सोशल मीडिया प्रसंग जारी है
राजेन्द्र भट्ट ने सोशल मीडिया पर अपने पिछले लेख में तीन प्रसंग गिनवाए थे. आज चौथे प्रसंग में वह खैनी-चूने की लत और सोशल मीडिया की लत की किस प्रकार की तुलना करते हैं, यह आप इस लेख में देखिये.
सोशल मीडिया प्रसंग - 4: खैनी-चूने की लत
राजेन्द्र भट्ट
बहुत मुश्किल है सोशल मीडिया की संवेदनहीनता की उसी सोशल मीडिया के जरिए आलोचना करना।
पिछली गप-शप में, ‘सोशल मीडिया फ्रेंड्स’ द्वारा, ‘मित्र’ के मर जाने से भी गाफिल शुभकामनाओं और निस्पृह भाव से, संवाद की उपेक्षा करते हुए फूल-पत्तों की व्हाट्सएप सौगातों का जिक्र किया। यह दुख भी बांटा कि कैसे, राजनीति की बलिवेदी पर, समाज का राजनैतिक-वैचारिक-धार्मिक ध्रुवीकरण हो जाता है और ‘सोशल मीडिया’ के ‘एंटी-सोशल’ मंच पर निर्मल बाल-मित्रता को लाठी-बल्लम के सम्बन्धों में बदल देता है।
हमने यह चर्चा भी की कि चालीस साल पहले, ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ के तथाकथित ‘ग्लोबल विलेज’ बनने से पहले, अपने गाँव-कस्बे की मिट्टी से सुवासित चिट्ठी कुछ महीने नहीं आने पर मन कलपने लगता था – लगता था, उड़ कर अपनों तक पंहुच जाएँ।
अबकी बार - चूना-खैनी की बात। चूना-खैनी खाने वाले क्षमा करें, अपनी निजी पसंद-नापसंद तो होती ही हैं। करीब तीन दशक पहले के एक दफ्तरी साथी को नापसंद करने का ऐसा ही पूर्वाग्रह है। उन्होंने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं, इसलिए नापसंद करने के लिए माफी मांगता हूँ। पूर्वाग्रह तर्क-सम्मत कहाँ होते है; पर सभी के होते हैं ना!
ये सज्जन बड़े कैजुअल तरीके से ढीली पेंट, ढीली बुशशर्ट पहनते थे। सीट पर टिक कर कम बैठते थे, दफ्तर का काम कम ही करते थे। अपने जैसे ही किसी साथी या जितनी गुंजाइश हो, किसी चाटुकारिता और चुगली-पसंद मँझोले अफसर के पास बैठ जाते और कवित्त-सवैया किस्म की साहित्यिक चर्चा के बाद, चुट्कुले-अलंकारों की भाषा में अन्य दफ्तरी साथियों की इत्मीनान से निंदा करते हुए समय को सार्थक करते थे। जाहिर है, इन चर्चाओं में वर्जित सेक्स सम्बन्धों-रुझानों की रसीली चर्चा तो होती ही थी। अँग्रेजी में एक शब्द है –‘वाईकेरियस प्लेजर' (vicarious pleasure) - वर्जना और दंड के डर से जब हम कुछ रसीले काम नहीं कर पाते (सब कोई तो इतने (दुस-)साहसी नहीं हो सकते), तो ‘क्या ज़माना आ गया है’ के साथ उनकी निंदा करने से, ऐसे (दुस-)साहसी लोगों की जगह पर खुद की कल्पना करने की सुरक्षित गुदगुदी और चटकारों को ‘वाईकेरियस प्लेजर’ कहते हैं। इससे कथित नैतिक बात कहने तथा कथित अनैतिक को कोसने का पुण्य बोनस में मिलता है।
खैनीमय व्यक्तित्व था इन सज्जन का। उनकी ढीली पेंट, बेमेल बुशशर्ट की जेबों में पारदर्शी-अपारदर्शी पन्नियों, होम्योपैथी किस्म की शीशियों में चूना, खैनी-तंबाकू, सुपारी जैसे पदार्थ होते थे। बहुत ढीलेपन से, खूब समय लेते हुए, वह अपनी सत्संग-चर्चाओं के दौरान इन वस्तुओं को मिश्रित करते; इत्मीनान से जीभ के नीचे और तालू के ऊपर रखते और सामने वाले सत्संगी को भी पेश करते। आज की भाषा में, यह मिश्रण ज्ञान के आदान-प्रदान का ‘सर्च इंजन’ था।
