाने का दावा किया गया था – वह हमें अपने पड़ोस, गाँव, नजदीकी मित्रों-संपर्कों से भी काट रहा है। संबंधों का निभाव मोबाइल-लैपटॉप के लिए आतुर-चपल अंगुलियां कर रही हैं जिनका दिल और दिमाग से कोई ‘कनेक्ट’ नहीं होता। ये अंगुलियाँ अंतहीन बोरियत से थिरकती हैं।
सोशल मीडिया प्रसंग – 2 ( मित्र-मिलन का उत्साह बनाम लाठी-बल्लम, फूल-पत्ते)
मर चुके ‘मित्र’ को भी साल-दर-साल जन्मदिन पर शुभकामनाएँ चेप देना तो भावहीनता की पराकाष्ठा ही है। अब इससे एक सीढ़ी कम उचाट संवेदनहीनता वाले किस्से पेश करता हूँ।
बचपन, किशोरावस्था की सभी की मधुर यादें होती हैं, अपनी भी थीं। तो जब सरकारी चाकरी से मुक्त हुआ तो बचपन के दोस्त तलाशने की मुहिम में उल्लास से जुट गया। दस-पंद्रह दोस्त तलाश लिए तो बड़ी उपलब्धि-सी लगी कि अब पुरानी यादों में, तब के मुखड़ों, मीठी-खट्टी यादों में खो जाएंगे। व्हाट्सएप ग्रुप बना डाला। थोड़े दिन (सबने नहीं,पर) कुछ ने पुराने दिन याद किए, भला-भला लगा।
पर यह खुशी क्षणिक थी। मधुर यादों की बातें जल्दी ही छूट गईं। यहाँ थोक में ‘फॉर्वर्डेड’ ‘शुभ सोमवार’, फूलों, प्राकृतिक दृश्यों वाले आशीर्वचनों के अंबार से किस्सा शुरू हुआ और युद्धघोषों वाले भीषण, धमकाऊ राजनैतिक-धार्मिक संवादों, खबरों, इतिहास के नए-नए अनुसन्धानों तक जा पंहुचा। ये सब भी मौलिक नहीं, टीपे हुए थे। इनमें प्रश्न-उत्तर या संवाद-शैली नहीं थी। सब अपना भेज रहे थे, दूसरे का कतई नहीं सुन रहे थे। आपने एक भक्त घंटाकर्ण की कथा सुनी होगी जिसने अपने दोनों कानों में घंटे लटका रखे थे। वह अपने आराध्य देव की स्तुतियाँ गाता था, और जब सामने वाला अपने आराध्य की बात बताने की कोशिश करता, तो वह सिर हिला कर घंटे बजाने लगता, ताकि उसकी बात नहीं सुनी जा सके।
जब भीषण शोर के साथ, बाल-सखाओं के बीच लाठी-बल्लम चलने लगे तो हम उस ग्रुप से भाग खड़े हुए।
पुराने साथियों की इसी तलाश के दौरान, कॉलेज के एक मित्र टकराए। तब वह बौद्धिक, गहराई से बातों को समझने वाले, पढ़ाकू, संजीदा किस्म के थे। जब चार दशक बाद मिले तो उत्साह जगा कि अब बौद्धिक ऊर्जा से सम्पन्न बातें होंगी। पहले दिन की बातचीत में तो, मैं बड़े उत्साह में था। हालांकि वह थोड़ा बुझे-बुझे से लगे।
पर धीरे-धीरे लगा कि वह मन से भी रिटायर्ड गृहस्थ बन चुके थे। वह पिछले पाँच साल से रोज़, निष्काम भाव से, दूसरे समूहों से ‘इंपोर्टेड’ फूल, नदी, ‘शुभ शुक्रवार’ के व्हाट्सएप संदेश भेजते हैं। दो-एक बार मैंने फोन किया, उन्होंने नहीं उठाया। मैं उनकी कुशलक्षेम को लेकर थोड़ा चिंतित हुआ, पर दूसरे दिन उनका व्हाट्सएप फूल आ जाने से चिंता मिटी।
मैं आम तौर पर फूल, नदी आदि को ‘रिसीप्रोकेट’ नहीं करता। (ज्यादा इमोशनल हमले हो जाने पर कभी-कभी कर भी देता हूँ। मुझे फूल, नदी वाले संदेशों के निर्माण और प्रसार का अर्थशास्त्र नहीं पता – कुछ तो होगा ही। इस विषय पर कोई पुख्ता ज्ञान बढ़ाएगा तो सभी सोशल मीडिया-लती प्राणियों की आँखें शायद खुलेंगी कि अपन की फोकट में लत लगा कर, अपन को ‘डेटा’ और ‘कंटेन्ट’ बनाकर कौन काम रहा ही, या ‘पॉलिटिकल कैपिटल’ बना रहा है।
बहरहाल, सोचता हूँ कि मेरे मित्र तो रोज़, निष्काम भाव से अपने फूल-पत्ते भेज देते हैं जिनसे उनकी कुशलक्षेम मिल जाती है। पर मैं तो भेजता नहीं। अगर मैं किसी दिन मर जाऊँ तो वह उसके बाद, कितने साल तक मेरे नंबर पर फूल-कामनाएँ भेजते रहेंगे! क्योंकि बात-संवाद तो वह करेंगे नहीं।
सोशल मीडिया प्रसंग 3: मेरा भाई भोला-नादान है
इन भावहीन, नफरती, नीरस, उजाड़ किस्सों के बाद, मन को थोड़ा तर करने वाला यह किस्सा भी सुन लें। थोड़ा तो भला-भला लगेगा।