उनकी अस्त-व्यस्त, ढीली जीवन-शैली में अगर कभी उनकी जेबों से उक्त पदार्थों में कोई पदार्थ नहीं मिल पाता और मिश्रण के तुरंत सेवन से वंचित रह जाने की आशंका बन जाती – तब उनकी बेचैनी (एंग्जाईटी) बहुत बढ़ जाती। माथे पर पसीना आ जाता, हताशा छा जाती। वह छटपटाते से जेबें तलाशते-पलटते। सभी वस्तुएँ मिल जाने पर ही वह अपने निश्चिंत, सत्संग-आतुर स्वरूप में आ पाते।
‘सोशल मीडिया’ की इस चर्चा में उनकी याद, उनके उक्त खैनी-वंचित बेचैनी वाले स्वरूप से जुड़ी है।
मैं सोशल मीडिया से अपेक्षाकृत कम जुड़ा और जानकार हूँ। थोड़ा फेसबुक, व्हाट्सएप में दखल है। ‘एक्स’ को बस देख लेता हूँ, जैसे वह अनायास सुपारी टूँग लेते थे। लेकिन जब किसी व्हाट्सएप ग्रुप में पाँच मिनट में पचास संदेशों की झड़ी लग जाती है, जब ‘शुभ मंगलवार’ के दस संदेश अचानक आ जाते हैं और राजनैतिक-धार्मिक युद्ध-संदेशों की संख्या का मीटर बढ़ने लगता है - तो असहाय, निरर्थक बेचैनी तथा ब्लड प्रेसर बढ़ जाते हैं। अध्यात्म वाली वैराग्य-चर्चा की तरह लगता है कि – ‘हे जीव! ये संदेश तेरे किसी काम के नहीं। इन्हें जल्दी नष्ट कर।‘ और मैं रक्तबीज राक्षस के खून के हर कतरे से पैदा होते राक्षसों की तरह, तेजी से बढ़ते इन मैसेज-असुरों को मारने, यानी ‘डिलीट’ करने के लिए माँ दुर्गा बन जाता हूँ। लेकिन हर पाँच मिनट में किया जाने वाला यह कार्य मेरा वक्त बर्बाद करता है, मुझे एकाग्र होकर कोई सार्थक काम नहीं करने देता। असहाय हो कर ग्रुप के रक्तबीज मित्रों के कुछ वक्त शांत रहने की मौन कामना करता हूँ। उन सब को झटक कर मुक्त भी नहीं हो सकता। आँखें फिर-फिर मोबाइल पर टिक जाती हैं, मन फिर-फिर बेचैन होता है, वक्त बर्बाद होता रहता है। ‘मिलो न तुम तो हम घबराएं, मिलो तो आँख चुराएं’ गाना ऐसी ही कैफियत में रचा गया होगा।
‘फेसबुक’ पर, निस्संदेह, कुछ अच्छे लेख, विचार आ जाते हैं। मैंने अपनी पसंद के विचारों का ‘बबल’ बना रखा है। अपना बनाया यह यथार्थ अच्छा लगता है कि (मेरे बबल वाले और मेरी नज़र में) विवेकशील बढ़ रहे हैं, उन्मादी इधर नहीं हैं।
पर उसमें भी यह होता है कि ‘यूं ही’ मोबाइल देखता हूँ, और घंटों उसमें अलसा कर वक्त बर्बाद कर देता हूँ। फिर ग्लानि होती है कि दिन और जीवन व्यर्थ कर रहा हूँ, जबकि कितने अच्छे काम, अच्छे लेखन के ठोस विचार कपूर की तरह लुप्त हो जाते हैं। कभी-कभी तो बस समय देखने के लिए ( क्योंकि मोबाइल ही अब घड़ी है) मोबाइल पर नज़र डालता हूँ और आधा घंटा उसके मायाजाल में फंस कर समय देखना भूल जाता हूँ, जिसके लिए मोबाइल खोला था। फिर अपने आप को कोसता हूँ।
इससे खतरनाक बेचैनी तब होती है जब कोई ‘लेख’ या विचार फेसबुक अथवा व्हाट्सएप के अथाह कुंए में डालता हूँ। दस मिनट बाद ही बेचैन उत्सुकता बढ़ जाती है कि किसने देखा, अंगूठा-दिल दिखाया, पढ़ा, तारीफ की। मेरे कालजयी (!) लेखन-विचारों का, समाज के हित में, कितना प्रसार हो गया! दो-एक दिन यही कैफियत रहती है। यह बेचैनी वैसी ही होती है जैसी खैनी-मित्र को अपनी जेबों में चूना, तंबाकू जैसे किसी पदार्थ के तुरंत नहीं मिलने पर होती थी। सोशल मीडिया ने हमें तुरंत प्रतिक्रिया के प्रति बेचैन और प्रतिक्रिया न मिलने पर अवसाद-ग्रस्त बना दिया है – अगली स्टेज पर हम चिड़चिड़े, असामाजिक और हिंसक भी हो सकते हैं।