यह प्रसंग करीब चालीस साल पुराना है। तब केवल ‘चिट्ठी' आती थी। मैं दिल्ली में नया-नया नौकरी कर रहा था। पहाड़ में ही संघर्षरत एक साहित्यिक मित्र की चिट्ठी आई। मुझे आज भी याद है कि उनका सुलेख, वाकई मोतियों जैसा था। भाषा से सौहार्द्र, गंभीरता टपकती थीं।
किशोर-वय का उनका छोटा भाई घर से दिल्ली भाग आया था। कुछ समय बाद उसने एक पत्र भेजा था जिसमें तब ‘राउज़ एवेन्यू’ कहे जाने वाली सड़क पर किसी ढाबे पर काम करने और ‘चिंता न करने’ की बात कही गई थी। इसके बाद तीन महीने बीत चुके थे लेकिन फिर उसका कोई खत नहीं आया। मेरे मित्र ने व्याकुल होकर मुझे उसकी कुशलता जानने के लिए, उससे मिल आने का आग्रह किया था। बड़े भाई के छोटे भाई के प्रति स्नेह और उसे अपने पंखों जैसी सुरक्षा दे पाने की इच्छा की उनकी सीधी-सरल व्यंजना मुझे अब भी याद है। लिखा था - “मेरा भाई भोला-नादान है। मेरा मन उसकी कुशल के लिए बहुत व्यथित है”.
तब दिल्ली काबिल लोगों का इतना निर्मम जंगल नहीं था। दिल्ली इतनी बेदिल नहीं थी। पैदल जूते चटकाने वाले, डीटीसी बस में लटकने वाले तब मिडिल क्लास वाले थे, उन्हें बे-कार मानकर हिकारत से नहीं देखा जाता था। मैं थोड़ा डीटीसी बस, थोड़ा पैदल चल कर पूछते-पूछते उस बच्चे तक पंहुच सका। ढाबे के मालिक सज्जन व्यक्ति थे। बच्चे को स्नेह से रखते थे। बातचीत करने पर पता चला कि बच्चा खुद चाहता था कि कुछ ‘कमा कर’ घर जाए और तभी चिट्ठी लिखे।
सोशल मीडिया तो एक तरफ, तब तो फोन भी दुर्लभ था। मैंने बालक के हाथों तुरंत एक चिट्ठी लिखवा पर अपने मित्र को पोस्ट करवाई। एक चिट्ठी खुद लिखी। ताकि पक्के से उसकी कुशलता का समाचार पंहुच जाए।
सोचता हूँ, आज आप चौबीस घंटे में सौ बार अपनों की कुशल जान सकते हैं। उनसे संवाद कर सकते हैं। तब हफ्ते भर में चिट्ठी मिलती थी। पर अब हम अपने दशकों पुराने मित्र को पाँच साल तक बस किसी और का भेजा फूल ही ‘रिडाइरेक्ट’ करते रह जाते हैं। हमें उसके दुखी-बीमार होने, यहाँ तक कि मर जाने की भी खबर नहीं होती। हम ‘शुभकामनाएँ’ चेपते रहते हैं।
और तब तीन महीने चिट्ठी नहीं आने पर अपने लोग व्याकुल हो जाते थे। बे-कार दोस्त को सड़कें नापते हुए कुशल लाने को कह सकते थे और वह एक आत्मीय शहर के किसी कोने से कुशल ले भी आता था।
मुझे दोस्तों को नए साल के कार्ड भेजने का शौक था। हम लोग कोशिश करते थे कि हर दोस्त के मिजाज़ के अनुरूप, मेहनत से छांट कर उसके लिए कार्ड तलाशा जाए। फिर टिकटें, लिफाफे लिए जाएँ। सोच-सोच कर संदेश लिखे जाएँ। आखिर में, डाकखाने जाकर कार्ड पोस्ट किए जाएँ। तब कितनी तसल्ली मिलती थी!
मुझे याद है कि दिल्ली के आर.के.पुरम में दृष्टि-बाधित बच्चों के कल्याण की एक संस्था थी। वे बच्चों के हाथों के छापे लेकर नववर्ष के सुंदर, भावपूर्ण कार्ड बनाते थे – बच्चों की रचनाएँ, उनके भविष्य की इबारतें। मैं बस से कई बार कार्ड खरीदने आर.के.पुरम गया। उन कार्डों को भेजने का – उन बच्चों के प्रति सहृदयता फैलाने का सुख अद्भुत था!
अब हम ‘ब्रॉडकास्ट लिस्ट’ से दर्जनों लोगों की नए साल की शुभकामनाएँ एक साथ निपटा देते हैं। अब हम तीन महीने नहीं, तीन साल तक भी अपनों से संवाद नहीं होने पर रूखे बने रहते हैं। अब हम अपनों से मिलने, समाज से अपनापन बढ़ाने को कोई ‘प्रिय लगने वाला कष्ट’ नहीं करते।
सोशल मीडिया पर चर्चा का यह सिलसिला अभी जारी रखेंगे । अगली बार, खैनी-चूने की लत के बारे में।
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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।