हमारी धीर-गंभीर परम्पराओं में अपने गुणों, अपने लेखन, अपने कार्यों की स्वयं प्रशंसा असभ्यता और हल्कापन माना जाता रहा है। निश्चय ही, हम सभी अपने कामों, गुणों-कौशलों की मान्यता (recognition) चाहते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन शालीनता यही मानी जाती रही है कि आप खुद नहीं, दूसरे आपकी तारीफ करें और आप उसे टालते हुए, विनम्र बने रहें। यही हमारा लखनवी तहजीब है कि हम अपने काम की तारीफ करने वाले को उसकी ‘ज़र्रानवाज़ी’ कहें और खुद के बारे में ‘खाकसार किस काबिल है’ कहें।
लेकिन सोशल मीडिया की नई तहजीब है कि अपने चुट्कुले को भी खुद ही नोबेल पुरस्कार का हकदार बताया जाए - उसे जोरदार आत्मविश्वास, आत्मप्रशंसा के अंदाज और रील-फोटो-कौशल के साथ बार-बार गाया-बजाया जाए। ‘संकोच’, ‘शालीनता’ शब्द तो डिक्शनरी में होने ही नहीं चाहिए। बल्कि अपने दूर-दूर तक के जानने वालों की भी जबरन गर्दनिया पकड़ कर, यानी टैग करके अपनी सोशल मीडिया की ‘क्षण-जीवी’ रचनाओं को दिखाएँ-पढ़ाएँ।
और अगर वे सब हमें नियमित रूप से प्रेमचंद मान के प्रतिक्रिया नहीं देते रहते, तो खैनी, तंबाकू या चूने की पन्नी-शीशी नहीं मिल पाने जैसी बेचैनी और अवसाद से घिर जाएँ। ऐसे में अक्सर मित्रताएँ भी टूट जाती हैं।
अब आपसे क्या छिपाएँ, फोटू, रील, टैग आदि कौशलों से वंचित हम भी फेसबुक पर कुछ डालने के बाद, थोड़ी-थोड़ी देर में बीसों बार बेचैनी से मोबाइल देखते रहते हैं और अपनी सोशल मीडियाई ‘महान रचनाओं’ के अनाम रहकर अतल जल-समाधि में डूब जाने के अपमान और फ्रस्टेशन से गुजरते हैं। पर अपने लिए तो यह लानत होगी कि शर्म-हया छोड़ कर, अललटप्पू अंदाज़ में, कभी रोते, कभी हँसते हुए कहें, ‘तो दोस्तो, मुझे भर-भर के वोट करें, (फेक) रियल्टी शो में मुझे जिताएँ, मशहूर बनाएँ।‘
इसीलिए अभी तक तो इंस्टाग्राम से अलग हूँ। हल्की बातों और हल्के चित्रों से खुद को वजनी बनाना अभी जमता नहीं है। जो आँखें (एक सेंपल के तौर पर कह रहा हूँ) ‘तीसरी कसम’ जैसी फिल्मों के दृश्यों में रमी हों, उन्हें जबरन ‘लाफ़्टर ट्रैक’ की ‘खी-खी’ वाले छिछोरे दृश्य, हल्की कमेंट्री भला क्यों भाएंगे! “जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खाए!” लेकिन यह सब जानते-समझते हुए भी सोशल मीडिया ने हमें अमृत की समझ और गुण-ग्राहकता से वंचित कर दिया है, हम पूरी छिछोरपंथी से करील फलों के स्वाद में रमे रहते हैं – अंगुलियां फोन पर फिसलते-फिसलते पता ही नहीं चलता कि इस तुच्छता में कितना वक्त बर्बाद कर दिया। यह हमें छोटा बनाने वाला माध्यम है। यह ‘कंपल्सिव फिंगर मूवमेंट सिंड्रोम’ यानी सरल शब्दों में ‘खैनी की टुच्ची बेचैन लत’ है।
अगली बार – ‘इंफ्लुएंसर’ और ‘फॉलोअर’।

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।